यह तो अक्सर देखा जाता है कि बहुत समय से किसी पोशाक विशेष को पहनते पहनते, किसी को उस पोशाक से इतनी आसक्ति हो जाती है कि उसके तार तार होने के बाद भी वह उसका. मोह नहीं छोड़ पाता। अपने देश में इस प्रकार के भी समाचार आते रहते हैं कि कोई व्यक्ति अपने प्रिय की मृत्यु के बाद भी यह मानने की स्थिति में नहीं आ पाता कि उसका प्रिय अब इस दुनिया में नहीं है और वह निर्बन्ध शव के साथ ही रहने लगता है। अन्तत: समाज को ही उस व्यक्ति और शव को अलग करना पड़ता ji है। इस प्रकार की स्थितियां दो कारणों से आती हैं। अबाध प्रेम समाविष्ट हो या स्वार्थ। अनेक बार अपनी दुकान चलाने के लिए भी यह नाटक जारी रखना पड़ता है। भारतीय कम्युनिस्टों की स्थिति. इससे इतर नहीं है।
रूस के बिखराव, बर्लिन की दीवार ढहने और चीन के बाजारवादी शक्तियों की गोद में जा बैठने के बाद भारतीय कम्युनिस्टों के पास उनका अपना बचा ही क्या है। कार्ल मार्क्सके जिन सिद्धांतों के सहारे यह पूरे विश्व में अपनी अधिसत्ता कायम करने का दिवा स्वप्न पाले थे, 100 वर्षों में ही वह रेत की दीवार की तरह भरभरा कर ढह गये। मैं यहां वह इतिहास नहीं बताना चाहता, जिसे सब जानते हैं। आज मुख्य बात यह है कि आज विश्व के कम्युनिस्टों के पास, उन आर्थिक सिद्धांतों को खोने के बाद, जिसके आधार पर वह शोषण मुक्त समाज की रचना करना चाहते थे, उनका अपना शेष क्या है। सिवाय इसके कि जो जहां जिस सत्ता पर काबिज है, उसे उन्ही तरीकों को अपनाकर बनाये रखना चाहता है, जिनका निषेध करने के लिए मार्क्स ने इतिहास रचना चाहा था। मैंने विभिन्न वादों सिद्धांतों के अध्ययन में यह पाया है कि सिद्धांतों से कहीं अधिक गलत व उनको डुबोने वाले उन सिद्धांतों का अनुसरण करने वाले होते हैं। शायद यह अपनी गलती स्वीकार करने के मोड में नहीं हैं। अत: अनर्गल शोर मचाने में व्यस्त हैं।
भारत के सन्दर्भ में भी कम्युनिस्ट कालबाह्य हैं। आज यह मात्र सेकुलर का लबादा ओढ, अन्य राजनीतिक दलों की बैसाखी के सहारे, अपने ढ़हते अवशेषों की मदद लेकर मीडिया और यहां वहां शोर मचाने तक सीमित हैं। यह तो समझ में आता है कि पुराने नेताओं की रोजी रोटी का सहारा ही उस नाटक के मंचन में है, जिसका पटाक्षेप दशकों पहले हो चुका है। यह समझ रहे हैं कि वर्तमान वातावरण में इनका सिमटता कारोबार अधिक समय तक खिंचने वाला नहीं है। केरल और त्रिपुरा राज्य की सरकारें न जाने कब दम तोड़ दें। वहां भी यह सत्ता में अपने दर्शन या सिद्धांतों के कारण नहीं हैं, बल्कि अन्य राजनीतिक दलों की तरह बैठाई राजनीतिक व जातिगत समीकरणों के कारण। राष्ट्रवादी शक्तियों के सशक्त होने के कारण नक्सली आंदोलन भी दम तोड़ने लगा है। यह भी इस स्थिति में नहीं कि उनका साथ दे सकें या फिर उनके पक्ष में आवाज उठा सकें। अपने को बुद्धिजीवी नाम देने वाली कौम की बुद्धि की तलाश एक ही जगह पर शिक्षा संस्थानों पर जाकर रूक रही है। वहां के कुछ नौजवानों को बरगलाकर अपना स्वार्थ साधने की जुगत लगाने तक ही इनका कार्य क्षेत्र, वर्तमान में शेष बचा है। इसी कारण विश्व विद्यालयों में यह आजकल अधिक सक्रिय नजर आने लगे हैं। यह लोग जिस स्वस्थ दर्शन व चिन्तन का राग अलापने में लगे हैं, वह तो बेसुरा होकर कब का दम तोड़ चुका।
हंसी आती है जब यह लोग आजादी की बात करते हैं। अपने बाप दादाओं द्वारा दी गई आजादी की विरासत को फ्रान्स, पूर्व जर्मनी, रूस और चीन में बनाए रखने में नाकाम रहे लोग किस आजादी की बात कर रहे हैं, जो पूर्वी जर्मनी अर्थव्यवस़्था को वहां की टूटती दीवार के मलबे की तरह छितरा गई या फिर वह जो बिखरते रूस की बरबादी का तमाशा लाचार आंखों से देखने को मजबूर थी, कहीं यह लोग 1989 में बीजिंग की तिनमेन चौक वाली आजादी तो नहीं चाहते। यह लोग अपने को जिस दर्शन का झंडाबरदार बताने का ढोंग करते हैं, दुनिया में उस दर्शन को अपनाने वाले किसी एक देश का उदाहरण बता दें, जहां इन जैसी मानसिकता या आचरण को सहन किया जाता हो।
सच तो यह है कि इनका, शरीर, मन और बुद्धि सभी अलग अलग दिशाओं में भाग रहे हैं, क्योंकि इन्होंने सभी को आजादी दे दी है। दिमाग जैसे चाहे चलता है, जुबान जो चाहे बोलती है, बस कौन क्या कर रहा है यह नहीं जानना चाहते। एक बात और इन्हें अपनी आजादी को हासिल करने व अभिव्यक्ति देने की जितनी चिंता है, उससे कहीं अधिक दूसरों की आजादी दबाने व रोकने की, फिर उसके लिए गालियों या हिंसा का सहारा लेने से इन्हें गुरेज नहीं। देश व समाज को जल्दी से जल्दी विश्व के अन्य देशों की तरह इनसे छुटकारा पाने जरूरत है।
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