भारतीय राजनीति के क्षितिज पर अपनी रेखा दूसरे की रेखा से लम्बी दिखाने की निपुणता कांग्रेस ने दूसरे की रेखा मिटाकर हासिल की है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अपनी असफलताओं को छिपाने के लिए कांग्रेस ने इसे डटकर अपनाया। यही वजह थी कि उसने स्वतंत्रता संग्राम में अपने प्राण न्यौछावर करने वाले क्रांतिकारियों को देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन की सफलता का जरा भी श्रेय नहीं दिया। अनेकों क्रांतिकारियों पर अंग्रेजों से माफी मांगने के आरोप लगाये, जबकि कांग्रेस नेता खुद अंग्रेजों की गोद में बैठे और उन्होंने उस प्रत्येक मौके पर अंग्रेजों का साथ दिया, जब क्रांतिकारी आसानी से देश को आजाद करा सकते थे। कांग्रेस द्वारा पिछले 70 वर्षों में देश के इतिहास की तोड़ मरोड़ कर की गई प्रस्तुति के बावजूद, यह तथ्य खुद ब खुद उभर कर सामने आ रहे हैं।
विडंबना यह है कि एक अंग्रेज द्वारा 1985 में यह संगठन अंग्रेजों के प्रति सहानुभूति पैदा करने के लिए स्थापित किया गया था। देश के 1947 में आजाद होने तक कांग्रेस ने ईमानदारी से इस भूमिका का निर्वहन किया। उस पर तुर्रा यह देश की आजादी के लिए तीन असफल आंदोलन करने वाली कांग्रेस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों पर देश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग न लेने के आरोप लगाकर, देश की आजादी का संपूर्ण श्रेय अपने ही खाते में डालती रही है। जबकि 1925 में जन्मा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शैशव काल में भी देश में क्रांतिकारियों और कांग्रेस द्वारा किए गए आन्दोलनों में अपनी शक्ति के अनुसार योगदान करता रहा है। जबकि राजनीति कारणों से कांग्रेस हमेशा यह झूठ प्रचारित करती रही कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आजादी के आंदोलनों से दूर रहा।
हकीकत यह है कि देश की स्वतंत्रता के लिए कांग्रेस के द्वारा किया प्रत्येक आंदोलन में देश के संपूर्ण जनमानस द्वारा पूरा साथ देने के बावजूद, यह आंदोलन कांग्रेस की अकर्मण्यता, दूरदर्शी नीति , सही कार्यक्रम एवं नेतृत्व के अभाव में बुरी तरह असफल हुये। इस विषय में थोड़ी बहुत चर्चा हुई, परंतु आजादी के बाद लम्बे समय तक सत्ता पर काबिज कांग्रेस इस विषय को दबाने में कामयाब रही?
असहयोग आन्दोलन
कांग्रेस ने 4 सितंबर 1920 में अपने कलकत्ता अधिवेशन में प्रस्ताव पास कर असहयोग आन्दोलन शुरू किया, परंतु इस आंदोलन के साथ अंग्रेजों के द्वारा तुर्की के खलीफा को अपदस्थ करने के विरोध में भारत के मुसलमानों द्वारा किए जाने वाले आंदोलन को जोड़ दिया। जिसके कारण पूरे देश का जनमानस भ्रमित हो गया कि वह देश की स्वतंत्रता के लिए आंदोलन कर रहा है या तुर्की के खलीफा को दोबारा स्थापित करने के लिए अंग्रेजों से लड़ रहा है। कांग्रेस नेतृत्व जनमानस को दिशा वह नेतृत्व दे पाने में पूरी तरह विफल था। इसी कारण उत्तर प्रदेश के चौरी चौरा की घटना घटित हो गई, जिसके कारण कांग्रेस ने अपना आंदोलन वापस ले लिया। नतीजा ढाक के तीन पात रहा, न देश को आजादी मिली और न ही तुर्की के खलीफा को अंग्रेजों ने कोई रियायत दी।
देश में सिर्फ कुछ स्थानों पर यह आंदोलन अपना प्रभाव छोड़ पाया। क्योंकि वहां के नेताओं ने रणनीति भी बनाई थी, कार्यक्रम भी तय किये थे और आगे आकर जनमानस को नेतृत्व भी दिया था। इन स्थानों में मध्य प्रांत भी था, जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जन्मदाता डा हेडगेवार के नेतृत्व में "असहयोग आंदोलन समिति" बनाई गई। 18 अगस्त 1920 को बनाई गई इस समिति में डा घोलकर, मनोहर पंत बोबडे, आर एन पाध्ये एवं विश्वनाथ केलकर थे। असहयोग आंदोलन के लिए कार्यकर्ता तैयार करने के लिए आंदोलन समिति बाकायदा बौद्धिक एवं शारीरिक प्रशिक्षण वर्गों का आयोजन कर रही थी। डा हेडगेवार ने प्रयास कर सैकड़ों युवाओं को आंदोलन से जोड़ लिया था। 11 नवंबर 1920 को नागपुर असहयोग समिति ने एक सप्ताह असहयोग सप्ताह के रूप में मनाया, अनेकों सभायें आयोजित की गई।(महाराष्ट्र, 19मई 1921, पृष्ठ 5) वर्ष 1921 के प्रारंभ तक मध्यप्रान्त में आंदोलन की लपटें तेज हो गई थी।
22 फरवरी 1921 को डा हेडगेवार ने एक सभा में घोषणा की कि नागपुर में न तो शराब की कोई दुकान चलने दी जाएगी, न ही किसी को शराब पीने दिया जायेगा। इस सभा के बाद नागपुर के जिला अधीक्षक सुरीली जेम्स इरविन ने डा हेडगेवार को लिखित नोटिस भेजा - "मैं आप पर सभा करने, सभा में भाग लेने और किसी भी तरह से आम सभा से जुड़ने पर प्रतिबंध लगाता हूं।" डा हेडगेवार ने इस आदेश को मानने से मना कर दिया।(महाराष्ट्र, 20 अप्रैल 1921, पृष्ठ 3)
नागपुर में असहयोग आंदोलन से उच्च जातियों और पढ़े लिखे लोगों के साथ कमजोर और गरीब लोग बड़ी संख्या में जुड़ रहे थे, जिसे देखकर कर नागपुर से प्रकाशित होने वाले अंग्रेजों के समर्थक अखबार ने टिप्पणी की - जिस प्रकार के लोगों को स्वयंसेवक बनाया जा रहा है, उसे देखकर यह कहना अतिश्योक्ति होगा कि आंदोलन का शांतिपूर्ण चरित्र बना रहेगा।(महाराष्ट्र, 26 अप्रैल 1921, पृष्ठ 4)
मई 1921 में डा हेडगेवार पर राजद्रोही भाषण देने के लिए मुकदमा चलाया गया। इस मुकदमे का आधार डा हेडगेवार द्वारा अक्टूबर 1920 में काटोल और भरतवाडा की सभाओं में दिये भाषण थे।(फाइल नं 28/1921, राजनीतिक भाग 1, पैरा 17 राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली)
अदालत ने डा हेडगेवार को राजद्रोह का दोषी मानते हुए, 1 वर्ष तक इस प्रकार के भाषण न देने का आश्वासन देने के साथ ही 1 - 1 हजार रुपए की दो जमानतें और 1 हजार रुपए का मुचलका देने के लिए कहा। डा हेडगेवार ने स्वयं को निर्दोष बताते हुए जमानत और मुचलका देने से मना कर दिया। जिसके कारण न्यायाधीश ने उनको 1 वर्ष सश्रम कारावास की सजा सुनाई। मध्य भारत प्रांत से प्रकाशित केसरी, महाराष्ट्र,यंग पैट्रियट और उदया आदि अखबारों ने अदालत में डा हेडगेवार द्वारा दिये तर्कों की सराहना की, उदया ने अपने संपादकीय में लिखा - न्यायालय में डा हेडगेवार का वक्तव्य स्पष्ट एवं सरल था। यद्यपि डा चोलकर की तरह उन्होंने भी स्वतंत्रता के लक्ष्य का प्रतिपादन किया, परंतु उन्हें 1 वर्ष सश्रम कारावास की सजा दी गई। इस तरह की सजा नौकरशाही पर आधारित व्यवस्था के विरुद्ध जनसामान्य के आक्रोश एवं घृणा को नहीं रोक सकती है। (उदया, संपादक भी जी खापर्डे, भारतीय समाचार पत्रों पर रिपोर्ट, मध्य प्रांत एवं बरार, संख्या 35/1921, राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली)
डा हेडगेवार को नागपुर की अजनी जेल में रखा गया। 11 जुलाई 1922 को सजा पूरी कर डा हेडगेवार बाहर आये। अगले ही दिन चिटणीस पार्क में उनके स्वागत के लिए सभा रखी थी, जिसमें प्रांत के कांग्रेसी नेताओं के साथ कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की तरफ से हकीम अजमल खां, मोतीलाल नेहरू, राजगोपालाचारी, डा अंसारी और विट्ठल भाई पटेल मौजूद थे। (महाराष्ट्र, 12 जुलाई 1922, पृष्ठ 5)
फ़रवरी 1922 में ही कांग्रेस उत्तर प्रदेश के चौरी चौरा की घटना के कारण आंदोलन वापस ले चुकी थी।
सविनय अवज्ञा आंदोलन
कांग्रेस का दूसरा आंदोलन सविनय अवज्ञा आंदोलन था। कांग्रेस ने फरवरी 1930 में लाहौर अधिवेशन के बाद साबरमती की सभा में सविनय अवज्ञा आंदोलन करने का निर्णय लिया। यह आंदोलन अंग्रेजों द्वारा बनाए नमक कानून के विरोध में था। आंदोलन का प्रारंभ गांधी जी ने 6 अप्रैल 1930 को गुजरात के दांडी नामक स्थान में नमक कानून तोड़कर किया।
मध्यप्रान्त के अकोला में यह आंदोलन गुरुवार 9 अप्रैल 1930 को नमक कानून तोड़कर शुरू किया गया। परंतु आंदोलन अन्य स्थानों की तरह प्रभावहीन था। कांग्रेस की प्रांतीय समिति ने आंदोलन में जान फूंकने के लिए केन्द्रीय नेतृत्व को इसमें जंगल सत्याग्रह शामिल करने की सलाह दी, जिसे कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने स्वीकृति दे दी। इसी से स्पष्ट है कि आंदोलन शुरू करने के पूर्व आंदोलन के स्वरूप के विषय में सही जानकारी का अभाव रहा। जिसका प्रभाव आंदोलन पर पड़ा।
इस समय तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हो चुकी थी। नागपुर में संघ की 37 शाखाएं खुल चुकी थी। संघ का दूसरा सबसे बड़ा केन्द्र वर्धा था, जहां 12 शाखाएं थीं। इस समय देश राजनीतिक उथल-पुथल से गुजर रहा था। राष्ट्रीय आंदोलनों में संघ की भूमिका निर्धारित करने के लिए संघ ने नवंबर 1929 में संघ की एक बैठक नागपुर में की थी। तीन दिन तक चली इस बैठक में तय किया गया कि संघ कांग्रेस द्वारा घोषित आंदोलनों का पूरी तरह बिना शर्त समर्थन करेगा। 1930 के मध्य तक संघ की 52 शाखाएं बन चुकी थी। संघ के स्वयंसेवक भी सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय हो गए।
14 जुलाई 1930 को आंदोलन में भाग लेने के लिए नागपुर से डा हेडगेवार के नेतृत्व में एक जत्था पुसद रवाना किया गया। डा हेडगेवार के साथ अप्पा जी जोशी, बाला साहेब ढवले, दादा राव परमार्थ, विट्ठल राव देव, भैय्या जी कुंबलवार, आर्वी के अंबाडे, चांदा के पालेवार आदि प्रमुख थे। सत्याग्रह के पहले चरण की शुरुआत पुसद में एम एस अणे ने की, परंतु इसे अपेक्षित सफलता नहीं मिली। यह देखकर आंदोलन के लिए बनाई गई वार काउंसिल ने 21, जुलाई को यवतमाल में डा हेडगेवार के नेतृत्व में सत्याग्रह करने की घोषणा की, वार काउंसिल ने संघ के नेताओं से अलग अलग टुकड़ियों का नेतृत्व करने के लिए कहा।
21 जुलाई को सुबह 6 बजे स्वयंसेवकों ने नागपुर के मैदान से ध्वज वंदन कर सत्याग्रह प्रारंभ किया, सत्याग्रहियों को काटन मार्केट जाना था। वहां सत्याग्रह करना था। सत्याग्रह स्थल पर पुलिस के साथ वन विभाग के अधिकारी भी उपस्थित थे। डा हेडगेवार ने जैसे ही जंगल कानून तोड़ा, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
21, जुलाई की शाम डा हेडगेवार पर मुकदमा चला, न्यायाधीश भरूचे ने उनको 9 माह सश्रम कारावास तथा 379 के अंतर्गत तीन माह सश्रम कारावास की सजा सुनाई। दोनों सजायें एक साथ चलनी थी। डा हेडगेवार को ट्रेन से अकोला ले जाया गया, मार्ग में हर जगह उनका स्वागत किया गया। दारव्हा में तो कांग्रेस के नेताओं ने दाऊ के नेतृत्व में प्लेटफार्म पर सभा कर डाली, पुलिस ने भीड़ देखते हुए डा हेडगेवार को मंच पर जाने की अनुमति दे दी। डा हेडगेवार 14 फरवरी 1931 को अकोला जेल से छूटे।
उधर कांग्रेस ने आंदोलन के चलते नवंबर 1930 में लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन में भाग नहीं लिया। परंतु कांग्रेस सितंबर 1931 में होने वाले गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए तैयार हो गई। जिसके लिए वायसराय लॉर्ड इरविन उन सभी राजनीतिक कैदियों को छोड़ने के लिए तैयार हो गए जिन पर हिंसा के आरोप नहीं थे। बदले में कांग्रेस भी सविनय अवज्ञा आन्दोलन स्थगित करने के लिए तैयार हो गई। आंदोलन स्थगित कर दिया गया।
मार्च 1931 में कराची सम्मेलन में कांग्रेस ने गांधी जी को द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए अधिकृत किया। गांधी जी ने सितंबर 1931 में हुए सम्मेलन में भाग लिया परंतु कोई नतीजा नहीं निकला, सम्मेलन असफल हो गया। भारत लौट कर गांधी जी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन पुनः शुरू किया। अंग्रेजों ने गांधी जी और कांग्रेस के अन्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया।
आंदोलन चलता रहा और 1934 में वापस ले लिया गया।
अंग्रेजों भारत छोड़ो आन्दोलन
सबसे पहले उस समय की देश और वैश्विक परिस्थितियों को समझ लेते हैं। क्योंकि इस आंदोलन की घोषणा में इन परिस्थितियों के प्रभाव से उपजा घटनाक्रम अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
1 सितंबर 1939 को द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ हुआ। ब्रिटेन युद्ध में भारत से सहयोग चाहता था, परन्तु कांग्रेस ब्रिटिशों से सहयोग के बदले आजादी देने की मांग कर रही थी। इसी बात को लेकर वायसराय लिनलिथगो ने 52 प्रतिनिधियों को बैठक करके लिए बुलाया। इस बैठक में गांधी जी, नेहरू और जिन्ना आदि नेता भी सम्मिलित थे। वायसराय ने कांग्रेस की किसी बात को नहीं माना और बैठक बेनतीजा रही।
सन् 1940 के मध्य तक ब्रिटेन बुरी तरह युद्ध हार रहा था। जर्मनी की सेनायें हारेंगे, बेल्जियम, डेनमार्क, नार्वे और फ्रांस को जीत चुकी थी। उधर जापान भी जर्मनी की सेनाओं की मदद के लिए आगे आ रहा था।
अंग्रेजों की इस संकट की घड़ी में देश के क्रांतिकारी योजनाएं बनाकर । उन्हें मदद करने के लिए कांग्रेस आगे आईं। 7 जुलाई 1940 को कांग्रेस कार्यसमिति ने पूना बैठक में प्रस्ताव पारित कर अंग्रेजों को सहयोग देना शुरू कर दिया। स्मरण रहे इस सहयोग के बदले कांग्रेस ने अंग्रेजों से जो रियायतें मांगी, उन्हें देने से अंग्रेजों ने मना कर दिया। इस सहयोग के विषय में गांधी जी ने कहा - "हम ब्रिटेन के विनाश की कीमत पर देश की स्वतंत्रता नहीं चाहते। " नेहरू बोले - "ब्रिटेन की कठिनाईयों में भारत का सौभाग्य नहीं है।"
7 सितंबर 1941 को जापान के युद्ध में सम्मिलित होने से अंग्रेजों की परिस्थिति और विकट हो चुकी थी। जर्मनी रूस की तरफ बढ़ रहा था। अंग्रेजों को मुसीबत में देख कांग्रेस ने दिसंबर के अंत में बारडोली में कार्यसमिति की बैठक बुलाकर, अंग्रेजों के विरुद्ध सभी आंदोलनों को स्थगित कर, अंग्रेजों का साथ देने का निर्णय लिया। यह झूठ की पराकाष्ठा है कि वही कांग्रेसी निर्लज्जता से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर अंग्रेजों से मिले होने के आरोप लगाते हैं।
इसी बीच वैश्विक परिस्थितियों और अंग्रेजों की स्थिति देख, उस समय जापान में रह रहे प्रसिद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस ने 18 मार्च 1942 को भारतीय नेताओं का सम्मेलन बुलाकर भारतीय स्वतंत्रता लीग और आजाद हिन्द फौज बनाने की घोषणा कर दी। इसके बाद रासबिहारी बोस की ही अध्यक्षता में 14 से 23 जून तक बैंकाक में जापान से बर्मा तक के देशों में बसे भारतीयों का एक सम्मेलन बुलाया गया। जिसमें भारतीय बड़ी संख्या में शामिल हुए और आजाद हिन्द फौज में 50,000 सैनिक भर्ती हो गए। जापान से आजाद हिन्द फौज को भारत की सेना के रूप में मान्यता देने को कहा गया।
इन वैश्विक परिस्थितियों के बीच 27 अप्रैल 1942 को कांग्रेस की इलाहाबाद में हुई कार्यसमिति की बैठक में विचार किया गया कि अंग्रेजों को अब भारत से चले जाना चाहिए। इसी के बाद 14 जुलाई को वर्धा में हुई कांग्रेस कार्यसमिति में अंग्रेजों भारत छोड़ो प्रस्ताव पास कर लिया गया। कांग्रेस नेताओं ने आंदोलन का निर्णय तो ले लिया परंतु न जाने क्यों पूर्व के आंदोलनों की विफलता से सबक लेते हुए उसकी कोई तैयारी नहीं की, न ही देश भर के नेताओं को आंदोलन के कार्यक्रमों और रुपरेखा की कोई जानकारी दी गई।
इसका पूरा खामियाजा कांग्रेस के द्वारा आयोजित इस तीसरे आंदोलन को भुगतना पड़ा। 8 अगस्त 1942 को बम्बई के गोवालिया टैंक में हो रहे कांग्रेस के वार्षिक सम्मेलन में इस प्रस्ताव को पारित कर दिया।
अंग्रेजों ने पहले दिन ही कांग्रेस के पूरे नेतृत्व को गिरफ्तार कर लिया। पूर्व तैयारी, रूपरेखा और कार्यक्रम के अभाव में पहले दिन से ही आंदोलन नेतृत्व विहीन हो गया। जहां पर जिसको जो ठीक लगा, उसी रूप में उसने आंदोलन को आगे बढ़ाया। समुचित दिशा निर्देश, कार्यक्रम और संपर्क के अभाव में देशी रियासतों के राजाओं, सरकारी कर्मचारियों, सेना, पुलिस के उच्च अधिकारियों तक आंदोलन से संबंधित जानकारी ही नहीं पंहुची।
देश के अन्य राजनीतिक संगठनों को जानकारी न दिये जाने के कारण भारतीय साम्यवादी दल व मुस्लिम लीग ने आंदोलन का खुलकर विरोध किया। इसके साथ ही अकाली दल, हिन्दू महासभा, समाज का उच्च वर्ग, दलित वर्ग कांग्रेस के पूर्व आंदोलनों से सबक लेते हुए आगे नहीं आये।
प्रारंभ से ही नेतृत्व विहीन हो जाने के कारण आंदोलन गांधी जी के अहिंसा के सिध्दांतों से हटकर हिंसात्मक हो गया।
(संवैधानिक विकास एवं स्वाधीनता संघर्ष, सुभाष कश्यप, पृष्ठ 185)
(Nehru speech in Lahore on 25 July 1945)
(पट्टाभि सीतारमैया, कांग्रेस का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ 531 से 533 तक)
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