Wednesday, 12 August 2015

सम्पूर्ण विश्व की अर्थनीति पर पुनर्विचार आवश्यक

50 वर्ष पूर्व दीनदयाल उपध्याय जी को यह अहसास हो चला था कि विश्व जिस अर्थनीति मे मानव जीवन के विकास की अपार सम्भावनायें मानकर आगे बढ़ रहा है, वह एकांगी है। उसमे सहअस्तित्व के विचार का कोई स्थान नहीं है। वह जानते थे कि यदि हमें स्थाई विकास प्राप्त करना है तो इस सहअस्तित्व को स्वीकार ही नहीं, इसका संरक्षण भी करना पडेगा। उन्हे मालूम था कि जिन भौतिक संसाधनों के भरोसे हम स्वयं को विकास की दौड़ मे शामिल रखते हैं, वह प्रकृति से प्रदत्त हैं, अतः प्रकृति व सृष्टि के अन्य तत्वों से समरूप या एकरूप हुये बिना विश्व के लिये स्थाई कल्याणकारी अर्थनीति ढूंढ पाना संभव नहीं, एकात्म मानव दर्शन का उदय इसी तत्कालीन वैश्विक परिवेष की उत्पत्ति है। परन्तु उस कालखंड मे हम अपने देश की भौगोलिक, सामाजिक व प्राकृतिक विविधताओं को दरकिनार पश्चिमी विकास चक्र के रंग मे इस कदर सराबोर थे कि हम अपने खरे सोने को मिट्टी समझने की भूल कर रहे थे। मुझे याद है एक बार मै अपने कुछ समाजवादी, साम्यवादी मित्रों के साथ चर्चा कर रहा था, वह समझने को तैयार ही नहीं थे कि यह सूत्र दर्शन अपने मे विश्व कल्याण का मन्त्र संजोये है। ठीक उनकी तरह तब देश ने भी नहीं समझा। आज जब विश्व मे जीव विज्ञान, राजनीति, भौतिक विज्ञान, अर्थ विज्ञान को देखने परखने का नजरिया बदलने लगा है, इन सभी शास्त्रों को खंड खंड न देखकर, आसपास मौजूद अन्य अवयवों के कारण पड़ने वाले प्रभावों को भी संज्ञान मे लेने की, wholestic systematic approach की बात होने लगी है, जिसके कारण आज एकात्म मानव दर्शन की सार्थकता दुनिया के सामने स्पष्ट हो रही है।

दीनदयाल जी को समय मिलता तो निश्चित रूप से वह अपनी सिध्दान्त रूप मे कही बात की व्याख्या करते। परन्तु अर्थनीति की दिशा और उसके विश्व समुदाय पर पड़ने वाले प्रभाव दीनदयाल जी समझ चुके थे।  उन्होने कहा था - "साध्य और साधन का विवेक समाप्त हो रहा है। अर्थोत्पादन जीवन का आवश्यक आधार ही नहीं सम्पूर्ण जीवन बन गया है।" पंडित जी अपनाई जाने वाली पश्चिमी नीतियों और उसके समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर चिन्तित थे। आगे उनका कहना था -  "साध्य का पता लगे बिना साधन का निश्चय कैसे हो सकता है। हमारी परम्परा और संस्कृति हमे यह बताती है कि मनुष्य केवल भौतिक आवश्यकताओं और इच्छाओं का पिण्ड नहीं, अपितु वह एक आध्यात्मिक तत्व है।" उस समय की भौतिक नीतियों मे अध्यात्मिक तत्व की अनुपस्थिति का मर्म और कालान्तर मे विश्व पर उसके सामाजिक प्रभावों को दीनदयाल जी जैसा व्यक्तित्व ही समझ सकता था। वह परिणामों से आशंकित थे। आज विश्व प्रगति के किसी भी शिखर को रौंदने मे सक्षम क्यों न हो, सामाजिकता के स्तर पर तो वह धूलधूसरित फर्श पर उखडी सांसें लेता नजर आता है। आज भी 5300 मिलियन जनसंख्या वाले विश्व मे 1000 मिलियन लोग हैं जिन्हे भरपेट भोजन नहीं मिल पाता (Lean,Hinrichsen& Markham 1990). आर्थिक विषमताओं से भरे वर्तमान प्रगतिशील विश्व मे - सर्वे भवन्तु सुखिनः कैसे कह सकेंगे, जब अपनाई जाने वाली अर्थनीति दुनिया की आधी से अधिक सम्पत्ति पर मात्र 2 प्रतिशत लोगों को काबिज करा दे और आधी दुनिया मात्र 1 प्रतिशत सम्पत्ति बांट कर उस पर गुजारा करे।

भारत की रग रग से वाकिफ गांधी जी को दरकिनार कर जब देश ने पश्चिमी अर्थनीति की तरफ कदम बढ़ाये थे, तभी स्पष्ट हो गया था कि देश प्रगति तो करेगा, परन्तु इसका दायरा सीमित होगा, देश का बहुत बड़ा वर्ग इससे वंचित रहेगा। 2012 की जनगणना के आंकड़े इस स्थिति को स्पष्ट कर रहे हैं। दीनदयाल जी जानते थे कि देश का एक प्रभावशाली वर्ग पश्चिमी व्यवस्था की तरफदारी इसलिये कर रहा है क्योंकि यह उसके हितों के अनुरूप है। पंडित जी कहते थे -  "भारत मे ऐसे लोग भी बहुत बड़ी संख्या मे हैं जिनके हित पाश्चात्य अर्थव्यवस्था और उत्पादन प्रणाली से जुड़े हैं। जिस अर्थव्यवस्था का भारत मे विकास हुआ उसने भारत और पश्चिम के औद्योगिक देशों की व्यवस्थाओं को एक दूसरे का पूरक बनाया। जिसमे भारत के हितों का संरक्षण नहीं हुआ, बल्कि उसका शोषण होता रहा है"। दीनदयाल जी जानते थे कि विश्व विकास का नाम लेकर, जिस अर्थनीति का पीछा कर रहा है, अन्ततोगत्वा वह विश्व के लिये कल्याणकारी नहीं होगी। वह अर्थनीति के साध्य और साधन दोनो की स्पष्टता को लेकर चिन्तित थे।  अर्थनीति मे नैतिक मूल्यों के अभाव व उसके कारण पड़ने वाले प्रभाव से वह चिन्तित थे , उनका कहना था - "जिस पश्चिम का अनुकरण कर हम अपने अर्थनैतिक मूल्यों की प्रतिस्थापना कर रहे हैं, वहां जीवन के इस सर्वग्राही भाव के लिये कोई स्थान नहीं है।  फलतः आज हमारे मन, वचन और कर्म मे अर्न्तविरोध उत्पन्न हो गया है"। भारतीय चिन्तन से विमुखता हमें सही मार्ग पर ले जाने की जगह भटकाव की स्थिति मे पँहुचा देगी, वह महसूस कर रहे थे - "अर्न्तचेतना और बाह्यकर्म दो विरोधी दिशाओं में खींच रहे हैं। जो कुछ भी हम करते हैं, अन्यमनस्क भाव से और जब हमे अपने प्रयास सफल होते हुये ही नहीं दिखते तो मन में विफलता, आत्मज्ञान और आत्मविश्वासहीनता का भाव उत्पन्न होता है"। अन्यमनस्क स्थिति से उबरने और उभरने के लिये विश्व को सर्वहितकारी कल्याणकारी मार्ग की आवश्यकता थी, दीनदयाल जी का एकात्म मानव दर्शन का सूत्र इसी परिप्रेक्ष्य मे है।

बिलासपुर मे प्रवास के समय एक बुजुर्ग से भेंट हुई, वह संशय  व्यक्त कर रहे थे कि दीनदयाल जी की नीतियां पुरानी पड़ चुकी हैं। वर्तमान मे कैसे लागू हो सकती हैं। वैसे वह दीनदयाल जी के भक्त थे या तो उनकी आयु अभ्यास मे बाधक थी या फिर वह हमारी परीक्षा ले रहे थे। लेकिन यह चिन्ता बहुत लोगों की हो सकती है, उन्हे जान लेना चाहिये, कोई भी सिध्दान्त सूत्र रूप मे होता है। उसे देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप अपनाना पड़ता है और फिर पंड़ित जी के एकात्म मानव दर्शन का आधार तो हजारों वर्षों की तपस्या से विकसित जीवन के मूलभूत, चिरन्तन सत्य पर आधारित भारतीय दर्शन है, जो चिरस्थाई है, कभी पुराना न पड़ने वाला, सभी के कल्याण के विचार वाला है। दीनदयाल जी ने उस समय अधिक से अधिक लोगों को रोजगार मिले, अतः साठवें दशक की परिस्थितियों के अनुरूप, गांवों मे रहने वाली देश की बहुसंख्य आबादी के विकास हेतु कृषि क्षेत्र पर अधिक ध्यान देने पर जोर दिया था। कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह था कि दुनिया मे धन का बँटवारा इस तरह हो कि अन्तिम छोर पर बैठा व्यक्ति भी विकास के फलों का स्वाद चख सके। परन्तु उस समय पश्चिमी विश्व स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ मे था और हम पश्चिम को श्रेष्ठ मानने की दौड़ मे। नतीजतन आज पूरी दुनिया उस स्थिति मे पँहुच चुकी है जिसमे दुनिया की 1 प्रतिशत आबादी एवरेस्ट की चोटी पर है और आधी से अधिक आबादी गहरी खाई मे। इन दोनों को समीप लाने का असम्भव कार्य करना है। यदि दोनो छोरों पर बैठने वालों का विश्लेषण करें तो यह तथ्य सामने आता है कि शीर्ष पर बैठा 1 प्रतिशत वर्ग उद्योग या व्यवसाय से जुड़ा है, जबकि नीचे वाली आधी आबादी खाद्यान्न पैदा करने वाली व्यवस्था अर्थात कृषि या उससे सम्बन्धित व्यवसाय से जुड़ी है। जिसका सीधा अर्थ है कि विश्व मे धन का बहाव गरीब व्यक्ति से या कृषि से उद्योग की तरफ है। जिसके कारण अधिकांश आबादी के द्वारा अर्जित किया जाने वाला धन, उनके हाथों से फिसलकर उद्योजकों के पास चला जाता है। सभी के कल्याण की बात सोचने का अर्थ है, धन के इस स्थानान्तरण को रोकना। पश्चिमी अर्थनीति के पास इसका कोई निराकरण नहीं है, परन्तु दीनदयाल जी के एकात्म मानव दर्शन की सर्व कल्याणकारी व्यवस्था मे इसकी उपाय योजना है।

उद्योजकों के पास इतना अधिक धन इसलिये जमा हो गया है, क्योंकि वर्तमान आर्थिक व्यवस्था मे अन्य लोगों के पास धन रूकने नहीं दिया गया। दुनिया के उद्योजकों ने अपने उत्पादनों को बेचने मे मुनाफा कमाने के स्थान पर मुनाफाखोरी का रास्ता अपनाया। औद्योगिक उत्पादनों के विक्रय मूल्य उत्पादन लागत के 100 से 2000 गुना तक रख कर दुनिया की अधिकतर दौलत पर अधिकार जमाने के बारे मे सोचा। विश्व के राजनीतिक नेतृत्व ने इस कार्य मे उनका साथ दिया। जिसके कारण अधिकांश आबादी को अपनी कमाई का अधिकांश भाग उनको देना पड़ा, वह अपने कमाये धन से ही वंचित होते गये। विश्व मे सर्वकल्याणकारी अर्थव्यवस्था लागू करने के लिये इसको रोकने के लिये आवश्यक कदम उठाने होंगे।सभी के कल्याण के लिये विश्व नेतृत्व को औद्योगिक उत्पादनों का विक्रय मूल्य उत्पादन लागत पर उचित मुनाफे के आधार पर तय करने के विषय मे विचार करना चाहिये। इससे अधिकांश आबादी के पास धन की उपलब्धता बढ़ेगी और वह अपना जीवन बेहतर बनाने की स्थिति मे होंगी। 

Wednesday, 5 August 2015

उत्पादन मूल्य बताओ, अच्छे दिन आ जायेंगे

वस्तुओं की बढती कीमतें हमेशा राजनेताओं, अर्थशास्त्रियों और ग्राहकों के निशाने पर रहती हैं। कभी भी किसी ने भी इन बढती कीमतों के भंवरजाल को सुलझाने की कोशिश नहीं की।यह जिम्मेदारी उन्ही को दे दी, जिनसे ग्राहकों को बचाना था। नतीजा वही हुआ जो बिल्ली को दूध की पहरेदारी पर लगाने का होता है। यह विश्व मे होने वाला सबसे बड़ा आर्थिक भ्रष्टाचार है, जो सामान्य वर्ग से उसकी खून पसीने की कमाई छीने जा रहा है। 5 रूपये की वस्तु 50 रूपये मे बेचकर सरेआम आर्थिक भ्रष्टाचार कर उसे गरीबी, भुखमरी और लाचारी के दलदल मे धकेले जा रहा है ।


औद्योगिक क्रान्ति के उदय के साथ ही इससे सम्बन्धित तथाकथित प्रतिष्ठित वर्ग ने व्यूहरचना शुरू कर दी थी। दुनिया के कुल धन के अधिकांश भाग पर शीघ्र से शीघ्र आधिपत्य जमाने की, ताकि यह वर्ग धन बल के सहारे पूरी दुनिया को अपने अधिपत्य मे ले सके। यह तभी सम्भव था जब यह वर्ग शासकों, नेताओं और ग्राहकों को यह समझा सके कि दुनिया की तरक्की के लिये आर्थिक प्रगति आवश्यक है, आर्थिक प्रगति के लिये उद्योगीकरण तथा उद्योगीकरण के लिये उद्योजकों को अधिक से अधिक वित्तीय व अन्य सुविधायें। वैसे उनती बात पूरी तरह गलत भी नहीं थी। उसमे सच्चाई भी थी। किसी भी देश की उन्नति मे उसकी आर्थिक प्रगति का बहुत बड़ा योगदान होता है परन्तु आर्थिक प्रगति के लिये उद्योग के साथ साथ कृषि क्षेत्र का भी विकास आवश्यक है। दोनो में सन्तुलन होना चाहिये, तभी देश के विकास का लाभ बहुतांश लोगों को मिल पाता है। लेकिन यह बात उद्योजक वर्ग की हित साधना मे बाधक थी। क्योंकिब धन वितरण उद्योग के साथ कृषि क्षेत्र मे भी होता। अतः एक नवीन शब्द मंहगाई की कल्पना विकसित कर यह बात फैलाई गई कि यदि कृषि उत्पादों के दामों पर नियन्त्रण नहीं रखा गया तो देश मे मंहगाई बढ़ेगी, सामान्य वर्ग का जीवन दूभर होगा। अतः कृषि उत्पादों की कीमतों को सरकारी नियन्त्रण मे लाया गया। इस बात का विरोध न हो इसलिये इस नियन्त्रण को सरकारी संरक्षण का नाम देकर कृषि क्षेत्र/किसानों के हित से जोड़ दिया गया। कृषि मे पैदा होने वाली वस्तुयें उद्योगों मे कच्चे माल के रूप मे काम आती हैं। अतः उद्योजकों ने कारटेल बनाकर कृषि मे पैदा होने वाली वस्तुओं के दाम नहीं बढने दिये, कृषि उत्पादों को सस्ते दामों पर खरीदा, बाद मे किसानों के हितों की रक्षा के नाम पर कृषि उत्पादों के विक्रय मूल्य पर सरकारी नियन्त्रण लाद दिया गया। दूसरी तरफ औद्योगिक उत्पादनों के विक्रय मूल्य पर उद्योजकों का एकाधिकार कायम रहा, ताकि वह ग्राहकों से अधिक से अधिक धन वसूल सकें, जिसके कारण वर्तमान बाजार मे औद्योगिक उत्पादनों का विक्रय मूल्य उत्पादन मूल्य के 100 से लेकर 1000 गुना तक अधिक है तथा कृषि उत्पादों को बमुश्किल उनकी उत्पादन लागत मिल पाती है।

देश मे भी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग है। यह आयोग कृषि उत्पादों के लागत मूल्य का अध्यन कर, उनके समर्थन मूल्य या विक्रय मूल्यों की आयोग की मूल्यनीति के अनुसार प्रतिवर्ष घोषणा करता है। कृषि उत्पादों के विक्रय मूल्य इन्ही घोषित मूल्यों के आसपास रहते हैं, परन्तु औद्योगिक उत्पादनों के सम्बन्ध मे यह नीति नहीं अपनाई गई, उनके विक्रय मूल्यों का निर्धारण उद्योजकों  पर छोड़ कर उन्हे वस्तुओं पर मनमानी MRP लिखने की छूट दे दी गई। इसी छूट का फायदा उठाकर उद्योजक विज्ञापन, फैशन शो आदि विभिन्न हथकंडे अपनाकर अपने उत्पादनों के बदले ग्राहकों से कई गुना अधिक कीमत वसूल कर ग्राहकों को लूट रहे हैं।


अप्रैल 1999 तक देश मे औद्योगिक उत्पादनों के उत्पादन मूल्य का अध्यन करने के लिये ब्यूरो आफ इन्डस्ट्रियल कास्ट एण्ड प्राइसेज (BICP) था। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत द्वारा लगातार उत्पादन मूल्य घोषित करने का दबाव बनाने के कारण इसका टैरिफ कमीशन (TARIFF COMMISSION) मे विलय कर दिया गया तथा इसका कार्य टैक्स निर्धारित करने के उपयोग तक मर्यादित कर दिया गया। यह जानते समझते हुये भी कि उद्योजक ग्राहकों को बुरी तरह लूट रहे हैं, इस तरफ से आँख बन्द कर ली गई। पिछली दो लोकसभाओं मे चन्द्रपुर (महाराष्ट्र) से सांसद व वर्तमान मे रसायन व उर्वरक राज्य मन्त्री हंसराज अहीर ने उत्पादन मूल्य बताने से सम्बन्धित बिल निजी बिल के रूप मे रखा था। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत की मांग है कि हंसराज अहीर जी के उस बिल को वर्तमान सरकार, सरकारी बिल के रूप मे अपनाकर आवश्यक कानून बनाये।

ग्राफ के माध्यम से विषय अधिक स्पष्ट होगा। रेखा OB मूल्य निर्देशित करती है तथा रेखा OA वर्ष। CD वस्तुओं के उत्पादन मूल्य बताने वाली रेखा है। बिन्दु वाली रेखा EF कृषि वस्तुओं के विक्रय मूल्य को निर्देशित करती है, जो कभी उत्पादन मूल्य रेखा के ऊपर तो कभी उत्पादन मूल्य रेखा के नीचे, कुल मिलाकर उत्पादन मूल्य रेखा के इर्द गिर्द ही दिखाई देती है, जिसका अर्थ है कृषि उत्पादों की कीमत बाजार मे उनकी मांग व पूर्ति के आधार पर कभी उत्पादन मूल्य से कम व कभी अधिक रहती है, परन्तु यह कीमत उत्पादन मूल्य के आस पास ही रहती है । औद्योगिक उत्पादनों के विक्रय मूल्य की रेखा GH हमेशा उत्पादन मूल्य की रेखा से बहुत ऊपर लगभग लम्बवत रहती है। इसे बाजार मे MRP का सहारा भी प्राप्त है, जिसे बाजार मे इस तरह प्रचारित कर ग्राहकों को लूटा जाता है, मानो वह सरकार द्वारा निर्धारित वैधानिक मूल्य हो।


उत्पादन मूल्य घोषित करना अच्छे दिनों की आहट है। जिसका अर्थ है औद्योगिक उत्पादनों के विक्रय मूल्य को उत्पादन मूल्य आधारित बनाना। आज ग्राहकों से MRP के नाम पर अनाप शनाप कीमतें वसूल कर उन्हे लूटा जा रहा है। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत की मांग है कि MRP को रद्द कर उसके स्थान पर उत्पादन मूल्य लिखना अनिवार्य किया जाये, ताकि औद्योगिक उत्पादनों के दाम भी कृषि उत्पादों की तरह उत्पादन मूल्य के आसपास रहें। लाभ अर्जित करना उत्पादकों का अधिकार है, परन्तु लाभ उचित होना चाहिये, न कि ग्राहकों को लूटने वाला। वर्तमान बाजार मे MRP के नाम पर जबरदस्त आर्थिक भ्रष्टाचार चल रहा है। ग्राहकों को इससे राहत मिलेगी तो उसकी क्रय शक्ति बढेगी, वह अपने परिवार के लिये अधिक वस्तुयें खरीद पाने की स्थिति मे होगा। यदि ग्राहक बचत करता है तो भी यह पैसा सरकार द्वारा खुलवाये करोड़ों बैंक खातों मे जमा होकर देश के विकास मे योगदान देगा। अतः वर्तमान सरकार को चाहिये कि उत्पादन मूल्य बतायें, अच्छे दिन लायें।