Sunday 24 January 2021

बोया पेड़ बबूल का .... किसान आन्दोलन?

 किसानों को हर बार की तरह इस बार भी राजनीतिक दलों ने अपने स्वार्थ के लिए चने के झाड़ (पेड़) पर चढ़ा दिया। किसान अपने पैरों के नीचे की जमीन का जायजा लिए बिना चने के झाड़ पर चढ़ भी गये, नतीजतन न आगे रास्ता है और न पीछे गली। किसान खेत में बीज की बुआई किये बिना लहलहाती फसल की आस लगाए बैठे हैं। यह फसल कैसे आयेगी, इसकी उन्हें कल्पना भी नहीं है। राजनीतिक दलों की बात छोड़िए, उन्होंने किसानों को‌ दशकों से लॉलीपॉप थमाने के अलावा किया भी क्या है। इस बार भी राजनीतिक दल किसानों को बरगला कर उस अंधी खाई में धकेलने में कामयाब हो गए, जिसका कोई ओर-छोर ही नहीं है।



किसानों का जमाने से शोषण होता आ रहा है, यह निर्विवादित सत्य है। उन्हें उनकी फसल का लाभकारी मूल्य मिले, यह भी प्रत्येक दृष्टि से उचित और न्यायोचित है। लेकिन दुर्भाग्य से राजनीतिक दलों ने किसानों को बरगला कर, जिन मांगों के साथ आंदोलन छेड़ने के लिए आगे कर दिया, वह किसानों के शोषण के खिलाफ लड़ने का सही मैदान ही नहीं है, फिर सही नतीजे की उम्मीद कैसे की जा सकती है। आज देश के लगभग सभी मंचों पर किसान आंदोलन से संबंधित अनर्गल बहस छिड़ी हुई है, जो बेमानी है।


इस किसान आन्दोलन का नतीजा भी सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक दलों की स्वार्थ सिद्धि तक मर्यादित रहने वाला है। किसान यह गलतफहमी अवश्य पाले हुए हैं कि उनके शक्ति प्रदर्शन से सार्थक नतीजे निकलेंगे, लेकिन यह भ्रमजाल में के अलावा कुछ भी नहीं है। क्योंकि किसानों की दोनों मांगें - कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020', कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत अश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक, 2020' तथा आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक, 2020' को निरस्त करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि उत्पादों की खरीद अनिवार्य करने संबंधी कानून बनाने की मांगें, आर्थिक, बाजार व्यवस्था, विपणन और प्रशासनिक दृष्टि से न तो तर्क संगत है और न ही व्यवहारिक। देश की वर्तमान स्थिति में इसे लागू करना लगभग असम्भव है, यह देश की अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने वाले आत्मघाती कदम होगा। जिसे कोई भी देश या सरकार किसी भी तरह स्वीकार नहीं करेगी।


किसानों की मांगों का सार है कि उन्हें फसलों का लाभकारी मूल्य मिले। मांग पूरी तरह न्यायोचित है, फिर भी वर्तमान व्यवस्था में इस मांग को पूरा करना, किसी भी सरकार के लिए एक लम्बी प्रक्रिया से गुजरे बिना संभव ही नहीं है। आजादी के बाद से लगातार की गई कृषि क्षेत्र की उपेक्षा के कारण, इस क्षेत्र का पिछड़ापन इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है। हालांकि बीच बीच में कुछ सरकारों ने कृषि उत्पादन को बढ़ाने के प्रयास किये, इसमें वह सफल भी रहे, परंतु कभी भी सरकारों ने कृषि को देश की आवश्यकता के अनुरूप ढालने, उसे उचित विपणन व्यवस्था और लाभकारी मूल्य देने वाला व्यवसाय बनाने के लिए, न तो कभी कदम उठाए और न ही पर्याप्त व्यवस्था करने का प्रयास किया। जिसके कारण कृषि क्षेत्र बहुत पिछड़ गया। 


अतः कृषि उपज पर लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए सबसे पहले कृषि क्षेत्र में व्यापक सुधार कर, उसे व्यवसायिक स्वरूप में ढालने की आवश्यकता है। देश में कृषि उपजों को उनकी खपत के अनुरूप आकार देने की जरूरत है। देश में खपत के अनुरूप कृषि उत्पादन, उसके विपणन की पर्याप्त और समुचित व्यवस्था , बाजार में मांग और पूर्ति का संतुलन ही स्थायी रूप से कृ‌षि उत्पादनों को लाभकारी मूल्य दिलाने की दिशा में ले जाने वाला मार्ग है। जिसके लिए किसानों की बुनियादी मांग कृषि आयोग जैसी संस्था की स्थापना होनी चाहिए, कृषि क्षेत्र को बाजारोन्मुखी बनाने वाली उसकी कार्यविधि तथा नियमन तय करवाने में किसान संगठनों की सक्रिय भूमिका होनी चाहिए। ताकि देश में कृषि उत्पादों के लिए पर्याप्त बाजार उपलब्ध हों और बाजारों की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा कृषि उपजों को लाभकारी मूल्य दिलाने में सहायक हो सके।


अर्थशास्त्र की दृष्टि से मांग और पूर्ति के आधार पर बाजार द्वारा किसी वस्तु का मूल्य निर्धारित किए जाने की प्रक्रिया के स्थान पर उस वस्तु को न्यूनतम मूल्य पर खरीद के लिए क्रेता को बाध्य किया जाने वाला कदम, आत्मघाती एवं अर्थव्यवस्था को नष्ट करने वाला होता है। इसके बाद भी देश की राजनीति इस विषय को जोर शोर से चर्चा में लाने में सफल रही है। यदि अर्थक्षेत्र में इस तरह के घटनाक्रम के लिए कोई स्थान होता तो याद कीजिए, मनमोहन सिंह सरकार के समय देश में चीन के सामान के बढ़ते आयात के कारण, देश के अनेकों उद्योगों पर गंभीर संकट छा गया था। इन उद्योगों के लागत मूल्य की तुलना में चीन का सामान सस्ता होने के कारण, इनके उत्पादों की मांग समाप्त हो गई थी। यह उद्योग बंद हो रहे थे। उस समय यदि यह उद्योग भी मांग करते कि सरकार कानून बना कर, उनके द्वारा बनाई वस्तुओं को न्यूनतम मूल्य पर खरीदना अनिवार्य रूप से बाध्यकारी करें? ताकि उन उद्योगों को बंद होने से बचाया जा सके, तो क्या होता?


वास्तव में अर्थव्यवस्था में इस तरह हस्तक्षेप करना सरकार का कार्य नहीं है। सरकार अर्थव्यवस्था के कमजोर घटकों को मजबूती देने के लिए नियमन और आर्थिक सहायता तो दे सकती है, परंतु आर्थिक लेन-देन में कानून बनाकर सीधे सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकती। सरकार की जिम्मेदारी इस प्रकार की व्यवस्था बनाना है जिससे किसानों और उद्योगों को बाजार में उनके उत्पादन का लाभकारी मूल्य प्राप्त करने में सहायता मिले। इस कार्य को सरकार विभिन्न प्रतिबंधों, आर्थिक अनुदानों, नियमनों तथा व्यवस्थाओं को बनाकर करती है। सरकार के इन कदमों को उसके द्वारा उस क्षेत्र में किये जाने वाले सुधार कहा जाता है। किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए सरकार के पास कृषि क्षेत्र में सुधारों के अतिरिक्त कोई दूसरा रास्ता नहीं है। सरकार तीनों कृषि कानून भी कृषि क्षेत्र में सुधारों की प्रक्रिया के अंतर्गत लाई है। किसानों को इन कानूनों को अपने लिए अधिक उपयोगी बनाने दृष्टि से चर्चा करनी चाहिए थी। कृषि क्षेत्र में व्यापक सुधारों को जल्द से जल्द लागू करवाने की मांग करनी चाहिए थी। लेकिन राजनीतिक दलों ने उन्हें रास्ते से भटकाकर हवा-हवाई में उलझाकर उस खाई में धकेल दिया है, जिसका उनकी फसलों के लाभकारी मूल्य मिलने से कोई लेना-देना ही नहीं है।

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