Monday, 6 February 2017

मुलायम ने शिवपाल को ठिकाने लगाया

मुलायम को नेताजी बनाने और देश की राजनीति को शिखर तक पंहुचाने में शिवपाल की भूमिका कौन नहीं जानता। यह सही है कि मुलायम से उम्र में 16 साल छोटे शिवपाल ने अपना राजनीतिक सफर अपने बड़े भाई की अगुवाई में ही शुरू किया। शिवपाल को भी मुलायम से पिता जैसा प्रेम मिला और वह भी अपने बड़े भाई के साथ पार्टी मजबूत करने में जी जान से जुट गये। उन्हे अपने बड़ेभाई के आगे बढ़ने में अपनी उपेक्षा जैसी भावना छू भी नहीं गई थी। वह अपने बड़े भाई से इतने एकात्म थे कि स्वार्थ उनके पास आने से भी घबराता था। मुलायम ने भी उन्हें भरपूर प्यार और सम्मान दिया। परन्तु अपने अत्यधिक नजदीकी को भी अवसर आने पर स्वार्थ साधने के लिए पटखनी न दे वह राजनीति ही क्या?

शिवपाल को अपने पिता जैसे बड़े भाई पर जरा भी संदेह नहीं था कि वक्त आने पर वह अपनी विरासत उनको सौंपेंगे। उधर राजनीति में अखिलेश की सक्रियता, मुलायम को कुछ अलग सोचने को मजबूर कर रही थी। शिवपाल पर अपना प्रेम दिखाने का मौका मुलायम को 2012 के यूपी चुनाव के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपने का मिला। यह वह अवसर था जहां से शिवपाल और अखिलेश की सीमायें निर्धारित होनी थी। अखिलेश की चिंता थी यदि चाचा को कुर्सी मिली तो वह काफी समय खींच लेंगे, इस दौरान यदि मुलायम निकल लिए तो चाचा पुत्र मोह में बेटे आदित्य को उन पर तजरीह न दे दें। राजनीति की द्रष्टि से समाजवादी पार्टी में सत्ता के बंटवारे का यह अहम् पडाव था। यहीं मुलायम ने शिवपाल को पहला गच्चा दिया। मुलायम ने अखिलेश की मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी की तथा शिवपाल को यह समझाया कि पार्टी को नया व युवा चेहरा मिलने से हमें देश की राजनीति में विशेष भूमिका प्राप्त करने में मदद मिलेगी। अखिलेश अभी नया है, सिर्फ नाम के लिए कुर्सी पर बैठा है, संभी कुछ संभालना तो तुम्हें ही है।सरल हृदय शिवपाल भाई और भतीजे का यह चक्रव्यूह समझ न सके, उसमें फंस गए।

मुलायम और अखिलेश के सामने अब सबसे बड़ी चिंता शिवपाल के राजनीतिक प्रभाव को पार्टी में कम और समाप्त करने की थी। इसके लिए दोनों ने मिलकर जो जाल बुना उसमें मुलायम के जिम्मे शिवपाल को साधने और अखिलेश के जिम्मे बगावती तेवर दिखाने का काम था। अखिलेश दो वर्षों तक तो शिवपाल को मुख्यमंत्री की तरह व्यवहार करने की छूट दिये रहे, फिर धीरे धीरे शिवपाल का विरोध करने लगे। अखिलेश यह जानते थे कि विरोध किस सीमा में और कितना किया जाये, जिसके कारण शिवपाल भड़ककर रस्सी ही न तोड़ डालें । उधर मुलायम शिवपाल से चिपक लिए, यह दिखाने लगे कि वह भाई को बेटे से अधिक मानते हैं। इसी क्रम में वह भाई के साथ खड़े होकर सार्वजनिक मंचों से भी अखिलेश की आलोचना करने से नहीं चूके। 

सरल हृदय शिवपाल भाई की भक्ति में अन्धे होकर मुलायम के नाटक को सच मानते रहे। अखिलेश सत्ता के बंटवारे को चुनाव के पहले ही निर्णायक बनाना चाहते थे, ताकि सत्ता मिलने के बाद संघर्ष होने पर यदि पार्टी दो फाड़ होती है। तो कहीं पार्टी का बहुमत न चला जाये और शिवपाल भाजपा के साथ मिलकर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक न पहुंच जाएं। अत: अखिलेश ने अंतिम​ चरण में पूरी बगावत कर दी। अब मुलायम को अपनी भूमिका निभानी थी। वह शिवपाल को साधे रहे, अखिलेश को गाली देते रहे। यहां तक कि शिवपाल के कहने पर अखिलेश को पार्टी से निकालने का नाटक भी कर दिया। झगड़े को चुनाव आयोग भी पंहुचा दिया, परन्तु चुनाव आयोग के सामने बेटे का विरोध न कर साइकिल चुनाव चिन्ह भी उसे दिलवा दिया।

मुलायम और अखिलेश ने मिलकर आपरेशन शिवपाल पूरा कर लिया। अब शिवपाल और उनके बेटे की समाजवादी पार्टी में औकात विधायक या सांसद का टिकट मांगने पर सिमट गई है। टिकट देना न देना अखिलेश पर निर्भर करता है। मुलायम और अखिलेश इतने चालाक हैं कि उन्होंने यह व्यवस्था भी जमा ली कि यदि चुनाव में शिवपाल मुलायम की असलियत सूंघ रस्सी तुड़ा कर भागें, तो भी अखिलेश को होने वाले नुकसान को पूरा किया जा सके। कांग्रेस से चुनाव पूर्व उदार समझौता इसी रणनीति के तहत है। राजनीतिक पंडित शायद इसे समझे नहीं या फिर अन्य कारणों से इसे अभिव्यक्ति नहीं दी। आज पार्टी पर अखिलेश का पूरी तरह कब्जा है, मुलायम नाटक पूरा कर अखिलेश और कांग्रेस के प्रचार को तैयार हैं। शिवपाल अपनी विधायकी बचाने और अपने बेटे का राजनीतिक भविष्य बचाने की कोशिश में लगे हैं।

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