पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने जनसंघ के पूनाशिविर मे भारतीय अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध मे अपने विचार व्यक्त करते हुये कहा था - "समृद्धि के फलों को चखने की स्वतन्त्रता देने वाली शोषण मुक्त विपुलता की अर्थव्यवस्था प्राप्ति हमारा राष्ट्रीय लक्ष्य होना चाहिये।" इसी को ध्यान मे रखकर पंडित जी अंत्योदय की बात कहा करते थे। परन्तु कालान्तर मे हमारी अर्थव्यवस्था के पाश्चात्य अनुकरण ने धीरे धीरे वह सभी बुराइयां आत्मसात कर ली जिनसे उन्हे दूर रखना था। भारतीय चिनंतन के पक्षधर दीनदयाल जी जीवन को समग्र दृष्टि से देखते थे। उसमे पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, तत्वों केसाथ ही अपने इर्द गिर्द मौजूद प्राकृतिक अवयवों के साथ साथ परलौकिक द्रष्टि भी समाविष्ट थी। इन सभी तत्वों के संयुक्त स्वरूप द्वारा समायोजित जीवन रचना को ही वह मानव समाज के लिये कल्याणकारी व्यवस़्था मानते थे। उस समय की प्रचलित अर्थनीतियों से उनका मतभेद था। वह कहा भी करते थे - "जिस अर्थशास्त्र को मानव के समग्र जीवन और उसके आर्थिक घटकोंं की तरह आर्थिकेतर घटकों का भान ही न हो, वह मानव जीवन को शास्वत कल्याण की दिशा नहीं दे सकता।" परन्तु उस कालखंड मे पश्चिमी देशों मे पली बढी, भारतीय जीवन के पक्षों से अनभिज्ञ, पाश्चात्य दर्शन को ही प्रगति का एकमेव शास्वत पंथ मानने वाली मंडली ही सत्ता पर काबिज थी, जो भारतीय दर्शन को पुरोगामी मानती थी, लिहाजा अन्य देशों के साथ साथ हम भी उसी मार्ग पर बढ चले और शनः शनः भारतीय जीवन दर्शन से दूर होते चले गये।
दीनदयाल जी का आर्थिक चिन्तन मौलिक व भारतीय जीवन दर्शन के अनुरूप था। इसमे परम पूज्यनीय गुरू जी द्वारा १९७२ के ठाणे शिविर मे आर्थिक विषयों के सम्बन्ध मे किये मार्गदर्शन की छाया प्रतिबिम्बित होती है।एक पंरकार से दीनदयाल जी परम पूज्यनीय गुरू जी के विचारों को धरातल पर उतारने के प्रयास मे लगे थे। पंडित जी की अंत्योदय गुरू जी द्वारा कहे गये शब्दों - प्रत्येक नागरिक की मूलभूत आवश्यकतायें पूरी होनी चाहिये। का विकसित स्वरूप है। इससे गुरू जी व दीनदयाल जी की वैचारिक साम्यता भी दिखाई देती है। पंडित जी उन परिस्थितियों को अच्छी तरह जानते समझते थे, जिनके चलते स्वतन्त्रता के बाद के काल खंड मे भारतीय अर्थव्यवस्था का मौलिक स्वरूप विकसित करने केे प्रयास मे लगे दादाभाई नारोजी, आर सी दत्त व लोकमान्य तिलक के विचारों को हाशिये पर छोड़ दिया गया था।
यह कहना भी सही नहीं होगा कि अर्थ चिन्तन की इस दिशा को भारतीय भूमि पर ही मान्यता प्राप्त थी।सर्वकल्यीणकारी अर्थरचना विकसित करने मे आर्थिक घटकोंं के साथ साथ अनार्थिक घटकों की महत्वपूर्ण भूमिका को पश्चिमी अर्थशशास्त्री भी पहचानने लगे थे। दीनदयाल जी के आर्थिक चिन्तन का समर्थन विश्व के अनेको अर्थशास्त्रियों ने किया। वर्तमान मे अमीर गरीब के तेजी से बढते अन्तर को देखता विश्व दीनदयाल जी के विचारों की सार्थकता को तेजी से पहचान रहा है। जीवन स्तर विकसित करने के नाम पर अनैतिक शोषण का व्यापार चारो तरफ हावी हो चला है। प्रसिद्ध चिन्तक अल्विन टाफ्लर अपनी पुस्तक फ्यूचर शॉक मे लिखते हैं -"आधुनिक अर्थरचना दोषपूर्ण है, क्योंकि यह अत्यधिक अर्थकेन्द्रित है। इसमे पुरी शक्ति धन, उपयोगिता तथा मूल्य पर ही लगायी गई है।" इस एकांगी मार्ग का अनुसरण करने से आर्थिक के साथ साथ सामाजिक जीवन मे भी अनेको समस्यायें खडी हो गई हैं। धीरे धीरे इस तथ्य को विश्व के अनेको विद्वानों का समर्थन मिला है। प्रा गुन्नार मिर्डल का कहना है - अर्थशास्त्रियों द्वारा निरूपित उत्पादन के घटकोंं के गुणधर्मों के साथ आर्थिकेतर घटकों का भी पर्याप्त सम्बन्ध रहता है। इसलिये आर्थिक घटकोंं के साथ साथ आर्थिकेतर घटकों का भी विचार करने वाले अर्थशास्त्र को हमें विकसित करना होगा।
अर्थरचना के सम्बन्ध मे यथार्थ यह है कि अपने जन्म के समय से ही अर्थरचना एक प्रभावशाली समूह के प्रभाव मे चली गई । धीरे धीरे उस वर्ग ने उसे अपने हितों के अनुरूप मोड़ना शुरू कर दिया। वर्तमान मे यह सिर्फ उसी वर्ग के हित साधने मे लगी है। इस वर्ग का प्रभाव इतना है कि वह सम्पूर्ण उत्पादन तन्त्र को ठप्प कर समस्त आर्थिक जीवन को पंगु बनाने मे सक्षम है। ऐसा भी नहीं कि इस प्रभावशाली वर्ग ने कभी उत्पादन तन्त्र पर आक्रमण कर व्यवस़्था को अपने हित मे मोडने का प्रयास न किया हो, अधिक लाभ कमाने के अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिये यह बाजार मे अपने प्रभाव का मांग व पूर्ति को अमानवीय तरीकों से प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। दीनदयाल जी ने "विकास की दिशा" नामक पुस्तक मे लिखा है कि अमेरिका मे दूध का उत्पादन अधिक हो जाने के कारण दूध के दामों को गिरने से रोकने के लिये, यह १० लाख स्वस्थ व दुधारू गायों को मारने का निर्णय ले लेते हैं। लाखों टन गेहूं समुद्र मे सिर्फ इस कारण से फिकवा देते हैं ताकि अनाज के दामों मे कमी न आने पाये। अर्थरचना पर वर्ग विशेष केे प्रभाव के कारण ही विश्व के अनेको महान चिन्तकों के विचारों के बावजूद इस विषय पर कुछ भी नहीं किया जा सका।
यह अर्थरचना अपने आसपास के बाजार, मूल्य तथा क्षेत्र सभी प्रभावित करती है। बाजार का आकार बढाने के लिये शहर, राज्य और देश की सीमा तोड़ अर्न्तराष्ट्रीय बाजारों पर अधिपत्य, मूल्य के विषय मे बाजार मूल्य की सभी स्थापित मान्यताओं को नष्ट कर स्वेच्छाचारी प्रवृति अपनाने का षढयन्त्र तथा उसके बाद पूंजी निर्माण के सभी सम्भावित क्षेत्रों पर अधिकार तथा नवीन क्षेत्रों की रचना सम्मिलित है। वर्तमान मे यह षढयन्त्र लोकहित व जनकल्याण का मुलम्मा चढाकर आता है ताकि लोग समझ न सकें और जब तक समझ मे आये बात हाथ से निकल चुकी हो।
अमेरिकी अर्थशशास्त्री स्टैसी मिशैल इस सम्बन्ध मे अपनी पुस्तक "बिग बाक्स स्विन्डल" मे लिखती हैं - The economic structure that present economy is propogating represent a modern variation on the old European Colonial System, which was designed not to build economically viable and self reliant communities but to extract their wealth and resources. "
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