Friday, 16 October 2015

दालें दुर्लभ वस्तुओं मे शामिल

भारतीय दलहन शोध संस्थान के अनुसार वर्ष 2030 तक देश की जनसंख्या 1.6 बिलियन पँहुच जायेगी और उसे 32 मिलियन टन दालों की आवश्यकता पडेगी। इस लक्ष्य के अनुसार देश को प्रतिवर्ष दलहन के उत्पादन मे 4.2% बढोत्तरी करने की जरूरत है। देश मे दलहन उत्पादन का अब तक का इतिहास बहुत निराशाजनक रहा है। पिछले 40 वर्षों मे दलहन का उत्पादन देश मे 1% वार्षिक से भी कम गति से बढा है। जबकि देश की जनसंख्या इससे दुगनी गति से बढी है।

दशकों से हमारे नेताओं द्वारा इस क्षेत्र की उपेक्षा ही वर्तमान हालातों की जिम्मेदार हैं। बलराम जाखड और शरद पवार जैसे कृषि मन्त्री यह योजनायें तो बनाते रहे कि हम अफ्रीका, बर्मा और उरूग्वे जैसे देशों मे दाल की खेती करवाकर वहां से दाल आयात करें। परन्तु उन्होने यह कभी नहीं सोचा कि देश का किसान दाल की खेती से क्यों भाग रहा है। उसे कैसे प्रोत्साहित किया जाये। दालों का जोत क्षेत्र कैसे बढाया जाये। दालों की प्रति हेक्टयर उपज बढे, इसके लिये क्या किया जाये। अतः हम आज जिस स्थिति मे हैं, उसके बीज हमने वर्षों पूर्व बोये थे। मजे की बात यह कि दालों का उपभोग करने वाला बडा देश होने के बावजूद हम इसके महत्व को नहीं समझे, आस्ट्रेलिया समझ गया, 1970 मे हमसे 400 ग्राम दाल के बीज लेकर गया। 10 वर्ष बाद उसका दलहन का जोत क्षेत्र था 90 लाख हेक्टयर, आज वह हमारे देश को दाल निर्यात कर रहा है। मालाबी जैसे छोटे देश भी हमे 5000 टन दाल आयात करने की स्थिति मे हैं। ।

यद्यपि दालों के लिये हमारा देश विश्व का सबसे बडा उत्पादक, उपभोक्ता व आयातक है। दुनिया की कुल दाल की खेती के एक तिहाई भाग मे हम दाल की खेती करते हैं। दुनिया के दाल उत्पादन का 20 प्रतिशत उत्पादन हमारे यहां होता है। परन्तु हम अपनी जरूरत से काफी पीछे हैं और हमने इसपर उचित ध्यान भी नहीं दिया, क्योंकि आजादी के बाद भी हमारे शासक नेता अंग्रेजों की मानसिकता मे जी रहे थे। अंग्रेज दाल का उपयोग करते नहीं हैं, इसे दूसरे दर्जे का अनाज मानते हैं। हमारे नेताओं ने भी यही किया दाल को दूसरे दर्जे का अनाज मानकर इसके विकास पर समुचित ध्यान ही नहीं दिया। गेंहू - चावल मे ही लगे रहे, देश मे दाल की कमी को आयात के सहारे पूरा करते रहे।

देश मे दाल उत्पादन की तरफ उचित ध्यान न देने के कारण किसान इस फसल की ओर आकर्षित नहीं हुये क्योंकि लम्बी अवधि की फसल होने साथ इसमे कीटों व बीमारियों का खतरा अधिक था, अच्छे बीजों की कमी भी थी, दूसरे किसान को बाजार मे दलहन की फसल के खरीदार भी नहीं मिलते थे। 2008 से सरकार ने दालों के समर्थन मूल्य की घोषणा जरूर शुरू कर दी, परन्तु सरकार द्वारा खरीद न करने के कारण किसान को व्यापारियों पर ही आश्रित रहना पडता है। इन कठिनाईयों की तरफ सरकार ने ध्यान नहीं दिया, किसान दलहन की फसलों से किनारा करते रहे। नतीजतन 1980 - 81 मे 22.46 मिलियन हेक्टयर मे 10.63 मिलियन टन के उत्पादन को 35 वर्ष बाद 2013 - 14 मे हम 19.7 मिलियन टन तक ही पँहुचा पाये। सरकार द्वारा इस ओर देर से ध्यान देने के कारण हम काफी पिछड चुके हैं। कुछ दिन पहले ही चने और तुवर की 100 दिनों मे तैयार होने वाली फसल खोजने मे हमे सफलता मिली, दक्षिण भारत के लिये JG-11 नाम की किस्म भी तैयार की गई है। परन्तु 760 किलो प्रति हेक्टयर की  पैदावार को अन्य देशों की तरह 1200 किलो प्रति हेक्टयर तक ले जाना शेष है। संक्षेप मे कहें तो दलहन उत्पादन के लिये देश मे अनुसन्धान, किसानों को प्रोत्साहन, बुआई के क्षेत्र को बढाना, पैदावार को बढाना आदि महत्वपूर्ण चुनौतियां देश की सरकार के सामने हैं।

वर्तमान बाजार को देखें तो अनियमित वर्षा ने  30% फसल बरबाद कर दी। 2013-14 मे 19.25 मिलियन टन की तुलना मे 17.3 टन दलहन का ही उत्पादन हुआ। दूसरे देशों मे भी फसल खराब हुई है, जिससे कीमतों मे 20 से 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। डालर की तुलना मे रूपये की गिरावट ने स्थिति को और बिगाडा है। यद्यपि सरकार द्वारा आयात की गई 10,000 टन तुवर, उडद दाल प्रक्रिया मे है। 5000 टन दाल और आयात की जा रही है। कठिन हालातों के बावजूद इस तरह की परिस्थितियों का अनैतिक लाभ उठाने वालों की भी कमी नहीं है। जमाखोरों द्वारा मुनाफाखोरी के लिये माल बाजार से गायब करने के चलते हालात अधिक खराब हुये हैं। सरकार को जमाखोरों पर कठोर कार्यवाही करने की जरूरत है, तभी ग्राहक को थोडी बहुत राहत मिलनी सम्भव है। वरना ग्राहक की दाल गलनी कठिन है।

Thursday, 15 October 2015

सावधान रहकर ऑनलाईन मार्केटिंग का लाभ उठायें

अॉन लाईन शापिंग कम्पनियों  की आजकल बाढ आई हुई है। घर पर बैठकर फुर्सत से खरीदारी वह भी दुनिया भर के ब्रान्डों की, बाजार से सस्ते दामों पर, घर पँहुच सेवा और न जाने क्या क्या। आज के  समय मे यदि आप अॉनलाईन शॉपिंग से परिचित नहीं, अॉनलाईन शॉपिंग नहीं करते तो आप पिछडते जा रहे हैं। इस आधुनिक मार्केटिंग तकनीक का लाभ उठाने से वंचित हैं।

समय परिवर्तनशील है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मे नये नये प्रयोग हो रहे हैं। एल्विन टॉफलर की 3rd वेव थ्योरी रंग ला रही है। अब तक के निर्धारित नियम व व्यवस्थायें ध्वस्त हो रही हैं, उनके स्थान पर नवीन व्यवस्थायें जन्म ले रही हैं। नये सिद्धान्त बन रहे हैं। जिनके चिन्ह हमे अपने आसपास प्रचुरता मे दिखाई देते हैं। हम किसी भी नयी  व्यवस्था को अपनाने से सिर्फ इसलिये मना नहीं कर सकते, क्योंकि अबसे पहले की व्यवस्था अलग तरह की थी। समाज, उत्पादन तथा बाजार मे जो paradigm shift हो रहा है, हमे उससे ताल जरूर मिलानी है। यह दीगर बात है कि हम उस नवीन व्यवस्था का कितना और कैसे उपयोग करते हैं। अतः ऑनलाईन मार्केटिंग का जड़ से विरोध करना बेमानी है।

बाजार मेे ग्राहक को उत्पादन मंहगे मिलने के सम्बन्ध मे अधिकतर अर्थशास्त्रियों का अभिमत बाजार मे बडी संख्या मे बिचौलियों का होना बताया जाता था। कहा जाता था इसीकारण बाजार मे उत्पादन अपनी उत्पादन लागत से बहुत अधिक दामों पर बिकता था।अॉन लाईन कम्पनियों ने एक बात तो स्पष्ट कर दी कि इसने व्यापारी या बिचौलियों को जो ग्राहकों को 9 रु की वस्तु 90रु मे बेचकर बेहिसाब लूट रहे थे, किनारे बैठाकर, ग्राहकों को अतिरिक्त लाभ का हिस्सेदार बना  दिया। बाजार मे सम्पत्तियां अत्यधिक मंहगी होने का लाभ भी ऑनलाईन कम्पनियों को मिला। जब तक यह लाभ ग्राहक को मिलता है, इसे लेेने मे कोई हर्ज नहीं। वैसे ऑनलाईन कम्पनियों मे भी यह विचार तेजी से पनप रहा है कि जो दिखता है वह बिकता है। इसलिये ऑनलाईन कम्पनियां बडे बडे शहरों मे अपने शो रूम खोलने परभी विचार करने लगी हैं। उनका यह भी मानना है कि इस प्रकार वह अपने ग्राहकों को और बेहतर सेवायें दे सकेंगी।

अॉन लाईन कम्पनियों ने उत्पादन मूल्य और विक्रय मूल्य के विशालकाय अन्तर को देश के सामने स्पष्ट कर दिया है। वस्तुओं की कीमतों मे बाजार और अॉन लाईन कम्पनियों मे विशालकाय अन्तर इसीलिये दिखाई देता है, क्योंकि उत्पादक उत्पादन लागत से बहुत अधिक कीमत एम आर पी मे लिखते हैं। टैक्स चोरी जैसी बातें अॉन लाईन व्यवसाय मे तथ्यहीन हैं। इतनी जगह लिखापढी होती है कि टैक्स  वसूलने वाले विभागों की ये आसान पकड मे हैं। ग्राहक कानून भी इन कम्पनियों पर पूरी तरह लागू है। ग्राहक उपभोक्ता फोरम मे जा सकता है।

परन्तु प्रत्येक चमकने वाली वस्तु जिस तरह सोना नहीं होती, उसी तरह थोडी सी असावधानी ग्राहक के लिये समस्या भी खडी कर सकती है। अत: ग्राहकों को इन कम्पनियों से खरीदारी करते समय अलग तरह की सावधानियां अपनाने व सतर्क रहने की आवश्यकता है।

१. बाजार की खरीदारी की तरह इसमे भी समय लगायें। सिर्फ उत्पादन की फोटो देखकर वस्तु न खरीदें।
२. कई बार देखा गया है कि वस्तु का चित्र ब्रान्डेड कम्पनी का होता हैै, परन्तु विवरण दूसरा लिखा होता है। अत: पूरा विवरण पढने के बाद, चित्र से उसे मिलाकर सुनिश्चित होनेो के बाद ही आर्डर दें।
३. वस्तु के साथ दी जानकारी को पूरा पढें, समझें। यदि फिर भी वस्तु के विषय मे कोई शंका है तो आर्डर देने से पूर्व कम्पनी से लिखकर पूछ लें।
४. किसी ब्रान्ड की वस्तु और उसके जैसी वस्तु मे बहुत अन्तर होता है। अत: like, type या as जैसे शब्दों के चक्र मे न उलझें।
५. वस्तु के मूल्य को आर्डर देने से पूर्व स्थानीय बाजार मे सुनिश्चित कर लें। अनेको बार वस्तु उसी दाम पर या सस्ती स्थानीय बाजार मे मिल जाती है।
६. जहां तक सम्भव हो payment on delivery option का उपयोग करें।
७. वस्तु सन्तोषप्रद न होने पर शिकायत तुरन्त करें।
८. आप जिस कम्पनी को आर्डर कर रहे हैं, उसके बारे मे अच्छी तरह समझ लें। आजकल बहुत सी नकली कम्पनियां भी धोखाधडी करने के लिये सक्रिय हैं।

Wednesday, 12 August 2015

सम्पूर्ण विश्व की अर्थनीति पर पुनर्विचार आवश्यक

50 वर्ष पूर्व दीनदयाल उपध्याय जी को यह अहसास हो चला था कि विश्व जिस अर्थनीति मे मानव जीवन के विकास की अपार सम्भावनायें मानकर आगे बढ़ रहा है, वह एकांगी है। उसमे सहअस्तित्व के विचार का कोई स्थान नहीं है। वह जानते थे कि यदि हमें स्थाई विकास प्राप्त करना है तो इस सहअस्तित्व को स्वीकार ही नहीं, इसका संरक्षण भी करना पडेगा। उन्हे मालूम था कि जिन भौतिक संसाधनों के भरोसे हम स्वयं को विकास की दौड़ मे शामिल रखते हैं, वह प्रकृति से प्रदत्त हैं, अतः प्रकृति व सृष्टि के अन्य तत्वों से समरूप या एकरूप हुये बिना विश्व के लिये स्थाई कल्याणकारी अर्थनीति ढूंढ पाना संभव नहीं, एकात्म मानव दर्शन का उदय इसी तत्कालीन वैश्विक परिवेष की उत्पत्ति है। परन्तु उस कालखंड मे हम अपने देश की भौगोलिक, सामाजिक व प्राकृतिक विविधताओं को दरकिनार पश्चिमी विकास चक्र के रंग मे इस कदर सराबोर थे कि हम अपने खरे सोने को मिट्टी समझने की भूल कर रहे थे। मुझे याद है एक बार मै अपने कुछ समाजवादी, साम्यवादी मित्रों के साथ चर्चा कर रहा था, वह समझने को तैयार ही नहीं थे कि यह सूत्र दर्शन अपने मे विश्व कल्याण का मन्त्र संजोये है। ठीक उनकी तरह तब देश ने भी नहीं समझा। आज जब विश्व मे जीव विज्ञान, राजनीति, भौतिक विज्ञान, अर्थ विज्ञान को देखने परखने का नजरिया बदलने लगा है, इन सभी शास्त्रों को खंड खंड न देखकर, आसपास मौजूद अन्य अवयवों के कारण पड़ने वाले प्रभावों को भी संज्ञान मे लेने की, wholestic systematic approach की बात होने लगी है, जिसके कारण आज एकात्म मानव दर्शन की सार्थकता दुनिया के सामने स्पष्ट हो रही है।

दीनदयाल जी को समय मिलता तो निश्चित रूप से वह अपनी सिध्दान्त रूप मे कही बात की व्याख्या करते। परन्तु अर्थनीति की दिशा और उसके विश्व समुदाय पर पड़ने वाले प्रभाव दीनदयाल जी समझ चुके थे।  उन्होने कहा था - "साध्य और साधन का विवेक समाप्त हो रहा है। अर्थोत्पादन जीवन का आवश्यक आधार ही नहीं सम्पूर्ण जीवन बन गया है।" पंडित जी अपनाई जाने वाली पश्चिमी नीतियों और उसके समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर चिन्तित थे। आगे उनका कहना था -  "साध्य का पता लगे बिना साधन का निश्चय कैसे हो सकता है। हमारी परम्परा और संस्कृति हमे यह बताती है कि मनुष्य केवल भौतिक आवश्यकताओं और इच्छाओं का पिण्ड नहीं, अपितु वह एक आध्यात्मिक तत्व है।" उस समय की भौतिक नीतियों मे अध्यात्मिक तत्व की अनुपस्थिति का मर्म और कालान्तर मे विश्व पर उसके सामाजिक प्रभावों को दीनदयाल जी जैसा व्यक्तित्व ही समझ सकता था। वह परिणामों से आशंकित थे। आज विश्व प्रगति के किसी भी शिखर को रौंदने मे सक्षम क्यों न हो, सामाजिकता के स्तर पर तो वह धूलधूसरित फर्श पर उखडी सांसें लेता नजर आता है। आज भी 5300 मिलियन जनसंख्या वाले विश्व मे 1000 मिलियन लोग हैं जिन्हे भरपेट भोजन नहीं मिल पाता (Lean,Hinrichsen& Markham 1990). आर्थिक विषमताओं से भरे वर्तमान प्रगतिशील विश्व मे - सर्वे भवन्तु सुखिनः कैसे कह सकेंगे, जब अपनाई जाने वाली अर्थनीति दुनिया की आधी से अधिक सम्पत्ति पर मात्र 2 प्रतिशत लोगों को काबिज करा दे और आधी दुनिया मात्र 1 प्रतिशत सम्पत्ति बांट कर उस पर गुजारा करे।

भारत की रग रग से वाकिफ गांधी जी को दरकिनार कर जब देश ने पश्चिमी अर्थनीति की तरफ कदम बढ़ाये थे, तभी स्पष्ट हो गया था कि देश प्रगति तो करेगा, परन्तु इसका दायरा सीमित होगा, देश का बहुत बड़ा वर्ग इससे वंचित रहेगा। 2012 की जनगणना के आंकड़े इस स्थिति को स्पष्ट कर रहे हैं। दीनदयाल जी जानते थे कि देश का एक प्रभावशाली वर्ग पश्चिमी व्यवस्था की तरफदारी इसलिये कर रहा है क्योंकि यह उसके हितों के अनुरूप है। पंडित जी कहते थे -  "भारत मे ऐसे लोग भी बहुत बड़ी संख्या मे हैं जिनके हित पाश्चात्य अर्थव्यवस्था और उत्पादन प्रणाली से जुड़े हैं। जिस अर्थव्यवस्था का भारत मे विकास हुआ उसने भारत और पश्चिम के औद्योगिक देशों की व्यवस्थाओं को एक दूसरे का पूरक बनाया। जिसमे भारत के हितों का संरक्षण नहीं हुआ, बल्कि उसका शोषण होता रहा है"। दीनदयाल जी जानते थे कि विश्व विकास का नाम लेकर, जिस अर्थनीति का पीछा कर रहा है, अन्ततोगत्वा वह विश्व के लिये कल्याणकारी नहीं होगी। वह अर्थनीति के साध्य और साधन दोनो की स्पष्टता को लेकर चिन्तित थे।  अर्थनीति मे नैतिक मूल्यों के अभाव व उसके कारण पड़ने वाले प्रभाव से वह चिन्तित थे , उनका कहना था - "जिस पश्चिम का अनुकरण कर हम अपने अर्थनैतिक मूल्यों की प्रतिस्थापना कर रहे हैं, वहां जीवन के इस सर्वग्राही भाव के लिये कोई स्थान नहीं है।  फलतः आज हमारे मन, वचन और कर्म मे अर्न्तविरोध उत्पन्न हो गया है"। भारतीय चिन्तन से विमुखता हमें सही मार्ग पर ले जाने की जगह भटकाव की स्थिति मे पँहुचा देगी, वह महसूस कर रहे थे - "अर्न्तचेतना और बाह्यकर्म दो विरोधी दिशाओं में खींच रहे हैं। जो कुछ भी हम करते हैं, अन्यमनस्क भाव से और जब हमे अपने प्रयास सफल होते हुये ही नहीं दिखते तो मन में विफलता, आत्मज्ञान और आत्मविश्वासहीनता का भाव उत्पन्न होता है"। अन्यमनस्क स्थिति से उबरने और उभरने के लिये विश्व को सर्वहितकारी कल्याणकारी मार्ग की आवश्यकता थी, दीनदयाल जी का एकात्म मानव दर्शन का सूत्र इसी परिप्रेक्ष्य मे है।

बिलासपुर मे प्रवास के समय एक बुजुर्ग से भेंट हुई, वह संशय  व्यक्त कर रहे थे कि दीनदयाल जी की नीतियां पुरानी पड़ चुकी हैं। वर्तमान मे कैसे लागू हो सकती हैं। वैसे वह दीनदयाल जी के भक्त थे या तो उनकी आयु अभ्यास मे बाधक थी या फिर वह हमारी परीक्षा ले रहे थे। लेकिन यह चिन्ता बहुत लोगों की हो सकती है, उन्हे जान लेना चाहिये, कोई भी सिध्दान्त सूत्र रूप मे होता है। उसे देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप अपनाना पड़ता है और फिर पंड़ित जी के एकात्म मानव दर्शन का आधार तो हजारों वर्षों की तपस्या से विकसित जीवन के मूलभूत, चिरन्तन सत्य पर आधारित भारतीय दर्शन है, जो चिरस्थाई है, कभी पुराना न पड़ने वाला, सभी के कल्याण के विचार वाला है। दीनदयाल जी ने उस समय अधिक से अधिक लोगों को रोजगार मिले, अतः साठवें दशक की परिस्थितियों के अनुरूप, गांवों मे रहने वाली देश की बहुसंख्य आबादी के विकास हेतु कृषि क्षेत्र पर अधिक ध्यान देने पर जोर दिया था। कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह था कि दुनिया मे धन का बँटवारा इस तरह हो कि अन्तिम छोर पर बैठा व्यक्ति भी विकास के फलों का स्वाद चख सके। परन्तु उस समय पश्चिमी विश्व स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ मे था और हम पश्चिम को श्रेष्ठ मानने की दौड़ मे। नतीजतन आज पूरी दुनिया उस स्थिति मे पँहुच चुकी है जिसमे दुनिया की 1 प्रतिशत आबादी एवरेस्ट की चोटी पर है और आधी से अधिक आबादी गहरी खाई मे। इन दोनों को समीप लाने का असम्भव कार्य करना है। यदि दोनो छोरों पर बैठने वालों का विश्लेषण करें तो यह तथ्य सामने आता है कि शीर्ष पर बैठा 1 प्रतिशत वर्ग उद्योग या व्यवसाय से जुड़ा है, जबकि नीचे वाली आधी आबादी खाद्यान्न पैदा करने वाली व्यवस्था अर्थात कृषि या उससे सम्बन्धित व्यवसाय से जुड़ी है। जिसका सीधा अर्थ है कि विश्व मे धन का बहाव गरीब व्यक्ति से या कृषि से उद्योग की तरफ है। जिसके कारण अधिकांश आबादी के द्वारा अर्जित किया जाने वाला धन, उनके हाथों से फिसलकर उद्योजकों के पास चला जाता है। सभी के कल्याण की बात सोचने का अर्थ है, धन के इस स्थानान्तरण को रोकना। पश्चिमी अर्थनीति के पास इसका कोई निराकरण नहीं है, परन्तु दीनदयाल जी के एकात्म मानव दर्शन की सर्व कल्याणकारी व्यवस्था मे इसकी उपाय योजना है।

उद्योजकों के पास इतना अधिक धन इसलिये जमा हो गया है, क्योंकि वर्तमान आर्थिक व्यवस्था मे अन्य लोगों के पास धन रूकने नहीं दिया गया। दुनिया के उद्योजकों ने अपने उत्पादनों को बेचने मे मुनाफा कमाने के स्थान पर मुनाफाखोरी का रास्ता अपनाया। औद्योगिक उत्पादनों के विक्रय मूल्य उत्पादन लागत के 100 से 2000 गुना तक रख कर दुनिया की अधिकतर दौलत पर अधिकार जमाने के बारे मे सोचा। विश्व के राजनीतिक नेतृत्व ने इस कार्य मे उनका साथ दिया। जिसके कारण अधिकांश आबादी को अपनी कमाई का अधिकांश भाग उनको देना पड़ा, वह अपने कमाये धन से ही वंचित होते गये। विश्व मे सर्वकल्याणकारी अर्थव्यवस्था लागू करने के लिये इसको रोकने के लिये आवश्यक कदम उठाने होंगे।सभी के कल्याण के लिये विश्व नेतृत्व को औद्योगिक उत्पादनों का विक्रय मूल्य उत्पादन लागत पर उचित मुनाफे के आधार पर तय करने के विषय मे विचार करना चाहिये। इससे अधिकांश आबादी के पास धन की उपलब्धता बढ़ेगी और वह अपना जीवन बेहतर बनाने की स्थिति मे होंगी। 

Wednesday, 5 August 2015

उत्पादन मूल्य बताओ, अच्छे दिन आ जायेंगे

वस्तुओं की बढती कीमतें हमेशा राजनेताओं, अर्थशास्त्रियों और ग्राहकों के निशाने पर रहती हैं। कभी भी किसी ने भी इन बढती कीमतों के भंवरजाल को सुलझाने की कोशिश नहीं की।यह जिम्मेदारी उन्ही को दे दी, जिनसे ग्राहकों को बचाना था। नतीजा वही हुआ जो बिल्ली को दूध की पहरेदारी पर लगाने का होता है। यह विश्व मे होने वाला सबसे बड़ा आर्थिक भ्रष्टाचार है, जो सामान्य वर्ग से उसकी खून पसीने की कमाई छीने जा रहा है। 5 रूपये की वस्तु 50 रूपये मे बेचकर सरेआम आर्थिक भ्रष्टाचार कर उसे गरीबी, भुखमरी और लाचारी के दलदल मे धकेले जा रहा है ।


औद्योगिक क्रान्ति के उदय के साथ ही इससे सम्बन्धित तथाकथित प्रतिष्ठित वर्ग ने व्यूहरचना शुरू कर दी थी। दुनिया के कुल धन के अधिकांश भाग पर शीघ्र से शीघ्र आधिपत्य जमाने की, ताकि यह वर्ग धन बल के सहारे पूरी दुनिया को अपने अधिपत्य मे ले सके। यह तभी सम्भव था जब यह वर्ग शासकों, नेताओं और ग्राहकों को यह समझा सके कि दुनिया की तरक्की के लिये आर्थिक प्रगति आवश्यक है, आर्थिक प्रगति के लिये उद्योगीकरण तथा उद्योगीकरण के लिये उद्योजकों को अधिक से अधिक वित्तीय व अन्य सुविधायें। वैसे उनती बात पूरी तरह गलत भी नहीं थी। उसमे सच्चाई भी थी। किसी भी देश की उन्नति मे उसकी आर्थिक प्रगति का बहुत बड़ा योगदान होता है परन्तु आर्थिक प्रगति के लिये उद्योग के साथ साथ कृषि क्षेत्र का भी विकास आवश्यक है। दोनो में सन्तुलन होना चाहिये, तभी देश के विकास का लाभ बहुतांश लोगों को मिल पाता है। लेकिन यह बात उद्योजक वर्ग की हित साधना मे बाधक थी। क्योंकिब धन वितरण उद्योग के साथ कृषि क्षेत्र मे भी होता। अतः एक नवीन शब्द मंहगाई की कल्पना विकसित कर यह बात फैलाई गई कि यदि कृषि उत्पादों के दामों पर नियन्त्रण नहीं रखा गया तो देश मे मंहगाई बढ़ेगी, सामान्य वर्ग का जीवन दूभर होगा। अतः कृषि उत्पादों की कीमतों को सरकारी नियन्त्रण मे लाया गया। इस बात का विरोध न हो इसलिये इस नियन्त्रण को सरकारी संरक्षण का नाम देकर कृषि क्षेत्र/किसानों के हित से जोड़ दिया गया। कृषि मे पैदा होने वाली वस्तुयें उद्योगों मे कच्चे माल के रूप मे काम आती हैं। अतः उद्योजकों ने कारटेल बनाकर कृषि मे पैदा होने वाली वस्तुओं के दाम नहीं बढने दिये, कृषि उत्पादों को सस्ते दामों पर खरीदा, बाद मे किसानों के हितों की रक्षा के नाम पर कृषि उत्पादों के विक्रय मूल्य पर सरकारी नियन्त्रण लाद दिया गया। दूसरी तरफ औद्योगिक उत्पादनों के विक्रय मूल्य पर उद्योजकों का एकाधिकार कायम रहा, ताकि वह ग्राहकों से अधिक से अधिक धन वसूल सकें, जिसके कारण वर्तमान बाजार मे औद्योगिक उत्पादनों का विक्रय मूल्य उत्पादन मूल्य के 100 से लेकर 1000 गुना तक अधिक है तथा कृषि उत्पादों को बमुश्किल उनकी उत्पादन लागत मिल पाती है।

देश मे भी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग है। यह आयोग कृषि उत्पादों के लागत मूल्य का अध्यन कर, उनके समर्थन मूल्य या विक्रय मूल्यों की आयोग की मूल्यनीति के अनुसार प्रतिवर्ष घोषणा करता है। कृषि उत्पादों के विक्रय मूल्य इन्ही घोषित मूल्यों के आसपास रहते हैं, परन्तु औद्योगिक उत्पादनों के सम्बन्ध मे यह नीति नहीं अपनाई गई, उनके विक्रय मूल्यों का निर्धारण उद्योजकों  पर छोड़ कर उन्हे वस्तुओं पर मनमानी MRP लिखने की छूट दे दी गई। इसी छूट का फायदा उठाकर उद्योजक विज्ञापन, फैशन शो आदि विभिन्न हथकंडे अपनाकर अपने उत्पादनों के बदले ग्राहकों से कई गुना अधिक कीमत वसूल कर ग्राहकों को लूट रहे हैं।


अप्रैल 1999 तक देश मे औद्योगिक उत्पादनों के उत्पादन मूल्य का अध्यन करने के लिये ब्यूरो आफ इन्डस्ट्रियल कास्ट एण्ड प्राइसेज (BICP) था। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत द्वारा लगातार उत्पादन मूल्य घोषित करने का दबाव बनाने के कारण इसका टैरिफ कमीशन (TARIFF COMMISSION) मे विलय कर दिया गया तथा इसका कार्य टैक्स निर्धारित करने के उपयोग तक मर्यादित कर दिया गया। यह जानते समझते हुये भी कि उद्योजक ग्राहकों को बुरी तरह लूट रहे हैं, इस तरफ से आँख बन्द कर ली गई। पिछली दो लोकसभाओं मे चन्द्रपुर (महाराष्ट्र) से सांसद व वर्तमान मे रसायन व उर्वरक राज्य मन्त्री हंसराज अहीर ने उत्पादन मूल्य बताने से सम्बन्धित बिल निजी बिल के रूप मे रखा था। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत की मांग है कि हंसराज अहीर जी के उस बिल को वर्तमान सरकार, सरकारी बिल के रूप मे अपनाकर आवश्यक कानून बनाये।

ग्राफ के माध्यम से विषय अधिक स्पष्ट होगा। रेखा OB मूल्य निर्देशित करती है तथा रेखा OA वर्ष। CD वस्तुओं के उत्पादन मूल्य बताने वाली रेखा है। बिन्दु वाली रेखा EF कृषि वस्तुओं के विक्रय मूल्य को निर्देशित करती है, जो कभी उत्पादन मूल्य रेखा के ऊपर तो कभी उत्पादन मूल्य रेखा के नीचे, कुल मिलाकर उत्पादन मूल्य रेखा के इर्द गिर्द ही दिखाई देती है, जिसका अर्थ है कृषि उत्पादों की कीमत बाजार मे उनकी मांग व पूर्ति के आधार पर कभी उत्पादन मूल्य से कम व कभी अधिक रहती है, परन्तु यह कीमत उत्पादन मूल्य के आस पास ही रहती है । औद्योगिक उत्पादनों के विक्रय मूल्य की रेखा GH हमेशा उत्पादन मूल्य की रेखा से बहुत ऊपर लगभग लम्बवत रहती है। इसे बाजार मे MRP का सहारा भी प्राप्त है, जिसे बाजार मे इस तरह प्रचारित कर ग्राहकों को लूटा जाता है, मानो वह सरकार द्वारा निर्धारित वैधानिक मूल्य हो।


उत्पादन मूल्य घोषित करना अच्छे दिनों की आहट है। जिसका अर्थ है औद्योगिक उत्पादनों के विक्रय मूल्य को उत्पादन मूल्य आधारित बनाना। आज ग्राहकों से MRP के नाम पर अनाप शनाप कीमतें वसूल कर उन्हे लूटा जा रहा है। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत की मांग है कि MRP को रद्द कर उसके स्थान पर उत्पादन मूल्य लिखना अनिवार्य किया जाये, ताकि औद्योगिक उत्पादनों के दाम भी कृषि उत्पादों की तरह उत्पादन मूल्य के आसपास रहें। लाभ अर्जित करना उत्पादकों का अधिकार है, परन्तु लाभ उचित होना चाहिये, न कि ग्राहकों को लूटने वाला। वर्तमान बाजार मे MRP के नाम पर जबरदस्त आर्थिक भ्रष्टाचार चल रहा है। ग्राहकों को इससे राहत मिलेगी तो उसकी क्रय शक्ति बढेगी, वह अपने परिवार के लिये अधिक वस्तुयें खरीद पाने की स्थिति मे होगा। यदि ग्राहक बचत करता है तो भी यह पैसा सरकार द्वारा खुलवाये करोड़ों बैंक खातों मे जमा होकर देश के विकास मे योगदान देगा। अतः वर्तमान सरकार को चाहिये कि उत्पादन मूल्य बतायें, अच्छे दिन लायें।

Tuesday, 21 July 2015

राहुल व कांग्रेस गांव प्रेम की नौटंकी कर रहे हैं

लोकसभा मे 44 सीटों पर सिमटने तथा अनेको राज्य सरकारें हाथ से निकल जाने के बाद कांग्रेस का गांव, गरीब, मजदूर और किसान प्रेम अचानक कुलांचे मारने लगा है। तभी तो राहुल कभी रेहड़ी वालों के बीच, कभी आटो वालों के बीच पँहुचकर उनके सबसे बडे हितैषी बनने की बात करते हैं, भूमि अधिग्रहण बिल पर ग्रहण लगाने के लिये किसानों के सबसे बडे मसीहा बनते हैं। गांव, किसानों की गरीबी, पिछडेपन का रोना रोते हैं। वर्तमान सरकार को सूटबूट व अदानी की सरकार बताते हैं। अफसोस है कि 67 वर्षों तक सत्ता से चिपके रहने के दौरान न तो उनके पुरखों, न ही उनको गांव व किसान की कभी याद आई। महात्मा गांधी के लाख समझाने के बाद भी नेहरू ने जिस दिन विकास के रूसी माडल अपनाया, देश मे गांव व किसानों की गरीबी व बदहाली की नींव तो उसी दिन रख दी गई थी।


भूमि अधिग्रहण बिल पर राहुल व कांग्रेस 67 सालों तक किसानों को लूटने के बाद आज जिस तरह छाती पीट रही है, उसका कच्चा चिट्ठा जॉन हापकिन्स विश्वविद्यालय के माइकल लेविन ने अपने शोध " From Punitive Accumulation to Regimes of Dispossession" भारत मे भूमिअधिग्रहण के 6 शोधपत्रों मे खोला है। मालूम हो कि 2013 क भूमिअधिग्रहण कानून कांग्रेस सरकार देश भर मे भूमिअधिग्रहण पर किसानों के भारी रोष प्रर्दशन और अदालत मे बढते मुकदमों के दबाव मे ही लाई थी। वरना् वह तो 1894 मे अंग्रेजों के बनाये कानून के आधार पर किसानो को लूटने मे मस्त थी। और तो और उसने 1984 मे इस कानून मे संशोधन कर निजी कम्पनियों के लिये भी भूमि अधिग्रहण करने की धारा जोड़ दी थी। इसी के तहत कांग्रेस सरकारों ने किसानों को जिस तरह नोचा, वही आक्रोश चारो ओर दिखाई दे रहा है।

गरीबों, किसानों का मसीहा होने का दम्भ कांग्रेस मुख्य रूप से जिन दो योजनाओं के आधार पर भरती है, वह हैं मनरेगा और सार्वजनिक वितरण प्रणाली, राहुल की सरकार मनरेगा पर 34000 करोड व सा.वि.प्र. पर 1,15,000 करोड रूपये वार्षिक खर्च किया करती थी। गरीबों, किसानों की इन दो योजनाओं पर कांग्रेस अक्सर अपनी पीठ थपथपाती है। परन्तु कांग्रेस कभी देश को यह नहीं बताती कि उन्होने सिर्फ 2006-07 से 2013-14 तक 9 वर्षों मे अपने शासन के दौरानअमीरों और उद्योगपतियों को 365 खरब या 36,50,000 करोड रूपयों की छूट दे डाली है अर्थात 107 सालों तक मनरेगा मे लगने वाली रकम 9 वर्षों मे अमीरों, उद्योगपतियों को दे डाली। इस रकम से सार्वजनिक वितरण प्रणाली को 32 वर्षों तक चलाया जा सकता था। यह कह सकते हैं कि राहुल की सरकार ने पिछले 9 वर्षों मे उद्योगपतियों को 7 करोड रूपये की प्रति घंटे या 168 करोड रूपये प्रतिदिन की छूट दी। सबब यह कि फिसल पडे तो हरिगंगा कहने वाली राहुल कांग्रेस का वास्तविक चेहरा यह है।है।                         



2006-07 से सरकार के बजट मे दिये इन आंकड़ों का और विश्लेषण करने से पहले यह बता दें कि अमीरों, उद्योगपतियों को यह छूट कार्पोरेट आयकर, उत्पादन शुल्क व आयात शुल्क पर दी जाती है। यदि उद्योगपतियों को दी जाने वाली विभिन्न छूटों को भी इसमे जोड दें तो यह आंकडा कहीं का कहीं पँहुच जायेगा। आपको आश्चर्य होगा 2013-14 मे उद्योगपतियों को 532 लाख करोड़ की छूट दी गई, जो 2012-13 मे सरकारी तेल कम्पनियों के कुल घाटे का चार गुना है, इस छूट मे 48,635 करोड की छूट हीरों, सोने जैसी वस्तुओं की खरीद पर दी गई है। साथ ही 76,116 करोड कार्पोरेट आयकर, 1,95,679 उत्पादन शुल्क व 2,60,714 करोड आयात शुल्क की माफी की गई है। 2005-06 से इस रकम को लगातार बढाया जा रहा है, 2005-06 की तुलना मे 2013-14 मे इस रकम की वृद्धि 132% है। 

हम देश के विकास मे उद्योगों के महत्व को समझते हैं, उद्योग विरोधी नही हैं, परन्तु बहुसंख्य आबादी के हितों की कीमत पर उद्योगों अमर्यादित छूट को उचित नहीं कहा जा सकता, जनगणना के अनुसार आज राहुल को देश की कुल आबादी के उसी 73 प्रतिशत हिस्से, गांवों मे रहने वाले किसान व खेतिहर मजदूरों की चिन्ता हो रही ह, जिन्हे लूटने मे उनकी सरकारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी । जिसके कारण देश मे 39,961 रू प्रतिव्यक्ति की आय की तुलना मे देश की 74.5 प्रतिशत की आय 5000 रू पर सिमट कर रह गई । वर्षों पहले कलावती के यहां एक रात रहकर आये राहुल इतने वर्षों तक गांव, किसान का दर्द नहीं समझ पाये। 

Thursday, 16 July 2015

प्रकृति मे घुले कैमिकलों से माँ का दूध भी नहीं बचा शुद्ध

नेचुरल रिसोर्स डिफेन्स काउन्सिल (NRDC) के अनुसार अमेरिका मे लगभग 85000 मानव निर्मित (Man made) कैमिकल रजिस्टर्ड हैं। इन सभी कैमिकलों का उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में किया जाता है, अतः इनके अंश किसी न किसी रूप में प्रकृति के साथ मिश्रित हो रहे हैं। सभी को मानव जीवन के लिये खतरनाक कहना उचित नहीं होगा, परन्तु इनमे से बहुत से हमारे लिये कम या अधिक नुकसानदायक हैं, जो शरीर की प्रतिरोध क्षमता को प्रभावित करने के साथ विभिन्न गम्भीर रोगों का कारण बनते हैं। प्रकृति से विभिन्न माध्यमों द्वारा इनमे से अनेको कैमिकल हमारे शरीर मे पँहुच रहे हैं। मानव निर्मित कैमिकलों की इतनी अधिक संख्या पर अमेरिका मे भी न तो नियन्त्रण रखना संभव है, न ही उनका उपयुक्त, संरक्षित प्रयोग करना। यदि अन्य कैमिकलों को दुर्लक्षित भी कर दें तो विश्व मे सिर्फ खेती के लिए प्रतिवर्ष 190.4 मिलियन टन रासायनिक उर्वरक और 2.3 मिलियन टन कीटनाशक प्रकृति में मिलाये जा रहे हैं, जो हमारे शरीर मे जहर घोल कर हमारे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं।

NRDC के अनुसार कैमिकलों का अन्धाधुन्ध उपयोग वातावरण, पानी, हवा, मिट्टी, जानवरों, मछलियों व पृथ्वी पर उपलब्ध बनस्पतियों तथा जीवों को प्रदूषित कर रहा है। 1940-50 के दशक मे DDT के भारी उपयोग के कारण DDT के अंश प्रत्येक जगह बहुतायत मे पाये जाने लगे थे जिसके कारण विश्व मे काफी हो हल्ला मचा था, जिसके कारण विश्व के अनेक देशों ने ओरगेनोक्लोरीन कीटनाशकों के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाया था। आज मानव निर्मित कैमिकलों का असीमित उपयोग हमारे जीवन के लिये खतरा बन चुका है। हमारे शरीर मे हानिकारक कैमिकल हमारे भोजन व अन्यान्य माध्यमों से पँहुच कर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं। यहां तक कि गर्भ मे पलने वाले शिशु तथा माताओं द्वारा शिशुओं को पिलाया जाने वाला दूध भी इन कैमिकलों के प्रभावों से नहीं बचा है। विश्व के अनेक देशों मे किये परीक्षणों मे मां के दूध (Brest Milk) में भी कैमिकलों तथा कीटनाशकों का अंश मिला है। भारत मे भी राजस्थान विश्वविद्यालय तथा हरियाणा मे यह परीक्षण किये गये। जिनमे मां के दूध मे विभिन्न कीटनाशक, DDT, डाईआक्सीन्स PCB's (पालीक्लोरीनेटेड बाईफिनाइलस्) मिले, जो बच्चों मे कैन्सर की संभावनाओं को बढ़ाने के साथ मानसिक विकास को प्रभावित कर सकते है।




खाद्य पदार्थों मे हानिकारक कैमिकलों की उपस्थिति के विषय मे हमारे देश मे मैगी कांड के बाद थोड़ी चेतना अवश्य दिखाई दी, परन्तु यह चेतना ऊँट के मुँह मे जीरे से अधिक नहीं है। काफी शोर शराबे के बाद हमने बाजार मे बिकने वाले खाद्य पदार्थों के लिये मानक तो बना दिये। पर FSSI द्वारा निर्धारित इन मानकों पर नियन्त्रण रखने की न तो हममे इच्छा शक्ति है, न ही हमारी केन्द्र तथा राज्य सरकारों के पास इस कार्य के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचा है। प्राकृतिक प्रदूषण के कारण हमारे शरीर मे  प्रवेश करने वाले रासायनिक जहर पर नियन्त्रण तो दूर की बात है। टाईम्स आफ इन्डिया मे छपी एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले दिनों हैदराबाद मे चलने वाली कई रेस्टोरेन्ट श्रंखलाओं मे बिकने वाले पदार्थों की खाद्य विभाग ने जांच की तो पाया कि बिकन वाले खाद्यपदार्थ पदार्थ मानव उपयोग के योग्य ही नहीं हैं, बच्चों के लिये तो इनका उपयोग खतरनाक है। कई ब्रान्ड के दूध की जांच करने पर उनमे पैथोजन और ई कोली बैक्टीरिया पाया गया। सिर्फ हैदराबाद की बात नही है। देश के किसी भी छोटे बड़े शहर मे  इसी प्रकार की स्थितियां हैं। 

केन्द्रीय खाद्य प्रसंस्करण मन्त्री सिमरनजीत कौर इन हालातों मे बयान देती हैं कि खाद्य इन्सपेक्टर निर्माताओं को परेशान कर 'इन्सपेक्टर राज' लाने के प्रयास मे हैं। मन्त्री जी का बयान वास्तविकता से दूर ही नहीं हास्यास्पद भी हैं। खाद्य पदार्थों के उत्पादन से अधिक महत्वपूर्ण है, ग्राहकों के लिये उत्पादनों का सुरक्षित होना और फिर टाईम्स आफ इन्डिया की यही रिपोर्ट बताती है कि सरकारी विभागों मे इन्सपेक्टर राज लाने के लिए उचित संख्या मे फूड इन्सपेक्टर ही नहीं हैं। हैदराबाद मे मात्र 4 इन्सपेक्टर हैं, नई दिल्ली की स्थितियां भी अलग नहीं हैं। वहां सिर्फ 12 इन्सपेक्टर हैं। देशभर मे यही हालात हैं। इन हालातों मे मंत्री का बयान ग्राहकों के स्वास्थ से खिलवाड़ करने वाला है।
                                 

ग्राहकों के जीवन से सम्बन्धित यह लड़ाई  ग्राहकों को ही लड़नी पड़ेगी। यह लड़ाई दो मोर्चों पर लड़ी जानी है। बाजार मे बिकने वाले खाद्य पदार्थों मे FSSI के मानदण्डों का कड़ाई से अनुपालन। दूसरा प्रकृति से हमारे शरीर मे पँहुचने वाले हानिकारक कैमिकलों पर नियन्त्रण। विषय तथा क्षेत्र व्यापक है, पूरा विश्व ही इस समस्या से ग्रसित है अतः निराकरण के लिये सिर्फ सरकारों पर आश्रित रहने से काम नहीं चलेगा। सरकारों पर ग्राहकों को दबाव तो बनाना पड़ेगा, नहीं तो सरकारें उत्पादकों के दबाव में ग्राहक हितों से समझौता कर लेंगी, इन्ही समझौतों के कारण ही तो हमने हवा, पानी, मिट्टी, वनस्पति, पशु, जीवों में खतरनाक कैमिकलों का जहर घोला है। हमें जागरूक रहने के साथ अपने क्षेत्र के लोगों को भी जागरूक करना होगा, अपने खानपान की आदतें बदलनी होंगी, तथाकथित हाईजीन के नाम पर चमकीले आवरणों मे लिपटेसजे हुये खाद्य पदार्थों पर पारंपरिक पध्दति से उत्पादित उत्पादनों को प्राथमिकता देनी होगी। कुछ भी खाने से पहले हम क्या खा रहे हैं, कब खा रहे हैं, क्यों खा रहे हैं, कहाँ खा रहे हैं, जैसे प्रश्नों के उत्तर स्वयं से पूछने होंगे। प्रश्न हमारे जीवन का है, अतः सरकार से अधिक ग्राहकों को सजग रह कर पृथ्वी, जल व आकाश को क्रत्रिम रसायनों के जहर से मुक्त करने की आवश्यकता है। 

जनगणना मे गांव विकास से बहुत दूर!

विश्व मानचित्र पर तेजी से उभरती हुई 1.7 ट्रिलियन डालर की भारतीय अर्थव्यवस्था के बड़े बड़े दावों को कुछ दिन पहले घोषित जनगणना के आंकड़ों ने टांय टांय फिस्स् कर दिया। इन आंकड़ों के जारी होने के बाद देश मे जिस तरह की चर्चा प्रारम्भ होनी चाहिये थी, जो बहस छिड़नी चाहिये थी, नहीं छिड़ी। आंकड़ों ने स्पष्ट कर दिया 67 वर्षों तक हमारे नीति निर्धारक अपनी सामाजिक, भौगोलिक, प्राकृतिक एवं आर्थिक मर्यादाओं को भूलकर जिस पश्चमी विश्व की नकल करने मे व्यस्त थे उसने हमारी गावों मे रहने वाली 73.43 प्रतिशत जनसंख्या को विकास के हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया। इतने वर्षों तक हम भारत के अन्दर INDIA गढने मे लगे रहे। बहुत हद तक हम उसमे कामयाब भी हुए, परन्तु देश की बहुत बड़ी जनसंख्या ने उसके लिये बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। मै न तो "भारत की आत्मा गांवो में बसती है" जैसे वाक्यों का यहां उपयोग करना चाहूंगा, न ही भारत को अपने मन की आँखों से देखने वाले महात्मा गांधी, पंडित दीनदयाल उपध्याय की धारणाओं का सहारा लेना चाहूंगा। हां जनगणना की इस नवीन पध्दति के शिल्पकारों को धन्यवाद अवश्य कहना चाहूंगा, क्योंकि इससे देश की आर्थिक स्थिति का वास्तविक धरातल स्पष्ट हो गया। वरना् आज तक जनगणना हमें सिर्फ इतना बताती थी कि हम कितने करोड़ हो गये हैं।


जनगणना से स्पष्ट है कि गांवों मे रहने वाली देश की बहुसंख्य आबादी कल भी मुख्यधारा से अलग थलग थी ,आज भी अलग थलग ही है। उसके जीवनयापन के संसाधन कल भी अविकसित, अपर्याप्त थे, आज भी स्थितियां वही हैं। आंकड़ों का खेल भी अजीब है, गरीबी ,भुखमरी को ढक लेता है। शायद यही वजह है, गरीबी व गरीबों को बहलाने के लिए, हकीकत पर पर्दा डालने के लिये इसे खेला जा रहा है, देखिये - एक व्यक्ति ने 8 रोटी खाई, दूसरे ने 4 रोटी खाई, तीसरा भूखा रहा, उसे एक भी रोटी खाने को नहीं मिली। आंकड़ों के बाजीगर यही कहेंगे कि औसतन प्रतिव्यक्ति 4 रोटी खा रहा है, कहां है भूख, कहां है गरीबी। जनगणना स्पष्ट कर रही है कि गांव मे रहने वाली 74.5 प्रतिशत जनसंख्या की आय आज भी 5000 रूपये तक सीमित है, 10,000 रूपये आय तक पँहुचने वाली ग्रामीण जनसंख्या मात्र 8.3 प्रतिशत है। इन आंकड़ों की तुलना आप 2013-14 मे घोषित प्रतिव्यक्ति 39,961 रू आय से कर देखिये। विकास की गंगा किस दिशा मे बह रही है, समाज के अन्तिम छोर पर बैठा व्यक्ति आजादी के 67 वर्षों बाद भी किस जमीन पर खड़ा है, स्पष्ट हो जायेगा। गणना की प्रक्रिया थोड़ी कठिन अवश्य है परन्तु स्पष्ट है, नवीन जनगणना पद्धति की वजह से।

1950-51 में देश की GDP मे कृषि क्षेत्र की सहभागिता 51.9 प्रतिशत थी, जो आज घटकर मात्र 13.7 प्रतिशत रह गई है। तर्क दिया जा सकता है कि तब अर्थव्यवस्था उपेक्षित थी, GDP की विकास दर बमुश्किल 1 प्रतिशत हुआ करती थी, उद्योग थे ही नहीं, राष्ट्रीय उत्पादन एक मात्र कृषि पर निर्भर था, अतः GDP मे कृषि क्षेत्र की भागीदारी अधिक थी, जो औद्योगिक विकास के साथ धीरे धीरे कम होती चली गई। बात उचित लगे तो भी जनगणना के आंकड़ों से यह साफ हो रहा है कि कृषि पर आश्रित ग्रामीण भागों की घोर उपेक्षा की गई। मजदूरी पर आश्रित वहां रहने वाले 9.16 करोड़ परिवारों, 51.41 प्रतिशत जनसंख्या का इतने वर्षों तक विचार ही नहीं किया गया। सघन रोजगार वाले कृषी व उस पर आधारित छोटे छोटे उद्योगों के विकास व संरक्षण की घोर उपेक्षा की गई। यह जनगणना के आंकड़ों से स्पष्ट है। महत्मा गांधी व पंडित दीनदयाल उपध्याय जी का अर्थव्यवस्था में इन क्षेत्रों के समुचित प्रतिनिधित्व पर जोर था।

जनगणना का नवीन स्वरूप उन क्षेत्रों को चिन्हित करता है जिन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इन क्षेत्रों की उपेक्षा से न तो सबका साथ लिया जा सकता है, न ही सबका विकास किया जा सकता है। किसी भी सरकार के लिये यह चिन्ता का विषय होना चाहिये कि जिस क्षेत्र मे देश की आबादी का 73 प्रतिशत हिस्सा रहता है वहां के लोग (किसान) आत्महत्या कर रहे हैं। इस क्षेत्र के लोगों की आय कहीं अधिक होती, जीवनस्तर भी बेहतर होता यदि इन वर्षों में कृषि व उस पर आधारित छोटे उद्योगों पर समुचित ध्यान दिया गया होता। देश विकास का कौन सा रास्ता आगामी वर्षों मे अपनाये, स्मार्ट सिटी की राह मे आने वाले गांवों को विकास की किस डोर से उनके साथ जोड़ा जाये, जनगणना के आंकड़े कौन से क्षेत्रों को प्राथमिकता देने का इशारा कर रहे हैं, इन बातों पर देश में व्यापक चर्चा की आवश्यकता है।