15 मार्च अर्न्तराष्ट्रीय ग्राहक दिन से मात्र एक दिन पहले 14 मार्च को भारतीय ग्राहक आन्दोलन कलंकित हो गया। इस कलंक के नायक हैं, मनमोहन सिंह और उनके करीबी विदेश में पले, पढ़े और बढे भारतीय आर्थिक परिवेश, ग्राहक की आर्थिक, भौगोलिक, सामाजिक परिस्थितियों से अनजान, देश की सत्ता के गलियारे में कुंडली मारे बैठे तथाकथित अर्थशास्त्री। एक तरफ भारतीय ग्राहक आन्दोलन को सुनहरे दिन दिखाने का श्रेय जहां राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार को जाता है, वहीं उसे कलंकित करना भी कांग्रेस की सरकार के ही हिस्से में जाता है। कांग्रेस की एक अन्य नरसिह राव सरकार पर भी भारतीय ग्राहक आन्दोलन को कलंकित करने के कुछ छींटे पड़ते हैं। परन्तु कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार का 2004 से 2009 का कार्यकाल, भारतीय ग्राहक आन्दोलन की कलंक कथा का सिरमौर है।
प्रामाणिक वजन एवं माप कानून 1976 तथा इसके अर्न्तगत बने नियमों में डिब्बा बंद वस्तुओं के डिब्बे पर उसका अधिकतम खुदरा विक्रय मूल्य लिखना अनिवार्य था, परन्तु इसके साथ ही "स्थानीय कर अतिरिक्त" लिखना चलन में था, जिसे 1990 में संशोधित कर "सभी करों सहित" कर दिया गया। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत के कार्यकर्ताओं को बाजार सर्वेक्षण तथा वस्तुओं के उत्पादन मूल्य का अध्ययन करने पर मालूम हुआ कि डिब्बा बंद वस्तुओं वस्तुओं पर लिखी जाने वाली MRP उनके उत्पादन मूूल्य तथा न्याय मूल्य (Just Price) से बहुत अधिक लिखी जा रही है तथा यह ग्राहक शोषण का मुख्य कारण है। इसे लेकर ग्राहक पंचायत द्वारा अखिल भारतीय ग्राहक यात्रा निकाली गई, देश भर में आन्दोलन किये गये कि डिब्बा बंद वस्तुओं पर MRP के साथ वस्तु का उत्पादन मूूल्य भी छापा जाये। कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार पर अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत का दबाव काम आया। सरकार ने 1994 में एक विशेषज्ञ समिति बनाकर उसे यह तय करने की जिम्मेदारी सौंपी कि डिब्बा बंद वस्तुओं की पैकिंग पर MRP के अतिरिक्त और कौन सी कीमत लिखी जाये, जिससे ग्राहकों के शोषण को रोका जा सके। विशेषज्ञ समिति ने तय किया कि डिब्बा बंद वस्तुओं की पैकिंग पर MRP के साथ ही FPP ( First Point Price) भी लिखा जाये। यह वह कीमत है जिस पर उत्पादक वस्तु को पहली बार बेचता है। परन्तु इसके बारे में समिति के सभी सदस्यों के बीच सहमति न बन सकी। अत: समिति ने अपनी रिपोर्ट सरकार को ही अन्तिम निर्णय लेने की सिफारिश के साथ सौंपी। इसके बाद सरकार ने इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया।
इस घटनाक्रम से देश के ग्राहक संगठन उत्साहित थे। सरकार की इस विषय पर उदासीनता देखते हुए, केरल का के एक ग्राहक संगठन "नेशनल फाउंडेशन फार कन्ज्यूमर अवेअरनेस एण्ड स्टडीज" ने वर्ष 1998 में केरल उच्च न्यायालय की एर्नाकुलम खण्डपीठ में याचिका दाखिल कर दी। याचिकाकर्ता द्वारा मा. उच्च न्यायालय से प्रार्थना की गई थी कि मा. उच्च न्यायालय केंद्र सरकार को डिब्बा बंद वस्तुओं की पैकिंग पर MRP के साथ साथ उत्पादन मूूल्य भी लिखवाने का आदेश दे। मा. उच्च न्यायालय द्वारा इस OP no. 24559/98 पर 11 जनवरी 2007 को निर्णय दिया गया। अपने आदेश में मा. उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से एक विशेषज्ञ समिति बनाने को कहा, जो इस विषय का विस्तृत अध्ययन कर केंद्र सरकार को उचित सलाह दे कि इस सम्बन्ध में क्या किया जाये। मा. उच्च न्यायालय के इसी आदेश के अनुरूप केंद्र सरकार द्वारा 8 अगस्त 2007 को डा एम गोविंद राव की अध्यक्षता में 13 सदस्यीय विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया। समिति का कार्यकाल पहले 7 मई 2008 तक तथा बाद में एक बार फिर 8 सितंबर 2008 तक बढ़ाया गया।
समिति ने 24/09/2007, 17/10/2007 तथा 14/03/2008 की मात्र तीन बैठकों में, सिर्फ सोलह लोगों से, जिनमें ग्राहक संगठन के नाम पर सिर्फ मा. उच्च न्यायालय केरल का याचिकाकर्ता था, केवल 13 प्रश्नों में भी मात्र 4 प्रश्नों के उत्तर के आधार पर देश के 125 करोड़ ग्राहकों के चेहरे पर कालिख पोत,. भारतीय ग्राहक आन्दोलन के काले दिन की रचना कर दी। आगे समिति के सदस्यों, समिति को सौंपे गये कार्य, समिति द्वारा निर्धारित मात्र 13 प्रश्नों, जिनसे प्रश्न पूछे गए उन लोगों का जब हम विवेचन करेंगे तो यह अपने आप स्पष्ट हो जायेगा कि यह पूरा कार्यक्रम प्रायोजित था, मा. उच्च न्यायालय की आंखों में धूल झोंकने, देश के 125 करोड़ ग्राहकों के सीने में छुरा घोंपने तथा भारतीय ग्राहक आन्दोलन के काले दिन की रचना करने वाला था।
विशेषज्ञ समिति के गठन से लेकर, उसके कार्यक्षेत्र के निर्धारण, कार्य करने के तरीके की विवेचना से ही स्पष्ट हो जायेगा कि यह पूरा घटनाक्रम ग्राहकों के खिलाफ प्रायोजित षड़यंत्र था, जिसे अमलीजामा पहनाने की जिम्मेदारी मनमोहन सिंह ने अपने करीबी डा एम गोविंद राव को सौंपी, यहां स्पष्ट कर दें कि गोविंद राव बहुत समय से सरकारी अनुकम्पाओं पर पलने बढ़ने वाले अर्थशास्त्री का टैक्सों के बारे में अच्छा ज्ञान बताया जाता है। वह वैट लागू कराने वाली सरकारी समिति के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। वैट उनके दिमाग में इस कदर घुसा है कि उन्होंने भारत के गरीब ग्राहकों से जुड़े इस मसले को भी वैट लागू कराने की कसौटी पर घिस घिस कर भारतीय ग्राहकों का सत्यानाश कर दिया। इनकी अध्यक्षता में गठित 12 अन्य सदस्यों में 5 सरकारी अधिकारी, 2 शिक्षा जगत, 3 व्यापार संगठनों, 1 ग्राहक संगठन कामनकाज तथा 1 निजी हैसियत से सम्मिलित थे। 36 राज्यों एवं केंद्र शासित क्षेत्रों वाले 125 करोड़ ग्राहकों के जीवन मरण का प्रश्न हल करने की जिम्मेदारी सिर्फ दिल्ली निवासी अपने करीबियों को सौंप दी गई।
समिति को जो काम दिया गया वह था व्यापक अध्ययन कर निम्न विषय पर सरकार को अपनी राय देना। वह हैं -
(1) राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वस्तुओं के उत्पादन तथा वितरण की प्रचलित प्रक्रियाओं को ध्यान में रखकर उन सम्भावनाओं की तलाश करना, जिसके अनुसार डिब्बा बंद वस्तुओं की पैकिंग पर Normative Price (मापदंडात्मक मूल्य) अंकित करना पूरे देश में लागू किया जा सके, यह मूल्य वस्तु के उत्पादन से लेकर वस्तु के अन्तिम ग्राहक तक पंहुचाने के लिए उत्पादक द्वारा किये जाने वाले सभी खर्चों को पर्याप्त रूप से प्रदर्शित करने वाला हो।
(2) यदि इस बात की सम्भावना है -
1. a. पैक की वस्तु पर इस मूल्य को घोषित करने का सर्वोत्तम तरीका क्या हो, यह भी बतायें।
b. क्या उत्पादक द्वारा घोषित इस मूल्य का परीक्षण करने की आवश्यकता है, उस ऐजन्सी को चिन्हित करें तथा उसके सम्बन्ध में सुझाव दें, जिसे उत्पादक द्वारा घोषित मूल्य के औचित्य का परीक्षण की जवाबदेही दी जा सकती है।
2. यह स्पष्ट है कि प्रमाणिक वजन एवं माप (डिब्बा बंद वस्तुयें) नियम 19777 के प्रावधानों के अनुसार उत्पादक वर्तमान में प्रचलित पैक की गई वस्तुओं पर अधिकतम खुदरा विक्रय मूल्य (MRP) लिखना जारी रखेंगे।
3. यह भी स्पष्ट है कि आयात की गई वस्तुओं पर मूल्य घोषणा सम्बन्धित आवश्यकतायें पूरा करने का दायित्व, वर्तमान प्रचलन के अनुसार आयातक का होगा।
विशेषज्ञ समिति का कार्यक्षेत्र इतना स्पष्ट था। उसका कार्य पैकिंग वस्तुओं पर MRP के अतिरिक्त Normative Price उत्पादन मूूल्य के समकक्ष लिखने की सम्भावना तलाश करने के साथ ही, इसे लागू करने के बेहतर तरीकों के सम्बन्ध में सुझाव देना था।
समिति के अध्यक्ष की नीयत व मंशा उसी समय स्पष्ट हो गई, जब उसने 17 अक्टूबर 2007 को ही सरकार को पत्र लिखकर अपने कार्यक्षेत्र से - "वह मूल्य वस्तु के उत्पादन से लेकर वस्तु के अन्तिम ग्राहक तक पंहुचाने के लिए उत्पादक द्वारा किये जाने वाले सभी खर्चों को पर्याप्त रूप से प्रदर्शित करने वाला हो।" निकाल देने का आग्रह किया। सरकार पर मा. उच्च न्यायालय का दबाव था, उनके आदेश में समिति गठित कर इसी बात की सम्भावना व तरीके की तलाश करनी थी जिसके अनुसार डिब्बा बंद वस्तुओं पर उसका उत्पादन या समकक्ष मूल्य अंकित किया जाये। अत: सरकार ने समिति की बात नहीं मानी। इससे. साफ. है कि समिति का पहले से ही इच्छा व इरादा उत्पादन मूूल्य या उससे संबंधित विषय को छूने का नहीं था, जिसे उसने पहले ही स्पष्ट कर दिया, आगे वही हुआ जिसकी आशंका थी। समिति ने खेत की बात करने के स्थान पर हर जगह खलिहान की बात कर भारतीय ग्राहकों को लुटने के लिए पूंजीपतियों के सामने चारा बनाकर फेंक दिया।
समिति अपनी नीयत को मूर्त रूप देने के लिए यहीं नहीं रुकी, उसने प्रत्येक स्थान पर अपना ग्राहक विरोधी रूप दिखाया। अब बात समिति द्वारा बनाए उन 13 प्रश्नों की करते हैं, जिनके आधार पर समिति ने सरकार से ग्राहक विरोधी सिफारिश की। इनमें से बहुत से प्रश्न अवांछित व अनावश्यक हैं, जिन्हे किसी विशिष्ट उद्देश्य को पूरा करने के लिये समिति ने प्रश्न सूची में शामिल किया। अत: हम प्रश्न के आगे ही. प्रश्न के. सम्बन्ध में कोष्ठक में अपना विचार भी लिख रहे हैं।
1. पैकिंग की गई वस्तु पर MRP लिखने का क्या उद्देश्य होना चाहिए।( समिति MRP लिखने का उद्देश्य जानने के लिये नहीं बनी थी, यह समिति के कार्यक्षेत्र से बाहर की बात है।)
2. ग्राहक हितों को बढ़ावा देने का उद्देश्य क्या MRP छापने से पूरा होता है, दूसरा कौन सा तरीका अपनाने की आवश्यकता है। ( मा. उच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार, सरकार द्वारा समिति का गठन उत्पादन मूल्य के समकक्ष Normative Price छापने की सम्भावना तलाशने के विशिष्ट उद्देश्य के लिए किया गया था। किसी दूसरे तरीके की तलाश समिति के अधिकार क्षेत्र में ही नहीं, फिर यह प्रश्न क्यों?)
3. आदर्श प्रतिस्पर्धा वाली अर्थव्यवस़्था में वस्तु का मूल्य अत्यल्प खर्च, मामूली लाभ के साथ ही लिखा जाता है। प्रतिस्पर्धा का वातावरण बढ़ाने के लिये क्या किया जाए। ( अर्थशास्त्र के इस किताबी ज्ञान को समिति से जानने की इच्छा किसी की नहीं थी, न ही समिति के कार्यक्षेत्र में प्रतिस्पर्धा का वातावरण बढ़ाने के तरीके तलाशना था।)
4. पैकिंग की गई वस्तु की MRP की घोषणा उत्पादक या व्यापारी में से किसे करनी चाहिए। ( समिति के सामने MRP से संबंधित कोई प्रश्न ही उनके कार्य क्षेत्र में नहीं था। उसमें स्पष्ट लिखा था कि पैकिंग वस्तुओं पर MRP लिखना यथावत जारी रहेगा, फिर यह प्रश्न क्यों?)
5. यदि यह घोषणा उत्पादक करता है तो यह कैसे सुनिश्चित हो कि वह उसमें कानून सम्मत लाभ से अधिक न जोड़ सके। ( समिति के कार्यक्षेत्र से MRP का कोई संबंध ही नहीं तो समिति बार बार MRP रटकर अपने किस उद्देश्य को साधने की नीयत से काम कर रही है।)
6. यदि घोषणा खुदरा विक्रेता करता है तो किस तरह सुनिश्चित किया जाये कि घोषित मूल्य में असामान्य लाभ सम्मिलित नहीं है। (यहां भी समिति अपने कार्य क्षेत्र के बाहर MRP की ही बात कर रही है)
7. घोषित मूल्य उचित है, यह कैसे सुनिश्चित किया जाए। आप यह सुनिश्चित करने के लिए कि घोषित मूल्य में उत्पादक तथा व्यापारी का साधारण लाभ ही सम्मिलित है कौन सी सावधानियां अपनाने की सिफारिश करेंगे। ( यह प्रश्न भी समिति के कार्यक्षेत्र से बाहर MRP से सम्बन्धित अनावश्यक है।)
8. MRP यानी अधिकतम खुदरा विक्रय मूल्य (सभी करों सहित) घोषित करने के वर्तमान स्वरूप से किस प्रकार की समस्याएं खड़ी हो रही हैं। ( अब तक समिति अपना विशिष्ट हित साधने के लिए MRP की ही बात कर रही है। वर्तमान में MRP की प्रचलित प्रक्रिया में आने वाली समस्याओं को चिन्हित करना तथा उनका निराकरण ढूंढना, समिति के कार्यक्षेत्र में नहीं है।)
9. वैट के युग में हम मूल्य घोषित करने की प्रणाली कैसे लागू करेंगे। ( अब यहां वैट कहां से आ गया, समिति कौन सी मूल्य प्रणाली की बात कर रही है, MRP या Normative Price स्पष्ट नहीं है। समिति प्रश्न का उत्तर देने वालों को भ्रमित कर रही है।)
10. क्या पैकिंग की गई वस्तुओं पर अधिक मूल्य घोषित करना अभी भी प्रचलित है।
11. यदि प्रश्न संख्या 10 का उत्तर हां है तो उन वस्तुओं के नाम लिखें, जिनमें यह आज भी प्रचलित है। ( इस प्रश्न से मालूम हो गया कि प्रश्न 10 भी MRP के सम्बन्ध में है। यह कितना बेकार का प्रश्न है। समिति के सदस्यों को अपने सामने रखी मिनरल वाटर की बोतल व उस पर लिखी MRP भी नजर नहीं आई।)
12. क्या MRP नियंत्रित करने के लिये किसी अधिकारी की नियुक्ति आवश्यक है। ( समिति को MRP नियंत्रित करने के लिये अधिकारी की नियुक्ति की आवश्यकता ढूंढने का कार्य करने के लिए किसने कहा था।)
13. MRP के प्रभावशाली क्रियान्वयन के लिए किन मानदंडों को अपनाया जाना चाहिए। ( समिति Normative Price ( उत्पादन मूूल्य के समकक्ष) की घोषणा से संबंधित सम्भावनायें तलाश करने के लिये बनाई गई थी या MRP के प्रभावशाली क्रियान्वयन के लिए।)
प्रश्नों से ही स्पष्ट हो गया कि समिति के मस्तिष्क में सिर्फ MRP का पक्ष लेकर पूंजीपतियों द्वारा जारी ग्राहकों की लूट को न्यायोचित सिद्ध करना था। इसीलिए उसके कार्यक्षेत्र में MRP नहीं होने के बाद भी अपने प्रश्नों को सिर्फ और सिर्फ MRP पर ही केंद्रित रखा। जिस Normative Price को घोषित करने के नाम पर उसका गठन किया गया था उसका कहीं भी जिक्र तक नहीं किया।
अभी समिति की नौटंकी पूरी नहीं हुई है। 125 करोड़ ग्राहकों को सुबह से शाम तक होने वाली लूट से बचाने के लिये गठित इस समिति के उस सर्वेक्षण पर आप अपना सिर पीट लेंगे, जिसके आधार पर यह समिति निष्कर्ष पर पंहुची। पैकिंग वस्तुओं पर उत्पादन मूूल्य (Normative Price) लिखने की सम्भावना तलाश करने वाली समिति के विद्वान सदस्यों ने ऊपर दिए अनावश्यक व सन्दर्भहीन प्रश्न मात्र 16 लोगों से पूछे, जिनमें 15 उत्पादक, कार्पोरेट कम्पनियां और व्यवसायिक तथा औद्योगिक संगठन थे। ग्राहकों से सम्बन्धित मात्र अकेला मा. उच्च न्यायालय का याचिकाकर्ता था। जब प्रश्न ही सन्दर्भहीन हों तो उनके उत्तर, वह भी मात्र एक पक्ष के समिति के कार्य करने की शैली व आचरण पर प्रश्नचिन्ह छोड़ जाती है। समिति ने इन 16 सदस्यों की मात्र प्रश्न संख्या 4, 8, 10 व 12 ही रिकार्ड की है।
समिति की रिपोर्ट अनावश्यक, असन्दर्भित व हास्यास्पद टिप्पणियों से भरी पड़ी है। यहां उनका जिक्र भी करना बेकार है, यहां कामनकाज के श्री के के जसवाल व दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर श्रीराम खन्ना का विशेष उल्लेख आवश्यक है, जिन्होने इस ग्राहक विरोधी वातावरण में भी अपनी यह बात मुखरता से रखी कि पैकिंग वस्तुओं पर MRP के अतिरिक्त उत्पादक FPP (First Point Price) प्रथम विक्रय मूल्य भी मुद्रित करें। टैरिफ कमीशन का प्रतिनिधित्व करने वाले एक अन्य सदस्य श्री ए के शहा ने भी सराहनीय भूमिका निभाई, उनका कहना था कि उत्पादक पैकेट पर MRP के साथ ही Cost of Sales (कुल उत्पादन मूूल्य + बिक्री व वितरण खर्च + टैक्स व शुल्क) उत्पादक का लाभ तथा थोक व फुटकर विक्रेता का लाभ भी छापें। परन्तु इन तीनों की आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह थी, जिसे सुना नहीं जाना था और जो सुनी नहीं गई।
भारतीय ग्राहकों को लूट व शोषण के अन्धे कुयें से बाहर निकल पाने की जो रोशनी मा. उच्च न्यायालय केरल की एर्नाकुलम खण्डपीठ ने दिखाई थी सरकार, उद्योग जगत व सरकारी अनुकम्पा पर पलने वालोंं की इस नूरा कुश्ती को खेलने वालों ने बेचारे ग्राहक को एक बार फिर उस अन्धे कुयें में धकेल कर भारतीय ग्राहक आन्दोलन को कलंकित करने का इतिहास रच दिया। 14 मार्च 2008 को इस काली समिति ने अपनी कालिख भरी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। यह दिन भारतीय ग्राहक आन्दोलन का काला दिन है।
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