
दीनदयाल जी के समय देश की आर्थिक व् राजनैतिक परिस्थिति भिन्न थी। देश आज़ाद हुआ ही था, पंचवर्षीय योजनाओं का सूत्रपात प्रारम्भ ही हुआ था। नेतृत्व पश्चिम में पले बढे, पश्चिम से नीचे से ऊपर तक प्रभावित नेहरू के हाथों में था। दीनदयाल जी तथा नेहरू एवं अन्य योजनाकारों के विचारों में भिन्नता थी। दीनदयाल जी देश की जनसंख्या ,उपलब्ध संसाधन ,देश के व्यक्ति व समाज की आवश्यकताएं, उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन तथा राष्ट्रीय परिवेश के आधार पर , उसे समझकर , उसमे से लोकहितकारी मार्ग निकालने के पक्ष में थे, एकात्म मानववाद इन्ही विचारों का प्रतिबिम्ब है। परन्तु हम पश्चिमी देशों का अन्धानुकरण करने की दिशा में आगे बढ़ गए, लिहाजा इसमें जो भी बुराइयाँ थी उन्हें हम आज पश्चिमी देशों के साथ भुगत रहे हैं।
दीनदयाल जी के सिद्धांतों की वर्तमान में उपयोगिता के सम्बन्ध में आज के आलोचक आसानी से कह सकते हैं कि आज परिस्थितियां भिन्न हैं, बात सच भी है, उस समय हम देश गढ़ने की प्रक्रिया में थे , आज 67 वर्षों के अन्तराल के बाद हम विभिन्न प्रयोग कर उनके परिणाम चख चुके हैं। परन्तु आज भी घूम फिर कर हम उसी दोराहे पर आ खड़े हुए हैं, जिस पर दीनदयाल जी के काल खंड में थे। हमें किसी एक मार्ग को चुनना है। विचित्र बात तो यह है कि आज भी हम उसी मार्ग को अपनाने के लिए लालायित हैं जिसका दीनदयाल जी ने निषेध किया था। हम यह समझाना ही नहीं चाहते कि वर्तमान में पूंजीवाद , साम्यवाद तथा समाजवाद तीनों अपनी सार्थकता खो चुके हैं। विश्व ने इन तीनों के तम्बू उखड़ते हुए देखे हैं। उन देशों में भी ये वाद अपनी जड़ें टिकाने में सफल नहीं हुए जहाँ इन्होने अपने स्वर्णिम अध्याय लिखे थे। हम आज भी 67 वर्षों के अनुभवों से सीखकर दीनदयाल जी के रास्ते पर चलने की हिम्मत जुटाने में अपने को असमर्थ पा रहे हैं।
शायद यह लार्ड मेकाले द्वारा दी गई हमारी शिक्षा पद्धति का परिणाम है, हमने लगातार पश्चिमी विद्वानों का ही अनुवादित साहित्य पढ़ा है, हमें वही रास्ता मालूम है , हमारा विचार करने का तरीका भी वही है, हम अपना मौलिक तरीका खोकर एडम स्मिथ,रिकार्डो ,मिल ,मार्क्स ,हॉब्सन ,वेब्लेन ,केन्स ,बर्नहम ,शुम्पीटर ,प्रो मिड्ल ,प्रो जैकब विनर तथा प्रो जॉन मेलोर की आर्थिक संकल्पनाओं को यथार्थ के धरातल पर टूटते बिखरते देखकर भी (विकसित देशों की जमीन पर ) यह सोचने की स्थिति में नहीं हैं कि इससे हटकर भी एक मार्ग हमारे पास है। यह विडंबना ही है कि हम न तो उस मार्ग को अपनाने के इच्छुक दिखाई दे रहे हैं, न ही उस मार्ग पर कदम बढ़ाने की हिम्मत दिखा पा रहे हैं। दीनदयाल जी के आर्थिक सिद्धान्त आज भी उतने ही नवीन तथा व्यवहारिक हैं जितने उस काल खंड में थे। मानव जीवन के शाश्वत सिद्धान्त शायद कभी भी कहीं भी सटीक ही होते हैं।
मेरे लेखन के सम्बन्ध में यह सन्देह हो सकता है कि मै ग्राहक आंदोलन का कार्यकर्ता अपना मूल कार्य छोड़कर कहां दीनदयाल जी के एकात्म मानववाद का आर्थिक सिद्धान्त ले बैठा। मुझे अर्थ संरचना से क्या मतलब। स्पष्ट कर दूँ ! अनेक वर्षों से यह छटपटाहट थी कि ग्राहक आंदोलन का स्वरूप क्या प्रतिक्रियात्मक ही रहेगा। पूरे विश्व ने ग्राहक आंदोलन के प्रतिक्रियात्मक स्वरूप को ही अपनाया है। पहले समस्या पैदा करो फिर उसका हल खोजो। मै सोचता था कि हम कभी इस क्रिया प्रतिक्रिया के द्वन्द से बाहर निकलकर कुछ मौलिक कुछ अलग कर सकते हैं क्या , जिससे ग्राहकों को कष्ट देने वाली क्रिया को ही रोका जा सके। ग्राहकों को कुछ भी प्रतिक्रिया करने की आवश्यकता ही न पड़े। दीनदयाल जी के एकात्म मानववाद के आर्थिक सिद्धान्त अंधकार के सागर में दीपस्तम्भ की रोशनी बनकर सामने आये हैं ,जिन्हे मै अगले लेखों में शनः शनः स्पष्टता से रखने का प्रयास करता रहूँगा।