Thursday 20 March 2014

आंकड़ों के मकड़जाल में उलझकर रह गया देश का गरीब ग्राहक


देश समाज में गरीबी या गरीबों की जब भी बात होती है।राजनीतिज्ञ ,अर्थशास्त्री तथा बुद्धिवादी आंकड़ों को लेकर पिल पड़ते हैं। इन आंकड़ों के इर्दगिर्द अपने तर्कों कि गाठें लगाकर पूरे विषय को आंकड़ों के मकड़ जाल में उलझकर जस का तस छोड़ देते हैं। हर बार यही होता है ,कोई उपाय या मार्ग खोज पाना कठिन होता जाता है  ,आंकड़ों का सहज सरल विश्लेषण शायद इन बुद्धिवादिओं की बुद्धि पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दे इस दर से यह कभी इस पचड़े में नहीं पड़ते। हम आंकड़ों कि विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगा रहे हैं। चाहे वह सरकारी,निजी या अन्य किन्ही व्यवस्थाओं से प्राप्त किये गए हों। प्रश्न चिन्ह तो इन आंकड़ों के आधार पर किये विश्लेषण द्वारा निकले निष्कर्ष पर लगता है। जिन्हे आप कहीं भी ,कभी भी ,किसी भी स्थान पर परखने का प्रयास कर के देख लीजिये। आप को आंकड़ों के आधार पर निस्पादित निष्कर्ष से कहीं अधिक भयावह वास्तविकता  मिलेगी। औसत के आधार पर जुटाए यह आंकड़े ,काल्पनिक स्थितियों का ही अधिक वर्णन करते हैं। आश्चर्य इस बात का है कि इस बात को सभी जानते हैं ,फिर भी न जाने  किस कारण, क्यों देश के गरीब ग्राहकों को कभी समझ न आने वाली इस बात को समझाने का प्रयास कर उन्हें इस मकड़जाल में उलझाने  में लगे रहते हैं। यह बुद्धिवादी न तो इससे निकलने का कोई प्रयास करते दिखाई देते हैं ,न ही कोई वैकल्पिक मार्ग खोजते। शायद उन्हें यह पचड़ा लगता हो और वह किसी पचड़े में न पड़ना चाहते हों। तब तक आजकल कोई किसी मामले में हाथ नहीं डालता ,खासकर वह जिसकी जिंदगी आराम से चल रही हो ,जब तक कोई मामला उसके गले मैं फांस बनकर न अटक जाए। अतः सभी इस मुद्दे से कन्नी काटना ही बेहतर समझते हैं। यह साधारण सी बात जो मेरे जैसे अल्पबुद्धि कि समझ में आती है ,वह यह कि औसत के आधार पर निकले आंकड़ों का महत्व तभी होता है जब न्यूनतम और अधिकतम आंकड़ों के बीच अंतर 5 प्रतिशत से अधिक न हो। तभी औसत के आधार पर निकाले आंकड़े वास्तविकता के नज़दीक होते हैं। अगर एक व्यक्ति कि आय १००० रुपये हो ,दूसरे कि 100 रुपये व् तीसरे कि 50 रुपये तो औसत  के अधर पर तीनों कि आय 383 रुपये बताना हास्यास्पद होगा , आजकल देश में हो यही रहा है तभी देश कि कुल सम्पत्ति का 70 प्रतिशत मात्र 8200 लोगों के हाथों में सिमट कर रह गई है। और देश कि पूरी कि पूरी आबादी 30 प्रतिशत कि हिस्सेदार होकर रह गई है।  इन परिस्थितियों में वाही होता है जो देश में हो रहा है। जब तक हमारे नीति निर्माता इन स्थितियों को को सुलझाने कि तैयारी नहीं दिखायेंगे तब तक बात नहीं बननें  वाली। गरीबों की स्थितियों में सुधार नहीं होने वाला। 

गरीबों की स्थितियों में सुधार की योजनायें बनाने के लिए धन की आवश्यकता होगी। अतः महत्वपूर्ण यह देखना होगा कि सरकार  इस अतिरिक्त धन कि व्यवस्था कैसे करती है। अपनी आय के श्रोत कैसे बढाती है। आय के श्रोत बढ़ाने में किस वर्ग पर अधिक बोझ डालती है। स्वाधीनता के बाद से देश कि कुल आय के श्रोत और इस आय के नियोजन के कुल आंकड़े निकाल  कर देख लीजिये। यह वस्तुस्थिति सामने आ जायगी कि सभी सरकारें गरीबों से धन वसूल कर (अप्रत्यक्ष कर ) उसका अधिकतर भाग अमीरों पर लुटाती रही हैं ,नतीज़तन गरीब निचुड़ता चला गया और अमीर अधिक अमीर बनता चला गया। स्वाधीनता के बाद कि आय को 3 श्रेणियों में बांटना है। 

1 देश का बुनियादी ढांचा विकसित करने में। 
2 गरीब लोगों के लिए बनाई योजनाओं में। 
3  उद्योग /व्यापार को दी सुविधाओं पर किया खर्च।

बुनियादी सुविधाओं पर किये खर्च को भी गरीबों पर किया खर्च समझा जाये ,क्योंकि गरीब भी इससे लाभान्वित होते है। इसमें से भ्रष्टाचार के धन को निकाल दें , क्योंकि भ्रष्टाचार में गया धन प्रभावशाली लोगों की  जेब में  जाता है। उसी तरह उद्योग /व्यापार को दी सुविधाओं पर खर्च में ,उन्हें सस्ती दर पर दी जमीन ,टैक्स की छूट ,कस्टम ड्युटी की छूट तथा दिए गए विभिन्न अनुदानों को जोड़ लें ,जिनमें बिजली ,पानी ,सस्ती दर पर कोयला आदि सभी आ जाता है। स्थितियां खुद ब् खुद सामने आ जायेंगी ,धन आया किधर से है और गया किधर है। यह न समझा जाये कि हमें किसी देश की प्रगति में उद्योग का महत्व नहीं मालूम। उद्योग देश के विकास तथा रोजगार सृजन में क्या भूमिका निभाते हैं। परन्तु यहाँ बात तो गरीबों से वसूले धन के नियोजन की चल रही है। विडंबना यह कि गरीबों से वसूल कर उद्योग /व्यापार को तो धन दिया ही गया ,उद्योग /व्यापार ने भी गरीब ग्राहकों को चूसने में कोई कसर नहीं बाकी रहने दी। नतीजतन गरीब लूटकर और गरीब होता चला गया और अमीर अधिक अमीर। 

दरसल सरकार दोनों में सन्तुलन रखने की भूमिका निभाती है। दुर्भाग्य से सरकार ने दबाव व् स्वार्थ के चलते उससे हाथ खींच लिए। 60 सालों से यही चलता आ रहा है। उद्योग /व्यापार को कितना भी मुनाफा ग्राहक से वसूलने कि छूट है। अतः उद्योग /व्यापार दोहरा लाभ कमा रहे हैं , सरकार से सुविधायें लेकर ,ग्राहकों से जबरदस्त मुनाफा वसूलकर ,जिसकी वजह से जो पैसा गरीब ग्राहकों के हाथों में रहना चाहिए वह उद्योग /व्यापार के हाथों में सिमटता जा रहा है।एक बात तो साफ़ है सरकार कोई भी बने स्थापित लीक पर चलने से कुछ नहीं होने वाला। इन परिस्थितियों को बदलने के लिए नवीन सम्भावनाएं तलाश करनी होंगी। यह रास्ता कठिन तो होगा ही ,बाधाओं से भी भरा होगा। क्योंकि स्थापित लीक के समर्थन में देश के प्रभावशाली लोग खड़े होंगे। परन्तु नवीन व्यवस्था को छोटे उद्योगों तथा कृषि को ,जो पिछले 10 वर्षों में हाशिये पर चले गए हैं ,सम्भालना होगा। हमारे देश में यही अधिकतम रोजगार का सृजन करते हैं और यही आर्थिक असुंतलन को कम करते हैं। आज जो  देश की जी डी पी 4. 5 % के करीब बची हुई  है ,इसी की  वज़ह से। 

विगत 10 वर्षों का विश्व के तथाकथित अर्थशास्त्रियों के शासन को देश ने बहुत अधिक भुगता है। आज अर्थव्यवस्था उस अन्धे मोड़ पर है ,जहाँ चारो और अँधेरा ही अँधेरा है। बात यहीं समाप्त नहीं होती है ,वर्तमान नेतृत्व ने देश को उन तमाम अंतर्राष्ट्रीय करारों में जकड दिया है ,जिनके कारण आने वाले नेतृत्व को लीक से हटने के साथ साथ राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन तमाम स्थापित व्यवस्थाओं से लड़ना होगा ,उन्हें तोडना होगा जो देश के सर्वांगीण विकास की राह की बेड़ियां बन चुकी हैं। अतः देश को एक शक्तिशाली नेतृत्व कि आवश्यकता है , जो इस कठिन दौर से देश को निकाल सके। 

ग्राहकों को कुछ ही दिनों में देश का नेतृत्व चुनने का मौका मिलने वाला है। अवसर गम्भीरता से विचार कर निर्णय लेने का है। परिवर्तन करने का है। देश की  भावी पीढ़ियों के भविष्य का है। सभी ग्राहक सावधानी से निर्णय लें ,सरकार  चुननें उखाड़ने में शत प्रतिशत सहभाग  करें। वोट जरूर दें।