स्विट्जरलैंड अपने वयस्क बेरोजगार नागरिकों को 2500 स्विस फ्रेक लगभग 1लाख 73 हजार तथा 18 वर्ष से कम उम्र वालों को 625 स्विस फ्रेक लगभग 43 हजार प्रतिमाह का वेतन देना चाहता था। इसके लिये वहां की सरकार ने लोगों से राय मांगी, 5 जून को वोटिंग हुई और इस प्रस्ताव के विरोध मे 77 प्रतिशत वोट पड़े, नतीजतन प्रस्ताव फेल हो गया। बस फिर क्या था, देश मे तरह तरह की प्रतिक्रियायें शुरू हो गई। किसी ने इसके वहां के लोगों की खुद्दारी से तोला, किसी ने वहां के मेहनतकशों की बल्लैया ली और अपने देश के लोगों को निखट्टू, कामचोर तथा मुफ्तखोर के विशेषणों से विभूषित कर दिया। चुनावों मे मुफ्तखोरी का वादा करने वालों के हाथों बिकने की लानत मलानत दे डाली।
यह आर्थिक प्रश्न हैं। इनके उत्तर सीधे और सरल नहीं होते।अपने गर्भ मे यह बहुत से प्रश्न छिपाये रहते हैं। इसका विश्लेषण उस तरह तो बिल्कुल नहीं किया जा सकता जैसे किया गया। इस विश्लेषण मे विश्लेषक भी गलत नहीं, उन्होने दिल्ली, तमिलनाडु, उडीसा तथा उत्तर प्रदेश मे लोगों को मुफ्त चुनावी वादों के पीछे अपने अरमान चमकाने के लिये भागते देखा और तुलना कर दी। देश के बहुसंख्य लोगों के चेहरे पर मुफ्तखोरी का लेबल चिपका दिया। मै देश के जनसाधारण की उस मानसिकता का पक्षधर नहीं जो भ्रष्ट राजनीतिज्ञों, अधिकारियों तथा व्यापारियों के हाथों स्वयं को लुटते देखने के बाद, भागते भूत की लंगोटी पकड़ना चाहता है। एक और कहावत है - भूखे भजन न होई गोपाला। ऋगवेग मे भी कहा गया है - बुभुक्षित: किम् न करोति पापम्! अर्थात भूख से पीडित व्यक्ति कुछ करे, वह पाप नहीं होता। सामाजिक मूल्यों के पतन को भी इन स्थितियों मे समाज की मान्यता मिलने लगती है। इसीलिये पंडित दीनदयाल उपाध्याय अर्थायाम यानी अर्थ के अभाव तथा अर्थ के प्रभाव से मुक्त अर्थव्यवस्था का समर्थन करते थे। मेरे इन तर्कों से आधुनिक अर्थशास्त्र का अभ्यास करने वाले तथा सेकुलर जमात के लोग चिल्लाने लगेंगे कि यहां भी हिन्दू विचार घुसेड़ रहा है । छोड़िये हम आज चलने वाले अर्थशास्त्र के आधार पर ही स्विट्जरलैंड तथा अपने देश के लोगों की मानसिकता को परख लेते हैं। वैसे एक बात तय है, नागरिक किसी भी देश के हों, निम्न तथा मध्यम आय वर्ग के लोग ही देश तथा समाज के निर्माण मे सर्वाधिक योगदान करते हैं। अपने परिवार की खुशियों की कीमत पर भी।
अर्थशास्त्र मे एक "उपयोगिता ह्रास" का सिद्धान्त है। जिसमे बताया जाता है कि किसी वस्तुओं की उपयोगिता उसके मिल जाने पर धीरे धीरे कम होती जाती है, जैसे कोई व्यक्ति बहुत भूखा है। उसे खाने के लिये एक रोटी मिल जाये, तो उस रोटी की उपयोगिता भूखे के लिये अधिकतम होगी। भूखे को जैसे जैसे अतिरिक्त रोटी. मिलती जायेगी, इन अतिरिक्त रोटियों की उपयोगिता उसी भूखे व्यक्ति के लिये क्रमश: कम होती जायेगी तथा एक बिन्दु पर वह शून्य हो जायेगी । अतः इस प्रश्न का उत्तर भारत तथा स्विट्जरलैंड, साथ ही वहां के लोगों की आर्थिक स्थितियों की समीक्षा किये बिना बेमानी है। कम से कम स्वस्थ एवं निष्पक्ष विवेचना की यही मांग है ।
वर्ष 2014 मे विश्व हैं द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार स्विट्जरलैंड 84,720 डालर प्रति व्यक्ति आय के साथ विश्व मे 8वें नम्बर पर है और हमारे देश की प्रति व्यक्ति आय मात्र 1570 डालर है, स्विट्जरलैंड से लगभग 55 गुना कम। हम 213 देशों की सूची मे 180वें स्थान पर हैं। यद्यपि मै राष्ट्रीय आय के इन औसत आंकड़ों से सहमति नहीं रखता, क्योंकि अधिकतम और निम्नतम मे तफावत बहुत अधिक है। अपने देश मे पिछले दिनों उत्तर प्रदेश मे भूख से तीन मौतें भी हुई हैं, 1570 डालर की आय के बावजूद । इसे आप विचित्र विसंगति मानेंगे या नहीं । आय मे तफावत स्विट्जरलैंड मे भी कुछ कम नहीं है, स्विट्जरलैंड के फेडरल स्टेटिक्स विभाग द्वारा जारी आंकड़ों के हिसाब से वर्ष 2013 मे 50% अधिकतम आय वाले व्यक्तियों ने राजस्व का 80% आय के रूप मे प्राप्त किया। जबकि बाकी बचे 50% लोग राजस्व का मात्र 20% ही घर ले जा पाये।
परन्तु इससे आगे जो हुआ वह विचार करने योग्य है। वहां की सरकार ने 50% अधिकतम कमाई करने वालों की कुछ आय को निम्न आय वाले घटकों को स्थानान्तरित कर तथा आर्थिक रूप से कमजोर घटक को कुछ सामाजिक सुरक्षा लाभ उपलब्ध करवा कर, इस अन्तर को कम किया। जिसके बाद उच्च आय घटक की आय घटकर 70% रह गई तथा निम्न घटक की आय बढ़कर 30% हो गई। यही नहीं अाय असमानता कम करने के इस प्रयास मे सरकार द्वारा सबसे कम आय वाले 10% वर्ग की आय को 54 गुना बढ़ाया गया तथा इसके बाद वाले घटकों की आय को 4 गुना बढ़ाकर आय के अन्तर को 4.9 गुना सीमित किया गया।
अब अपने देश की भी बात कर लेते हैं, गरीबों की मदद तो छोड़िये, उनसे वसूल किये गये अप्रत्यक्ष कर मे से वर्ष 2005-06 से 2013-14 तक कार्पोरेट घरानों को 36.5 लाख करोड़ रुपये कर्ज माफी के रूप मे दे दिये गये। यानी जो कुछ स्विट्जरलैंड मे हुआ ठीक उसका उल्टा। वहां अमीरों से पैसा लेकर गरीबों को दिया जा रहा है और यहां गरीबों से लेकर अमीरों को। सरकार, राजनेताओं, नौकरशाह, अमीर सब इसी काम मे लगे हैं। गरीब मध्यम वर्ग को लूटने के नये नये तरीके ईजाद करने मे लगे हैं। इन हालातों मे यदि गरीब कहीं मुफ्त मिलने वाले माल को लपक लेना चाहता है तो हाय तोबा क्यों? मै यह नहीं रहता कि यह रवायत सही है। सच बात तो यह है कि हम गहरी खाई की तरफ बढ़ते जा रहे हैं, परन्तु गलत तो सभी हैं, ठीक भी सभी को करना पड़ेगा। उत्कृष्ट प्रबन्धन तो यही कहता है कि छोटे मोटे गढ्ढों को छोड़कर बड़े तथा गहरे गढ्ढों पर पहले ध्यान दो। यकीन मानिये भारत के लोग त्याग करने मे, वह भी देश समाज के लिये, विश्व मे सबसे आगे हैं।
(पं दीनदयाल विचार दर्शन, एकात्म अर्थनीति, Corporate Karza Mafi - P S Sainath, World Bank Data Table,Atlas Method, Inequality in Switzerland by Le News 1.2.16)
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