Thursday, 21 January 2021

वैचारिक नहीं, अस्तित्व की लड़ाई में जुटी है देश की राजनीति

आजादी के बाद देश का मिजाज बदलना कब शुरू हुआ, कहना कठिन है, परन्तु मिजाज बदल चुका है, यह साफ साफ दिखाई दे रहा है। यह नहीं कि इससे पहले देश का मिजाज कभी बदला ही नहीं, पहले भी एक दो बार बदला, लेकिन जूड़ी के बुखार की तरह, तपा तो खूब, लेकिन जल्दी ही शांत होकर, पतली गली से निकल लिया। जिसके कारण 67 वर्ष से राजनीति का अभेद्य दुर्ग खड़ा करने वालों को और उनके सिपहसालारों को कभी खुल कर सामने आने और खेलने का मौका नहीं मिला। सत्ता से बाहर होने के बाद या तो बदला मिजाज खुद-ब-खुद जुकाम की तरह बह जाता था या फिर पैरासिटामोल की हल्की खुराक दिये जाने पर ही बैठ जाता था। लिहाजा कभी ज्यादा तकलीफ़ हुई नहीं, विशेषज्ञ डाक्टर से इलाज कराना पड़ा नहीं, गाड़ी आराम से आगे खिसकती चली गई। 




आजादी के बाद से ही देश में अपने प्रभुत्व का ताना बुनने वाले और उनके सिपहसालार कभी इस बात को सोच-समझ ही नहीं पाये कि समय परिवर्तनशील है। रात कितनी ही लम्बी क्यों न हो, सुबह होनी ही है। लिहाजा वर्ष 2014 में देश के मिजाज में जब बदलाव आया, तो उन्होंने यह मान लिया कि यह भी देश के मिजाज में पहले हुये बदलावों की तरह का एक बुलबुला है, खुद ब खुद फूट जायेगा, अतः उन्होंने कुछ करने की जहमत नहीं उठाई। परन्तु वर्ष 2019 में एक बार फिर देश के मिजाज ने, उसी वर्ष 2014 वाले बदलाव पर दोबारा मुहर लगा दी। देश की आजादी के बाद देश के मिजाज में बदलाव, पहली बार, कुछ ठोस आकार ले रहा था, जिससे देश पर अपना स्थाई कब्जा मानने वाले हिलने लगे। उनको लोकतंत्र, संविधान, संवैधानिक व्यवस्थाएं , मतदाता की इच्छा सर्वोपरि जैसी अब तक की जाने वाली व्याख्यायें खोखली लगने लगी थी। उन्हें संसद जैसी कानून बनाने वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था में, तानाशाही राजनीति की पोषक नजर आने लगी थी। 

अब देश के मिजाज में बदलाव गंभीर रुख अख्तियार कर चुका था। गढ़ पर कब्जा करने वाले और कब्जा खोने वाले, दोनों के चेहरों पर गम्भीरता की रेखाएं उभर चुकी थी। कब्जा खोने वालों की चिंता, कब्जा करने वालों के पैर जमाने न देने और कब्जा करने वालों की भरपूर कोशिश अपने पैर अधिक मजबूती से जमाने की होने लगी। देश की सत्ता पर काबिज हुए लोग भी स्पष्ट रूप से समझ चुके थे कि देश का मिजाज बदल को रहा है और इस बदलाव को स्थायित्व देने के लिए उन्हें तेजी से आगे बढ़ना होगा, देश के जनमानस को परिवर्तन का साक्षात्कार करवाना होगा। बस फिर क्या था, उन्होंने तेजी से 72 सालों से लंबित देश के महत्वपूर्ण निर्णय लेने, उन्हें लागू करवाने की राह पर तेजी से कदम बढ़ाने शुरू कर दिए। जिनमें पाकिस्तान द्वारा चलाई जाने वाली आतंकी गतिविधियों पर आक्रामक रूख, देश में घुसपैठियों से निपटने के लिए CAA - NRC कानून, मुस्लिमों में तीन तलाक़ प्रथा, जम्मू कश्मीर से धारा 35A, 370 का निरस्तीकरण, देश के गरीबों के लिए विभिन्न योजनाएं और आजादी के बाद से ही लंबित कृषि सुधारों को लागू करने के लिए तेजी से आगे बढ़े। 

इस अप्रत्याशित आक्रमण से देश की सत्ता पर से अधिपत्य खोने वाला पक्ष और उसके सिपहसालारों में खलबली मच गई। उनके सामने भी आक्रामकता दिखाने के अतिरिक्त अन्य मार्ग न था। अतः वह उसी पर आगे बढ़ चले। आज देश का पत्रकार, बुद्धिजीवी, मीडिया, टीवी चैनल, राजनेता स्पष्ट रूप से दो धड़ों में बंट चुके हैं, यह बंटवारा किसी बौद्धिक या तार्किक आधार पर नहीं, सिर्फ और सिर्फ व्यक्तिगत पसंद और नापसंद के आधार पर है। 

इसका कारण और मूल समझने के लिए देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रारंभिक युग में जाना होगा, जब महात्मा गांधी के द्वारा कांग्रेस भंग करने की सलाह दिये जाने के बावजूद, कांग्रेस के प्रभावशाली नेता, सत्ता में अपनी स्थाई पैठ बनाने के उद्देश्य से देश का स्पष्ट विभाजन होने के बाद भी उसके आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अस्तित्व को तोड़ने मरोड़ने में लगे हुए थे। दूसरी तरफ इसका लाभ उठाते हुए, मुस्लिम लीगियों का वह खेमा, जो देश विभाजन के बाद पाकिस्तान नहीं जा सका था, एकमुश्त वामपंथियों से मिलकर देश के विभाजन पूर्व परिस्थितियों के बचे खुचे बीजों का संरक्षण करने में लग गया था। 

देश को इस चक्रव्यूह से निकलने और हकीकत समझने में लम्बा वक्त लग गया। इस अवधि में इन तत्वों के संरक्षण और आशीर्वाद से देश में एक सामांतर व्यवस्था बन गई। अब जब देश इस चक्रव्यूह को तोड़ नई व्यवस्था की तरफ निकल पड़ा है, सत्ता को स्थाई रूप से हाथों से फिसलते देख, यह वर्ग बेचैन हो उठा है। इसने व्यवस्था विरोध में युद्ध छेड़ दिया है। इनके पास न तो आधार है, न तर्क हैं और न ही समर्थन है। फिर भी अस्तित्व का प्रश्न है, अतः इन तत्वों का पुरजोर विरोध के साथ लड़ना तय है। अतः देश को धारा 370 वह 35A, तीन तलाक़, रोहिंग्या घुसपैठियों, CAA - NRC और अब किसान आन्दोलन जैसे अनेक आन्दोलन आगे भी देखने को मिलते रहेंगे, जिनमें समस्या का समाधान वैचारिक, तार्किक या वैज्ञानिक आधार पर नहीं, देश में अव्यवस्था फैलाने के आधार पर तय किया जायेगा।

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