Friday 16 December 2022

मुफ्तखोरी का खेल, कोई पास - कोई फेल



देश में लोगों को मुफ्त में वस्तुएं और सुविधाएं उपलब्ध कराने का जो खेल राजनीतिक दल खेल रहे हैं , यदि उसे सरल भाषा में समझा जाए तो टैक्स की गुल्लक में हमसे रोजाना अप्रत्यक्ष कर के माध्यम से जो पैसे डलवाए जाते हैं, उन्हीं पैसों से राजनीतिक दल वस्तुएं और सुविधाएं हमें उपलब्ध कराकर, मुफ्तखोरी का भोंपू बजाते हैं। कब तक राजनैतिक दल हमें मूर्ख बना कर ठगते रहेंगे और हम मूर्ख बनकर ठगे जाते रहेंगे, इस बात पर हमें गंभीरता से विचार करना है।


                                          "थोड़ा है थोड़े की जरूरत है ......"

प्रसिद्ध गीतकार गुलजार के द्वारा फिल्म खट्टा मीठा के लिए लिखे गए इस गीत में जीवन की वास्तविक स्थितियों का दर्शन छिपा है। लगभग सभी की इच्छा होती है कि जो कुछ भी उसके पास है, काश उससे थोड़ा सा अधिक उसे मिल जाए, मानव स्वभाव की इसी कमजोर नस को कुछ राजनीतिक दल अपना उल्लू साधने के लिए दबाते हैं। वास्तविकता है की राजनीतिक दल इस काम में सफल भी हुए हैं। थोड़े से अधिक की अपेक्षा करने वाले लोग उनके इस जाल में फंसे हैं। यह दीगर बात है कि मुफ्त में थोड़ा और पाने की इच्छा उन लोगों को अनेकों स्थानों पर दर्द भरे दंश देकर गई है।


कोई वस्तु या सुविधा आपको मुफ्त में मिल जाएगी यह मन का भ्रम ही हो सकता है, सत्य नहीं। प्रत्येक वस्तु या सुविधा का कुछ ना कुछ मूल्य होता है, जिसे हमें चुकाना ही पड़ता है। यह दीगर बात है की उस वस्तु का मूल्य हम धन के रूप में न चुका कर, किसी अन्य रूप में चुकाते हैं और सही स्थिति का आकलन करने में हम सक्षम न हों। मुफ्त मिलने वाली वस्तु या सुविधा का मूल्य किसी भी स्वरूप में हो सकता है। श्रम के रूप में, प्राकृतिक संसाधनों के रूप में या फिर ऊर्जा के किसी रूप में। जिसे हमें मुफ्त में मिलने वाली उस वस्तु या सुविधा के लिए चुकाना ही पड़ता है।


पिछले कुछ वर्षों से देश में एक रवायत चल पड़ी है। कुछ राजनीतिक दल चुनावों के वक्त वोटरों को (जो ग्राहक ही होते हैं) लुभाने के लिए तरह-तरह की वस्तुएं या सुविधाएं मुफ्त में उपलब्ध कराने का लालच देते हैं। आर्थिक विषयों का समुचित ज्ञान या समझ ना होने के कारण, ग्राहक उनके झांसे में फंसकर देश समाज और परिवार का बड़ा अहित कर बैठते हैं।


आज यह आवश्यक हो गया है की ग्राहक आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ता मुफ्त के इस खेल को समझें तथा इसे समाज को समझाएं कि मुफ्त के आवरण में लिपटी जिन वस्तुओं और सुविधाओं को देने का वादा राजनीतिक दल कर रहे हैं। उससे देश की अर्थव्यवस्था खोखली होती है। इससे देश समाज परिवार और व्यक्ति को ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी आर्थिक विपन्नता की गर्त में धकेला जाता है। देश और समाज को मुफ्त की इस लत से बचने की आवश्यकता है। राजनीतिक दल लोगों को मुफ्त में जो भी वस्तुएं या सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं। वह उन्हीं लोगों के द्वारा अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में खरीदी गई वस्तुओं पर चुकाए गए टैक्स से ही खरीदी जाती है। अतः यह समझने की आवश्यकता है कि मुफ्त के नाम पर लोगों को जो कुछ भी उपलब्ध कराया जा रहा है। उसका मूल्य उन्हीं से विभिन्न अप्रत्यक्ष करों के माध्यम से वसूला जाता हैं।


सरकार के पास आने वाले राजस्व का बड़ा भाग ग्राहकों के द्वारा चुकाये गये अप्रत्यक्ष टैक्स जीएसटी से आता है। यह जीएसटी सुबह से शाम तक ग्राहक माचिस से लेकर बड़ी-बड़ी वस्तुओं को खरीदने में सरकार को चुकाता है। ग्राहकों के इसी पैसे का दुरुपयोग कर राजनीतिक दल चतुराई से मुफ्तखोरी का खेल खेलते हैं। हम से ही लिए गए पैसे से वस्तुएं या सेवाएं खरीद कर मुफ्त के नाम पर राजनैतिक दल हम पर चिपकाते हैं।


राजस्व का सही उपयोग न किए जाने से देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है। उसका बड़ा नुक़सान होता है। देश का विकास रुकता है। हमारे द्वारा दिए गए टैक्स के पैसे का अधिक से अधिक उपयोग सरकार को देश की जीडीपी बढ़ाने वाली योजनाओं में करना चाहिए। जिनमें उद्योग एवं कृषि क्षेत्र आते हैं। इन क्षेत्रों में खर्च करने से रोजगार का सृजन होता है। देश समृद्ध होता है। देश में प्रति व्यक्ति आय बढ़ती है। इसके अतिरिक्त देश की आधारभूत संरचना के निर्माण में भी इस टैक्स द्वारा प्राप्त इस धन का उपयोग सरकारों को प्राथमिकता के साथ करना चाहिए। इन योजनाओं का उपयोग देश की जीपीडीपी बढ़ाने में सहायक होता है। इसके अतिरिक्त देश की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा को चुस्त-दुरुस्त बनाने, प्रशासनिक एवं न्यायिक व्यवस्था के संचालन के लिए किए जाने वाले खर्च का उपयोग भी सरकारें हम सभी से वसूले गए टैक्स के धन से ही करती हैं। देश में यदा-कदा प्राकृतिक व अन्य आपदाएं भी आती रहती हैं। इस कठिन समय में राहत देने के लिए आवश्यक धन की व्यवस्था भी सरकारें ग्राहकों से वसूली इसी टैक्स की राशि से करती हैं।


यदि राजनीतिक दलों के द्वारा मुफ्तखोरी के लोकलुभावन वादों को पूरा करने में सरकारी धन की लूट होगी तो या तो सरकारों को देश की विकास योजनाओं पर किए जाने वाले खर्च में कमी करनी पड़ेगी या फिर ग्राहकों से वसूले जाने वाले टैक्स को बढ़ाना पड़ेगा। प्रत्येक नागरिक की यह अपेक्षा होती है कि सरकार उन पर पड़ने वाले टैक्स के बोझ को कम करे। ताकि वह कुछ बचत कर अपने लिए कुछ अतिरिक्त संसाधन जुटाने में सक्षम हो सकें। परंतु मुफ्तखोरी की योजनाओं के चलते सरकारी सिर्फ और सिर्फ टैक्स बढ़ाने की ही सोच सकती है। इसके लिए वह नए-नए तरीके और माध्यम तलाश करती हैं।


अर्थव्यवस्था में अनुदान सब्सिडी की व्यवस्था होती है। परंतु इसका उपयोग लोगों को मुफ्त में सामान या सुविधाएं बांटने की लोकलुभावन तात्कालिक सुविधाएं देने के लिए नहीं, बल्कि आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को जीवनावश्यक वस्तुयें उपलब्ध कराने के लिए किया जाना चाहिए। देश की जीडीपी बढ़ाने के लिए, उत्पादन बढ़ाने में सहायक संसाधनों का मूल्य घटाने के लिए किया जाना चाहिए। सरकारों को अपने आवश्यक एवं अनावश्यक खर्चों को पहचानने की तमीज होनी चाहिए। उन्हें निरंतर कम करने का प्रयास करते दिखना चाहिए। सभी राजनीतिक दलों का जोर इन बातों पर होना चाहिए, ना कि मुफ्तखोरी, वस्तुओं और सेवाओं को लोगों में बांटकर सस्ती लोकप्रियता हासिल कर, हमें बेवकूफ बनाने के दुष्प्रचार में जुटना चाहिए।

Sunday 11 December 2022

हलाल जिहाद भारतीय अर्थव्यवस्था पर आक्रमण

 हैदराबाद में "हलाल जिहाद ,भारतीय अर्थव्यवस्था पर आक्रमण" नामक रमेश शिंदे द्वारा लिखित पुस्तक के तेलुगू संस्करण का बदरुका कॉलेज के सभागार में सेवानिवृत्त आईएएस एलवी सुब्रह्मण्यम आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव एवं तेलंगाना सरकार की पूर्व डीजीपी तथा रोड सेफ्टी एवं अथॉरिटी के अध्यक्ष टी कृष्णा प्रसाद आईपीएस के विमोचन समारोह को स्थगित करना पड़ा। 


H2H बिजनेस नेटवर्किंग तथा सनातन हिंदू संघ द्वारा समर्थित इस पुस्तक के विमोचन को स्थगित करने की पीछे पुलिस और पुस्तक के लेखक अलग-अलग कारण बता रहे हैंl पुलिस का कहना है कि कॉलेज प्रबंधन द्वारा अपने सभागार का उपयोग करने की अनुमति रद्द कर दी गई। जबकि पुस्तक के लेखक का कहना है कि पुलिस ने उन्हें समारोह आयोजन की अनुमति नहीं दी। 


"हलाल जिहाद' भारतीय अर्थव्यवस्था पर आक्रमण" पुस्तक का विमोचन चाहे ना हो पाया हो, हम यहां पुस्तक से संबंधित वीडियो आप सबको विषय की जानकारी के लिए दे रहे हैं।


https://www.google.com/url?sa=t&source=web&rct=j&url=%23&ved=2ahUKEwjlz-bf1_H7AhV-R2wGHbFkCJQQuAJ6BAgREAg&usg=AOvVaw0VTJzWxrN8ZFOD4xbU2nov


Saturday 10 December 2022

जीएम सरसों सभी की अपनी अपनी ढ़पली

 



देश में जीएम सरसों की प्रायोगिक खेती की अनुमति देने को लेकर वातावरण गर्म है। एक तरफ सरकार खाद्य तेलों का आयात कम करने तथा खाद्य पदार्थों में आत्मनिर्भरता बढ़ाने के लिए नई नई विधियां अपनाने के लिए प्रयोग करने को उत्सुक है। वहीं दूसरी तरफ कुछ संस्थाएं और पर्यावरणविद जीएम फसलों से जुड़े विभिन्न मुद्दों को उछाल कर सरकार के प्रयासों में रोड़ा अटका रहे हैं। जीएम सरसों का मुद्दा भी कुछ इन्हीं परिस्थितियों के आसपास झूल रहा है। कुछ पर्यावरणविद तो इस मुद्दे को लेकर उच्चतम न्यायालय भी गए हैं। वहां उन्होंने न्यायालय से मांग की है कि सरकार को जीएम सरसों की प्रायोगिक बुवाई को अनुमति देने से रोका जाए। क्योंकि इससे पर्यावरण और उसमें पलने वाले जीवो पर विपरीत प्रभाव पड़ने की संभावना है। उच्चतम न्यायालय ने भी सरकार को उसके द्वारा फैसला लिए जाने तक, कोई कदम न उठाने की सलाह दी है।


वर्तमान वर्ष में देश ने 157 लाख करोड़ रुपए खाद्य तेलों के आयात पर खर्च किये है। खाद्य तेलों के आयात की रकम, देश में किसी भी वस्तु के आयात पर खर्च की जाने वाली तीसरे नंबर की रकम है। साल्वेंट एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अनुसार वर्ष 2021 के नवंबर से फरवरी 2022 तक देश ने 8,43377 टन सूर्यमुखी का तेल यूक्रेन से आयात किया था, जो कुल आयातित तेल का 85% था। शेष में 14.3 % रुस से वह बाकी अर्जेंटीना से आयात किया गया था। इसके साथ ही सरकार बड़ी मात्रा में इंडोनेशिया और मलेशिया से पाम ऑयल का आयात भी कर रही है। अतः सरकार का प्रयास है की देश में सरसों की पैदावार जो कई वर्षों से 1260 किलो प्रति हेक्टेयर पर रुकी हुई है, उसे बढ़ाया जाए सरसों की पैदावार में विश्व का औसत 2000 किलो प्रति हेक्टेयर है, देश में सरसों की पैदावार इससे काफी कम है। इसीलिए सरकार दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर दीपक पेंटल द्वारा विकसित की गई जीएम सरसों DMH11 को फील्ड ट्रायल की अनुमति देने के लिए तैयार हो गई है ।भारत सरकार के कृषि विभाग और आईसीएआर ने रबी के आने वाले सीजन में DMH11 के लिए प्रायोगिक खेती कर पर्यावरणीय प्रभावों के परीक्षण करने की तैयारी के लिए कमर कस ली है।


देश में खाद्य तेल की कमी एक गंभीर विषय है। सरकार हर तरह से प्रयासरत है की तेल बीज के उत्पादन को बढ़ाया जाए और खाद्य तेलों के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल की जाए। जीएम सरसों को सरकार ने इसी आधार पर अनुमति दी है। वैसे यदि देखा जाए तो विश्व के कई देशों में जीएम खाद्य पदार्थों की खेती की जा रही है, जिनमें अमेरिका ब्राज़ील अर्जेंटीना कनाडा ऑस्ट्रेलिया आदि है। हाल ही में ऑस्ट्रेलिया ने भी दी DMH11 के समकक्ष किस्म की खेती करने की अनुमति दे दी है। उसका उद्देश्य दक्षिण एशियाई देशों में खाद्य तेलों की बढ़ती मांग को पूरा करने का है।


मजे की बात यह है कि देश में आज भी 2 से 2.5 मीट्रिक टन सोयाबीन और 1 से 1.5 मीट्रिक टन कैनोला तेल का आयात किया जा रहा है। जो जीएम फसलों के बीजों से निकाला गया है। इसके साथ ही देश में जीएम कॉटन सीड से 1.5 मीट्रिक टन तेल निकाला जा रहा है। जिनका देश में लगातार सेवन किया जा रहा है। सरकार अपने पक्ष में यह दलील भी दे रही है। सरकार का कहना है कि वर्तमान में प्रायोगिक आधार पर जीएम सरसों DMH11 की खेती करने में कोई हर्ज नहीं है। सरकार का यह भी कहना है की दी DMH11 की खेती के कारण पढ़ने वाले पर्यावरणीय प्रभावों का विस्तृत अध्ययन किया जाएगा तथा यह सुनिश्चित किया जाएगा की डीएमएच फसल के कारण मानव, पशु तथा पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव ना पड़े। परंतु वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए यह आवश्यक हो गया है कि खाद्य तेल के मामले में देश में तेल बीजों का उत्पादन बढ़ाकर आत्मनिर्भरता की तरफ कदम बढ़ाया जाए।


वास्तविकता यह है कि विश्व में वैज्ञानिक एवं कृषि अनुसंधानकर्ता जीएम खाद्य फसलों के मामले में एकमत नहीं है। कुछ का मानना है कि यह फसलें मानव उपयोग के लिए सुरक्षित हैं। वही अन्य का कहना है कि इससे मानव तथा जीवों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। वर्ष 2009 में अमेरिका की अंतर्राष्ट्रीय संस्था "द अमेरिकन एकेडमी ऑफ एनवायरमेंट मेडिसिन" ने जीएम फूड के बारे में चेतावनी जारी करते हुए कहा था, जीएम फूड सेहत के लिए खतरनाक है, पशुओं पर किए गए अध्ययन से मालूम हुआ है कि इसके कारण नपुंसकता, इम्यून समस्याएं,  तेजी से बुढ़ापा आना, इंसुलिन के प्रभावों का बेअसर होना, प्रमुख अंगों एवं गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल सिस्टम में बदलाव के संकेत मिले हैं। वहीं दूसरी ओर वर्ष 2013 में "यूरोपीयन नेटवर्क ऑफ साइंटिस्ट फॉर सोशल एंड एनवायरमेंटल रेस्पॉन्सिबिलिटी" ने लगभग 300 अनुसंधानकर्ताओं के हवाले से बयान जारी कर कहा था कि जीएम फूड और फसलों के बारे में विश्व के वैज्ञानिकों में कोई सहमति नहीं बनी है। जो लोग जीएम फूड और फसलों को मानव, पशु और वातावरण के लिए असुरक्षित या सुरक्षित बताते हैं । वह भ्रामक बयान देते हैं। उनका कहना है कि इस संबंध में प्रकाशित रिपोर्टों में एक दूसरे से विरोधी बातें प्रकाशित की गई हैं।

Thursday 22 September 2022

आप एनर्जी ड्रिंक के नाम पर जहर तो नहीं पी रहे?

इन दिनों बाजार में एनर्जी ड्रिंक की बाढ़ आई हुई है। इनकी खपत में जबरदस्त वृद्धि हुई है। ओआरएस घोल के नाम से बेचे जाने वाले यह पेय स्वास्थ्य के लिए अत्यधिक खतरनाक हैं। यहां तक कि इन पेयों के अत्यधिक सेवन से हृदय गति भी रुक सकती है। मानव स्वास्थ्य के लिए इसी खतरे को देखते हुए हैदराबाद के वरिष्ठ बालरोग विशेषज्ञ डा शिवरंजनी संतोष ने तेलंगाना उच्च न्यायालय में इन पेयों के विक्रय पर प्रतिबंध लगाने से संबंधित जनहित याचिका दाखिल की है। याचिका में कहा गया है कि ओआरएस घोलों के नाम से बेचे जाने वाले इन उत्पादों में अत्यधिक मात्रा में लवण और शर्करा होती है, जिसका अत्यधिक सेवन व्यक्ति को अस्पताल पंहुचा सकता है, यही नहीं यह उसकी मृत्यु का कारण भी बन सकता है।




इस जनहित याचिका को सुनते हुए तेलंगाना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश उजल भूमान और न्यायधीश सी वी भास्कर रेड्डी ने ड्रग एंड कास्मेटिक एक्ट की धारा 3 जी एवं अनुसूची - के की धारा 27, (जिसमें ओआरएस घोल को औषधि कहा गया है) के अंतर्गत फूड सेफ्टी एण्ड स्टैण्डर्ड अथारिटी को नोटिस जारी कर अपना पक्ष रखने के लिए कहा गया है।

वरिष्ठ बालरोग विशेषज्ञ डा शिवरंजनी संतोष का कहना है कि बाजार में विभिन्न नामों से बिकने वाले एनर्जी ड्रिंक के मानकों को नियंत्रित करने की कोई व्यवस्था नहीं है। यद्यपि सेंट्रल ड्रग स्टैण्डर्ड कंट्रोल आर्गेनाइजेशन ने इसके संबंध में दिशा निर्देश जारी किए थे, परंतु इनको लागू नहीं किया गया है, जिसके कारण उत्पादक आकर्षक विज्ञापनों के द्वारा लोगों को अधिक से अधिक एनर्जी ड्रिंक पीने के लिए प्रेरित कर उनके जीवन से खिलवाड़ कर रहे हैं।

तेलंगाना टुडे द्वारा समाचार एजेंसी एएनआई के हवाले से 16 अप्रैल 2021 को प्रकाशित एक लेख में लंदन में बीएमजे पत्रिका में छपी एक 21 वर्षीय युवक की केस स्टडी के हवाले से कहा गया है कि एनर्जी ड्रिंक का अत्यधिक सेवन से हृदयाघात हो सकता है। यह युवक 2 वर्षों तक रोजाना 4 से 5 एनर्जी ड्रिंक पीता था। चार माह तक थोड़े से परिश्रम के बाद सांस फूलने और लेटने पर सांस लेने में दिक्कत होने, वजन कम होते जाने के कारण आईसीयू में दाखिल होना पड़ा । युवक रोज 500 मिली एनर्जी ड्रिंक पीता था, जिसमें 16 मिग्राम कैफीन, टारीन और अन्य पदार्थ होते थे।

युवक का कहना था कि अस्पताल में दाखिल होने के पूर्व उसे अपच, कंपकंपी और सांस लेने में कठिनाई अनुभव हो रही थी, जिसके कारण उसे अपनी विश्वविद्यालय की पढ़ाई भी छोड़नी पड़ी थी। खून की जांच, इसीजी और स्कैन रिपोर्ट से पता चला कि उसका हृदय और किडनी फेल होने की दिशा में बढ़ रहे हैं, इन दोनों अंगों का प्रत्यारोपण करने की सलाह भी उसे दी जा सकती है।

लेख का निष्कर्ष था कि अधिक मात्रा में एनर्जी ड्रिंक से हृदय को होने वाले खतरों के बारे में लोगों को पर्याप्त जानकारी दी जानी चाहिए। इसी आधार पर जनहित याचिका दाखिल कर आवश्यक कदम उठाकर एनर्जी ड्रिंकों को प्रतिबंधित करने की मांग की गई है।

लोगों विशेषकर बच्चों के जीवन से खिलवाड़ करने वाली इन एनर्जी पेयों पर सख्त नियमन आवश्यक है। बाजार में विभिन्न नामों से आने वाले खाद्य आहारों के संबंध में ग्राहकों को जागरूक करना, ग्राहक संगठनों को विशेष दायित्व है। आकर्षक साथ सज्जा के साथ नवीन नवीन नामों से बिकने वाले इन हानिकारक पदार्थो का उपभोग कर लोग अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रहे हैं, इस संबंध में सघन जागरूकता आवश्यक है।

Wednesday 14 September 2022

आजादी का आंदोलन कांग्रेस के जन्म से 128 वर्ष पहले शुरू हो गया था

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प्लासी की लड़ाई 



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Purushottam Mehra (1985), Oxford University Press/ Do The Best, Buxar Ki Ladai, 27 Nov. 2015/ Baxar ka Yudh, Bharatkosh, 23 Dec. 2017.


सैन्य विद्रोह  


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जंगल महल आन्दोलन 


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सन्यासी एवं फ़क़ीर विद्रोह 



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(Novel of Bankimchandra Chattopadhya

Anand Math written in 1882 is based on this Sanyasi Fakir Vidroh


 


Tuesday 13 September 2022

देश को स्वंतंत्रता दिलाने वाले असली नायक


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                                                                शहीद खुदीराम बोस 

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Friday 13 May 2022

मुद्रास्फीति शिखर पर, डीजल पेट्रोल जीएसटी दायरे में लायें

खुदरा क्षेत्र की मुद्रास्फीति पिछले 10 महीनों के उच्चतम स्तर पर 7.8% पंहुच गई है। मुद्रास्फीति दर में 7.8% की वृद्धि असाधारण है। देश के वित्तीय प्रबन्धक इसके विरोध और समर्थन में अनेकों तर्क देकर इसकी अच्छी या बुरी विवेचना कर सकते हैं। परन्तु इससे सर्वहारा वर्ग की आर्थिक स्थिति में तनिक भी अंतर पड़ने वाला नहीं है। इस भयंकर मुद्रास्फीति की मार उसे ही झेलनी है, इसकी कीमत उसे अपनी संपत्ति को खोकर चुकानी है। उसे अधिक साधनहीन होना है।



सरल शब्दों में मुद्रास्फीति का अर्थ होता है कि 10 माह पहले 100 रुपयों में आप जितनी वस्तुएं खरीद सकते थे। अब उन्हें खरीदने के लिए आपको 107.80 रुपये खर्च करने पड़ेंगे, यानि यह भी कहा जा सकता है कि आपकी संचित पूंजी 7.8% कम हो गई है। सरकारी बैंकों वह अन्य विभिन्न योजनाओं में जमाकर्ताओं को मिलने वाली ब्याज की दरें 5.5% से लेकर 6.5% तक हैं। जिसका अर्थ है आपकी जमा पर बैंक व वित्तीय संस्थान ब्याज तो दे रहे हैं। परन्तु आपके धन का मूल्य 2.3% से लेकर 1.3% तक कम हो रहा है।

देश की विकास दर बढ़े, इसके लिए आवश्यक होता है कि उत्पादन बढ़े। साधारणतया उत्पादन दर में वृद्धि के लिए उद्योग क्षेत्र ब्याज दरों को घटाने की मांग अक़्सर सरकार से करते रहते हैं। ब्याज दरों पर नियंत्रण रिजर्व बैंक समय समय पर रेपो दर में बदलाव लाकर करता रहता है। जो किसी भी देश की मौद्रिक नीतियों के अंतर्गत आने वाली व्यवस्था होती है। वर्तमान वित्तीय परिस्थितियों को देखते हुए कोई संभावना नहीं है कि रिजर्व बैंक ब्याज दरों में किसी प्रकार की कटौती कर सके।

मोदी सरकार के आलोचक मुद्रास्फीति दरों के 10 माह के उच्चतम पर पंहुचने की आलोचना कर सकते हैं, परन्तु हकीकत यह है कि यूपीए शासनकाल में वर्ष 2008 से लेकर वर्ष 2013 तक मुद्रास्फीति की दर 8.35 से लेकर 11.99% के बीच रही थी, जो वर्तमान मुद्रास्फीति की दर से कहीं अधिक थी। जबकि मोदी सरकार के काल में वर्ष 2014 से लेकर आज तक मुद्रास्फीति की दर 3.3 से लेकर वर्तमान 7.8% तक रही है। इस आधार पर मोदी सरकार का वित्तीय प्रबंधन मनमोहन सिंह सरकार से कहीं बेहतर है।

वित्तीय प्रबंधन में विभिन्न आर्थिक घटकों के व्यवहार के चलते अर्थव्यवस्था के मापदंडों में नरमी गर्मी का आना स्वाभाविक है। इसके प्रभाव से ग्राहकों को बचाना या इसकी आंच ग्राहकों तक कम से कम पंहुचने देना, सरकार के वित्तीय प्रबंधकों का कार्य है। इस बात में दो मत नहीं हो सकते कि वर्तमान में मुद्रास्फीति के उच्चतम स्तर पर पंहुचने के कारणों में एक प्रमुख कारण डीजल और पेट्रोल के भावों में होने वाली निरंतर वृद्धि है। देश के प्रमुख ग्राहक संगठन अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत को वर्तमान स्थिति का पूर्वानुमान था। इसीलिए पिछले माह उसने हरियाणा के फरीदाबाद में हुई अपनी वार्षिक बैठक में डीजल व पैट्रोल को जीएसटी के दायरे में लाने की मांग केन्द्र सरकार से की थी। ताकि डीज़ल पैट्रोल के दामों में होने वाली अप्रत्याशित वृद्धि के कारण अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले दुष्परिणामों से देश को बचाया जा सके। इस संबंध में केंद्र सरकार को गंभीरता से विचार करने तथा यदि आवश्यक हो तो डीज़ल पैट्रोल को जीएसटी के दायरे में लाने पर श्वेत पत्र प्रकाशित करने की आवश्यकता है।

Wednesday 11 May 2022

राष्ट्रद्रोह कानून की समीक्षा का अर्थ उसका निरस्त होना नहीं?

अंग्रेजों द्वारा 152 वर्ष पूर्व 1870 में बनाये राजद्रोह कानून के औचित्य पर आज प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं, वह भी तब जब राज्य धड़ल्ले से अपने विरोधियों को सबक सिखाने के लिए इसके दुरुपयोग में लगे हुए हैं। परन्तु राजद्रोह कानून की आवश्यकता और उसका दुरुपयोग दो भिन्न भिन्न पहलू हैं। जिनके कारण न तो राजद्रोह कानून की आवश्यकता और महत्व कम होता है और न ही उसकी उपयोगिता पर प्रश्न उठता है।


अंग्रेजों के द्वारा अपने शासन के दौरान बनाये गये इस कानून के प्रावधानों और उद्देश्यों पर होने वाली बहस से इस कानून की आवश्यकता और उपयोगिता तनिक भी प्रभावित नहीं होती। हास्यास्पद बात यह है कि इस कानून को आजादी के बाद 70 वर्षों तक ढोने वाले, इसे अधिक सख्त बनाने वाले आज सबसे अधिक ढोल पीट रहे हैं। याद रहे उच्चतम न्यायालय ने राजद्रोह कानून की धारा 124A को रद्द नहीं किया है, अभी सिर्फ इसका उपयोग उस समय तक टालने की हिदायत दी है, जब तक केन्द्र सरकार इसकी समीक्षा न कर ले। केन्द्र सरकार इसके उपयोग के संबंध में कुछ संतुस्तियां जारी करने वाली है, इस कानून का उपयोग करते समय जिनका ध्यान सरकारें रखें।

लेकिन इस कानून को लेकर देश में विपक्षियों के द्वारा जो वातावरण बनाया जा रहा है। उसे देखकर तो यह लगता है कि इस देश में देशद्रोह जैसे कानून की आवश्यकता ही नहीं है। आतंकवादी चाहे जितने विस्फोट कर लें, अर्बन नक्सली चाहे जितनी देश को खंड खंड करने की बातें कर लें, चाहे कोई देश के किसी भाग में तिरंगे को उठाने वाला न मिलने की बात कर लें, लोकतंत्र में लोगों को यह सब करने की छूट होनी चाहिए। 

महत्वपूर्ण बात यह है कि केन्द्र सरकार ने इस कानून के प्रावधानों की समीक्षा करने की बात कही है, रद्द करने की नहीं। समीक्षा होनी भी चाहिए, इसके प्रावधानों को सुसंगत बनाया जाना चाहिए, जिनका उपयोग करने के लिए कठिन और जटिल प्रक्रिया अपनाई जा सकती है। यह प्रश्न भी इसलिए उठे, क्योंकि किसी ने कार्टून बनाया, सार्वजनिक स्थान पर हनुमान चालीसा पढ़ा और उसे देशद्रोही कहकर सलाखों के पीछे भेज दिया। इस कानून की सर्वाधिक आलोचना भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में इसके हस्तक्षेप के चलते उठी है। परन्तु देश में राष्ट्रद्रोह का अपराध होगा ही नहीं, राष्ट्रद्रोह के अपराध से निपटने के लिए कानून की आवश्यकता ही नहीं, इन बातों से कोई सहमत नहीं होगा। वह भी तब, जब कुछ लोग सरकार व प्रशासन के सामने सशस्त्र विद्रोह पर आमादा हो जाते हैं।

देश उम्मीद करता है कि शीघ्र ही एक सुसंगत, कठोर व संशोधित राष्ट्रद्रोह कानून आकार लेगा, जो देश के द्रोहियों से निपटने में सक्षम होगा।

Tuesday 10 May 2022

राष्ट्रद्रोह कानून में भी सिब्बल नेहरू को घसीट लाये

देश में जब भी किसी बदलाव की बात शुरू होती है। कांग्रेस का कोई न कोई नेता उसमें कूद कर उस बदलाव को गांधी, नेहरू से जोड़ने में तनिक भी कोताही नहीं बरतता। उच्चतम न्यायालय में देशद्रोह कानून की धारा 124A पर बहस के दौरान भी यही हुआ? कांग्रेस के कपिल सिब्बल बहस में कूद पड़े और अदालत को यह समझाने लगे कि नेहरू और गांधी भी इस धारा के सख्त खिलाफ थे।



इस देश की विडंबना यही है कि नेहरू खानदान इस देश में करना सब चाहता था, लेकिन तीन पीढ़ियों के द्वारा 70 वर्षों तक शासन करने के बाद भी किया कुछ नहीं। कपिल सिब्बल को यह कहते शर्म नहीं आई कि नेहरू 1951 में राष्ट्रद्रोह के प्रावधानों में बदलाव चाहते थे, उन्होंने कहा था,"मैं राष्ट्रद्रोह के प्रावधानों के सख्त खिलाफ हूं। इन्हें किसी भी कानून में, किसी भी कारण कोई स्थान नहीं मिलना चाहिए।" वर्ष 2013 तक बाबासाहेब के संविधान में 98 संशोधन हो चुके थे। लेकिन नेहरू की तीन पीढ़ियों में से किसी ने इस कानून की गली में झांका तक नहीं। अब जब मोदी सरकार इस दिशा में सकारात्मक और गंभीर कदम उठाने के लिए आगे बढ़ी है, तब सिब्बल को नेहरू सपने में आकर याद दिला रहे हैं।

कांग्रेसियों की बेशर्मी की हद देखिए, देशद्रोह कानून में कितने जाने वाले बदलावों को नेहरू गांधी की इच्छा से जोड़ने वाले कपिल सिब्बल स्वयं मानव संसाधन और कानून मंत्री रह चुके हैं। उस दौर में कभी भी नेहरू गांधी ने उनके स्वप्न में आकर यह नहीं कहा कि देशद्रोह कानून की धारा 124A उनकी आत्मा को अत्यधिक कष्ट दे रही है। अतः वह इस संबंध में कुछ करें।

देश अब आगे बढ़ चला है, उसे अपना इतिहास जानने में रुचि अवश्य है, लेकिन उसे न तो आजादी की लड़ाई के दौरान नेहरू के जेल पर्यटन के विषय में जानने में कोई रुचि है और न ही नेहरू द्वारा नाभा की जेल में सिर्फ 12 दिनों में हलकान होने के बाद उनके पिता मोतीलाल नेहरू ने वायसराय के दरबार में नाक रगड़कर नेहरू की दो साल की सजा माफ करने की गुहार लगाई। वायसराय अपने खिदमतगार की दुहाई पर पिघले और नेहरू ने माफीनामे के साथ बांड भर कर दिया कि वह कभी भी नाभा राज्य की सीमा में प्रवेश नहीं करेंगे। उसके बाद नेहरू कभी भी नाभा नहीं गये। देश आजाद होने के बाद भी नहीं।

देश बार बार न तो नेहरू गांधी की गलतियों को याद करना चाहता है, न उनका रोना रोना चाहता है। वह भूतकाल था, गुजर गया, अब आगे की सोचो, परंतु कांग्रेसी हर बात में नेहरू गांधी को घसीट लाते हैं, उन पर चर्चा शुरू कर देते हैं, जिसके कारण देश को नेहरू और उनके बाद के कालखंड की परतें उघाड़ती पड़ती हैं। कांग्रेस के नेता शायद नेहरू खानदान के शासनकाल से खफा हैं, वह चाहते हैं कि देश उनकी कारगुज़ारियों पर लानत मलानत भेजे, इसीलिए वह सभी विषयों में नेहरू को खींच लाकर, उनकी असफलताओं को उघाड़ते हैं। जब कपिल सिब्बल कहेंगे कि नेहरू राष्ट्रद्रोह की धारा के खिलाफ थे। वर्ष 1951 में उन्होंने इसका विरोध किया था, तो प्रश्न स्वाभाविक है कि अब तक नेहरू और उनके वंशज इस बारे में अकर्मण्य क्यों रहे।

Tuesday 3 May 2022

देश में जहांगीरपुरी आरएसएस के पैदा होने के पहले से बन रहे हैं




देश में हिन्दू-मुसलमान नया नहीं है और न ही यह आरएसएस के जन्म के बाद से हो रहा है। मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं का गला काटना तो उस समय शुरू हो गया था, जब गांधी जी की बात मानकर हिन्दू तुर्की के खलीफा के समर्थन में मुसलमान भाईयों  के साथ गले मिल रहे थे। हिन्दू मुसलमानों की खलीफा पद्धति को स्थापित करने में ताकत लगा रहे थे और मुसलमान खिलाफत आन्दोलन समाप्त होते होते, हिन्दुओं के खिलाफ जेहाद छेड़ने की योजनाएं बना रहे थे। इसकी शुरुआत 1921 में मोपला दंगों से हो चुकी थी, जो उस समय मुसलमानों को भड़काकर हिन्दू-मुसलमान के नाम पर षड़यंत्र रच रहे थे। वही लोग आज भी षड़यंत्र रच रहे हैं, लेकिन तथाकथित छद्म सेकुलर अपने एजेंडे के तहत निशाना कहीं और साध रहे हैं।  मई 1924 को "लाहौल" नाम के मुस्लिम समाचार पत्र में यह  कविता जिसने छपवाई थी, वहीं आज भी हिन्दू मुसलमान दंगों की स्क्रिप्ट लिख रहा है, उस समय छपी कविता में लिखा गया था, "हमें किरार की गीता को जलाना होगा। हम कृष्ण की बांसुरी तोड़ेंगे। ऐ मुसलमानों तलवार उठाओ, किरारों को मारो, उनकी देवियों को नष्ट करो।"

उस समय तक आरएसएस की स्थापना नहीं हुई थी। लेकिन हिन्दू मुसलमान के बीच नफरत के बीज बोए जा रहे थे, उन्हें सहेजा जा रहा था। परंतु यह सेकुलर उस वक्त भी हिन्दू -मुसलमानों के बीच पैदा हुई नफरत की नींव डालने वालों की सच्चाई से आंखें चुरा रहे थे, यह सिलसिला आज तक बदस्तूर जारी हैं। यदि हिन्दू और मुसलमानों के बीच नफरत फ़ैलाने वाले श्रोतों पर तभी समुचित ध्यान दें दिया होता, तो शायद न तो पाकिस्तान बनता, न ही तथाकथित सेकुलरों की रोजी रोटी आज तक चलती। सेकुलर गैंग इसी कारण फलफूल रहा है, वह सच्चाई से नजरें चुरा एकतरफा उस दिशा में वार करता है, जहां इस रोग की जड़ ही नहीं है। 

आरएसएस को यह सेकुलर गैंग एक निर्धारित योजना के तहत अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए निशाना बनाता है। इस गैंग ने देश के उन सभी महान नेताओं की बातों को हमेशा पूरी तरह अनदेखा किया, जिन के आदर्श वाक्यों को इस गैंग के लोग जब तब उद्धृत कर कर के आरएसएस पर हमला बोलते हैं। कांग्रेस के पट्टाभि सीतारमैया ने 9 व 10 सितंबर 1924 की घटनाओं के बारे में "दि हिस्ट्री ऑफ इंडियन नेशनल कांग्रेस के पृष्ठ 465, पर लिखा है, कोहाट दंगों के बारे में भारतीय विद्यालय कोहाट के प्रधानाचार्य लाला नंदलाल ने दंगों के तुरंत बाद कोहाट शरणार्थी कार्य समिति के लिए एक प्रतिवेदन का प्रकाशन किया था, जिसे पढ़कर पाठक आज भी कांप उठता है।" अन्य कई नेताओं ने भी इसी प्रकार के विचार भिन्न भिन्न स्थानों पर व्यक्त किए हैं, जिनमें एनी बेसेंट, लाला लाजपत राय, अच्युत पटवर्धन, सरदार वल्लभभाई पटेल, डा अम्बेडकर और गांधी जी स्वयं भी है। लेकिन सेकुलर तो बगीचे में गिरे रुपये को बरामदे में उस समय भी ढूंढ रहे थे और आज भी ढूंढ रहे हैं।

डा अम्बेडकर को हिंदू समर्थक नहीं माना जाता था। उनके और गांधी जी के उदाहरण आज भी प्रत्येक सेकुलर की जुबान पर आ जाते हैं। आरएसएस के जन्म पूर्व हुये हिन्दू मुसलमान दंगों पर अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक "दि पार्टीशन आफ इंडिया" में लिखा है, 1921 के मोपला दंगे दो मुसलमान संगठनों, खुद्दमे काबा और सेन्ट्रल खिलाफत कमेटी द्वारा कराए गए थे। वह आगे लिखते हैं, "मोपला के मुसलमानों ने मालाबार के हिन्दुओं के साथ जो किया, वह चौंकाने वाला है। मोपलाओं के हाथों मालाबार के हिन्दुओं पर भयानक अत्याचार हुए। नरसंहार, जबरन धर्मांतरण, मंदिरों को तोड़ना, महिलाओं के साथ अपराध, गर्भवती महिलाओं के पेट फाड़े जाने की घटना, यह सब हुआ। हिन्दुओं के साथ सभी प्रकार की क्रूरतायें हुई, असंयमित बर्बरता हुई। मोपला के मुसलमानों ने हिन्दुओं के साथ यह सब तब तक किया, जब तक वहां सेना नहीं पंहुच गई।" यह सब सिर्फ मालाबार या कोहाट तक सीमित नहीं रहा। वर्ष 1923 तक अमृतसर, लाहौर, पानीपत, मुल्तान, मुरादाबाद, मेरठ, इलाहाबाद, सहारनपुर, भागलपुर, गुलबर्गा और दिल्ली तक पंहुच गये थे। देश में हिन्दू -मुसलमान की आंधी उस समय चल रही थी, जब आरएसएस का अस्तित्व भी नहीं था।

देश में आरएसएस को सांप्रदायिकता पर उपदेश गांधी जी का नाम लेकर सौहार्दपूर्ण वातावरण की दुहाइयां देता हुआ, कोई भी सेकुलर देने लगता है। आरएसएस के जन्म से पहले ही हिन्दू -मुसलमान पर गांधी जी क्या कह रहे थे, यह तथाकथित सेकुलर जानते तो हैं, लेकिन कहते नहीं, क्योंकि यह उनके एजेंडे के खिलाफ है। गांधी जी ने वर्ष 1924 में यंग इंडिया में लिखा,"हिन्दुओं ने मुझसे लिखित शिकायत की है कि मै मुसलमानों को संगठित करने और जागरूक बनाने का जिम्मेदार हूं। मैंने मौलवियों को बहुत प्रतिष्ठा दिलाई है। अब जब खिलाफत आन्दोलन ठंडा हो चुका है, मुसलमानों ने हिन्दुओं के खिलाफ जेहाद की घोषणा कर दी है। ...... हिन्दू महिलाओं के बारे में बंगाल से मिले समाचार ग्लानि पैदा करने वाले हैं। यदि उनमें आधी सच्चाई हो तब भी।...... मेरा निजी अनुभव इस विचार की पुष्टि करता है कि मुसलमान स्वभाव से आक्रामक होता है और हिन्दू कायर। क्या हिन्दुओं को अपनी कायरता के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराना चाहिए । कायर तो हमेशा पिटेगा। सहारनपुर के मुसलमान अपने जघन्य कार्यों के लिए कोई सफाई नहीं दे सकते। लेकिन हिन्दू होने के कारण मैं हिन्दुओं की कायरता के कारण अधिक लज्जित हूं। मुसलमानों पर मुझे उतना गुस्सा नहीं। जो घर लुटे, उनके मालिकों ने अपनी संपत्ति को बचाने के लिए, अपनी जान पर क्यों नहीं खेल गये। जिन बहनों के बलात्कार हुते, बलात्कार के समय उनके रिश्तेदार कहां थे। मेरी अहिंसा यह नहीं कहती कि संकट के समय अपने प्रियजनों को असहाय छोड़कर भाग खड़े हों।"

मजे की बात है, कि मुसलमानों को विवाद पैदा करने वाला सिर्फ हिन्दू या हिन्दू संगठन ही नहीं कहते। अन्य धर्मों व मतों के लोग भी कहते हैं, फिर भी इन सेकुलरों की आंखें सही विवेचन करने के लिए नहीं खुलती, खुलें भी क्यों, इससे उनका एजेंडा फेल होता है। अब सात बार केरल में विधायक रह चुके ईसाई नेता पी सी जार्ज को, मुसलमानों के विरोध में विवादित सच बोलने की जरूरत क्यों पड़ी, किसी भी निष्पक्ष व्यक्ति या पत्रकार को इसकी तह में जाकर समझना लिखना चाहिए?



सेकुलर न तब हिन्दू-मुसलमान मर्ज की दवा चाहते थे, न आज चाहते हैं। उन्हें इसमें पूरे विश्व में हिन्दू विरोधी ढोल पीटने के अवसर और चंद सिक्कों की खैरात नजर आती है। कल भी यही एजेंडा चल रहा था, आज भी पूरे देश में चलाया जा रहा है। मोपला से जहांगीरपुरी तक की 100 वर्षों की यात्रा में कुछ नहीं बदला है।