Saturday 16 January 2021

आर्थिक बदलाव की दस्तक है, किसान आन्दोलन

 किसान आन्दोलन की पतंग को मीडिया 50% सफलता बताकर चाहे जितनी तान ले, यह बात दोनों पक्ष अच्छी तरह जानते हैं कि वास्तविकता के धरातल को दोनों ने छुआ भी नहीं है। बस उस गली से नजरें चुराकर निकलने में लगे हैं। अतः किसान आन्दोलन के हल होने का मार्ग दूर दूर तक नहीं है।


अपने देश में समस्या कोई भी हो, उसे सामाजिक व भावनात्मक दृष्टि से देखने और उसका समाधान ढूंढने की आदत है, जबकि वैज्ञानिक, गणनात्मक और आर्थिक पक्षों के लिए भावनात्मक एवं सामाजिक पक्ष अर्थहीन हुआ करते हैं। किसान समस्या के संदर्भ में भी यही चल रहा है। समस्या के लगभग सभी विश्लेषण इसी दृष्टिकोण पर आधारित हैं। किसान को अन्नदाता और न जाने किन किन विश्लेषणों से विभूषित कर समस्या के मूल पक्ष को पूरी तरह अनदेखा किया जा रहा है।


विडम्बना यह है कि या तों दोनों ही पक्ष समस्या के मूल से अपरिचित हैं, या फिर उससे हमेशा की तरह आंख चुराकर निकलना चाहते हैं। समस्या का मूल अर्थशास्त्र के कुछ बुनियादी सवालों पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है और यह अर्थशास्त्र के प्रचलित वैश्विक सिद्धांतों को चुनौती देने वाला हैं। विश्व में प्रचलित मूल्य नीति एवं मूल्य सूत्र की परिपाटियों पर प्रश्न चिन्ह लगा रहा है। जिसकी तरफ कोई देखना नहीं चाहता या उससे जानबूझकर आंख चुरा रहा है।


समस्या के मूल में अर्थशास्त्र में औद्योगिक एवं कृषि उत्पादों के लागत मूल्य की गणनाकी शुरुआत हो गई में अपनाई जाने वाली भिन्न भिन्न पद्धतियां हैं। उत्पादन के लागत मूल्य की गणना करने में कृषि और औद्योगिक उत्पादों के बीच का यह भेद किसी भी तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। संभवतः इसी कारण इस पक्ष को अंधेरे में रखने का वर्ग विशेष के लिए लाभकारी स्वार्थी प्रयास चल रहा है। न जाने क्यों, स्वामीनाथन आयोग समस्या के इस  पक्ष की चर्चा कर गया, जिसके कारण आर्थिक जगत में भूचाल लाने वाली मांग की शुरूआत हो गई, किसान संगठन अब वही मांग कर रहे हैं।


किसानों की फसलों के MSP मूल्य पर बिक्री की गारंटी देने वाला कानून, विश्व के आर्थिक क्षेत्र में अफरातफरी मचाने के साथ ही प्रचलित अर्थशास्त्र की चूलें हिलाने वाला होगा। बाजार व्यवस्था में "मांग और पूर्ति" एवं अर्थशास्त्र के अनेकों प्रचलित सिद्धांतों की आड़ लेकर शोषणकारी व्यवस्था को संरक्षण देने वालों के लिए विनाशकारी होगा। अनियंत्रित मूल्यों एवं लाभ कमाने पर लगाम कसकर, बाजार में सभी उत्पादों के बिक्री मूल्यों को निर्धारित करने के लिए मूल्य सूत्र प्रतिपादित करने की दिशा में बढ़ा हुआ कदम होगा।


यह निश्चित जानिए कि किसान आन्दोलन के नाम पर वर्तमान अर्थशास्त्र के थैले से MSP नाम की जो छुपी हुई बिल्ली निकली है, वह वस्तुओं के उत्पादन मूल्य एवं बिक्री मूल्य के बीच चलने वाली जबरदस्त तफावत और शोषणकारी अर्थनीतियों के विरुद्ध घोषित युद्ध का शंखनाद है, जिसमें फिलहाल कहा जा सकता है कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ किसान सम्मिलित हैं लेकिन इस चिंगारी को अब भड़कने से रोक पाना कठिन होगा। 


इसका हल किसानों की कुछ मांगों को मान लेने या न मानने से मिलने वाला नहीं है। इसका एकमेव हल कृषि एवं औद्योगिक उत्पादों के उत्पादन मूल्य की गणना में सामंजस्य लाकर, दोनों ही उत्पादों के बिक्री मूल्य का निर्धारण करने के लिए मूल्य सूत्र की स्थापना की दिशा में आगे बढ़ कर ही मिलेगा। 

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