Saturday, 23 January 2021

हिन्दुओं के सजग होते ही बिगड़ने लगे, धर्म और राजनीति के रिश्ते

 देश के अधिकतर बुद्धिजीवी आजकल धर्म, राजनीति और उनके आपसी रिश्तों के कारण बिगड़ते माहौल की दुहाई देने में लग गए हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि उनकी आलोचना के केन्द्र में हिन्दू धर्म ही है। यह लोग दाना पानी लेकर इसी बात को सिद्ध करने में लगे हैं कि देश के माहौल को बिगाड़ने के लिए, पिछले लगभग 600 वर्षों से आक्रमण का शिकार हिन्दू धर्म ही है।

चित्र सौजन्य : medium.com

मजे की बात तो यह है कि अपने तर्कों को सिद्ध करने के लिए यह लोग जिन उद्धरणों और घटनाक्रम का सहारा लेते हैं, उनका ईमानदारी से विश्लेषण करने पर उनके तर्क स्पष्ट रूप से खोखले नजर आते हैं। विशेष यह कि आज यह लोग जो आरोप हिन्दू धर्म पर लगा रहे हैं, उन्हीं आक्रमणों को पिछले कई शतकों से झेलने वाले हिन्दू धर्म और उसकी आवाज उठाने वालों में ही उन्हें सभी दोष नजर आते हैं। जबकि उनसे अधिक कट्टरता अपनाकर वातावरण को दूषित करने वाले अन्य धर्म उन्हें मासूम और सौहार्दप्रिय लगते हैं। वास्तव में इस वर्ग को हिन्दुओं द्वारा प्रतिक्रिया व्यक्त करना करने लगा है।


धर्म का राजनीति में प्रवेश तो ग्यारहवीं सदी में हो गया था, जब श्रावस्ती के हिन्दू राजा सुहेल देव राय को युद्ध में हराने के लिए महमूद गजनवी के सेनापति सैयद सालार मसूद ने गौ वंश का उपयोग किया था। इन लोगों को तो कालांतर में मुस्लिम लीग द्वारा धर्म का राजनीति में उपयोग कर देश का विभाजन भी नहीं दिखा। विशुद्ध धार्मिक आधार पर देश विभाजन के बाद देश में सभी धर्मों को समान अधिकार और सुविधायें प्रदान करने के स्थान पर अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक शब्दों का उपयोग और उनके अलग-अलग मापदंड तो शायद राजनीति को धर्म से अछूता रखने के ईमानदार प्रयास थे। जिन पर इन विशिष्ट लोगों के मुंह कभी नहीं खुले।


देश में धर्म की समीकरणों के आधार पर राजनीति करने वाले अनेकों राजनेता और राजनीतिक दलों के क्रिया कलापों से इस वर्ग को कभी कष्ट नहीं हुआ। इन्हें तो राजनीति में धर्म की समीकरणें तभी नजर आई, जब अपनी दिन-प्रतिदिन की दुर्दशा से चिंतित होकर हिन्दुओं ने भी अन्य धर्मों की राह पर चलते हुए, देश की राजनीति पर अपनी पकड़ मजबूत करनी शुरू कर दी, तभी इनको समझ आया, धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत दो तरीके से चलता है। या तो राज्य सभी धर्मों से समान दूरी बनाए रखे। या सभी धर्मों से समान प्रेम बनाए रखे। आज की सत्ता यह दोनों काम नहीं कर रही है बल्कि बहुसंख्यक समाज के धर्म से ज्यादा निकटता दिखा कर यह साबित करना चाह रही है कि अल्पसंख्यकों का धर्म दोयम दर्जे का है और राज्य बहुसंख्यक समाज के धर्म से दूरी नहीं बना सकता। सारा प्रयोजन इसी सिद्धांत को स्थापित करने के लिए हो रहा है।


अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए धन एकत्र करने के प्रयास में भी यह वर्ग अपनी उसी मानसिकता का आत्मदर्शन करना चाहता था, लिहाजा उसने उस पर धर्म और राजनीति के बिगड़ते रिश्तों का मुलम्मा चढ़ा दिया। विडंबना यह कि इन्हें कुछ वर्षों पूर्व धर्म की व्याख्या करने वाले, मात्र कुछ सौ वर्षों पूर्व जन्मे धर्मों के व्याख्याकारों की बात तो अपने कथन के पक्ष में उपयोगी लगी, परंतु हजारों वर्षों पूर्व लिखी और हिन्दू धर्म समर्थकों की बात हमेशा की तरह अविश्वसनीय ही लगी। जिसमें कहा गया है -


धारणाद्धर्ममित्याहु: धर्मो धारयते प्रजा: । यस्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चय: ।।

धर्म शब्द की उत्त्पत्ति धारणा शब्दसे हुई है। धर्म प्रजा या समाज को अंर्तविष्ट कर रखता है। अतः जो व्यक्ति को संयुक्त रूप से समाविष्ट कर सके, वह निश्चय ही धर्म है।


धर्म लोगों को एक साथ लयबद्ध करता है जोड़ता है। यह उन्हें दिखाई नहीं देता, अपने तर्क को पुष्ट करने के लिए वह यहूदी धर्म के उस लेखक को उद्धृत करते हैं, जिन्हें धर्म के कारण ही नेस्तनाबूद कर दिया गया और जो आज भी धर्म के आधार पर अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्षरत हैं। स्वाभाविक तौर पर उस लेखक की व्याख्या में धर्म के विश्लेषण में दमन की वह विभीषिका ही सामने आयेगी, जिसे उसके पूर्वजों ने झेला है। उसकी वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हिन्दू धर्म के समर्थकों से तुलना, अनुचित ही नहीं अक्षम्य है।


इजरायल के यहूदी युवा इतिहासकार युआल नोवा हरारी का अपनी पुस्तक ` ट्वेंटी वन लेशन्स फार ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी’ के एक अध्याय में मानना है,  कि इक्कीसवीं सदी के इस वैज्ञानिक युग में धर्म की भूमिका सीमित हो गई है। ` इस सदी में धर्म बारिश नहीं कराता, वह लोगों की बीमारियों का इलाज नहीं कराता, वह बम नहीं बनाता पर वह यह निर्धारित करने में आगे आता है कि `हम’ कौन हैं और `वे’ कौन हैं। वह यह भी तय करता है कि हम किसका इलाज करें और किस पर बम गिराएं।


देश के हिन्दू धर्म को इस विश्लेषण के आईने में देखना कितना सही और उपयुक्त है, इसका निर्णय आप स्वयं करें। सत्ता से कब्जा हटाते और किसी किसी अन्य विचार वाले की पकड़ मजबूत होते ही देश के बहुसंख्यक धर्म को इस प्रकार अतिश्योक्तिपूर्ण तरीके से लांक्षित करने का प्रयोग और प्रयास वर्ग विशेष के द्वारा किया जा रहा है, जो निश्चित ही निंदनीय है।


ईमानदार प्रयास वह होगा, यदि धर्म के आधार पर स्वतंत्रता पूर्व से देश में चलने वाली राजनीति का विश्लेषण, धर्म के राजनीति में हस्तक्षेप और उसके कारण बहुसंख्यकों के द्वारा झेले गये घावों को ध्यान में रखकर किया जाये। धर्म निरपेक्षता शब्द की हिन्दू विरोधी परिभाषा को भूल, उसके यथार्थवादी मर्म को ध्यान में रखते हुए, उसकी व्याख्या की जाये। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व और बाद में घटित उस इतिहास की हकीकतों को कुरेदा जाये, उन तथ्यों पर गम्भीरता से विचार किया जाये, जिनके कारण बहुसंख्यक हिन्दू समाज, अत्यल्प समय में ही कथित सांप्रदायिक हिन्दुत्ववादी शक्तियों के बहकावे में आकर, एकजुट हुआ ही नहीं, निरंतर उसी मार्ग पर बढ़ता चला जा रहा है।

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