
दीनदयाल जी को समय मिलता तो निश्चित रूप से वह अपनी सिध्दान्त रूप मे कही बात की व्याख्या करते। परन्तु अर्थनीति की दिशा और उसके विश्व समुदाय पर पड़ने वाले प्रभाव दीनदयाल जी समझ चुके थे। उन्होने कहा था - "साध्य और साधन का विवेक समाप्त हो रहा है। अर्थोत्पादन जीवन का आवश्यक आधार ही नहीं सम्पूर्ण जीवन बन गया है।" पंडित जी अपनाई जाने वाली पश्चिमी नीतियों और उसके समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर चिन्तित थे। आगे उनका कहना था - "साध्य का पता लगे बिना साधन का निश्चय कैसे हो सकता है। हमारी परम्परा और संस्कृति हमे यह बताती है कि मनुष्य केवल भौतिक आवश्यकताओं और इच्छाओं का पिण्ड नहीं, अपितु वह एक आध्यात्मिक तत्व है।" उस समय की भौतिक नीतियों मे अध्यात्मिक तत्व की अनुपस्थिति का मर्म और कालान्तर मे विश्व पर उसके सामाजिक प्रभावों को दीनदयाल जी जैसा व्यक्तित्व ही समझ सकता था। वह परिणामों से आशंकित थे। आज विश्व प्रगति के किसी भी शिखर को रौंदने मे सक्षम क्यों न हो, सामाजिकता के स्तर पर तो वह धूलधूसरित फर्श पर उखडी सांसें लेता नजर आता है। आज भी 5300 मिलियन जनसंख्या वाले विश्व मे 1000 मिलियन लोग हैं जिन्हे भरपेट भोजन नहीं मिल पाता (Lean,Hinrichsen& Markham 1990). आर्थिक विषमताओं से भरे वर्तमान प्रगतिशील विश्व मे - सर्वे भवन्तु सुखिनः कैसे कह सकेंगे, जब अपनाई जाने वाली अर्थनीति दुनिया की आधी से अधिक सम्पत्ति पर मात्र 2 प्रतिशत लोगों को काबिज करा दे और आधी दुनिया मात्र 1 प्रतिशत सम्पत्ति बांट कर उस पर गुजारा करे।
भारत की रग रग से वाकिफ गांधी जी को दरकिनार कर जब देश ने पश्चिमी अर्थनीति की तरफ कदम बढ़ाये थे, तभी स्पष्ट हो गया था कि देश प्रगति तो करेगा, परन्तु इसका दायरा सीमित होगा, देश का बहुत बड़ा वर्ग इससे वंचित रहेगा। 2012 की जनगणना के आंकड़े इस स्थिति को स्पष्ट कर रहे हैं। दीनदयाल जी जानते थे कि देश का एक प्रभावशाली वर्ग पश्चिमी व्यवस्था की तरफदारी इसलिये कर रहा है क्योंकि यह उसके हितों के अनुरूप है। पंडित जी कहते थे - "भारत मे ऐसे लोग भी बहुत बड़ी संख्या मे हैं जिनके हित पाश्चात्य अर्थव्यवस्था और उत्पादन प्रणाली से जुड़े हैं। जिस अर्थव्यवस्था का भारत मे विकास हुआ उसने भारत और पश्चिम के औद्योगिक देशों की व्यवस्थाओं को एक दूसरे का पूरक बनाया। जिसमे भारत के हितों का संरक्षण नहीं हुआ, बल्कि उसका शोषण होता रहा है"। दीनदयाल जी जानते थे कि विश्व विकास का नाम लेकर, जिस अर्थनीति का पीछा कर रहा है, अन्ततोगत्वा वह विश्व के लिये कल्याणकारी नहीं होगी। वह अर्थनीति के साध्य और साधन दोनो की स्पष्टता को लेकर चिन्तित थे। अर्थनीति मे नैतिक मूल्यों के अभाव व उसके कारण पड़ने वाले प्रभाव से वह चिन्तित थे , उनका कहना था - "जिस पश्चिम का अनुकरण कर हम अपने अर्थनैतिक मूल्यों की प्रतिस्थापना कर रहे हैं, वहां जीवन के इस सर्वग्राही भाव के लिये कोई स्थान नहीं है। फलतः आज हमारे मन, वचन और कर्म मे अर्न्तविरोध उत्पन्न हो गया है"। भारतीय चिन्तन से विमुखता हमें सही मार्ग पर ले जाने की जगह भटकाव की स्थिति मे पँहुचा देगी, वह महसूस कर रहे थे - "अर्न्तचेतना और बाह्यकर्म दो विरोधी दिशाओं में खींच रहे हैं। जो कुछ भी हम करते हैं, अन्यमनस्क भाव से और जब हमे अपने प्रयास सफल होते हुये ही नहीं दिखते तो मन में विफलता, आत्मज्ञान और आत्मविश्वासहीनता का भाव उत्पन्न होता है"। अन्यमनस्क स्थिति से उबरने और उभरने के लिये विश्व को सर्वहितकारी कल्याणकारी मार्ग की आवश्यकता थी, दीनदयाल जी का एकात्म मानव दर्शन का सूत्र इसी परिप्रेक्ष्य मे है।
भारत की रग रग से वाकिफ गांधी जी को दरकिनार कर जब देश ने पश्चिमी अर्थनीति की तरफ कदम बढ़ाये थे, तभी स्पष्ट हो गया था कि देश प्रगति तो करेगा, परन्तु इसका दायरा सीमित होगा, देश का बहुत बड़ा वर्ग इससे वंचित रहेगा। 2012 की जनगणना के आंकड़े इस स्थिति को स्पष्ट कर रहे हैं। दीनदयाल जी जानते थे कि देश का एक प्रभावशाली वर्ग पश्चिमी व्यवस्था की तरफदारी इसलिये कर रहा है क्योंकि यह उसके हितों के अनुरूप है। पंडित जी कहते थे - "भारत मे ऐसे लोग भी बहुत बड़ी संख्या मे हैं जिनके हित पाश्चात्य अर्थव्यवस्था और उत्पादन प्रणाली से जुड़े हैं। जिस अर्थव्यवस्था का भारत मे विकास हुआ उसने भारत और पश्चिम के औद्योगिक देशों की व्यवस्थाओं को एक दूसरे का पूरक बनाया। जिसमे भारत के हितों का संरक्षण नहीं हुआ, बल्कि उसका शोषण होता रहा है"। दीनदयाल जी जानते थे कि विश्व विकास का नाम लेकर, जिस अर्थनीति का पीछा कर रहा है, अन्ततोगत्वा वह विश्व के लिये कल्याणकारी नहीं होगी। वह अर्थनीति के साध्य और साधन दोनो की स्पष्टता को लेकर चिन्तित थे। अर्थनीति मे नैतिक मूल्यों के अभाव व उसके कारण पड़ने वाले प्रभाव से वह चिन्तित थे , उनका कहना था - "जिस पश्चिम का अनुकरण कर हम अपने अर्थनैतिक मूल्यों की प्रतिस्थापना कर रहे हैं, वहां जीवन के इस सर्वग्राही भाव के लिये कोई स्थान नहीं है। फलतः आज हमारे मन, वचन और कर्म मे अर्न्तविरोध उत्पन्न हो गया है"। भारतीय चिन्तन से विमुखता हमें सही मार्ग पर ले जाने की जगह भटकाव की स्थिति मे पँहुचा देगी, वह महसूस कर रहे थे - "अर्न्तचेतना और बाह्यकर्म दो विरोधी दिशाओं में खींच रहे हैं। जो कुछ भी हम करते हैं, अन्यमनस्क भाव से और जब हमे अपने प्रयास सफल होते हुये ही नहीं दिखते तो मन में विफलता, आत्मज्ञान और आत्मविश्वासहीनता का भाव उत्पन्न होता है"। अन्यमनस्क स्थिति से उबरने और उभरने के लिये विश्व को सर्वहितकारी कल्याणकारी मार्ग की आवश्यकता थी, दीनदयाल जी का एकात्म मानव दर्शन का सूत्र इसी परिप्रेक्ष्य मे है।
बिलासपुर मे प्रवास के समय एक बुजुर्ग से भेंट हुई, वह संशय व्यक्त कर रहे थे कि दीनदयाल जी की नीतियां पुरानी पड़ चुकी हैं। वर्तमान मे कैसे लागू हो सकती हैं। वैसे वह दीनदयाल जी के भक्त थे या तो उनकी आयु अभ्यास मे बाधक थी या फिर वह हमारी परीक्षा ले रहे थे। लेकिन यह चिन्ता बहुत लोगों की हो सकती है, उन्हे जान लेना चाहिये, कोई भी सिध्दान्त सूत्र रूप मे होता है। उसे देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप अपनाना पड़ता है और फिर पंड़ित जी के एकात्म मानव दर्शन का आधार तो हजारों वर्षों की तपस्या से विकसित जीवन के मूलभूत, चिरन्तन सत्य पर आधारित भारतीय दर्शन है, जो चिरस्थाई है, कभी पुराना न पड़ने वाला, सभी के कल्याण के विचार वाला है। दीनदयाल जी ने उस समय अधिक से अधिक लोगों को रोजगार मिले, अतः साठवें दशक की परिस्थितियों के अनुरूप, गांवों मे रहने वाली देश की बहुसंख्य आबादी के विकास हेतु कृषि क्षेत्र पर अधिक ध्यान देने पर जोर दिया था। कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह था कि दुनिया मे धन का बँटवारा इस तरह हो कि अन्तिम छोर पर बैठा व्यक्ति भी विकास के फलों का स्वाद चख सके। परन्तु उस समय पश्चिमी विश्व स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ मे था और हम पश्चिम को श्रेष्ठ मानने की दौड़ मे। नतीजतन आज पूरी दुनिया उस स्थिति मे पँहुच चुकी है जिसमे दुनिया की 1 प्रतिशत आबादी एवरेस्ट की चोटी पर है और आधी से अधिक आबादी गहरी खाई मे। इन दोनों को समीप लाने का असम्भव कार्य करना है। यदि दोनो छोरों पर बैठने वालों का विश्लेषण करें तो यह तथ्य सामने आता है कि शीर्ष पर बैठा 1 प्रतिशत वर्ग उद्योग या व्यवसाय से जुड़ा है, जबकि नीचे वाली आधी आबादी खाद्यान्न पैदा करने वाली व्यवस्था अर्थात कृषि या उससे सम्बन्धित व्यवसाय से जुड़ी है। जिसका सीधा अर्थ है कि विश्व मे धन का बहाव गरीब व्यक्ति से या कृषि से उद्योग की तरफ है। जिसके कारण अधिकांश आबादी के द्वारा अर्जित किया जाने वाला धन, उनके हाथों से फिसलकर उद्योजकों के पास चला जाता है। सभी के कल्याण की बात सोचने का अर्थ है, धन के इस स्थानान्तरण को रोकना। पश्चिमी अर्थनीति के पास इसका कोई निराकरण नहीं है, परन्तु दीनदयाल जी के एकात्म मानव दर्शन की सर्व कल्याणकारी व्यवस्था मे इसकी उपाय योजना है।
उद्योजकों के पास इतना अधिक धन इसलिये जमा हो गया है, क्योंकि वर्तमान आर्थिक व्यवस्था मे अन्य लोगों के पास धन रूकने नहीं दिया गया। दुनिया के उद्योजकों ने अपने उत्पादनों को बेचने मे मुनाफा कमाने के स्थान पर मुनाफाखोरी का रास्ता अपनाया। औद्योगिक उत्पादनों के विक्रय मूल्य उत्पादन लागत के 100 से 2000 गुना तक रख कर दुनिया की अधिकतर दौलत पर अधिकार जमाने के बारे मे सोचा। विश्व के राजनीतिक नेतृत्व ने इस कार्य मे उनका साथ दिया। जिसके कारण अधिकांश आबादी को अपनी कमाई का अधिकांश भाग उनको देना पड़ा, वह अपने कमाये धन से ही वंचित होते गये। विश्व मे सर्वकल्याणकारी अर्थव्यवस्था लागू करने के लिये इसको रोकने के लिये आवश्यक कदम उठाने होंगे।सभी के कल्याण के लिये विश्व नेतृत्व को औद्योगिक उत्पादनों का विक्रय मूल्य उत्पादन लागत पर उचित मुनाफे के आधार पर तय करने के विषय मे विचार करना चाहिये। इससे अधिकांश आबादी के पास धन की उपलब्धता बढ़ेगी और वह अपना जीवन बेहतर बनाने की स्थिति मे होंगी।