Monday, 25 July 2016

सिद्धू प्रकरण की जड़ों मे अकाली राजनीति

नवजोत सिंह सिद्धू का राज्यसभा की सदस्यता से जिस दिन स्तीफा आया था, उसी दिन से इसके बारे मे तरह तरह के कयास लगाये जा रहे थे। उनके भाजपा से अलग होने के सम्बन्ध मे कुछ इशारा उनकी विधायक पत्नी ने दिया तो था, परन्तु वह लोगों को स्पष्ट कयास लगाने के लिये पर्याप्त नहीं था। आज सिद्धू ने इस सम्बन्ध मे पत्रकार वार्ता मे कुछ बताया, कुछ नहीं बताया। भाजपा मे अपने को दरकिनार करने और पंजाब से अलग रहने की शर्त पर राज्य सभा की सदस्यता दिये जाने के मामले का उल्लेेख  सतही तौर पर शायद सही घटनाक्रम को उघेडने मे सफल न रहा हो, परन्तु यह उन लोगों को इशारा दे गया जो पंजाब की राजनीतिक गतिविधियों पर लम्बे समय से पैनी नजर रख रहे हैं। पंजाब मे भाजपा के प्रभावी चेहरों पर नजर डालें तो किसी को भी अटपटा लगेगा कि अपने जबरदस्त प्रभावी चेहरे को कोई राजनीतिक दल कैसे किनारे लगा सकता है। परन्तु राजनीति मे हाजमा बहुत दुरूस्त रखना पड़ता है। कभी दो कदम आगे तो कभी चार कदम पीछे हटना पड़ता है। सिद्धू प्रकरण भी भाजपा की चार कदम पीछे हटने की मजबूरी है, जिसके लि्ये शायद सिद्धू को मानसिक रूप से तैयार नहीं किया जा सका या फिर सिद्धू ने उस स्थिति को अपनाने से इन्कार कर दिया जो संगठन के हितचिन्तक कार्यकर्ता अपनाकर खुद को गुमनामी के अन्धेरे मे धकेलने के लिये तैयार हो जाते हैं।

वस्तुस्थिति जानने के लिये पंजाब, वहां की राजनीति, विभिन्न राजनीतिक दलों की स्थितियों का विश्लेषण जरूरी है। पंजाब मे मुख्य राजनीतिक पैठ दो दलों की है, कांग्रेस और अकाली। दोनो की पकड़ इतनी मजबूत है कि बसपा के जनक कांशीराम पंजाब के होने के बावजूद वहां पैर तक न जमा सके। राष्ट्रीय दल के रूप मे आगे बढ़ती भाजपा के लिये जरूरी था कि वह उन तमाम प्रदेशों मे क्षेत्रीय दलों के सहयोग से अपने पैर जमाये। देश के अनेको प्रान्तों मे भाजपा की यह यात्रायें और उसके परिणाम सामने हैं। पंजाब मे भाजपा ने अपने पैर जमाने के लिये अकाली दल का हाथ थामा। अकाली भी कांग्रेस को टक्कर देने के लिये सहारे की तलाश मे थे, अत: उन्होने भाजपा का हाथ पकड़ लिया। परन्तु अकाली भाजपा के साथ चलते हुये इस बारे मे अत्यधिक सचेत हैं कि भाजपा की पंजाब मे तााकत निर्धारित सीमा से आगे न बढ़े। वह बराबर आशंकित था कि भाजपा पंजाब मे कहीं इतनी ताकतवर न हो जाये कि उसे ढकेलकर आगे बढ़ जाये। अतः अकाली भाजपा की आन्तरिक गतिविधियों पर भी पूरी नजर रखते हैं और उन्हे अपने अनुरूप ढालने के लिये भाजपा की आन्तरिक गतिविधियों मे भी हस्तक्षेप करते रहते हैं। अकाली इस विषय मे कितने सेंसिटिव हैं, इस बात का अन्दाज इसी से लग जाता है कि आर एस एस का सिखों के बीच कार्य करने वाला एक संगठन सिख संगत है। सिख संगत ने पंजाब मे भी और बाहर भी सिखों के बीच बहुत काम किया है। पंजाब मे सिख संगत का काम जैसे ही बढ़ा, सिख संगत के कार्यकर्ता गांव तक पंहुचने लगे, अकालियों ने विवाद खड़े करने शुरू कर दिये। अकालियों के लिये तब तक तो ठीक है, जब तक भाजपा को पंजाब मे दमदार नेता न मिले। भाजपा को दमदार नेता मिलते ही उसका हाजमा हिलने लगता है। सिद्धू के रूप मे भाजपा को पंजाब  मे दमदार लीडर मिला, जिसके सहारे पंजाब मे भाजपा अपने दम पर गाड़ी खींचने की हिम्मत दिखा सकती थी। यही स्थिति अकालियों को मंजूर नहीं थी।

भाजपा मे सिद्धू प्रकरण की मुख्य शुरूवात 2014 लोकसभा चुनाव से हुई। पूरे देश मे मोदी लहर चल रही थी, एनडीए के बहुमत मे आने के पूरे आसार थे। भाजपा अपने सहयोगियों के साथ फूंक फूंक कर कदम रख रही थी। किसी भी तरह का जोखिम लेने को तैयार नहीं थी। यहां तक कि उसने उ.प्र. और बिहार मे कई ऐसे दलों के साथ भी उन शर्तों पर समझौते किये, जिन पर सामान्य परिस्थितियों मे शायद वह कभी तैयार न होती। यही अवसर अकालियों को आपरेशन सिद्धू के लिये सबसे उपयुक्त लगा। समझौते के दबाव मे आपरेशन हो गया, सिद्धू जो पंजाब मे भाजपा के प्रचार की मुख्य धुरी होता, प्रचार से ही बाहर था। पार्टी और सिद्धू के बीच खटास पड़ चुकी थी, यही अकाली चाहते थे। केन्द्र मे सरकार बनने के बाद भाजपा डेमेज कन्ट्रोल मे लगी, सिद्धू को मनाने के प्रयास हुये और समझौता हो भी गया, सिद्धू को राज्यसभा मे भेजकर सांसद की कमी पूरी की गई। परन्तु अकालियों को सिद्धू मंजूर नहीं था जो आगे चलकर उनके लिये चुनौती बन सके। राज्यसभा मे सिद्धू को पंजाब से भेजने के लिये अकालियों के समर्थन की भी जरूरत रही और फिर बने खेल को बिगाड़ने का काम शुरू हो गया, नतीजा सामने है।

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