Friday 16 December 2022

मुफ्तखोरी का खेल, कोई पास - कोई फेल



देश में लोगों को मुफ्त में वस्तुएं और सुविधाएं उपलब्ध कराने का जो खेल राजनीतिक दल खेल रहे हैं , यदि उसे सरल भाषा में समझा जाए तो टैक्स की गुल्लक में हमसे रोजाना अप्रत्यक्ष कर के माध्यम से जो पैसे डलवाए जाते हैं, उन्हीं पैसों से राजनीतिक दल वस्तुएं और सुविधाएं हमें उपलब्ध कराकर, मुफ्तखोरी का भोंपू बजाते हैं। कब तक राजनैतिक दल हमें मूर्ख बना कर ठगते रहेंगे और हम मूर्ख बनकर ठगे जाते रहेंगे, इस बात पर हमें गंभीरता से विचार करना है।


                                          "थोड़ा है थोड़े की जरूरत है ......"

प्रसिद्ध गीतकार गुलजार के द्वारा फिल्म खट्टा मीठा के लिए लिखे गए इस गीत में जीवन की वास्तविक स्थितियों का दर्शन छिपा है। लगभग सभी की इच्छा होती है कि जो कुछ भी उसके पास है, काश उससे थोड़ा सा अधिक उसे मिल जाए, मानव स्वभाव की इसी कमजोर नस को कुछ राजनीतिक दल अपना उल्लू साधने के लिए दबाते हैं। वास्तविकता है की राजनीतिक दल इस काम में सफल भी हुए हैं। थोड़े से अधिक की अपेक्षा करने वाले लोग उनके इस जाल में फंसे हैं। यह दीगर बात है कि मुफ्त में थोड़ा और पाने की इच्छा उन लोगों को अनेकों स्थानों पर दर्द भरे दंश देकर गई है।


कोई वस्तु या सुविधा आपको मुफ्त में मिल जाएगी यह मन का भ्रम ही हो सकता है, सत्य नहीं। प्रत्येक वस्तु या सुविधा का कुछ ना कुछ मूल्य होता है, जिसे हमें चुकाना ही पड़ता है। यह दीगर बात है की उस वस्तु का मूल्य हम धन के रूप में न चुका कर, किसी अन्य रूप में चुकाते हैं और सही स्थिति का आकलन करने में हम सक्षम न हों। मुफ्त मिलने वाली वस्तु या सुविधा का मूल्य किसी भी स्वरूप में हो सकता है। श्रम के रूप में, प्राकृतिक संसाधनों के रूप में या फिर ऊर्जा के किसी रूप में। जिसे हमें मुफ्त में मिलने वाली उस वस्तु या सुविधा के लिए चुकाना ही पड़ता है।


पिछले कुछ वर्षों से देश में एक रवायत चल पड़ी है। कुछ राजनीतिक दल चुनावों के वक्त वोटरों को (जो ग्राहक ही होते हैं) लुभाने के लिए तरह-तरह की वस्तुएं या सुविधाएं मुफ्त में उपलब्ध कराने का लालच देते हैं। आर्थिक विषयों का समुचित ज्ञान या समझ ना होने के कारण, ग्राहक उनके झांसे में फंसकर देश समाज और परिवार का बड़ा अहित कर बैठते हैं।


आज यह आवश्यक हो गया है की ग्राहक आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ता मुफ्त के इस खेल को समझें तथा इसे समाज को समझाएं कि मुफ्त के आवरण में लिपटी जिन वस्तुओं और सुविधाओं को देने का वादा राजनीतिक दल कर रहे हैं। उससे देश की अर्थव्यवस्था खोखली होती है। इससे देश समाज परिवार और व्यक्ति को ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी आर्थिक विपन्नता की गर्त में धकेला जाता है। देश और समाज को मुफ्त की इस लत से बचने की आवश्यकता है। राजनीतिक दल लोगों को मुफ्त में जो भी वस्तुएं या सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं। वह उन्हीं लोगों के द्वारा अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में खरीदी गई वस्तुओं पर चुकाए गए टैक्स से ही खरीदी जाती है। अतः यह समझने की आवश्यकता है कि मुफ्त के नाम पर लोगों को जो कुछ भी उपलब्ध कराया जा रहा है। उसका मूल्य उन्हीं से विभिन्न अप्रत्यक्ष करों के माध्यम से वसूला जाता हैं।


सरकार के पास आने वाले राजस्व का बड़ा भाग ग्राहकों के द्वारा चुकाये गये अप्रत्यक्ष टैक्स जीएसटी से आता है। यह जीएसटी सुबह से शाम तक ग्राहक माचिस से लेकर बड़ी-बड़ी वस्तुओं को खरीदने में सरकार को चुकाता है। ग्राहकों के इसी पैसे का दुरुपयोग कर राजनीतिक दल चतुराई से मुफ्तखोरी का खेल खेलते हैं। हम से ही लिए गए पैसे से वस्तुएं या सेवाएं खरीद कर मुफ्त के नाम पर राजनैतिक दल हम पर चिपकाते हैं।


राजस्व का सही उपयोग न किए जाने से देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है। उसका बड़ा नुक़सान होता है। देश का विकास रुकता है। हमारे द्वारा दिए गए टैक्स के पैसे का अधिक से अधिक उपयोग सरकार को देश की जीडीपी बढ़ाने वाली योजनाओं में करना चाहिए। जिनमें उद्योग एवं कृषि क्षेत्र आते हैं। इन क्षेत्रों में खर्च करने से रोजगार का सृजन होता है। देश समृद्ध होता है। देश में प्रति व्यक्ति आय बढ़ती है। इसके अतिरिक्त देश की आधारभूत संरचना के निर्माण में भी इस टैक्स द्वारा प्राप्त इस धन का उपयोग सरकारों को प्राथमिकता के साथ करना चाहिए। इन योजनाओं का उपयोग देश की जीपीडीपी बढ़ाने में सहायक होता है। इसके अतिरिक्त देश की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा को चुस्त-दुरुस्त बनाने, प्रशासनिक एवं न्यायिक व्यवस्था के संचालन के लिए किए जाने वाले खर्च का उपयोग भी सरकारें हम सभी से वसूले गए टैक्स के धन से ही करती हैं। देश में यदा-कदा प्राकृतिक व अन्य आपदाएं भी आती रहती हैं। इस कठिन समय में राहत देने के लिए आवश्यक धन की व्यवस्था भी सरकारें ग्राहकों से वसूली इसी टैक्स की राशि से करती हैं।


यदि राजनीतिक दलों के द्वारा मुफ्तखोरी के लोकलुभावन वादों को पूरा करने में सरकारी धन की लूट होगी तो या तो सरकारों को देश की विकास योजनाओं पर किए जाने वाले खर्च में कमी करनी पड़ेगी या फिर ग्राहकों से वसूले जाने वाले टैक्स को बढ़ाना पड़ेगा। प्रत्येक नागरिक की यह अपेक्षा होती है कि सरकार उन पर पड़ने वाले टैक्स के बोझ को कम करे। ताकि वह कुछ बचत कर अपने लिए कुछ अतिरिक्त संसाधन जुटाने में सक्षम हो सकें। परंतु मुफ्तखोरी की योजनाओं के चलते सरकारी सिर्फ और सिर्फ टैक्स बढ़ाने की ही सोच सकती है। इसके लिए वह नए-नए तरीके और माध्यम तलाश करती हैं।


अर्थव्यवस्था में अनुदान सब्सिडी की व्यवस्था होती है। परंतु इसका उपयोग लोगों को मुफ्त में सामान या सुविधाएं बांटने की लोकलुभावन तात्कालिक सुविधाएं देने के लिए नहीं, बल्कि आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को जीवनावश्यक वस्तुयें उपलब्ध कराने के लिए किया जाना चाहिए। देश की जीडीपी बढ़ाने के लिए, उत्पादन बढ़ाने में सहायक संसाधनों का मूल्य घटाने के लिए किया जाना चाहिए। सरकारों को अपने आवश्यक एवं अनावश्यक खर्चों को पहचानने की तमीज होनी चाहिए। उन्हें निरंतर कम करने का प्रयास करते दिखना चाहिए। सभी राजनीतिक दलों का जोर इन बातों पर होना चाहिए, ना कि मुफ्तखोरी, वस्तुओं और सेवाओं को लोगों में बांटकर सस्ती लोकप्रियता हासिल कर, हमें बेवकूफ बनाने के दुष्प्रचार में जुटना चाहिए।

2 comments:

  1. बहुत तार्किक और यथार्थ लेख!

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  2. प्रदीप कुमार चौरसिया23 December 2022 at 04:20

    बहुत सुंदर लेख है,तार्किक रूप से विषय प्रस्तुत किया गया है।

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