Thursday 6 April 2023

तीनो कृषि कानून, ग्राहक और किसान

 ग्रामीण आर्थिक संरचना से संबंधित कोई नया कानून बनाने या किसी प्रचलित कानून को बदलने से पहले, सरकारों को यह ध्यान रखना चाहिए कि ग्रामीण संरचना के लिए बनाए जाने वाले आर्थिक कानूनों का स्वरूप विशुद्ध रूप से आर्थिक नहीं हो सकता। इन कानूनों को आर्थिक-सामाजिक स्वरूप के रूप में ही लिया जाना चाहिए। इसी आधार पर इनको सही तरीके से विकसित कर लागू किया जा सकता है। इसी स्वरूप में इन कानूनों को लागू करने पर सफलता व आशा के अनुरूप परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। सरकार द्वारा तीनों कृषि कानूनों को लागू करते समय बस यही चूक हो गई। जिसका पूरा लाभ विपक्षी राजनीतिक दलों और उनकी विचारधारा से प्रभावित किसान नेताओं ने किसानों को बरगला कर उठाया। जिसके कारण अंततः सरकार को किसानों के लाभ के लिए बनाए तीनों कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा। यदि पूर्व में ही इन कानूनों की आधारभूत आर्थिक- सामाजिक संरचना को लेकर कुछ कार्य कर लिया जाता। किसानों को आने वाले सामाजिक बदलाव के बारे में कल्पना दे दी जाती या इन कानूनों को लागू करने के लिए एक सामाजिक संरचना बनाने की दिशा में प्रयास शुरू होता नजर आता, तो किसान हित के यह कानून सफलतापूर्वक लागू हो जाते।


यदि तीनों कृषि कानूनों के मूल ढांचे का विचार किया जाए तो यह कानून ग्रामीण संरचना से संबंधित आर्थिक कानून होने के साथ ही सामाजिक स्वरूप में भी बदलाव लाने वाले हैं। क्योंकि यह कानून आर्थिक पक्ष के साथ-साथ किसानों के बीच वर्षों से प्रचलित व्यवस्था में भी परिवर्तन लाने वाले थे। अतः इन कानूनों के सामाजिक पक्ष पर भी कार्य करने की आवश्यकता थी। किसानों के बीच यह समझ विकसित की जानी थी कि अपनी उपज की बिक्री हेतु वह आवश्यक समुचित मात्रा की व्यवस्था किस प्रकार करें। उनकी उपज बेचने के लिए बाजार किस प्रकार विकसित होगा। बाजार विकसित करने में उनकी भूमिका क्या होगी। वह किस तरह उस बाजार तक अपनी पहुंच बनायेंगे। इन सभी व्यवस्थाओं से किसानों का परिचय जिन लोगों को कराना था। वह सब सरकार से राजनीतिक मतभेदों के चलते, किसानों को कानूनों के विरुद्ध बरगलाने में लग गये। सरकार ने भी कानून लाने के पूर्व इस दिशा में ध्यान नहीं दिया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात किसानों को यह समझाना था कि इस प्रक्रिया में किसानों की सहभागिता किस प्रकार की होगी। ताकि आने वाले समय में इस व्यवस्था में शोषणकारी तत्वों की उत्पत्ति ना हो सके।

ध्यान देने वाली बात यह है कि एपीएमसी कानून भी किसानों की भलाई के लिए ही बनाया गया था। इस कानून में भी आदर्श व्यवस्थायें थी। कानून के अनुसार किसान एक निर्धारित स्थान पर अपनी उपज लेकर आना था। उस स्थान पर विभिन्न व्यापारी/दलाल आपस में प्रतिस्पर्धा करते, किसानों को उनकी उपज का अधिकतम मूल्य मिलता। परंतु कालांतर में यह आदर्श व्यवस्था किसानों का शोषण करने वाली व्यवस्था बन गई। व्यापारियों/दलालों ने संगठित होकर, किसानों का शोषण शुरू कर दिया। किसानों के पास अपनी उपज बेचने के लिए कोई अन्य वैकल्पिक बाजार उपलब्ध न होने के कारण, वह इन्हीं बाजारों में आने और व्यापारियों/दलालों के हाथों लूटने के लिए मजबूर हो गए।


केंद्र सरकार अपने तीनों कृषि कानूनों में इन बातों का ध्यान तो रखा। कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम 2020 के अंतर्गत उसने किसानों को एपीएमसी के अतिरिक्त अपनी उपज बेचने के लिए असंख्य वैकल्पिक बाजार तो उपलब्ध करा दिए। यही नहीं, सरकार ने किसानों को उनकी उपज को बेचने में लिए जाने वाले टैक्स से भी राहत दी। परंतु वह किसानों को व्यापारियों की कारटेलिंग और अपनाए जाने वाले हथकंडों से बचाने का कोई ठोस आधार नहीं समझा सके। वह यह बताने में असफल रहे कि सरकार नये कानून में व्यापारी/दलालों को इन नवीन बाजारों पुराने हथकंडे अपनाने से कैसे रोकेगी। जिसके कारण किसान नेता और व्यापारी/दलाल उन्हें बरगलाने में सक्षम हुए। इसके पीछे विपक्षी राजनेताओं द्वारा किसानों को गुमराह कर सरकार को किसान विरोधी दिखाने की योजना भी काम कर रही थी।
प्रसिद्ध विचारक दार्शनिक दत्तोपंत ठेंगड़ी अपनी पुस्तक Consumer - Souvergen without Sourveginity में लिखते हैं -
किसानों को इस बात को याद रखना चाहिए कि ग्राहकों के द्वारा की जाने वाली उचित दामों की मांग और उनकी लाभकारी मूल्यों की मांग के बीच कोई भी असंगति नहीं है। यह दोनों मांगे दोषपूर्ण सरकारी नीतियों और योजनाओं के कारण परस्पर विरोधी लगती हैं।


ग्राहक या उनकी सहकारी संस्थाएं जहां कहीं पर भी किसानों के सीधे संपर्क में हैं। दोनों को ही इसका लाभ मिलता है। क्योंकि इस प्रक्रिया में मध्यस्थ और उनके द्वारा लिया जाने वाला कमीशन बच जाता है। अधिकतर वस्तुएं मध्यस्थों की एक लंबी श्रृंखला से होकर गुजरती हैं। इन दलालों की कीमत, किसान तथा ग्राहक दोनों को चुकानी पड़ती है। जहां कहीं राज्य मध्यस्थ की भूमिका में होता है। वहां भी इन स्थितियों में कोई अंतर नहीं आता।


कृषि फसलों के बारे में छोटे और मझले किसानों को तो बहुत ही विचित्र परिस्थिति का सामना करना पड़ता है। क्योंकि उनके पास फसल भंडारण की कोई सुविधा नहीं होती। दूसरी तरफ पूंजीपति बैंकों से कर्ज लेकर बहुत बड़ी मात्रा में भंडारण की सुविधा बना लेते हैं। नई फसलों के आने के पहले यह लोग समाचार माध्यम से प्रचारित करवाते हैं कि फसल बहुत अच्छी हुई है। यह प्रचार प्रमुख रूप से छोटे और मझोले किसानों पर मानसिक दबाव बनाने के लिए किया जाता है। ताकि किसान अपनी फसल बाजार में सस्ते दामों पर बेच दे। किसान गरीब होते हैं। वह बाजार में स्थितियों के बेहतर होने की प्रतीक्षा नहीं कर सकते। वह अपने उत्पादन को लंबे समय तक सुरक्षित रख पाने में भी असमर्थ होते हैं। यदि उत्पादन खराब होने वाला हो, तब तो स्थिति और भी गंभीर हो जाती है। किसान बिल्कुल असहाय हो जाते हैं। दलाल इस स्थिति का निर्दयता पूर्वक दोहन करते हैं। ग्राहकों को आवश्यक कृषि उत्पादनों की ऊंची कीमत चुकानी पड़ती है। लेकिन किसान न्यायपूर्ण मूल्य प्राप्त करने से वंचित कर दिए जाते हैं।


सरकार को उदाहरण के रूप में किसानों को उनकी फसलों के लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए कृषि कानून के अंतर्गत उपलब्ध कराए जाने वाले अतिरिक्त बाजारों को विकसित करने के कुछ मॉडल खड़े करने की आवश्यकता है। यह कार्य किसान संघ और ग्राहक संगठनों के साथ-साथ आने पर आसानी से संपादित है सकता है। किसानों को अपने गांव के आसपास ही बाजार मिले। ग्राहकों को उनकी फसलें उचित दामों पर उपलब्ध हो सकें। यह सिलसिला शुरू किए जाने की आवश्यकता है। एक बार इस सिलसिले के शुरू होने के बाद यह किसी के भी रोके रुकने वाला नहीं है।


किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए तथा उनकी फसलों के लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए प्रारंभिक तौर पर दो स्तरीय व्यवस्था बनाने की जरूरत है। पहले स्तर पर किसानों को ग्राम स्तर पर उनकी उपज बेचने के लिए संगठित करना। उपज के विक्रय मूल्य का निर्धारण करना। उपज की बिक्री हेतु नजदीक ही समुचित बाजार उपलब्ध कराना। इसके लिए किसान संघ और ग्राहक संगठन आपसी संपर्क बनाकर किसानों की फसल के लाभकारी मूल्य दिला सकते हैं। इन मूल्यों को देने के लिए ग्राहक सहर्ष तैयार हो जाएंगे।
इस व्यवस्था को सरकारी स्तर पर नहीं बल्कि सामाजिक आधार पर विकसित करना चाहिए। इसमें किसान संघ और ग्राहक संगठनों को प्रमुख भूमिका निभानी चाहिए। सरकार इन संगठनों को मूलभूत संरचनात्मक सुविधाएं उपलब्ध कराकर मदद दे सकती है। यदि कृषि उपज के निस्तारण की यह बाजार व्यवस्था विकसित हो गई, तो सदियों से चली आ रही किसानों और ग्राहकों के शोषण की कहानी का अंत हो जाएगा।


इस व्यवस्था का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि किसानों को अपनी आंखों के सामने अपनी उपज के निस्तारण की सुविधा नजर आएगी। जिसके कारण वह राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित किसान नेताओं के बरगलाने से प्रभावित नहीं होगा और के।फिर कानूनों के समर्थन में डटकर खड़ा होगा।

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