अपने देश में जनमान्य को लूट या शोषण से बचाने के नाम पर जो कानून बनाये जात हैं, वही कानून जनसामान्य की लूट करने वालों का मुख्य हथियार बनते हैं। अब इस व्यवस्था को क्या कहें या इसका क्या करें जिसमें या तो कानून में ही कामा, फुलस्टॉप कुछ इस तरह छोड़ दिए जाते हैैं, जिससे शातिरों को निकल भागने का मौका मिल जाता है या फिर कानून तो बन जाते हैैं, परन्तु उनका पालन सुनिश्चित करने वाली मशीनरी का दूर दूर तक अता पता नहीं होता। मशीनरी अगर कहीं दिखाई दे भी जाये तो उसकी कानून पालन करा पाने की क्षमता लगभग शून्य होती है, जिससे कानू के अस्तित्व अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है। पीड़ित की गुहार इस मशीनरी के कानों को छूती ही नहीं। अत: देश में कानून का पालन सुनिश्चित करने की एकमात्र जिम्मेदारी न्यायपालिका पर ही आश्रित है। शायद यही वजह है कि हमारे न्यायालयों में इतनी अधिक भीड़ है। क्योंकि विधायिका और कार्यपालिका अपने दायित्व के प्रति न तो ईमानदार है, न ही कार्यक्षम। बस एक व्यवस्था है जिसे ढ़ोये जा रहे हैं।
सर्वसामान्य की लूट को रोकने के नाम पर इसी तर्ज पर "वजन एवं माप कानून 1976" में प्रत्येक वस्तु पर MRP लिखना अनिवार्य किया गया। उत्पादक MRP तो लिखते थे, परन्तु उसके साथ ही "स्थानीय कर अतिरिक्त" लिख दिया करते थे। इस कारण दुकानदार ग्राहकों से स्थानीय कर के नाम पर कुछ भी कीमत वसूल किया करते थे। अत: ग्राहकों की खैरख्वाही के नाम पर सरकार आगे आई। उसने वजन माप कानून 1976 में वर्ष 1990 में एक संशोधन प्रस्तावित किया गया, जिसके अनुसार MRP स्थानीय कर सहित लिखना अनिवार्य किया गया ताकि दुकानदार ग्राहकों से लिखी हुई कीमत से अधिक मूल्य न वसूल सकें। कहने के लिए तो यह संशोधन ग्राहकों के हित संरक्षण के लिए था, परन्तु इससे उत्पादकों की लाटरी खुली। अपने देश में संघीय व्यवस्था होने के कारण अलग अलग राज्यों में एक ही वस्तु पर करों की दरें अलग-अलग हैं। उत्पादकों नें MRP लिखने के लिए वस्तु के मूल्य में जिस राज्य में कर की दर सबसे अधिक थी उसको जोड़ा, जिसके कारण जिन राज्यों में कर की दरें कम थी, वहां के ग्राहकों को वस्तु की अधिक कीमत चुकानी पड़ने लगी।
वजन माप कानून का यह संशोधन उत्पादकों को इतना मुफीद लगा कि हर दूसरी वस्तु यहां तक कि कृषि उत्पादों की भी पैकिंग की जाने लगी। वस्तु के पैकिंग खर्च की चिंता इसलिए नहीं थी, क्योंकि वस्तुओं पर MRP लिखने का कोई आधार सरकार ने निर्धारित नहीं किया था। उत्पादक अपनी इच्छा से वस्तु पर कितनी भी MRP लिख सकते थे। इस कारण बाजार में पैक वस्तुओं की बाढ़ आने लगी। पैक की हुई वस्तुओं की अनावश्यक बाढ़ आने के बाद भी, न तो इस ओर किसी का ध्यान गया, न ही किसी ने इस बात का विचार किया कि पैकिंग में काम आने वाली सामग्री गन्दगी फैलाने के साथ साथ पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रही है, प्राकृतिक संसाधनों का अनावश्यक विनाश कर रही है।
उत्पादनों पर छापी गई MRP ग्राहकों को भ्रमित करती है। उन्हे यह विश्वास दिलाती है कि वस्तु का छपा मूल्य प्रामाणिक है। बाजार भी ग्राहकों में MRP को गलत तरह से प्रचारित व प्रस्तुत करते हैं। उन्हे यह समझाते हैं कि वस्तु पर लिखी कीमत सरकार द्वारा कानूनन निर्धारित की गयी है, जो पूरी पूरी तरह झूठ होता है। ग्राहक पंचायत ने अपने सर्वेक्षण में यह पाया है कि वस्तुओं पर छापी गई MRP उनके वास्तविक मूल्य की 200 से 500 गुना तक अधिक होती है। दवाओं के मामले में तो यह वास्तविक मूल्य की 1000 से 5000 गुना तक अधिक छापी जाती हैं।
MRP छाप कर ग्राहकों को लूटने की सरकार द्वारा दी गई छूट के बाद, उत्पादकों तथा व्यापारियों के लिए यह आवश्यक था कि ग्राहकों में MRP के आधार को विकसित किया जाये, ताकि ग्राहक की आदत में MRP को वस्तु की न्याय कीमत(Just Price) समझा जाने लगे। जिससे ग्राहकों की लूट अबाधित चले, उनका मुनाफा बढ़े। इस काम का बीड़ा उठाया मार्केटिंग के क्षेत्र में उतरे कार्पोरेट जगत नें, उन्होंने सबसे पहले बाजार के रंग रूप, आकार व प्रकार को बदला। वस्तुओं को बेचने के आधार, प्रकार, तरीके, साज सज्जा को भी पूरी तरह बदल दिया। अब ग्राहक वस्तुओं की खरीद व मनोरंजन साथ साथ करता है, जिसके कारण उसको न तो वस्तु की पूरी जानकारी प्राप्त करने की सुध रहती है, न ही बाजार में चार स्थानों पर वस्तु का मूल्य पूछकर उसका वास्तविक मूल्य जानने की सुविधा। उसे तो यह भी नहीं मालूम कि उत्पादकों को एक ही वस्तु पर अलग-अलग MRP लिखने की छूट भी मिली हुई है और वह इस छूट का पूरा लाभ उठा रहे हैं। वह वस्तु पर छपी MRP को ही वस्तु का न्याय मूल्य समझने की प्रक्रिया में लग चुका है। मार्केटिंग में लगे कार्पोरेट भी ग्राहकों से मूल्य MRP के आधार पर ही वसूलने में लगे हैं, साथ ही MRP पर छूट प्रस्तावित कर ग्राहकों को MRP की तरफ आकर्षित करने के प्रयास में जुटे है, ताकि बाजार में MRP वस्तु के न्याय मूल्य के रूप में स्थापित हो सके।
MRP द्वारा ग्राहकों की लूट का यह खेल सार्वजनिक हुआ ई-मार्केटिंग कम्पनियों के उदय एवं प्रसार के साथ, जब ग्राहकों को अहसास हुआ कि ई-मार्केटिंग कम्पनियां उन्हें MRP पर 60% तक छूट किस तरह देने में सक्षम हैं, जबकि उनको वस्तु को कूरियर द्वारा भेजने का अतिरिक्त खर्च भी वहन करना पड़ता है। बाजार तथा कार्पोरेट मार्केटिंग वाले अपनी पोल खुलती देख पहले तो रोते चीखते सरकार की तरफ भागे। वहां से किसी तरह की इमदाद न मिलने पर ग्राहकों के बीच ई-मार्केटिंग कम्पनियों के सम्बन्ध में तरह तरह की अफवाहें फैलाने में जुट गए। ग्राहक यहां एक बात जान लें, 60% तक छूट MRP पर देने के बाद भी ई-मार्केटिंग कम्पनियां उत्पादकों/वितरकों से 30% तक कमीशन तथा कूरियर का खर्च भी वसूल करती हैं। उत्पादक/वितरक इसके बावजूद भी कम से कम उचित लाभ तो प्राप्त कर ही लेते हैं। अब आप खुद ही समझ लीजिए MRP के इस मायाजाल के कारण चलने वाली लूट को।
इससे बचने के लिए ग्राहकों के पास फिलहाल एक ही मार्ग बचता है। SHUFUREN जापानी महिलाओं की तरह संगठित होने और जहां कहीं आवश्यकता हो, बहिष्कार करने की, फिर बात चाहे पारम्परिक बाजार की हो या फिर कार्पोरेट मार्केटिंग द्वारा स्थापित बाजारों की ?
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