Sunday 26 February 2017

दफन हो चुकी पहचान तलाशते कम्युनिस्ट

यह तो अक्सर देखा जाता है कि बहुत समय से किसी पोशाक विशेष को पहनते पहनते, किसी को उस पोशाक से इतनी आसक्ति हो जाती है कि उसके तार तार होने के बाद भी वह उसका. मोह नहीं छोड़ पाता। अपने देश में इस प्रकार के भी समाचार​ आते रहते हैं कि कोई व्यक्ति अपने प्रिय की मृत्यु के बाद भी यह मानने की स्थिति में नहीं आ पाता कि उसका प्रिय अब इस दुनिया में नहीं है और वह निर्बन्ध शव के साथ ही रहने लगता है। अन्तत: समाज को ही उस व्यक्ति और शव को अलग करना पड़ता ji है। इस प्रकार की स्थितियां दो कारणों से आती हैं। अबाध प्रेम समाविष्ट हो या स्वार्थ। अनेक बार अपनी दुकान चलाने के लिए भी यह नाटक जारी रखना पड़ता है। भारतीय कम्युनिस्टों की स्थिति. इससे इतर नहीं है।

रूस के बिखराव, बर्लिन की दीवार ढहने और चीन के बाजारवादी शक्तियों की गोद में जा बैठने के बाद भारतीय कम्युनिस्टों के पास उनका अपना बचा ही क्या है। कार्ल मार्क्सके जिन सिद्धांतों के सहारे यह पूरे विश्व में अपनी अधिसत्ता कायम करने का दिवा स्वप्न पाले थे, 100 वर्षों में ही वह रेत की दीवार की तरह भरभरा कर ढह गये। मैं यहां वह इतिहास नहीं बताना चाहता, जिसे सब जानते हैं। आज मुख्य बात यह है कि आज विश्व के कम्युनिस्टों के पास, उन आर्थिक सिद्धांतों को खोने के बाद, जिसके आधार पर वह शोषण मुक्त समाज की रचना करना चाहते थे, उनका अपना शेष क्या है। सिवाय इसके कि जो जहां जिस सत्ता पर काबिज है, उसे उन्ही तरीकों को अपनाकर बनाये रखना चाहता है, जिनका निषेध करने के लिए मार्क्स ने इतिहास रचना चाहा था। मैंने विभिन्न वादों सिद्धांतों के अध्ययन में यह पाया है कि सिद्धांतों से कहीं अधिक गलत व उनको डुबोने वाले उन सिद्धांतों का अनुसरण करने वाले होते हैं। शायद यह अपनी गलती स्वीकार करने के मोड में नहीं हैं। अत: अनर्गल शोर मचाने में व्यस्त हैं।

भारत के सन्दर्भ में भी कम्युनिस्ट कालबाह्य हैं। आज यह मात्र सेकुलर का लबादा ओढ, अन्य राजनीतिक दलों की बैसाखी के सहारे, अपने ढ़हते अवशेषों की मदद लेकर मीडिया और यहां वहां शोर मचाने तक सीमित हैं। यह तो समझ में आता है कि पुराने नेताओं की रोजी रोटी का सहारा ही उस नाटक के मंचन में है, जिसका पटाक्षेप दशकों पहले हो चुका है। यह समझ रहे हैं कि वर्तमान वातावरण में इनका सिमटता कारोबार अधिक समय तक खिंचने वाला नहीं है। केरल और त्रिपुरा राज्य की सरकारें न जाने कब दम तोड़ दें। वहां भी यह सत्ता में अपने दर्शन या सिद्धांतों के कारण नहीं हैं, बल्कि अन्य राजनीतिक दलों की तरह बैठाई राजनीतिक व जातिगत समीकरणों के कारण। राष्ट्रवादी शक्तियों के सशक्त होने के कारण नक्सली आंदोलन भी दम तोड़ने लगा है। यह भी इस स्थिति में नहीं कि उनका साथ दे सकें या फिर उनके पक्ष में आवाज उठा सकें। अपने को बुद्धिजीवी नाम देने वाली कौम की बुद्धि की तलाश एक ही जगह पर शिक्षा संस्थानों पर जाकर रूक रही है। वहां के कुछ नौजवानों को बरगलाकर अपना स्वार्थ साधने की जुगत लगाने तक ही इनका कार्य क्षेत्र, वर्तमान में शेष बचा है। इसी कारण विश्व विद्यालयों में यह आजकल अधिक सक्रिय नजर आने लगे हैं। यह लोग जिस स्वस्थ दर्शन व चिन्तन का राग अलापने में लगे हैं, वह तो बेसुरा होकर कब का दम तोड़ चुका।

हंसी आती है जब यह लोग आजादी की बात करते हैं। अपने बाप दादाओं द्वारा दी गई आजादी की विरासत को फ्रान्स, पूर्व जर्मनी, रूस और चीन में बनाए रखने में नाकाम रहे लोग किस आजादी की बात कर रहे हैं, जो पूर्वी जर्मनी अर्थव्यवस़्था को वहां की टूटती दीवार के मलबे की तरह छितरा गई या फिर वह जो बिखरते रूस की बरबादी का तमाशा लाचार आंखों से देखने को मजबूर थी, कहीं यह लोग 1989 में बीजिंग की तिनमेन चौक वाली आजादी तो नहीं चाहते। यह लोग अपने को जिस दर्शन का झंडाबरदार बताने का ढोंग करते हैं, दुनिया में उस दर्शन को अपनाने वाले किसी एक देश का उदाहरण बता दें, जहां इन जैसी मानसिकता या आचरण को सहन किया जाता हो। 

सच तो यह है कि इनका, शरीर, मन और बुद्धि सभी अलग अलग दिशाओं में भाग रहे हैं, क्योंकि इन्होंने सभी को आजादी दे दी है। दिमाग जैसे चाहे चलता है, जुबान जो चाहे बोलती है, बस कौन क्या कर रहा है यह नहीं जानना चाहते। एक बात और इन्हें अपनी आजादी को हासिल करने व अभिव्यक्ति देने की जितनी चिंता है, उससे कहीं अधिक दूसरों की आजादी दबाने व रोकने की, फिर उसके लिए गालियों या हिंसा का सहारा लेने से इन्हें गुरेज नहीं। देश व समाज को जल्दी से जल्दी विश्व के अन्य देशों की तरह इनसे छुटकारा पाने जरूरत है।

Thursday 16 February 2017

मोदी ग्राहक लुट गये तेरे राज में, जाने तुझको..............

अपने देश में जनमान्य को लूट या शोषण से बचाने के नाम पर जो कानून बनाये जात हैं, वही कानून जनसामान्य की लूट करने वालों का मुख्य हथियार बनते हैं। अब इस व्यवस्था को क्या कहें या इसका क्या करें जिसमें या तो कानून में ही कामा, फुलस्टॉप कुछ इस तरह छोड़ दिए जाते हैैं, जिससे शातिरों को निकल भागने का मौका मिल जाता है या फिर कानून तो बन जाते हैैं, परन्तु उनका पालन सुनिश्चित करने वाली मशीनरी का दूर दूर तक अता पता नहीं होता। मशीनरी अगर कहीं दिखाई दे भी जाये तो उसकी कानून पालन करा पाने की क्षमता लगभग शून्य होती है, जिससे कानू के अस्तित्व अस्तित्व​ पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है। पीड़ित की गुहार इस मशीनरी के कानों को छूती ही नहीं। अत: देश में कानून का पालन सुनिश्चित करने की एकमात्र जिम्मेदारी न्यायपालिका पर ही आश्रित है। शायद यही वजह है कि हमारे न्यायालयों में इतनी अधिक भीड़ है। क्योंकि विधायिका और कार्यपालिका अपने दायित्व के प्रति न तो ईमानदार है, न ही कार्यक्षम। बस एक व्यवस्था है जिसे ढ़ोये जा रहे हैं।
                            

सर्वसामान्य की लूट को रोकने के नाम पर इसी तर्ज पर "वजन एवं माप कानून 1976" में प्रत्येक वस्तु पर MRP लिखना अनिवार्य किया गया। उत्पादक MRP तो लिखते थे, परन्तु उसके साथ ही "स्थानीय कर अतिरिक्त" लिख दिया करते थे। इस कारण दुकानदार ग्राहकों से स्थानीय कर के नाम पर कुछ भी कीमत वसूल किया करते थे। अत: ग्राहकों की खैरख्वाही के नाम पर सरकार आगे आई। उसने वजन माप कानून 1976 में वर्ष 1990 में एक संशोधन प्रस्तावित किया गया, जिसके अनुसार MRP स्थानीय कर सहित लिखना अनिवार्य किया गया ताकि दुकानदार ग्राहकों से लिखी हुई कीमत से अधिक मूल्य न वसूल सकें। कहने के लिए तो यह संशोधन ग्राहकों के हित संरक्षण के लिए था, परन्तु इससे उत्पादकों की लाटरी खुली। अपने​ देश में संघीय व्यवस्था होने के कारण अलग अलग राज्यों में एक ही वस्तु पर करों की दरें अलग-अलग हैं। उत्पादकों नें MRP लिखने के लिए वस्तु के मूल्य में जिस राज्य में कर की दर सबसे अधिक थी उसको जोड़ा, जिसके कारण जिन राज्यों में कर की दरें कम थी, वहां के ग्राहकों को वस्तु की अधिक कीमत चुकानी पड़ने लगी।

वजन माप कानून का यह संशोधन उत्पादकों को इतना मुफीद लगा कि हर दूसरी वस्तु यहां तक कि कृषि उत्पादों की भी पैकिंग की जाने लगी। वस्तु​ के पैकिंग खर्च की चिंता इसलिए नहीं थी, क्योंकि वस्तुओं पर MRP लिखने का कोई आधार सरकार ने निर्धारित नहीं किया था। उत्पादक अपनी इच्छा से वस्तु पर कितनी भी MRP लिख सकते थे। इस कारण बाजार में पैक वस्तुओं की बाढ़ आने लगी। पैक की हुई वस्तुओं की अनावश्यक बाढ़ आने के बाद भी, न तो इस ओर किसी का ध्यान गया, न ही किसी ने इस बात का विचार किया कि पैकिंग में काम आने वाली सामग्री गन्दगी फैलाने के साथ साथ पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रही है, प्राकृतिक संसाधनों का अनावश्यक विनाश कर रही है।

उत्पादनों पर छापी गई MRP ग्राहकों को भ्रमित करती है। उन्हे यह विश्वास दिलाती है कि वस्तु का छपा मूल्य प्रामाणिक है। बाजार भी ग्राहकों में MRP को गलत तरह से प्रचारित व प्रस्तुत करते हैं। उन्हे यह समझाते हैं कि वस्तु पर लिखी कीमत सरकार द्वारा कानूनन निर्धारित की गयी है, जो पूरी पूरी​ तरह झूठ होता है। ग्राहक पंचायत ने अपने सर्वेक्षण में यह पाया है कि वस्तुओं पर छापी गई MRP उनके वास्तविक मूल्य की 200 से 500 गुना तक अधिक होती है। दवाओं के मामले में तो यह वास्तविक मूल्य की 1000 से 5000 गुना तक अधिक छापी जाती हैं। 

MRP छाप कर ग्राहकों को लूटने की सरकार द्वारा दी गई छूट के बाद, उत्पादकों तथा व्यापारियों के लिए यह आवश्यक था कि ग्राहकों में MRP के आधार को विकसित किया जाये, ताकि ग्राहक की आदत में MRP को वस्तु की न्याय कीमत(Just Price) समझा जाने लगे। जिससे ग्राहकों की लूट अबाधित चले, उनका मुनाफा बढ़े। इस काम का बीड़ा उठाया मार्केटिंग के क्षेत्र में उतरे कार्पोरेट जगत नें,  उन्होंने सबसे पहले बाजार के रंग रूप, आकार व प्रकार को बदला। वस्तुओं को बेचने के आधार, प्रकार, तरीके, साज सज्जा को भी पूरी तरह बदल दिया। अब ग्राहक वस्तुओं की खरीद व मनोरंजन साथ साथ करता है, जिसके कारण उसको न तो वस्तु की पूरी जानकारी प्राप्त करने की सुध रहती है, न ही बाजार में चार स्थानों पर वस्तु का मूल्य पूछकर उसका वास्तविक मूल्य जानने की सुविधा। उसे तो यह भी नहीं मालूम कि उत्पादकों को एक ही वस्तु पर अलग-अलग MRP लिखने की छूट भी मिली हुई है और वह इस छूट का पूरा लाभ उठा रहे हैं। वह वस्तु पर छपी MRP को ही वस्तु का न्याय मूल्य समझने की प्रक्रिया में लग चुका है। मार्केटिंग में लगे कार्पोरेट भी ग्राहकों से मूल्य MRP के आधार पर ही वसूलने में लगे हैं, साथ ही MRP पर छूट प्रस्तावित कर ग्राहकों को MRP की तरफ आकर्षित करने के प्रयास में जुटे है, ताकि बाजार में MRP वस्तु के न्याय मूल्य के रूप में स्थापित हो सके। 

MRP द्वारा ग्राहकों की लूट का यह खेल सार्वजनिक हुआ ई-मार्केटिंग कम्पनियों के उदय एवं प्रसार के साथ, जब ग्राहकों को अहसास हुआ कि ई-मार्केटिंग कम्पनियां उन्हें MRP पर 60% तक छूट किस तरह देने में सक्षम हैं, जबकि उनको वस्तु को कूरियर द्वारा भेजने का अतिरिक्त खर्च भी वहन करना पड़ता है। बाजार तथा कार्पोरेट मार्केटिंग वाले अपनी पोल खुलती देख पहले तो रोते चीखते सरकार की तरफ भागे। वहां से किसी तरह की इमदाद न मिलने पर ग्राहकों के बीच ई-मार्केटिंग कम्पनियों के सम्बन्ध में तरह तरह की अफवाहें फैलाने में जुट गए। ग्राहक यहां एक बात जान लें, 60% तक छूट MRP पर देने के बाद भी ई-मार्केटिंग कम्पनियां उत्पादकों/वितरकों से 30% तक कमीशन तथा कूरियर का खर्च भी वसूल करती हैं। उत्पादक/वितरक इसके बावजूद भी कम से कम उचित लाभ तो प्राप्त कर ही लेते हैं। अब आप खुद ही समझ लीजिए MRP के इस मायाजाल के कारण चलने वाली लूट को।

इससे बचने के लिए ग्राहकों के पास फिलहाल एक ही मार्ग बचता है। SHUFUREN जापानी महिलाओं की तरह संगठित होने और जहां कहीं आवश्यकता हो, बहिष्कार करने की, फिर बात चाहे पारम्परिक बाजार की हो या फिर कार्पोरेट मार्केटिंग द्वारा स्थापित बाजारों की ?

Monday 6 February 2017

मुलायम ने शिवपाल को ठिकाने लगाया

मुलायम को नेताजी बनाने और देश की राजनीति को शिखर तक पंहुचाने में शिवपाल की भूमिका कौन नहीं जानता। यह सही है कि मुलायम से उम्र में 16 साल छोटे शिवपाल ने अपना राजनीतिक सफर अपने बड़े भाई की अगुवाई में ही शुरू किया। शिवपाल को भी मुलायम से पिता जैसा प्रेम मिला और वह भी अपने बड़े भाई के साथ पार्टी मजबूत करने में जी जान से जुट गये। उन्हे अपने बड़ेभाई के आगे बढ़ने में अपनी उपेक्षा जैसी भावना छू भी नहीं गई थी। वह अपने बड़े भाई से इतने एकात्म थे कि स्वार्थ उनके पास आने से भी घबराता था। मुलायम ने भी उन्हें भरपूर प्यार और सम्मान दिया। परन्तु अपने अत्यधिक नजदीकी को भी अवसर आने पर स्वार्थ साधने के लिए पटखनी न दे वह राजनीति ही क्या?

शिवपाल को अपने पिता जैसे बड़े भाई पर जरा भी संदेह नहीं था कि वक्त आने पर वह अपनी विरासत उनको सौंपेंगे। उधर राजनीति में अखिलेश की सक्रियता, मुलायम को कुछ अलग सोचने को मजबूर कर रही थी। शिवपाल पर अपना प्रेम दिखाने का मौका मुलायम को 2012 के यूपी चुनाव के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपने का मिला। यह वह अवसर था जहां से शिवपाल और अखिलेश की सीमायें निर्धारित होनी थी। अखिलेश की चिंता थी यदि चाचा को कुर्सी मिली तो वह काफी समय खींच लेंगे, इस दौरान यदि मुलायम निकल लिए तो चाचा पुत्र मोह में बेटे आदित्य को उन पर तजरीह न दे दें। राजनीति की द्रष्टि से समाजवादी पार्टी में सत्ता के बंटवारे का यह अहम् पडाव था। यहीं मुलायम ने शिवपाल को पहला गच्चा दिया। मुलायम ने अखिलेश की मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी की तथा शिवपाल को यह समझाया कि पार्टी को नया व युवा चेहरा मिलने से हमें देश की राजनीति में विशेष भूमिका प्राप्त करने में मदद मिलेगी। अखिलेश अभी नया है, सिर्फ नाम के लिए कुर्सी पर बैठा है, संभी कुछ संभालना तो तुम्हें ही है।सरल हृदय शिवपाल भाई और भतीजे का यह चक्रव्यूह समझ न सके, उसमें फंस गए।

मुलायम और अखिलेश के सामने अब सबसे बड़ी चिंता शिवपाल के राजनीतिक प्रभाव को पार्टी में कम और समाप्त करने की थी। इसके लिए दोनों ने मिलकर जो जाल बुना उसमें मुलायम के जिम्मे शिवपाल को साधने और अखिलेश के जिम्मे बगावती तेवर दिखाने का काम था। अखिलेश दो वर्षों तक तो शिवपाल को मुख्यमंत्री की तरह व्यवहार करने की छूट दिये रहे, फिर धीरे धीरे शिवपाल का विरोध करने लगे। अखिलेश यह जानते थे कि विरोध किस सीमा में और कितना किया जाये, जिसके कारण शिवपाल भड़ककर रस्सी ही न तोड़ डालें । उधर मुलायम शिवपाल से चिपक लिए, यह दिखाने लगे कि वह भाई को बेटे से अधिक मानते हैं। इसी क्रम में वह भाई के साथ खड़े होकर सार्वजनिक मंचों से भी अखिलेश की आलोचना करने से नहीं चूके। 

सरल हृदय शिवपाल भाई की भक्ति में अन्धे होकर मुलायम के नाटक को सच मानते रहे। अखिलेश सत्ता के बंटवारे को चुनाव के पहले ही निर्णायक बनाना चाहते थे, ताकि सत्ता मिलने के बाद संघर्ष होने पर यदि पार्टी दो फाड़ होती है। तो कहीं पार्टी का बहुमत न चला जाये और शिवपाल भाजपा के साथ मिलकर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक न पहुंच जाएं। अत: अखिलेश ने अंतिम​ चरण में पूरी बगावत कर दी। अब मुलायम को अपनी भूमिका निभानी थी। वह शिवपाल को साधे रहे, अखिलेश को गाली देते रहे। यहां तक कि शिवपाल के कहने पर अखिलेश को पार्टी से निकालने का नाटक भी कर दिया। झगड़े को चुनाव आयोग भी पंहुचा दिया, परन्तु चुनाव आयोग के सामने बेटे का विरोध न कर साइकिल चुनाव चिन्ह भी उसे दिलवा दिया।

मुलायम और अखिलेश ने मिलकर आपरेशन शिवपाल पूरा कर लिया। अब शिवपाल और उनके बेटे की समाजवादी पार्टी में औकात विधायक या सांसद का टिकट मांगने पर सिमट गई है। टिकट देना न देना अखिलेश पर निर्भर करता है। मुलायम और अखिलेश इतने चालाक हैं कि उन्होंने यह व्यवस्था भी जमा ली कि यदि चुनाव में शिवपाल मुलायम की असलियत सूंघ रस्सी तुड़ा कर भागें, तो भी अखिलेश को होने वाले नुकसान को पूरा किया जा सके। कांग्रेस से चुनाव पूर्व उदार समझौता इसी रणनीति के तहत है। राजनीतिक पंडित शायद इसे समझे नहीं या फिर अन्य कारणों से इसे अभिव्यक्ति नहीं दी। आज पार्टी पर अखिलेश का पूरी तरह कब्जा है, मुलायम नाटक पूरा कर अखिलेश और कांग्रेस के प्रचार को तैयार हैं। शिवपाल अपनी विधायकी बचाने और अपने बेटे का राजनीतिक भविष्य बचाने की कोशिश में लगे हैं।

Sunday 5 February 2017

ट्रेन में यात्रियों से रोज 4 करोड़ 60 लाख लूट रहे पैन्ट्री वाले

एक अनुमान के अनुसार रेल में प्रतिदिन 2.3 करोड़ यात्री सफर करते हैं। इन यात्रियों को. अधिकृत वेटरों द्वारा खाना सप्लाई करने में अबाधित लूट का सिलसिला कई वर्षों से चल रहा है। इस लूट में वेटर, पैन्ट्री मैनेजर, कैटरिंग ठेकेदार व रेल अधिकारी सभी सम्मिलित हैं। लगातार लगातार​ सघन प्रवास के बाद भी हमारा ध्यान इस तरफ इसलिए नहीं जा सका क्योंकि हमारे भोजन का प्रबंध हमारे कार्यकर्ता करते हैं, जो बीच सफर में भी स्टेशन पर आकर हमें भोजन दे जाते हैं। ट्रेन यात्रियों की भोजन में होने वाली लूट की तरफ हमारा ध्यान हमारे एक मित्र ने खींचा, जिसने इस लूट के खिलाफ आवाज उठाई। हम उसकी आवाज को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। आगे की कहानी मै अपने मित्र के ही शब्दों में बताता हूं।


अपने कार्य की प्रकृति के कारण मुझे अक्सर सफर करना पड़ता है। ट्रेन में मिलने वाले खाने को लेकर मैं अक्सर आशंकित रहता था कि कहीं कुछ गलत हो रहा है। पिछले सप्ताह मैं विशाखापट्टनम से हावड़ा का सफर यशवंतपुर हावड़ा एक्सप्रेस द्वारा कर रहा था। मैने वेटर से एक शाकाहारी खाना लाने के लिये कहा। कीमत पूछने पर वेटर ने मुझे ₹90 बताया। अब मैं खाने की सही कीमत जानने के प्रयास में लगा। मैं हैरान रह गया जब मैंने IRCTC Help: IRCTC Latest Food Menu Rates, नाम की वेबसाइट खोली। ट्रेन में वेटर यात्रियों को जो शाकाहारी खाना ₹90 व मांसाहारी भोजन ₹100 में बेच रहा था, वेबसाइट पर उसकी कीमत क्रमश: ₹50 व ₹55 ही लिखी हुई थी। इसके अतिरिक्त एक अन्य विकल्प स्टैन्डर्ड थाली मील के रूप में ₹35 शाकाहारी व ₹40 मांसाहारी के लिए भी मौजूद था। अपनी लूट को व्यापक बनाने के लिए पैन्ट्री वाले इस विकल्प को हमेशा नदारद ही रखते हैं।

जब वेटर पैसे लेने आया और उसने मुझसे ₹90 मांगे तो मैंने उससे रेट कार्ड दिखाने को कहा। वेटर ने रेट कार्ड जैसी किसी वस्तु के अपने पास होने से इनकार किया। जब मैंने उसे वेबसाइट पर लिखे रेट पढ़ाये तो वह मुझसे ₹50 लेने के लिए तैयार नहीं गया और प्रार्थना करने लगा कि मैं यह बात किसी. और से न कहूं। मैं इतने अधिक गुस्से में था कि 13 बोगियों वाली ट्रेन के सभी डिब्बों में, खाना लेने वाले सभी यात्रियों को यह बात बता आया। मैं पैन्ट्री कार में भी गया। वहां जब मैंने मैनेजर से रेटकार्ड मांगा तो पहले तो वह टालमटोल करने लगा, फिर बोला रेट कार्ड खो गया है, वह जल्दी ही दूसरा ले आयेगा। पैन्ट्री का मैनेजर भी वेटर की तरह ही, लगभग वही जवाब दे रहा था,. जैसे यह पहले से ही तय था कि इस तरह की स्थिति आने पर किस को क्या कहना और करना है। लगभग यही स्थिति सभी ट्रेनों की पैन्ट्री कारों व जिन ट्रेनों में पैन्ट्री नहीं होती, स्टेशनों से खाना सप्लाई किया जाता है, वहां की है।

पैन्ट्री का मैनेजर हर सम्भव कोशिश कर रहा था कि मैं कम्पलेन्ट बुक में शिकायत न लिखूं। अत: काफी हीला हवाली और आधा घंटा लगाने के बाद उसने कम्पलेन्ट बुक मुझे यह कहते हुये दी कि इसको कौन देखता है और उनके नीचे से ऊपर तक सम्बन्ध हैं। यही नहीं उसने मेरी शिकायत शिकायत​ पर यह टिप्पणी भी लिखी कि यह यात्री इरादतन जब भी सफर करता है शिकायत करता है तथा इससे अमुक अमुक बिल नम्बर के द्वारा ₹50 ही लिए गये हैं।

ट्रेन में रोजाना 2.3 करोड़ सफर करने वाले यात्रियों में यदि 5% यात्री भी खाना लेते हैं, तो यह संख्या 11,50,000 होती है। ₹40 प्रति यात्री अधिक वसूलने पर रोजाना 4 करोड़ 60 लाख रुपये यात्रियों से लूट लिए जाते हैं। यह स्थिति सभी ट्रेनों की पैन्ट्री कारों व जिन ट्रेनों में पैन्ट्री नहीं होती, स्टेशनों से खाना सप्लाई किया जाता है, वहां की है। रेलों की खानपान सेवा में यह अपराध संगठित रूप से चल रहा है। रेल मंत्रालय इस तरफ आंख बन्द कर बैठा है।

अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत रेल मंत्रालय से मांग करती है कि इस लूट को तुरंत रोका जाये। रेल स्टेशनों व ट्रेनों में जगह जगह खान-पान सेवा के रेट कार्ड बोर्ड लगाकर इसे प्रचारित किया जाये। रेल पैन्ट्रियों व स्टेशनों पर भोजन के दोनों विकल्प पर्याप्त मात्रा में यात्रियों को उपलब्ध कराये जायें। ग्राहक पंचायत को अनेकों यात्रियों से शिकायत मिलती है कि वेटर मांगने पर भी बिल नहीं देते। अत: पारदर्शी व्यवहार के लिए यात्रियों को बिल देना अनिवार्य किया जाये। यात्री भी रेलों में कोई भी खाद्य पदार्थ खरीदते समय रेट कार्ड दिखाने का आग्रह करें तथा बिल मांगें। अपनी शिकायत लिखने में किसी प्रकार की कोताही न करें।

Friday 3 February 2017

बजट में दिखा सरकार का अलग चाल, चेहरा और चरित्र




2017-18 के लगभग 21.5 लाख करोड़ रुपए के बजट ने नेपथ्य में गये भाजपा के चाल, चेहरे व चरित्र के नारे को मुखरित कर दिया। बजट में मोदी​ सरकार का देश की आज़ादी के बाद अब तक आई तमाम सरकारों से अलग चाल, चेहरा और चरित्र स्पष्ट नजर आया। सत्ता में रहते सभी धन बटोरने के जुगाड़ में ही रहते थे। यह कठिन बात है कि इस स्थिति में कोई अपने परही अंकुश लगाने. का साहस दिखाये। समाज जीवन में पारदर्शिता लाने के लिए मोदी सरकार ने राजनीतिक दलों पर सिर्फ 2000 रु तक नकद लेने की सीमा ही नहीं लगाई, आय कर में छूट लेने के लिये इन पर तमाम अनुशासन पालन करने की शर्तें भी लगा दी।

बजट इस दृष्टि से से भी महत्वपूर्ण​ है कि इस समय दुनिया के तमाम समृद्ध देश अपनी आन्तरिक व्यवस्थायें, जिनमें आर्थिक व्यवस्था विशेष है, संवारने और सुधारने में लगे हैं। जैसे ब्रिटेन ने यूरोपीय यूनियन छोड़ दी, अमेरिकी ट्रम्प सरकार तमाम बदलाव करने में लगी है। धीरे धीरे विश्व में यह प्रचलन बढ़ेगा। इससे यह स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं कि 90 के दशक से चला वैश्वीकरण का ताना बाना आगे चलकर कमजोर पड़ने की पूरी सम्भावना है। अत: हमें भी अपने आर्थिक आधार को मजबूत व स्वावलम्बी बनाने की जरुरत है।  

आज भी भारत का मुख्य आर्थिक आधार गांव व किसान ही है। जो जीडीपी में बहुमूल्य योगदान के साथ देश को आर्थिक मजबूती के साथ रोजगार देता है। बजट में गांव और किसान की चिंता की गई है। किसानों को कर्ज़ देने के लिए धन का आवंटन बढ़ाने, 60 दिन के कर्ज की माफी की व्यवस्था है। किसानों की सबसे बड़ी समस्या प्राकृतिक या किसी अन्य आपदा के चलते फसल नष्ट होना थी। इन स्थितियों में फसल बीमा किसानों के लिये बड़ी राहत है, यह योजना देश को मोदी सरकार की ही देन है। बजट में फसल बीमा के दायरे को बढ़ाया गया है। देश में आज भी आधे से अधिक खेती के लिये सिंचाई के लिए मौसम पर निर्भर है। मार्च 2017 तक 10 लाख तालाबों के पूरा होने होने​ के बाद और 5 लाख तालाब बनाने की योजना कृषि क्षेत्र की सिंचाई व ग्रामीण क्षेत्र की पानी की आवश्यकता को पूरा करेगी। मनरेगा में बढ़ाये धन से अधिक रोजगार तथा गांवों को सड़क से जोड़ना व बिजली उपलब्ध कराना, बहुसंख्य आबादी के जीवन स्तर को ऊपर उठाने के साथ ही, इन क्षेत्रों से शहरों की ओर होने वाले पलायन को रोकने में सहायक होगा।

बढ़ती आर्थिक असमानता विश्व के लिए चिंता का विषय है। अमीर पर अधिक व गरीब पर कम टैक्स लगाने वाली आदर्श टैक्स योजना अब तक किताबों में ही सिमटी थी। मोदी सरकार ने बजट में इसे किताबों से निकाल मूर्त रूप देकर आर्थिक असमानता पर प्रहार किया है। अब 3 लाख तक की आय करमुक्त होगी,. 5 लाख तक की आय पर 10% के स्थान पर 5% टैक्स  ही देना होगा। 50 लाख से 1 करोड़ तक की आय पर 10% सरचार्ज लगाने का प्रावधान किया गया है।

500-1000 रु के नोटों को बन्द कर मोदी सरकार तिजोरियों में बंद पैसे को पहले ही बैंको तक लाकर काले धन को टैक्स व जुर्माना लेकर सफेद बनाने की प्रक्रिया में लगी थी। भ्रष्टाचार व काले धन की उत्पत्ति को रोकने तथा अधिक से अधिक लोगों को टैक्स की परिधि में लाने के लिये बजट में अनेकों उपाय करने के साथ साथ, सरकार आवश्यकता के अनुसार नये नये कदम उठा रही है।

लघु एवं मध्यम श्रेणी के उद्योगों का देश की जीडीपी व रोजगार में बड़ा बड़ा योगदान है । इन्हे बड़े उद्योगों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में कठिनाई थी। इन उद्योगों को सशक्त करने के लिये इन्हे टैक्स में 5% की छूट दी गई. है, ताकि वह विकसित हो सकें। छोटे मकानों के निर्माण को मूलभूत ढांचे की श्रेणी देना, इस क्षेत्र को विकसित करने के साथ ही बड़ी संख्या में रोजगार निर्माण में सहायक होगा।

देश में आर्थिक अपराधों को रोकने की समुचित व्यवस्था का अभाव था। कोई भी व्यक्ति वित्तीय लेनदेन के व्यापार को खोल, गरीब ग्राहकों की लाखों करोड़ों की पूंजी लेकर गायब हो जाता था। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत इस सम्बन्ध में अनेकों वर्षों से प्रभावी नियम कानून कानून​ बनाने की मांग कर रही थी। बजट में इसे रोकने की व्यवस्था के साथ ही जो लोग बैंको का पैसा लेकर. विदेश भाग जाते थे, उनकी सम्पत्ति जब्त करने संबंधी कानून बनाने की बात है।

2016-17 के बजट में राजस्व घाटा 2.3% प्रस्तावित था। इस घाटे को 2.1% पर समेट कर सरकार ने अपनी कथनी और करनी को एक सिद्ध कर दिया है। FRBM कमेटी ने बजट के वित्तीय घाटे को 3% सीमित करने की अनुशंसा की थी। वित्त मंत्री ने इस अनुशंसा के अनुरूप इसका लक्ष्य जीडीपी का 3.2% निर्धारित किया है।

सभी जानते हैं कि आर्थिक प्रगति करने में किसी भी देश को पर्याप्त समय लगता है। यह बात 70 वर्षों से बजट द्वारा स्वार्थ साधने वालों को न तो दिखाई देगा, न समझ आयेगा। इसीलिए वह अच्छे दिन की आहट सुन पाने में असमर्थ हैं। देश ने अब तक जैसा देखा है, अनेकों वर्षों तक लगातार रहने वाली सरकारें भी इस बजट में लिए गये निर्भीक व जोखिम भरे निर्णय लेने से कतराती हैं। चाहे यह निर्णय देश की प्रगति के लिए आवश्यक ही क्यों न हों, मोदी सरकार ने देशहित को तरजीह देते हुए सर्वहारा की भलाई के लिये भविष्य की दिशा निर्धारित करने वाला बजट प्रस्तुत कर अपनी सरकार के अलग चाल, चेहरे व चरित्र की प्रामाणिकता सिद्ध कर दी है।