Monday, 24 October 2016

GST पर चर्चा में वही नदारद जिसे टैक्स देना है


देश में वस्तु एवं सेवा कर ( GST ) पर जबरदस्त चर्चा छिड़ी हुई है। कहा जा रहा है कि सभी प्रभावित पक्ष इस गहन मन्थन में लगे हुये हैं, सिर्फ उसको छोड़कर जिसे अपनी जेब से इस कर को चुकाना है। वह पक्ष जिससे यह टैक्स वसूला जायेगा। उसे चर्चा में सम्मिलित करना कोई महत्वपूर्ण भी नहीं समझता, यह भी जरूरत नहीं समझी जाती कि उससे पूछ तो लिया जाये कि भाई तुम कितना भार वहन कर पाने में सक्षम हो। जो भी पक्ष इ्स चर्चा में सम्मिलित हैं या इसे अन्तिम रूप देने की कोशिश कर रहे है परजीवी (Parasites) हैं। उनमे से कोई भी 1 नये पैसे के बराबर भी कर का भार वहन करने वाला नहीं है, न सरकारें, न उद्योगपति और न ही व्यापारी। हमारी सरकारों के न जाने कब अक्ल आयेगी या वह कब समझेंगे कि जिनके सहारे उनकी वित्तीय व्यवस्थायें चल रही हैं, जो इस मामले में सबसे महत्वपूर्ण पक्ष हैं। उनकी भी राय ले ली जाये, उनसे भी पूछ लिया जाये। हम यहां ग्राहकों के प्रतिनिधि बनने की दुकान चला रहे, उन इक्के दुक्के स्वनामधन्य लोगों की बात नहीं कर रहे, जन संगठनों की बात कर रहे हैं। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत सरकार के इस रूख की घोर निन्दा करती है।

विद्वानों द्वारा कर निर्धारण करने की नीतियों से सम्बन्धित विचार आज ठीक उसी तरह अर्थशास्त्र की पुस्तकों मे दफन हो चुके हैं, जिस प्रकार अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों को पढ़ाये जाने वाले, वस्तु का विक्रय मूल्य निर्धारित करने में उसके उत्पादन मूूल्य की भूमिका से सम्बन्धित विचार। समाज की आर्थिक विषमता दूर या कम करने की भूमिका से अब कर निर्धारणकर्ता बहुत दूर जा चुके हैं। कर सरलीकरण या कर सुधार के नाम पर आसान तरीकों से अधिक से अधिक धन उगाही ही उनका एकमेव उद्देश्य बन चुकी है। इस सम्बन्ध में विभिन्न स्तरों पर किये जाने वाले दुष्प्रचार का आलम यह है कि जो व्यक्ति सरकार को एक पैसा टैक्स नहीं देता, उसे कर द्वारा पैसा देकर सरकार चलाने वाला माना जा रहा है। जिसके पैसे से सरकार चल रही है, उसे अधिक निचोड़ा जा रहा है। मजे की बात यह कि अपने पैसे से सरकार चलाने वाले भी नहीं जानते कि सरकार उनके पैसे से चल रही हैं, वह भी यही समझते हैं कि सरकार उनके नहीं किसी दूसरे (धनाड्यों) के पैसे से चल रही है। यह हकीकत है कि सरकार देश की 85% गरीबी रेखा के नीचे, ऊपर रहने वालों, निम्न मध्यम वर्ग तथा मध्यम वर्गीय लोगों के पैसे से चल रही है। यह मै नहीं कह रहा आंकडे कह रहे हैं। आप किसी भी वर्ष के कर एकत्र करने से सम्बन्धित आंकडे देख लीजिये। स्मरण रहे कि व्यक्तिगत आय कर के अतिरिक्त वसूल किये जाने वाले सभी कर अन्तत: ग्राहक को ही अपनी जेब से चुकाने पड़ते हैं।

सरकारों का प्रयास हमेशा कर की आय बढ़ाने का रहता है। कभी किसी तो कभी किसी बहाने से, परन्तु चिन्ता की बात यह है कि कर का सबसे अधिक बोझ ग्राहकों के उसी वर्ग पर डाला जाता है, जिसे इस बोझ से सबसे अधिक संरक्षण देने की जरूरत होती है। ग्राहक, कर के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण बात जान लें कि जिन वस्तुओं का ऊला ढाल अधिक होता है। उन पर लगने वाले कम कर के कम प्रतिशत से भी राजस्व का बहुत बड़ा हिस्सा आता हैं। परन्तु यह गरीब वर्ग पर ही सर्वाधिक बोझ डालता है। सरकार कर ढ़ांचे में जब भी कोई बदलाव लाती है, उसका मूल लक्ष्य कर से आने वाले राजस्व को बढ़ाना होता है। यद्यपि यह बदलाव गरीब ग्राहकों को राहत देने के नाम पर लाये जाते हैं, परन्तु हर बार उन पर ही अतिरिक्त बोझ लाद दिया जाता है। इसी अनुभव के कारण जब पूरा देश GST पर कशीदे पढ़ने में व्यस्त था। ग्राहक पंचायत स्थिति का अवलोकन कर रही थी, उसे मालूम था जो कुछ भी कहा जा रहा है, वास्तविक स्थिति उससे बहुत अधिक भिन्न होगी। अब इसी बात को ले लीजिये, समान 18% कर की बात चल रही थी, पहली बैठक जो पूरी सफल भीा नहीं रही, उसमे कर के चार स्तरों 6%, 12%, 18% तथा 26% की बात की जाने लगी। सरकार के मुख्य दावे कि पूरे देश में किसी भी वस्तु के कर की एक दर होने के कारण, एक जैसी कीमत होगी, भी खटाई मे जाती नजर आ रही है। क्योंकि GST लागू होने पर बाकी सभी कर समाप्त  करने की बात कहने वालों के सुर अभी से बदलने लगे हैं। अभी भी सही वक्त नहीं आया है GST पर टिप्पणी करने का, स्थिति थोड़ी स्पष्ट होने दीजिये। फिर भी हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि GST लागू होने पर उसके वह प्रभाव आपको दूर दूर तक ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगे, जिनके ढोल इसे प्रचारित करने के लिये पीटे गये जैसे GST लागू होने पर ग्राहकों को वस्तुयें सस्ती मिलने लगेंगी। समर्थन लेने के लिये जिन्हे लालच दिया गया, उन्हे तो चर्चा में दूर दूर तक भी जगह नहीं दी जा रही है। सरकार बिना विलम्ब ग्राहक क्षेत्र में कार्य करने वाले जन संगठनों को भी चर्चा के लिये आमन्त्रित करे।

वर्तमान सरकार दीनदयाल उपाध्याय के आदर्शों को लेकर चल रही है। दीनदयाल जी का यह शताब्दी वर्ष चल रहा है। अत: सरकार को पंक्ति के अन्तिम सिरे पर बैठे व्यक्ति का विचार करना चाहिये। यह विचार अनुदान के माध्यम से करना बेमानी है। यह सही स्वरूप में कर सुधार के माध्यम से ही लागू हो सकता है। अत: सरकारों को टैक्स सुधार के उन अध्यायों को फिर से खोलने की आवश्यकता है। जिनमें अमीरों पर अधिक कर तथा गरीबों पर कम कर लगाने की बात कही गई है। आज विश्व के अनेको अर्थशशास्त्री इस बात पर पुनः जोर देने लगे हैं। विश्व की बढ़ती आर्थिक असमानता की स्थिति. में सरकारों द्वारा यह मार्ग अपनाने की आवश्यकता है। यह मार्ग अप्रत्यक्ष कर (Indirect Tax) की गली से होकर निश्चित रूप से नहीं गुजरता।

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