Wednesday, 27 August 2014

वर्तमान में पंडित दीनदयाल जी की एकात्म अर्थनीति कितनी सार्थक


पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय के बारे में चर्चा या लेखन करते समय यदि हम इस बात को भी ध्यान में रखें कि पंडित जी का स्वर्गवास फ़रवरी 1968 में लगभग 46 वर्ष पूर्व हो गया था।अल्पायु में पंडित जी के निधन के कारण उनके विचारों की वृहद्ता जनमानस तक नहीं पहुँच सकी। दीनदयाल जी का मौलिक लेखन बहुत कम है, जो कुछ भी दीनदयाल जी के नाम पर लिखा गया वह उनके भाषणों में उपस्थित महानुभावों द्वारा ग्रहण किये गए विचारों का संकलन तथा विस्तार है। यह साहित्य भी अधिक मात्रा में उपलब्ध नहीं है, इसका एक महत्वपूर्ण कारण आज़ादी के बाद से ही कांग्रेसी सरकारों का पश्चिमी देशों के प्रति भक्तिभाव निश्चित रूप से रहा है। क्योंकि देश में जब किसी महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करने की पद्धति ही न हो, तो अनेकों मौलिक विचारों को पनपने का अवसर नहीं मिल पाता है। अतः दीनदयाल जी के विचार सतह पर प्रमुखता से नहीं आ पाये। परन्तु आज जो कुछ भी उपलब्ध है, जब उसकी टिमटिमाती रोशनी में हम देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति पर नज़र डालते हैं, तो उस काल में दीनदयाल जी द्वारा विश्लेषित आशंकाएं हमारे सामने सजीव स्वरूप में आकर खड़ी हो जाती हैं। हमारा दुर्भाग्य तो यह है कि हम 'अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत ' भी नहीं कह सकते क्योंकि हमने चिड़ियाओं को खुद खेत चुगने का निमन्त्रण दिया था। दीनदयाल जी की बातों को दरकिनार कर दिया था। 

 दीनदयाल जी के समय देश की आर्थिक व् राजनैतिक परिस्थिति भिन्न थी। देश आज़ाद हुआ ही था, पंचवर्षीय योजनाओं का सूत्रपात प्रारम्भ ही हुआ था। नेतृत्व पश्चिम में पले बढे, पश्चिम से नीचे से ऊपर तक प्रभावित नेहरू के हाथों में था।  दीनदयाल जी तथा नेहरू एवं अन्य योजनाकारों के विचारों  में भिन्नता थी।   दीनदयाल जी  देश की जनसंख्या ,उपलब्ध संसाधन ,देश के व्यक्ति व समाज की आवश्यकताएं, उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन तथा राष्ट्रीय परिवेश के आधार पर , उसे समझकर , उसमे से लोकहितकारी मार्ग निकालने के पक्ष में थे, एकात्म मानववाद इन्ही विचारों का प्रतिबिम्ब है। परन्तु हम पश्चिमी देशों का अन्धानुकरण करने की दिशा में आगे बढ़ गए, लिहाजा इसमें जो भी बुराइयाँ थी उन्हें हम आज पश्चिमी देशों के साथ भुगत रहे हैं।

 दीनदयाल जी के सिद्धांतों की वर्तमान में उपयोगिता के सम्बन्ध में आज के आलोचक आसानी से कह सकते हैं कि आज परिस्थितियां भिन्न हैं, बात सच भी है, उस समय हम देश गढ़ने की प्रक्रिया में थे , आज 67 वर्षों के अन्तराल के बाद हम विभिन्न प्रयोग कर उनके परिणाम चख चुके हैं। परन्तु आज भी घूम फिर कर हम उसी दोराहे पर आ खड़े हुए हैं, जिस पर  दीनदयाल जी के काल खंड में थे।  हमें किसी एक मार्ग को चुनना है। विचित्र बात तो यह है कि आज भी हम उसी मार्ग को अपनाने के लिए लालायित हैं जिसका  दीनदयाल जी ने निषेध किया था।  हम यह समझाना ही नहीं चाहते कि वर्तमान में पूंजीवाद , साम्यवाद तथा समाजवाद तीनों अपनी सार्थकता खो चुके हैं।  विश्व ने इन तीनों के तम्बू उखड़ते हुए देखे हैं। उन देशों में भी ये वाद अपनी जड़ें टिकाने में सफल नहीं हुए जहाँ इन्होने अपने स्वर्णिम अध्याय लिखे थे। हम आज भी 67 वर्षों के अनुभवों से सीखकर  दीनदयाल जी के रास्ते पर चलने की हिम्मत जुटाने में अपने को असमर्थ पा रहे हैं। 

शायद यह लार्ड मेकाले द्वारा दी गई हमारी शिक्षा पद्धति का परिणाम है, हमने लगातार पश्चिमी विद्वानों का ही अनुवादित साहित्य पढ़ा है, हमें वही रास्ता मालूम है , हमारा विचार करने का तरीका भी वही है, हम अपना मौलिक तरीका खोकर एडम स्मिथ,रिकार्डो ,मिल ,मार्क्स ,हॉब्सन ,वेब्लेन ,केन्स ,बर्नहम ,शुम्पीटर ,प्रो मिड्ल ,प्रो जैकब विनर तथा प्रो जॉन मेलोर की आर्थिक संकल्पनाओं को यथार्थ के धरातल पर टूटते बिखरते देखकर भी (विकसित देशों की जमीन पर ) यह सोचने की स्थिति में नहीं हैं कि इससे हटकर भी एक मार्ग हमारे पास है। यह विडंबना ही है कि हम न तो उस मार्ग को अपनाने के इच्छुक दिखाई दे रहे हैं, न ही उस मार्ग पर कदम बढ़ाने की हिम्मत दिखा पा रहे हैं।  दीनदयाल जी के आर्थिक सिद्धान्त आज भी उतने ही नवीन तथा व्यवहारिक हैं जितने उस काल खंड में थे। मानव जीवन के शाश्वत सिद्धान्त शायद कभी भी कहीं भी सटीक ही होते हैं।

मेरे लेखन के सम्बन्ध में यह सन्देह हो सकता है कि मै ग्राहक आंदोलन का कार्यकर्ता अपना मूल कार्य छोड़कर कहां  दीनदयाल जी के एकात्म मानववाद का आर्थिक सिद्धान्त ले बैठा। मुझे अर्थ संरचना से क्या मतलब। स्पष्ट कर दूँ ! अनेक वर्षों से यह छटपटाहट थी कि ग्राहक आंदोलन का स्वरूप क्या प्रतिक्रियात्मक ही रहेगा। पूरे विश्व ने ग्राहक आंदोलन के प्रतिक्रियात्मक स्वरूप को ही अपनाया है। पहले समस्या पैदा करो फिर उसका हल खोजो। मै सोचता था कि हम कभी इस क्रिया प्रतिक्रिया के द्वन्द से बाहर निकलकर कुछ मौलिक कुछ अलग कर सकते हैं क्या , जिससे ग्राहकों को कष्ट देने वाली क्रिया को ही रोका जा सके। ग्राहकों को कुछ भी प्रतिक्रिया करने की आवश्यकता ही न पड़े। दीनदयाल जी के एकात्म मानववाद के आर्थिक सिद्धान्त अंधकार के सागर में दीपस्तम्भ की रोशनी बनकर सामने आये हैं ,जिन्हे मै अगले लेखों में शनः शनः स्पष्टता से रखने का प्रयास करता रहूँगा।

Friday, 8 August 2014

किसी भी वस्तु पर बिका हुआ मॉल वापस नहीं होगा लिखना गैर क़ानूनी

महाराष्ट्र राज्य ग्राहक विवाद निवारण आयोग द्वारा एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया गया है , जिसके अनुसार किसी भी दुकानदार द्वारा बिका  हुआ माल वापस नहीं होगा  लिखना गैरकानूनी  है। किसी भी दुकान से कोई भी ख़रीदा हुआ मॉल पसंद न आने पर वापस किया जा सकता है , और यदि उस मॉल के बदले में ग्राहक कोई दूसरा मॉल बदल कर लेता है, और ग्राहक को वह मॉल भी पसंद नहीं आता है तो दुकानदार को ग्राहक को पूरे पैसे वापस देने बंधनकारी हैं। 

लोनके नामक ग्राहक ने एक दुकान से १४ अगस्त २०१३ को  2  हज़ार 198 रूपये में 2 पैंट व 1190 रूपये की 2 कमीजें खरीदीं। इस खरीद पर दुकानदार ने ग्राहक को 2 % छूट भी दी, परन्तु ग्राहक को कपड़ा पसंद नहीं आया, अतः दुकानदार ने दूसरे दिन ग्राहक को कपड़े बदल दिये , परन्तु ग्राहक को यह बदले हुए कपड़े भी पसंद नहीं आये , इसलिए उसने दुकानदार से अपने पैसे वापस मांगे। दुकानदार ने एक बार बिका हुआ मॉल वापस नहीं होगा कहकर ग्राहक को पैसे देने से मना कर दिया। बात न बनने पर ग्राहक ने जिला फोरम में विवाद दाखिल किया , परन्तु जिला मंच ने ग्राहक की शिकायत को निरस्त कर दिया।  ग्राहक ने राज्य आयोग में अपील की , केंद्रीय ग्राहक व्यवहार मन्त्रालय द्वारा  22 दिसम्बर 1999  को जारी एक निर्देश के अनुसार किसी भी बिल पर यह लिखना या छापना कि  एक बार बिकी हुई वस्तु वापस नहीं होगी गलत है।  इसी नियम का सहारा लेकर ग्राहक ने दुकानदार को चुके गई मूल रकम के साथ 1000 रूपये दण्ड की भी मांग की, जिसे स्वीकार कर आयोग ने ग्राहक के पक्ष में निर्णय दिया.