भारतीय दलहन शोध संस्थान के अनुसार वर्ष 2030 तक देश की जनसंख्या 1.6 बिलियन पँहुच जायेगी और उसे 32 मिलियन टन दालों की आवश्यकता पडेगी। इस लक्ष्य के अनुसार देश को प्रतिवर्ष दलहन के उत्पादन मे 4.2% बढोत्तरी करने की जरूरत है। देश मे दलहन उत्पादन का अब तक का इतिहास बहुत निराशाजनक रहा है। पिछले 40 वर्षों मे दलहन का उत्पादन देश मे 1% वार्षिक से भी कम गति से बढा है। जबकि देश की जनसंख्या इससे दुगनी गति से बढी है।
दशकों से हमारे नेताओं द्वारा इस क्षेत्र की उपेक्षा ही वर्तमान हालातों की जिम्मेदार हैं। बलराम जाखड और शरद पवार जैसे कृषि मन्त्री यह योजनायें तो बनाते रहे कि हम अफ्रीका, बर्मा और उरूग्वे जैसे देशों मे दाल की खेती करवाकर वहां से दाल आयात करें। परन्तु उन्होने यह कभी नहीं सोचा कि देश का किसान दाल की खेती से क्यों भाग रहा है। उसे कैसे प्रोत्साहित किया जाये। दालों का जोत क्षेत्र कैसे बढाया जाये। दालों की प्रति हेक्टयर उपज बढे, इसके लिये क्या किया जाये। अतः हम आज जिस स्थिति मे हैं, उसके बीज हमने वर्षों पूर्व बोये थे। मजे की बात यह कि दालों का उपभोग करने वाला बडा देश होने के बावजूद हम इसके महत्व को नहीं समझे, आस्ट्रेलिया समझ गया, 1970 मे हमसे 400 ग्राम दाल के बीज लेकर गया। 10 वर्ष बाद उसका दलहन का जोत क्षेत्र था 90 लाख हेक्टयर, आज वह हमारे देश को दाल निर्यात कर रहा है। मालाबी जैसे छोटे देश भी हमे 5000 टन दाल आयात करने की स्थिति मे हैं। ।
यद्यपि दालों के लिये हमारा देश विश्व का सबसे बडा उत्पादक, उपभोक्ता व आयातक है। दुनिया की कुल दाल की खेती के एक तिहाई भाग मे हम दाल की खेती करते हैं। दुनिया के दाल उत्पादन का 20 प्रतिशत उत्पादन हमारे यहां होता है। परन्तु हम अपनी जरूरत से काफी पीछे हैं और हमने इसपर उचित ध्यान भी नहीं दिया, क्योंकि आजादी के बाद भी हमारे शासक नेता अंग्रेजों की मानसिकता मे जी रहे थे। अंग्रेज दाल का उपयोग करते नहीं हैं, इसे दूसरे दर्जे का अनाज मानते हैं। हमारे नेताओं ने भी यही किया दाल को दूसरे दर्जे का अनाज मानकर इसके विकास पर समुचित ध्यान ही नहीं दिया। गेंहू - चावल मे ही लगे रहे, देश मे दाल की कमी को आयात के सहारे पूरा करते रहे।
देश मे दाल उत्पादन की तरफ उचित ध्यान न देने के कारण किसान इस फसल की ओर आकर्षित नहीं हुये क्योंकि लम्बी अवधि की फसल होने साथ इसमे कीटों व बीमारियों का खतरा अधिक था, अच्छे बीजों की कमी भी थी, दूसरे किसान को बाजार मे दलहन की फसल के खरीदार भी नहीं मिलते थे। 2008 से सरकार ने दालों के समर्थन मूल्य की घोषणा जरूर शुरू कर दी, परन्तु सरकार द्वारा खरीद न करने के कारण किसान को व्यापारियों पर ही आश्रित रहना पडता है। इन कठिनाईयों की तरफ सरकार ने ध्यान नहीं दिया, किसान दलहन की फसलों से किनारा करते रहे। नतीजतन 1980 - 81 मे 22.46 मिलियन हेक्टयर मे 10.63 मिलियन टन के उत्पादन को 35 वर्ष बाद 2013 - 14 मे हम 19.7 मिलियन टन तक ही पँहुचा पाये। सरकार द्वारा इस ओर देर से ध्यान देने के कारण हम काफी पिछड चुके हैं। कुछ दिन पहले ही चने और तुवर की 100 दिनों मे तैयार होने वाली फसल खोजने मे हमे सफलता मिली, दक्षिण भारत के लिये JG-11 नाम की किस्म भी तैयार की गई है। परन्तु 760 किलो प्रति हेक्टयर की पैदावार को अन्य देशों की तरह 1200 किलो प्रति हेक्टयर तक ले जाना शेष है। संक्षेप मे कहें तो दलहन उत्पादन के लिये देश मे अनुसन्धान, किसानों को प्रोत्साहन, बुआई के क्षेत्र को बढाना, पैदावार को बढाना आदि महत्वपूर्ण चुनौतियां देश की सरकार के सामने हैं।
वर्तमान बाजार को देखें तो अनियमित वर्षा ने 30% फसल बरबाद कर दी। 2013-14 मे 19.25 मिलियन टन की तुलना मे 17.3 टन दलहन का ही उत्पादन हुआ। दूसरे देशों मे भी फसल खराब हुई है, जिससे कीमतों मे 20 से 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। डालर की तुलना मे रूपये की गिरावट ने स्थिति को और बिगाडा है। यद्यपि सरकार द्वारा आयात की गई 10,000 टन तुवर, उडद दाल प्रक्रिया मे है। 5000 टन दाल और आयात की जा रही है। कठिन हालातों के बावजूद इस तरह की परिस्थितियों का अनैतिक लाभ उठाने वालों की भी कमी नहीं है। जमाखोरों द्वारा मुनाफाखोरी के लिये माल बाजार से गायब करने के चलते हालात अधिक खराब हुये हैं। सरकार को जमाखोरों पर कठोर कार्यवाही करने की जरूरत है, तभी ग्राहक को थोडी बहुत राहत मिलनी सम्भव है। वरना ग्राहक की दाल गलनी कठिन है।
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