Friday 13 May 2022

मुद्रास्फीति शिखर पर, डीजल पेट्रोल जीएसटी दायरे में लायें

खुदरा क्षेत्र की मुद्रास्फीति पिछले 10 महीनों के उच्चतम स्तर पर 7.8% पंहुच गई है। मुद्रास्फीति दर में 7.8% की वृद्धि असाधारण है। देश के वित्तीय प्रबन्धक इसके विरोध और समर्थन में अनेकों तर्क देकर इसकी अच्छी या बुरी विवेचना कर सकते हैं। परन्तु इससे सर्वहारा वर्ग की आर्थिक स्थिति में तनिक भी अंतर पड़ने वाला नहीं है। इस भयंकर मुद्रास्फीति की मार उसे ही झेलनी है, इसकी कीमत उसे अपनी संपत्ति को खोकर चुकानी है। उसे अधिक साधनहीन होना है।



सरल शब्दों में मुद्रास्फीति का अर्थ होता है कि 10 माह पहले 100 रुपयों में आप जितनी वस्तुएं खरीद सकते थे। अब उन्हें खरीदने के लिए आपको 107.80 रुपये खर्च करने पड़ेंगे, यानि यह भी कहा जा सकता है कि आपकी संचित पूंजी 7.8% कम हो गई है। सरकारी बैंकों वह अन्य विभिन्न योजनाओं में जमाकर्ताओं को मिलने वाली ब्याज की दरें 5.5% से लेकर 6.5% तक हैं। जिसका अर्थ है आपकी जमा पर बैंक व वित्तीय संस्थान ब्याज तो दे रहे हैं। परन्तु आपके धन का मूल्य 2.3% से लेकर 1.3% तक कम हो रहा है।

देश की विकास दर बढ़े, इसके लिए आवश्यक होता है कि उत्पादन बढ़े। साधारणतया उत्पादन दर में वृद्धि के लिए उद्योग क्षेत्र ब्याज दरों को घटाने की मांग अक़्सर सरकार से करते रहते हैं। ब्याज दरों पर नियंत्रण रिजर्व बैंक समय समय पर रेपो दर में बदलाव लाकर करता रहता है। जो किसी भी देश की मौद्रिक नीतियों के अंतर्गत आने वाली व्यवस्था होती है। वर्तमान वित्तीय परिस्थितियों को देखते हुए कोई संभावना नहीं है कि रिजर्व बैंक ब्याज दरों में किसी प्रकार की कटौती कर सके।

मोदी सरकार के आलोचक मुद्रास्फीति दरों के 10 माह के उच्चतम पर पंहुचने की आलोचना कर सकते हैं, परन्तु हकीकत यह है कि यूपीए शासनकाल में वर्ष 2008 से लेकर वर्ष 2013 तक मुद्रास्फीति की दर 8.35 से लेकर 11.99% के बीच रही थी, जो वर्तमान मुद्रास्फीति की दर से कहीं अधिक थी। जबकि मोदी सरकार के काल में वर्ष 2014 से लेकर आज तक मुद्रास्फीति की दर 3.3 से लेकर वर्तमान 7.8% तक रही है। इस आधार पर मोदी सरकार का वित्तीय प्रबंधन मनमोहन सिंह सरकार से कहीं बेहतर है।

वित्तीय प्रबंधन में विभिन्न आर्थिक घटकों के व्यवहार के चलते अर्थव्यवस्था के मापदंडों में नरमी गर्मी का आना स्वाभाविक है। इसके प्रभाव से ग्राहकों को बचाना या इसकी आंच ग्राहकों तक कम से कम पंहुचने देना, सरकार के वित्तीय प्रबंधकों का कार्य है। इस बात में दो मत नहीं हो सकते कि वर्तमान में मुद्रास्फीति के उच्चतम स्तर पर पंहुचने के कारणों में एक प्रमुख कारण डीजल और पेट्रोल के भावों में होने वाली निरंतर वृद्धि है। देश के प्रमुख ग्राहक संगठन अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत को वर्तमान स्थिति का पूर्वानुमान था। इसीलिए पिछले माह उसने हरियाणा के फरीदाबाद में हुई अपनी वार्षिक बैठक में डीजल व पैट्रोल को जीएसटी के दायरे में लाने की मांग केन्द्र सरकार से की थी। ताकि डीज़ल पैट्रोल के दामों में होने वाली अप्रत्याशित वृद्धि के कारण अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले दुष्परिणामों से देश को बचाया जा सके। इस संबंध में केंद्र सरकार को गंभीरता से विचार करने तथा यदि आवश्यक हो तो डीज़ल पैट्रोल को जीएसटी के दायरे में लाने पर श्वेत पत्र प्रकाशित करने की आवश्यकता है।

Wednesday 11 May 2022

राष्ट्रद्रोह कानून की समीक्षा का अर्थ उसका निरस्त होना नहीं?

अंग्रेजों द्वारा 152 वर्ष पूर्व 1870 में बनाये राजद्रोह कानून के औचित्य पर आज प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं, वह भी तब जब राज्य धड़ल्ले से अपने विरोधियों को सबक सिखाने के लिए इसके दुरुपयोग में लगे हुए हैं। परन्तु राजद्रोह कानून की आवश्यकता और उसका दुरुपयोग दो भिन्न भिन्न पहलू हैं। जिनके कारण न तो राजद्रोह कानून की आवश्यकता और महत्व कम होता है और न ही उसकी उपयोगिता पर प्रश्न उठता है।


अंग्रेजों के द्वारा अपने शासन के दौरान बनाये गये इस कानून के प्रावधानों और उद्देश्यों पर होने वाली बहस से इस कानून की आवश्यकता और उपयोगिता तनिक भी प्रभावित नहीं होती। हास्यास्पद बात यह है कि इस कानून को आजादी के बाद 70 वर्षों तक ढोने वाले, इसे अधिक सख्त बनाने वाले आज सबसे अधिक ढोल पीट रहे हैं। याद रहे उच्चतम न्यायालय ने राजद्रोह कानून की धारा 124A को रद्द नहीं किया है, अभी सिर्फ इसका उपयोग उस समय तक टालने की हिदायत दी है, जब तक केन्द्र सरकार इसकी समीक्षा न कर ले। केन्द्र सरकार इसके उपयोग के संबंध में कुछ संतुस्तियां जारी करने वाली है, इस कानून का उपयोग करते समय जिनका ध्यान सरकारें रखें।

लेकिन इस कानून को लेकर देश में विपक्षियों के द्वारा जो वातावरण बनाया जा रहा है। उसे देखकर तो यह लगता है कि इस देश में देशद्रोह जैसे कानून की आवश्यकता ही नहीं है। आतंकवादी चाहे जितने विस्फोट कर लें, अर्बन नक्सली चाहे जितनी देश को खंड खंड करने की बातें कर लें, चाहे कोई देश के किसी भाग में तिरंगे को उठाने वाला न मिलने की बात कर लें, लोकतंत्र में लोगों को यह सब करने की छूट होनी चाहिए। 

महत्वपूर्ण बात यह है कि केन्द्र सरकार ने इस कानून के प्रावधानों की समीक्षा करने की बात कही है, रद्द करने की नहीं। समीक्षा होनी भी चाहिए, इसके प्रावधानों को सुसंगत बनाया जाना चाहिए, जिनका उपयोग करने के लिए कठिन और जटिल प्रक्रिया अपनाई जा सकती है। यह प्रश्न भी इसलिए उठे, क्योंकि किसी ने कार्टून बनाया, सार्वजनिक स्थान पर हनुमान चालीसा पढ़ा और उसे देशद्रोही कहकर सलाखों के पीछे भेज दिया। इस कानून की सर्वाधिक आलोचना भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में इसके हस्तक्षेप के चलते उठी है। परन्तु देश में राष्ट्रद्रोह का अपराध होगा ही नहीं, राष्ट्रद्रोह के अपराध से निपटने के लिए कानून की आवश्यकता ही नहीं, इन बातों से कोई सहमत नहीं होगा। वह भी तब, जब कुछ लोग सरकार व प्रशासन के सामने सशस्त्र विद्रोह पर आमादा हो जाते हैं।

देश उम्मीद करता है कि शीघ्र ही एक सुसंगत, कठोर व संशोधित राष्ट्रद्रोह कानून आकार लेगा, जो देश के द्रोहियों से निपटने में सक्षम होगा।

Tuesday 10 May 2022

राष्ट्रद्रोह कानून में भी सिब्बल नेहरू को घसीट लाये

देश में जब भी किसी बदलाव की बात शुरू होती है। कांग्रेस का कोई न कोई नेता उसमें कूद कर उस बदलाव को गांधी, नेहरू से जोड़ने में तनिक भी कोताही नहीं बरतता। उच्चतम न्यायालय में देशद्रोह कानून की धारा 124A पर बहस के दौरान भी यही हुआ? कांग्रेस के कपिल सिब्बल बहस में कूद पड़े और अदालत को यह समझाने लगे कि नेहरू और गांधी भी इस धारा के सख्त खिलाफ थे।



इस देश की विडंबना यही है कि नेहरू खानदान इस देश में करना सब चाहता था, लेकिन तीन पीढ़ियों के द्वारा 70 वर्षों तक शासन करने के बाद भी किया कुछ नहीं। कपिल सिब्बल को यह कहते शर्म नहीं आई कि नेहरू 1951 में राष्ट्रद्रोह के प्रावधानों में बदलाव चाहते थे, उन्होंने कहा था,"मैं राष्ट्रद्रोह के प्रावधानों के सख्त खिलाफ हूं। इन्हें किसी भी कानून में, किसी भी कारण कोई स्थान नहीं मिलना चाहिए।" वर्ष 2013 तक बाबासाहेब के संविधान में 98 संशोधन हो चुके थे। लेकिन नेहरू की तीन पीढ़ियों में से किसी ने इस कानून की गली में झांका तक नहीं। अब जब मोदी सरकार इस दिशा में सकारात्मक और गंभीर कदम उठाने के लिए आगे बढ़ी है, तब सिब्बल को नेहरू सपने में आकर याद दिला रहे हैं।

कांग्रेसियों की बेशर्मी की हद देखिए, देशद्रोह कानून में कितने जाने वाले बदलावों को नेहरू गांधी की इच्छा से जोड़ने वाले कपिल सिब्बल स्वयं मानव संसाधन और कानून मंत्री रह चुके हैं। उस दौर में कभी भी नेहरू गांधी ने उनके स्वप्न में आकर यह नहीं कहा कि देशद्रोह कानून की धारा 124A उनकी आत्मा को अत्यधिक कष्ट दे रही है। अतः वह इस संबंध में कुछ करें।

देश अब आगे बढ़ चला है, उसे अपना इतिहास जानने में रुचि अवश्य है, लेकिन उसे न तो आजादी की लड़ाई के दौरान नेहरू के जेल पर्यटन के विषय में जानने में कोई रुचि है और न ही नेहरू द्वारा नाभा की जेल में सिर्फ 12 दिनों में हलकान होने के बाद उनके पिता मोतीलाल नेहरू ने वायसराय के दरबार में नाक रगड़कर नेहरू की दो साल की सजा माफ करने की गुहार लगाई। वायसराय अपने खिदमतगार की दुहाई पर पिघले और नेहरू ने माफीनामे के साथ बांड भर कर दिया कि वह कभी भी नाभा राज्य की सीमा में प्रवेश नहीं करेंगे। उसके बाद नेहरू कभी भी नाभा नहीं गये। देश आजाद होने के बाद भी नहीं।

देश बार बार न तो नेहरू गांधी की गलतियों को याद करना चाहता है, न उनका रोना रोना चाहता है। वह भूतकाल था, गुजर गया, अब आगे की सोचो, परंतु कांग्रेसी हर बात में नेहरू गांधी को घसीट लाते हैं, उन पर चर्चा शुरू कर देते हैं, जिसके कारण देश को नेहरू और उनके बाद के कालखंड की परतें उघाड़ती पड़ती हैं। कांग्रेस के नेता शायद नेहरू खानदान के शासनकाल से खफा हैं, वह चाहते हैं कि देश उनकी कारगुज़ारियों पर लानत मलानत भेजे, इसीलिए वह सभी विषयों में नेहरू को खींच लाकर, उनकी असफलताओं को उघाड़ते हैं। जब कपिल सिब्बल कहेंगे कि नेहरू राष्ट्रद्रोह की धारा के खिलाफ थे। वर्ष 1951 में उन्होंने इसका विरोध किया था, तो प्रश्न स्वाभाविक है कि अब तक नेहरू और उनके वंशज इस बारे में अकर्मण्य क्यों रहे।

Tuesday 3 May 2022

देश में जहांगीरपुरी आरएसएस के पैदा होने के पहले से बन रहे हैं




देश में हिन्दू-मुसलमान नया नहीं है और न ही यह आरएसएस के जन्म के बाद से हो रहा है। मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं का गला काटना तो उस समय शुरू हो गया था, जब गांधी जी की बात मानकर हिन्दू तुर्की के खलीफा के समर्थन में मुसलमान भाईयों  के साथ गले मिल रहे थे। हिन्दू मुसलमानों की खलीफा पद्धति को स्थापित करने में ताकत लगा रहे थे और मुसलमान खिलाफत आन्दोलन समाप्त होते होते, हिन्दुओं के खिलाफ जेहाद छेड़ने की योजनाएं बना रहे थे। इसकी शुरुआत 1921 में मोपला दंगों से हो चुकी थी, जो उस समय मुसलमानों को भड़काकर हिन्दू-मुसलमान के नाम पर षड़यंत्र रच रहे थे। वही लोग आज भी षड़यंत्र रच रहे हैं, लेकिन तथाकथित छद्म सेकुलर अपने एजेंडे के तहत निशाना कहीं और साध रहे हैं।  मई 1924 को "लाहौल" नाम के मुस्लिम समाचार पत्र में यह  कविता जिसने छपवाई थी, वहीं आज भी हिन्दू मुसलमान दंगों की स्क्रिप्ट लिख रहा है, उस समय छपी कविता में लिखा गया था, "हमें किरार की गीता को जलाना होगा। हम कृष्ण की बांसुरी तोड़ेंगे। ऐ मुसलमानों तलवार उठाओ, किरारों को मारो, उनकी देवियों को नष्ट करो।"

उस समय तक आरएसएस की स्थापना नहीं हुई थी। लेकिन हिन्दू मुसलमान के बीच नफरत के बीज बोए जा रहे थे, उन्हें सहेजा जा रहा था। परंतु यह सेकुलर उस वक्त भी हिन्दू -मुसलमानों के बीच पैदा हुई नफरत की नींव डालने वालों की सच्चाई से आंखें चुरा रहे थे, यह सिलसिला आज तक बदस्तूर जारी हैं। यदि हिन्दू और मुसलमानों के बीच नफरत फ़ैलाने वाले श्रोतों पर तभी समुचित ध्यान दें दिया होता, तो शायद न तो पाकिस्तान बनता, न ही तथाकथित सेकुलरों की रोजी रोटी आज तक चलती। सेकुलर गैंग इसी कारण फलफूल रहा है, वह सच्चाई से नजरें चुरा एकतरफा उस दिशा में वार करता है, जहां इस रोग की जड़ ही नहीं है। 

आरएसएस को यह सेकुलर गैंग एक निर्धारित योजना के तहत अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए निशाना बनाता है। इस गैंग ने देश के उन सभी महान नेताओं की बातों को हमेशा पूरी तरह अनदेखा किया, जिन के आदर्श वाक्यों को इस गैंग के लोग जब तब उद्धृत कर कर के आरएसएस पर हमला बोलते हैं। कांग्रेस के पट्टाभि सीतारमैया ने 9 व 10 सितंबर 1924 की घटनाओं के बारे में "दि हिस्ट्री ऑफ इंडियन नेशनल कांग्रेस के पृष्ठ 465, पर लिखा है, कोहाट दंगों के बारे में भारतीय विद्यालय कोहाट के प्रधानाचार्य लाला नंदलाल ने दंगों के तुरंत बाद कोहाट शरणार्थी कार्य समिति के लिए एक प्रतिवेदन का प्रकाशन किया था, जिसे पढ़कर पाठक आज भी कांप उठता है।" अन्य कई नेताओं ने भी इसी प्रकार के विचार भिन्न भिन्न स्थानों पर व्यक्त किए हैं, जिनमें एनी बेसेंट, लाला लाजपत राय, अच्युत पटवर्धन, सरदार वल्लभभाई पटेल, डा अम्बेडकर और गांधी जी स्वयं भी है। लेकिन सेकुलर तो बगीचे में गिरे रुपये को बरामदे में उस समय भी ढूंढ रहे थे और आज भी ढूंढ रहे हैं।

डा अम्बेडकर को हिंदू समर्थक नहीं माना जाता था। उनके और गांधी जी के उदाहरण आज भी प्रत्येक सेकुलर की जुबान पर आ जाते हैं। आरएसएस के जन्म पूर्व हुये हिन्दू मुसलमान दंगों पर अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक "दि पार्टीशन आफ इंडिया" में लिखा है, 1921 के मोपला दंगे दो मुसलमान संगठनों, खुद्दमे काबा और सेन्ट्रल खिलाफत कमेटी द्वारा कराए गए थे। वह आगे लिखते हैं, "मोपला के मुसलमानों ने मालाबार के हिन्दुओं के साथ जो किया, वह चौंकाने वाला है। मोपलाओं के हाथों मालाबार के हिन्दुओं पर भयानक अत्याचार हुए। नरसंहार, जबरन धर्मांतरण, मंदिरों को तोड़ना, महिलाओं के साथ अपराध, गर्भवती महिलाओं के पेट फाड़े जाने की घटना, यह सब हुआ। हिन्दुओं के साथ सभी प्रकार की क्रूरतायें हुई, असंयमित बर्बरता हुई। मोपला के मुसलमानों ने हिन्दुओं के साथ यह सब तब तक किया, जब तक वहां सेना नहीं पंहुच गई।" यह सब सिर्फ मालाबार या कोहाट तक सीमित नहीं रहा। वर्ष 1923 तक अमृतसर, लाहौर, पानीपत, मुल्तान, मुरादाबाद, मेरठ, इलाहाबाद, सहारनपुर, भागलपुर, गुलबर्गा और दिल्ली तक पंहुच गये थे। देश में हिन्दू -मुसलमान की आंधी उस समय चल रही थी, जब आरएसएस का अस्तित्व भी नहीं था।

देश में आरएसएस को सांप्रदायिकता पर उपदेश गांधी जी का नाम लेकर सौहार्दपूर्ण वातावरण की दुहाइयां देता हुआ, कोई भी सेकुलर देने लगता है। आरएसएस के जन्म से पहले ही हिन्दू -मुसलमान पर गांधी जी क्या कह रहे थे, यह तथाकथित सेकुलर जानते तो हैं, लेकिन कहते नहीं, क्योंकि यह उनके एजेंडे के खिलाफ है। गांधी जी ने वर्ष 1924 में यंग इंडिया में लिखा,"हिन्दुओं ने मुझसे लिखित शिकायत की है कि मै मुसलमानों को संगठित करने और जागरूक बनाने का जिम्मेदार हूं। मैंने मौलवियों को बहुत प्रतिष्ठा दिलाई है। अब जब खिलाफत आन्दोलन ठंडा हो चुका है, मुसलमानों ने हिन्दुओं के खिलाफ जेहाद की घोषणा कर दी है। ...... हिन्दू महिलाओं के बारे में बंगाल से मिले समाचार ग्लानि पैदा करने वाले हैं। यदि उनमें आधी सच्चाई हो तब भी।...... मेरा निजी अनुभव इस विचार की पुष्टि करता है कि मुसलमान स्वभाव से आक्रामक होता है और हिन्दू कायर। क्या हिन्दुओं को अपनी कायरता के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराना चाहिए । कायर तो हमेशा पिटेगा। सहारनपुर के मुसलमान अपने जघन्य कार्यों के लिए कोई सफाई नहीं दे सकते। लेकिन हिन्दू होने के कारण मैं हिन्दुओं की कायरता के कारण अधिक लज्जित हूं। मुसलमानों पर मुझे उतना गुस्सा नहीं। जो घर लुटे, उनके मालिकों ने अपनी संपत्ति को बचाने के लिए, अपनी जान पर क्यों नहीं खेल गये। जिन बहनों के बलात्कार हुते, बलात्कार के समय उनके रिश्तेदार कहां थे। मेरी अहिंसा यह नहीं कहती कि संकट के समय अपने प्रियजनों को असहाय छोड़कर भाग खड़े हों।"

मजे की बात है, कि मुसलमानों को विवाद पैदा करने वाला सिर्फ हिन्दू या हिन्दू संगठन ही नहीं कहते। अन्य धर्मों व मतों के लोग भी कहते हैं, फिर भी इन सेकुलरों की आंखें सही विवेचन करने के लिए नहीं खुलती, खुलें भी क्यों, इससे उनका एजेंडा फेल होता है। अब सात बार केरल में विधायक रह चुके ईसाई नेता पी सी जार्ज को, मुसलमानों के विरोध में विवादित सच बोलने की जरूरत क्यों पड़ी, किसी भी निष्पक्ष व्यक्ति या पत्रकार को इसकी तह में जाकर समझना लिखना चाहिए?



सेकुलर न तब हिन्दू-मुसलमान मर्ज की दवा चाहते थे, न आज चाहते हैं। उन्हें इसमें पूरे विश्व में हिन्दू विरोधी ढोल पीटने के अवसर और चंद सिक्कों की खैरात नजर आती है। कल भी यही एजेंडा चल रहा था, आज भी पूरे देश में चलाया जा रहा है। मोपला से जहांगीरपुरी तक की 100 वर्षों की यात्रा में कुछ नहीं बदला है।