Thursday, 15 September 2016

कब तक दाना मांझी बहरीन के शाह या कैमरे के लैन्सों की बाट जोहेंगे

सामाजिकता कितनी उथली होती जा रही है। हमारा सामाजिक सरोकार कितना सीमित होता जा रहा है। यह असंवेदनशीलता की पराकाष्ठ नहीं तो क्या है। आज भी देश में कितने दाना मांझी व्यवस्था, गरीबी, तिरस्कार तथा असंवेदनशीलता की लाश अपने कन्धों पर उठाये घूम रहे होंगे, इस इन्तजार में कि कोई कैमरा उनके जीवन के इन मर्मस्पर्शी क्षणों को पकड़े और एक रोमांचक कहानी के रूप मे देश के सामने ले आये। बाजारवाद ने हमारे रहन सहन के साथ साथ हमारा नजरिया भी बदल दिया है। जीवन की संवेदनाओं, मार्मिकताओं, आर्थिक विषमताओं से भरी समसयाओं का निदान हमनें चयनित स्वरूप में कुछ रूपये फेंकने मे तलाश लिया है। किसी भी कोण द्रष्टिकोण से देखें, क्या यह इस समस्या का अंशमात्र भी निदान है।

Oxfem का सर्वेक्षण कहता है, दुनिया के आधे लोगों के बराबर सम्पत्ति विश्व के मात्र 66 लोगों के पास है। देश के 10% सबसे धनी लोग देश की 74% सम्पत्ति पर कब्जा जमाये बैठे हैं। सरकारें कभी यह टैक्स तो कभी वह टैक्स का खेल खेल कर, ग्राहकों के बहुमत को उम्मीदों का झुनझुना थमा रही हैं। बेचारा ग्राहक न्यूनतम जीवनावश्यक वस्तुओं तक अपने हाथों की पँहुच बनाने के लिये, अपने इतने से स्वप्न के साकार होने की उम्मीद मे, अन्तहीन प्रतीक्षा मे अटका हुआ है। विश्व मे समाज के बीच आर्थिक अन्तर की खाई, निरन्तर अपनी गहराई बढाने मे द्रुतगति से व्यस्त है। सन्तोष हो सकता था, यदि ग्राहकों के बहुमत की जद मे न्यूनतम जीवनावश्यक आवश्यकताओं की आपूर्ति होती, परन्तु वह तो कल भी उनकी पंहुच से बहुत दूर थी और आज भी उनके लिये मृग मारीचिका ही है।

हमारे पुरखे आर्थिक विषमता के इस विष से तबाह हो चुके हैं। हमारी स्थिति तो उनसे कहीं बदतर है और हमारी आने वाली नस्लें अपने माथे पर कुछ इसी तरह की इबारत लिखवाकर ही पैदा हो रही हैं। क्या हमारी पीढ़ियां यह आर्थिक अभावों से लबरेज जीवन जीने के लिये अभिशप्त हैं या फिर स्थितियों मे बदलाव सम्भव है। यह बदलाव क्या गाहे बगाहे दोचार प्रचारित लोगों को चन्द सिक्के फेंक कर प्राप्त करना संभव है। दाना मांझी की वास्तविक जख्म "आज मेरे पास पैसा आ रहा है, कल इसके अभाव में मेरी पत्नी मरते समय अपनी तीन बेटियों में से सिर्फ दो को ही देख पाई, क्योंकि मै उन्हे घर पर छोड़ बड़ी बेटी के साथ पत्नी का इलाज कराने शहर आया था, तेरह किलोमीटर तक उसके शव को उठाकर पैदल चला" पैसों की यह चादर ढ़क पायेगी।

क्या देश मे अब कोई दाना मांझी नहीं होगा या यह सब कुछ समय का मात्र भावनात्मक खेल है। इससे नहीं चलने वाला है। गरीब, इन्सान और लुप्त होती मानवता के लिये हमें इस जैसी समस्याओं की बुनियाद को टटोलना होगा, उसे बदलना होगा।

वह कौन सी व्यवस्थायें हैं, जिन्होने इस क्रम को इतना मंहगा बना दिया कि दाना मांझी अपनी पत्नी को ईलाज के लिये शहर के सरकारी अस्पताल अपनी तीनो बेटियों के साथ ले जा सके। उसकी मृत्यु होने पर उसका शव अपने गांव घर लाकर उसका संस्कार कर सके। यह सब दिनचर्यायें इतनी मंहगी बनाकर इन्हे दाना मांझियों की पंहुच से दूर करने का जिम्मेदार कौन है, यह समाज, सरकार या अर्थव्यवस्था। आखिरकार यह विलासिता की क्रियायें तो नहीं, जीवन की अनिवार्य क्रियायें हैं, जिन तक दाना मांझियों की पंहुच बननी चाहिये।

किसी की भी सहज प्रतिक्रिया होगी। दाना मांझियों को इन क्रियाओं को सहज रूप से पूरा करने के लिये, अपेक्षित धन कमाना चाहिये, कौन उसको यह धन कमाने के अवसर देगा और यदि उसे धन कमाने के अवसर न दिये गये तो फिर उसकी व्यवस्था क्या होगी, वर्तमान जैसी ? या वह और उसके जैसे लोग जीना ही छोड़ दें। असंख्य प्रश्न हैं जिनके उत्तर समाज, सरकार तथा अर्थव्यवस्था को देने हैं। पं दीनदयाल उपाध्याय भी इन्ही प्रश्नों के उत्तर ढूंढने की बात अपने एकात्म अर्थचिन्तन मे किया करते थे।

सामाजिक संवेदना आज कितनी भी क्षीण हो चुकी हो, पर मरी नहीं है। यह चेतना पूरे विश्व में कभी न कभी किसी न किसी रूप में प्रस्फुटित होती रही है, होती रहेगी। नहीं तो कई हजार मील दूर बैठे बहरीन के शाह को यह न करना पड़ता। परन्तु आज आवश्यकता इन आर्थिक प्रश्नों के स्थायी हल प्राप्त करने की है। कब तक दाना मांझी बहरीन के शाह या कैमरे के लैन्सों की बाट जोहेंगे, वह भी सब कुछ लुटने के बाद।

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