Monday 4 September 2017

http://www.hindi.indiasamvad.co.in/specialstories/cashban-by-modi-gov--30065

Thursday 8 June 2017

आर्थिक विषमता का रोष है किसान आंदोलन

1776 में एडम् स्मिथ ने Wealth of Nations क्या लिख दी, पूरी दुनिया को अधिक से अधिक धन कमाने जुटाने की कुंजी दे दी। 'श्रम विभाजन के सिद्धांत' द्वारा अधिक से अधिक उत्पादन कर अधिक धन कमाने की बात एड्म ने पूरे अर्थक्षेेत्र के लिए कही थी। यह कल भी पूरे अर्थक्षेेत्र पर लागू होती थी, आज भी होती है। उस काल खंड का किसान भी आज के किसानों की तरह न तो अधिक पढ़ा लिखा था, न ही आर्थिक रुप से इतना समर्थ और समृद्ध कि वह देश समाज को प्रभावित कर सके, अत: परिस्थितियों को टुकुर टुकुर ताकते हुए जो भी मिल जाए उसे अपने भाग्य से जोड़कर पर्याप्त मानकर सन्तोष कर लेना ही उसकी नियति थी। हां यह सामर्थ्य और शक्ति उस समय के व्यवसायी वर्ग में थी। अत: उसने अधिक उत्पादन से अधिक धन कमाने के साथ साथ अधिक लाभ कमाने की व्यवस्थाओं को भी टटोलना शुरू कर दिया। इस क्रम में व्यवसायी वर्ग के लिए दो सबसे बड़ी बाधायें थी। पहला श्रमिक जो उत्पादन करता था व दूसरा उत्पादन में लगने वाला कच्चा माल। इस वर्ग द्वारा श्रमिकों के शोषण का पूरा इतिहास है, जिसके कारण एक समय एक अन्य अर्थ संरचना ने पूरे विश्व को झिंझोड़ दिया था। इस ओर विश्व का ध्यान भी गया और इस क्षेत्र की विसंगतियों को दूर करने के विश्व में प्रयास भी हुये। 

चतुर व्यवसायियों द्वारा अधिक लाभ कमाने का दूसरा जो कच्चे माल वाला क्षेत्र था। उसको अपने अनुरुप पूरी तरह मोडने में इस व्यवसायी वर्ग को पूरी सफलता मिल गई। उसने चतुराई के साथ उत्पादन को दो श्रेणियों औद्योगिक उत्पादन व कृषि उत्पादन में बांटने के साथ ही उस समय के शासक वर्ग को यह समझाने में सफलता प्राप्त कर ली कि कृषि उत्पादन को विभिन्न नियंत्रणों में रखने की आवश्यकता है। नहीं तो मंहगाई बढ़ेगी, जनता में हाहाकार मचेगा। इसके पीछे चालाकी यही थी कि उन्हें कारखानों में लगने वाला कच्चा माल कम कीमत पर मिल सके और वह अधिक लाभ कमा सकें। उस समय न तो कच्चे माल के उत्पादक किसान ने उस समय कोई आवाज उठाई, न ही तब से लेकर आज तक विश्व को इस ओर ध्यान देने की आज तक आवश्यकता महसूस हुई। वैसे भी इस संरचना से सबसे अधिक प्रभावित होने वाला देश भारत ही है, जहां छोटे सीमान्त किसान का आर्थिक विश्व दुनिया में सबसे अलग है। अत: तब से दबी हुई यह आवाज आज तक दबी ही चली आ रही है। लोकतंत्र में लोगों को न्याय पूर्ण वितरण की अपेक्षा सरकार से होती है। पर सरकारें भी उद्योगों के साथ गलबहियां कर कान में तेल डालकर बैठीं रही।

अर्थशास्त्री तो किसानों के बारे में बहुत कम सोचते हैं। सरकारें भी उनकी ओर से जबरदस्त विरोध होने के इन्तजार में, औद्योगिक उत्पादनों में असीमित लाभ के खून का स्वाद चख चुके व्यवसायियों व उनके समर्थक अर्थशास्त्रियों की सलाह पर ही आगे बढ़ती रही, जिसने औद्योगिक क्षेत्र के उत्पादनों की सीमा कृषि क्षेत्र के उपकरणों, कीटनाशकों व बीज तक विस्तृत कर अपने असीमित लाभ कमाने की प्रवृत्ति में किसानों को भी जकड़ना शुरू कर दिया। नतीजतन खेती मंहगी होती गई और किसान कर्जदार। इन परिस्थितियों में जो घटित होना चाहिए वही घट रहा है। सरकार को यह सब देखते समझते हुये बुनियादी निर्णय लेने का समय आ गया है।

यह वर्ग संघर्ष है, आर्थिक विषमता से उपजे वर्गों के बीच, वह भी बहुत कुछ सहन करने के बाद। इसीलिए यह विस्तार ले रहा है। क्योंकि कमोबेश सभी तरफ परिस्थितियां एक ही जैसी हैं। इसमें सन्तोष की बात केंद्रीय नेतृत्व है, जिनमें परिस्थितियों का पूरा भान व उनका हल ढूंढने की क्षमता है। यह बात भी सच है कि विपक्ष वर्तमान में विध्वंसक भूमिका में है। उसका निजी स्वार्थों के चलते देश, समाज से कोई सरोकार नहीं रह गया है। वह आग भड़काने के प्रयास में है। अन्यथा किसान आंदोलन सिर्फ भाजपा शासित राज्यों में न होता। तमिलनाडु के किसान भी चेन्नई में प्रदर्शन करने के स्थान पर दिल्ली में आकर नौटंकी न करते।

सरकार कितनी भी सहिष्णुता दिखा ले, अन्ततः उसे कठोर भूमिका में आना ही पड़ेगा। देश सरकार की उस कठोर भूमिका का गवाह बनने को तैयार है। वह समझता है कि कश्मीर मेंपाकिस्तान से घुसने वाले आतंकियों और घाटी में बसने वाले अलगाववादियों की मुश्कें कसते ही, घाटी के हालातों में क्या बदलाव आए हैं। देश में सार्थक विपक्ष की भूमिका निभाने का कार्य छोड़, अराजकता का माहौल बनाने वाले विपक्ष की जनमानस एक अलग ही शक्ल देखना चाहता है। सरकार सक्रिय हो।

Sunday 23 April 2017

जैनरिक दवाओं, हृदय स्टन्ट कीमत से अलग स्थाई समाधान चाहिए?

कुछ दिन से जैनरिक दवाओं का विषय हवा में है। प्रधानमंत्री ने कुछ दिन पहले यह बात कही, मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ने उसका संज्ञान लेते हुए, सूचना जारी कर दी। पूरे देश के सोशल मीडिया को एक विषय मिल गया। चल पड़ा कट पेस्ट का मौसम जोरों पर। पक्ष - विपक्ष में प्रतिक्रियाओं का सिलसिला चल पड़ा। ग्राहक मुखर है संख्या भी अधिक है, अत: उनकी प्रतिक्रियाओं की बहुलता लाजिम है, परन्तु दूसरा पक्ष भी रह रह कर अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करवा रहा है। अभी कल. ही होटल रेस्तरां में खाना खाने पर लगने वाले सर्विस टैक्स से सम्बन्धित सूचना निकली। अब होटल रेस्तरां में सेवा शुल्क देना न देना हमारी इच्छा पर है। ग्राहकों के लिए दोनों ही अच्छे कदम हैं, इनकी सराहना की जानी चाहिए, की भी जा रही है। रही मेरी बात तो "मै कहता आंखन की देखी", अभी जाने दीजिए।


हमें जल्दी बहुत रहती है। प्रत्येक समस्या का शार्ट कट हल हमें अपेक्षित है। बात हमारे कानों तक पंहुची नहीं कि हम उसके परिणाम तक पहुंच जाते हैैं। वैसे भी ग्राहक आन्दोलन आर्थिक क्षेत्र से संबंधित होने के कारण, इतना विशद व विविधता भरा है कि प्रत्येक दूसरे कदम पर इसका रंग बदल जाता है। जो समस्या मेरे गले की हड्डी है, उससे आपका दूर दूर तक सरोकार नहीं। अत: आपके लिए वह समस्या ही नहीं। इसीलिए आप उसे देखते हुए भी अनदेखा कर देते हैं। जैनरिक दवा कौन सी अभी आवश्यकता है, हां कुछ हुआ है इस विषय में, जरूरत पड़ने पर समझ लेंगे। भारत के ही नहीं पूरे विश्व के ग्राहक आन्दोलन के सामने यह गम्भीर चुनौतियां हैं। इसी कारण पूरे विश्व में कहीं पर भी ग्राहक संगठित होकर निर्णायक शक्ति नहीं बन पाये हैं। यह बात बस किताबों के पन्नों में ही सिमटी हुई हुई है। ग्राहक ग्राहक​ग्राहक​ संगठन बस छिटपुट स्वरूप में कहीं सरकारों तो कहीं कार्पोरेट की मेहरबानी से संगठन चला रहे हैं।

पूरे विश्व को ग्राहक आन्दोलन को देखने की द्रष्टि बदलने की जरूरत है। यह तभी संभव है जब ग्राहक संगठन अपनी सतही द्रष्टि में पैनापन लायें। ग्राहक के मर्म व ग्राहक आन्दोलन के मूल को समझें। उस पर कार्य करें। वस्तुओं और सेवाओं के पीछे भागने से, बिना शक्ति अर्जित किए सरकारी मशीनरी का पुर्जा मात्र बनने से ग्राहक आन्दोलन को कुछ हासिल होने वाला नहीं। अनगिनत वस्तुयें, सेवायें, उन्हे उत्पादित संचालित करने वाले हाथ हैं। एडम स्मिथ द्वारा अधिक से अधिक धन कमाने के मन्त्र से दीक्षित किस किस पर कहां कहां नियंत्रण लगा पाओगे। अत: नजरिये और कार्य के तरीके में बदलाव लाकर मूल पर प्रहार की आवश्यकता है।

आजकल एक अन्य विषय स्कूलों द्वारा अभिभावकों को लूटने का देश भर में चल रहा है। इधर उधर से यह कानून बना दें, वह कानून बना दें आवाजें भी आ रही हैं। सुना है सीबीएसई ने सूचना भेजकर स्कूलों को ताकीद भी की है कि वह छात्रों से संबंधित कुछ भी स्कूलों में नहीं बेचेंगे। पच्चीस वर्ष पहले यह विषय लेकर महाराष्ट्र में मैने कार्य किया था। वही सब समस्यायें थी जो आज हैं। मैने उस समय उपलब्ध नियम कानून के आधार पर बड़ी लड़ाई लड़ी थी, आंशिक सफलता भी मिली थी, तत्कालीन शिक्षा मंत्री ने मेरे कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने व स्थितियां बदलने का वायदा भी किया था। मैं इस आधार पर ताल ठोक कर यह कह सकता हूं कि पच्चीस वर्ष पहले भी महाराष्ट्र सरकार के पास स्कूलों की आज की समस्याओं पर नकेल कसने के लिए पर्याप्त नियम कानून थे। सुना है महाराष्ट्र सरकार ने कोई नया कानून भी बनाया है पर समस्या वहीं की वहीं है।

जैनरिक दवाओं के सम्बन्ध में एमसीआई द्वारा जारी गाइड लाइन स्वागत योग्य कदम है। पर यहां से ग्राहक संगठनों का काम सम्पन्न नहीं शुरू होता है। अभी संघर्ष की अनेकों सीढ़ियां चढ़नी हैं। आपमें से कुछ को याद होगा। सरकार ने हृदय की शल्य क्रिया में लगने वाले शन्टों की कीमतें निर्धारित की थी। काफी समय तक तो बाजार से शन्ट गायब ही रहे। अभी भी शन्ट निर्माता अपनी लड़ाई लड़ ही रहे हैं। एक बडी कम्पनी भारत के बाजार से अपने शन्ट हटा चुकी है, दूसरी ने अपनेे शन्ट बाजार से हटाने का सरकार को नोटिस दिया है। अब बाजार के इस आचरण के चलते, कैसी भी योजनाएं बन जायें, सफल कैसे होंगी। मुझे विश्वास है यही कुछ चिकित्सा क्षेत्र में भी होगा, फिर जेनरिक दवा बनाने वाली कंपनियां भी एम आर पी बहुत अधिक लिख रही हैं। दूसरी गड़बड़ियां भी हैं।

अतएव किसी वस्तु या सेवा के अधिक दाम होने पर उसका सस्ता विकल्प ढूंढ लेना समस्या का समाधान नहीं है। ग्राहक आन्दोलन वस्तुओं को सस्ता दिलाने की बात कभी नहीं करता, यदि करे तो चलने वाला नहीं। क्योंकि वस्तु के लागत मूल्य से कुछ अधिक ग्राहक को देना ही होगा। इसीलिये ग्राहक आन्दोलन सस्ते की बात न कर, उचित वस्तु उचित दाम का आधार लेकर आगे बढ़ रहा है। आज देश में जैनरिक दवायें कम बिकती हैं, इसलिए सस्ती हैं। कल जब पूरे देश के डाक्टर इन्हे लिखेंगे, बाजार में इनकी मांग बढ़ेगी, तो कौन गारन्टी लेगा कि इनके दामों में अप्रत्याशित वृद्धि नहीं होगी। इनके उत्पादक तथा व्यापारी ग्राहकों को नहीं लूटेंगे। इसलिए मुख्य समस्या वस्तु या सेवा के मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया है। जिसका कोई माई बाप नहीं। अत: हमें अस्थाई नहीं स्थाई समाधान ढूंढकर आगे बढ़ना है।

मूल्य निर्धारण प्रक्रिया के विषय में बात करना, उसका हल ढूंढना व्यक्तिगत ग्राहक के वश की बात नहीं। इसमें बहुत ऊर्जा तथा शक्ति लगती है। एक बार यह सूत्र बन गया तो लाखों करोड़ों वस्तुओं सेवाओं के पीछे अलग अलग नहीं भागना पड़ेगा। सभी व्यवस्थित आकार स्वयंमेव ले लेंगी। "एकै साधे सब सधें" जैसे सूत्र ढूंढना उन्हें प्रचलित करना किसी भी आन्दोलन के कार्यकर्ताओं का उद्धिष्ट होना चाहिए, यही सही मार्ग है। अतएव जिस प्रकार की बातें जैनरिक दवाओं, हृदय विकार सम्बन्धित स्टन्ट या रेस्तरां के सेवा शुल्क के सम्बन्ध में सामने आई। हमें इन विषयों पर गम्भीरता व विस्तृत विचार कर स्थाई समाधान के साथ आगे आना चाहिए। यही ग्राहक संगठनों की भूमिका होनी चाहिए।

Tuesday 28 March 2017

जवाब शिवसेना सांसद नहीं एअर लाइनें दें।

उस्मानाबाद से शिवसेना सांसद रवीन्द्र गायकवाड़ द्वारा एअर इंडिया कर्मचारी की पिटाई के मामले को कार्पोरेट जगत द्वारा गलत तूल दिया जा रहा है। यह स्थिति एक सांसद की है, उसके स्थान पर कोई साधारण व्यक्ति होता तो उसकी क्या हालत की जाती जरा कल्पना कर देखिए। हम प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट कर दें कि हम किसी भी प्रकार की मारपीट का समर्थन नहीं करते, परन्तु जिन अनेकों प्रश्नों को इस मामले में दबा कर सांसद पर अत्याचार किया जा रहा है हम उनका भी समर्थन नहीं कर सकते। ग्राहक की पूरे विश्व में यही कहानी है, उसे लूटा भी जाता है, गुंडा मवाली भी ठहराया जाता है। पूरे प्रकरण को कार्पोरेट चालाकी से दूसरी दिशा में मोड़, अपने ऊपर. से ध्यान हटा, दूर खडा तमाशा देखता रहता है।

यहां भी यही हुआ, कार्पोरेट ने मीडिया के कन्धे पर बन्दूक रखकर सांसद पर हमला कर दिया। मीडिया ने भी आदमी ने कुत्ते को काटा वाली तर्ज पर खबर लगातार चलाई। असली मुद्दे को बहुत गहरे दफना दिया। जहां प्रश्न एअर इंडिया की कार्य प्रणाली पर उठना था, उसे बेचारा बना दिया। चोर को साहूकार बनाकर महिमा मंडित किया गया और इस तिलिस्म में संसद, ग्राहक, मीडिया, नेता व जनता सभी फंस गए।

साधारण सा प्रश्न है आप को हवाई यात्रा करनी होती है। आप एअर लाइन के बुकिंग काउंटर पर जाते हैं। आपको जहां जाना होता है वह स्थान, तारीख व समय बताते हैं। आप वह क्लास भी बताते हैं जिससे आपको जाना होता है। आप पैसे देते हैं, कर्मचारी आपको टिकट देता है। एक बात और आजकल पुराना रजिस्टर पेंसिल वाला सिस्टम नहीं है। सामने कम्प्यूटर लगा होता है जिसके स्क्रीन परसभी कुछ लिखा रहता है।

आप अपना टिकट लेकर हवाई जहाज में पंहुचते हैं, सभी कुछ उलटा रहता है। आप का टिकट जिस क्लास का है, विमान में वह क्लास ही नहीं है। आपको जो सीट नंबर दिया गया था, वह सीट ही नहीं। आप विमान कर्मचारी से शिकायत करते हैं। वह आपको सही छोड़ बेवजह बातें समझाकर किसी प्रकार उडान रवाना कर इस झंझट से बचने की कोशिश करता है। वह आपको किसी इस प्रकार की सीट पर धकेल, जिसके किराये से बहुत अधिक किराया आपने चुकाया है, उडान रवाना कर देता है। आप लुटे पिटे से खामोश ताकते रहते हैं। यह हो क्या रहा है। इस देश में कानून का राज है या दादागिरी गुंडागर्दी चलती है। तो आप यह जान लीजिए यह गैरकानूनी है, ग्राहक संरक्षण अधिनियम के अर्न्तगत दोषपूर्ण सेवा हैं, जिसके लिए एअर इंडिया पूरी तरह जिम्मेदार है, उसको सजा मिलनी चाहिए। अब जिस बात पर पूरे देश को एअर इंडिया को लताड़ना चाहिए, सांसद को लताड़ रहा है। एअर इंडिया की मगरूरी देखिए, खुद की गलती पर माफी मांग अपनी कार्यप्रणाली सुधारने, अपने कर्मचारियों पर गलत कार्य करने की कार्यवाही करने की जगह सांसद को ब्लैक लिस्ट कर रहा है। आज जो भी सांसद के खिलाफ खिलाफ चिल्ला रहे हैं, उनके हिसाब से सांसद को क्या करना चाहिए था। विमान के क्रू से हाथ जोड़कर कहना चाहिये था कि आप बिजनेस क्लास के यात्री को साधारण में बैठा रहे हैं, बहुत अच्छा कर रहे हैं। यही करते रहिये आपकी कम्पनी फायदे में आ जायेगी और यात्रा के अन्त में एअर लाइन के अधिकारी को शाबाशी व धन्यवाद देता।

अब आप अगर साधारण व्यक्ति होते तो रोते चीखते चले आते। अगर आप सांसद महोदय की तरह हिम्मत दिखाते तो विमान कर्मचारी आपको वहीं धो डालते, न किसी को कुछ पता चलता, न कोई समाचार बनता। पूरे देश में घूम देखिए इस तरह की दादागिरी दिखाने वाले हजारों मामले आपको मिल जायेंगे। गायकवाड़ क्योंकि सांसद थे, उन्होंने एक गैरकानूनी कार्य के दबाव में प्रतिक्रिया दी। उनकी प्रतिक्रिया भी यदि गैरकानूनी है तो इसमें इतना बवेला मचाने व सभी एअर लाईनों द्वारा उन्हें ब्लैक लिस्ट करना किस तरह जायज है। दोनों ने गैरकानूनी काम किया है, अब कानून को अपना काम कर फैसला देने दीजिए। बेवजह आप मुन्सिफ क्यों बन रहे हैं।

अन्त में एक बात उनसे जो इस घटना पर मीडिया की क्लिपिंग देख ताली बजा रहे हैं। गायकवाड़ ने मारपीट कर जो गैरकानूनी काम किया, उसकी सजा उनको कानून देगा पर सांसद महोदय ने आपके अधिकारों के शोषण के खिलाफ जो आवाज उठाई है, उसमें अपनी आवाज मिलाकर एअर इंडिया को दंडित करने के लिए आवाज उठाइये।

Thursday 9 March 2017

14 मार्च भारतीय ग्राहक आन्दोलन का काला दिन


15 मार्च अर्न्तराष्ट्रीय ग्राहक दिन से मात्र एक दिन पहले 14 मार्च को भारतीय ग्राहक आन्दोलन कलंकित हो गया। इस कलंक के नायक हैं, मनमोहन सिंह और उनके करीबी विदेश में पले, पढ़े और बढे भारतीय आर्थिक परिवेश, ग्राहक की आर्थिक, भौगोलिक, सामाजिक परिस्थितियों से अनजान, देश की सत्ता के गलियारे में कुंडली मारे बैठे तथाकथित अर्थशास्त्री। एक तरफ भारतीय ग्राहक आन्दोलन को सुनहरे दिन दिखाने का श्रेय जहां राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार को जाता है, वहीं उसे कलंकित करना भी कांग्रेस की सरकार के ही हिस्से में जाता है। कांग्रेस की एक अन्य नरसिह राव सरकार पर भी भारतीय ग्राहक आन्दोलन को कलंकित करने के कुछ छींटे पड़ते हैं। परन्तु कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार का 2004 से 2009 का कार्यकाल, भारतीय ग्राहक आन्दोलन की कलंक कथा का सिरमौर है​।

प्रामाणिक वजन एवं माप कानून 1976 तथा इसके अर्न्तगत बने नियमों में डिब्बा बंद वस्तुओं के डिब्बे पर उसका अधिकतम खुदरा विक्रय मूल्य लिखना अनिवार्य था, परन्तु इसके साथ ही "स्थानीय कर अतिरिक्त" लिखना चलन में था, जिसे 1990 में संशोधित कर "सभी करों सहित" कर दिया गया। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत के कार्यकर्ताओं को बाजार सर्वेक्षण तथा वस्तुओं के उत्पादन मूल्य का अध्ययन करने पर मालूम हुआ कि डिब्बा बंद वस्तुओं वस्तुओं पर लिखी जाने वाली MRP उनके उत्पादन मूूल्य तथा न्याय मूल्य (Just Price) से बहुत अधिक लिखी जा रही है तथा यह ग्राहक शोषण का मुख्य कारण है। इसे लेकर ग्राहक पंचायत द्वारा अखिल भारतीय ग्राहक यात्रा निकाली गई, देश भर में आन्दोलन किये गये कि डिब्बा बंद वस्तुओं पर MRP के साथ वस्तु का उत्पादन मूूल्य भी छापा जाये। कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार पर अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत का दबाव काम आया। सरकार ने 1994 में एक विशेषज्ञ समिति बनाकर उसे यह तय करने की जिम्मेदारी सौंपी कि डिब्बा बंद वस्तुओं की पैकिंग पर MRP के अतिरिक्त और कौन सी कीमत लिखी जाये, जिससे ग्राहकों के शोषण को रोका जा सके। विशेषज्ञ समिति ने तय किया कि डिब्बा बंद वस्तुओं की पैकिंग पर MRP के साथ ही FPP ( First Point Price) भी लिखा जाये। यह वह कीमत है जिस पर उत्पादक वस्तु को पहली बार बेचता है। परन्तु इसके बारे में समिति के सभी सदस्यों के बीच सहमति न बन सकी। अत: समिति ने अपनी रिपोर्ट सरकार को ही अन्तिम निर्णय लेने की सिफारिश के साथ सौंपी। इसके बाद सरकार ने इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया। 

इस घटनाक्रम से देश के ग्राहक संगठन उत्साहित थे। सरकार की इस विषय पर उदासीनता देखते हुए, केरल का के एक ग्राहक संगठन "नेशनल फाउंडेशन फार कन्ज्यूमर अवेअरनेस एण्ड स्टडीज" ने वर्ष 1998 में केरल उच्च न्यायालय की एर्नाकुलम खण्डपीठ में याचिका दाखिल कर दी। याचिकाकर्ता द्वारा मा. उच्च न्यायालय से प्रार्थना की गई थी कि मा. उच्च न्यायालय केंद्र सरकार को डिब्बा बंद वस्तुओं की पैकिंग पर MRP के साथ साथ उत्पादन मूूल्य भी लिखवाने का आदेश दे। मा. उच्च न्यायालय द्वारा इस OP no. 24559/98 पर 11 जनवरी 2007 को निर्णय दिया गया। अपने आदेश में मा. उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से एक विशेषज्ञ समिति बनाने को कहा, जो इस विषय का विस्तृत अध्ययन कर केंद्र सरकार को उचित सलाह दे कि इस सम्बन्ध में क्या किया जाये। मा. उच्च न्यायालय के इसी आदेश के अनुरूप केंद्र सरकार द्वारा 8 अगस्त 2007 को डा एम गोविंद राव की अध्यक्षता में 13 सदस्यीय विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया। समिति का कार्यकाल पहले 7 मई 2008 तक तथा बाद में एक बार फिर 8 सितंबर 2008 तक बढ़ाया गया। 

समिति ने 24/09/2007, 17/10/2007 तथा 14/03/2008 की मात्र तीन बैठकों में, सिर्फ सोलह लोगों से, जिनमें ग्राहक संगठन के नाम पर सिर्फ मा. उच्च न्यायालय केरल का याचिकाकर्ता था, केवल 13 प्रश्नों में भी मात्र 4 प्रश्नों के उत्तर के आधार पर देश के 125 करोड़ ग्राहकों के चेहरे पर कालिख पोत,. भारतीय ग्राहक आन्दोलन के काले दिन की रचना कर दी। आगे समिति के सदस्यों, समिति को सौंपे गये कार्य, समिति द्वारा निर्धारित मात्र 13 प्रश्नों, जिनसे प्रश्न पूछे गए उन लोगों का जब हम विवेचन करेंगे तो यह अपने आप स्पष्ट हो जायेगा कि यह पूरा कार्यक्रम प्रायोजित था, मा. उच्च न्यायालय की आंखों में धूल झोंकने, देश के 125 करोड़ ग्राहकों के सीने में छुरा घोंपने तथा भारतीय ग्राहक आन्दोलन के काले दिन की रचना करने वाला था। 

विशेषज्ञ समिति के गठन से लेकर, उसके कार्यक्षेत्र के निर्धारण, कार्य करने के तरीके की विवेचना से ही स्पष्ट हो जायेगा कि यह पूरा घटनाक्रम ग्राहकों के खिलाफ प्रायोजित षड़यंत्र था, जिसे अमलीजामा पहनाने की जिम्मेदारी मनमोहन सिंह ने अपने करीबी डा एम गोविंद राव को सौंपी, यहां स्पष्ट कर दें कि गोविंद राव बहुत समय से सरकारी अनुकम्पाओं पर पलने बढ़ने वाले अर्थशास्त्री का टैक्सों के बारे में अच्छा ज्ञान बताया जाता है। वह वैट लागू कराने वाली सरकारी समिति के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। वैट उनके दिमाग में इस कदर घुसा है कि उन्होंने भारत के गरीब ग्राहकों से जुड़े इस मसले को भी वैट लागू कराने की कसौटी पर घिस घिस कर भारतीय ग्राहकों का सत्यानाश कर दिया। इनकी अध्यक्षता में गठित 12 अन्य सदस्यों में 5 सरकारी अधिकारी, 2 शिक्षा जगत, 3 व्यापार संगठनों, 1 ग्राहक संगठन कामनकाज तथा 1 निजी हैसियत से सम्मिलित थे। 36 राज्यों एवं केंद्र शासित क्षेत्रों वाले 125 करोड़ ग्राहकों के जीवन मरण का प्रश्न हल करने की जिम्मेदारी सिर्फ दिल्ली​ निवासी अपने करीबियों को सौंप दी गई। 

समिति को जो काम दिया गया वह था व्यापक अध्ययन कर निम्न विषय पर सरकार को अपनी राय देना। वह हैं - 
(1) राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वस्तुओं के उत्पादन तथा वितरण की प्रचलित प्रक्रियाओं को ध्यान में रखकर उन सम्भावनाओं की तलाश करना, जिसके अनुसार डिब्बा बंद वस्तुओं की पैकिंग पर Normative Price (मापदंडात्मक मूल्य) अंकित करना पूरे देश में लागू किया जा सके, यह मूल्य वस्तु के उत्पादन से लेकर वस्तु के अन्तिम ग्राहक तक पंहुचाने के लिए उत्पादक द्वारा किये जाने वाले सभी खर्चों को पर्याप्त रूप से प्रदर्शित करने वाला हो। 
(2) यदि इस बात की सम्भावना है - 
1. a. पैक की वस्तु पर इस मूल्य को घोषित करने का सर्वोत्तम तरीका क्या हो, यह भी बतायें। 
 b. क्या उत्पादक द्वारा घोषित इस मूल्य का परीक्षण करने की आवश्यकता है, उस ऐजन्सी को चिन्हित करें तथा उसके सम्बन्ध में सुझाव दें, जिसे उत्पादक द्वारा घोषित मूल्य के औचित्य का परीक्षण की जवाबदेही दी जा सकती है। 2. यह स्पष्ट है कि प्रमाणिक वजन एवं माप (डिब्बा बंद वस्तुयें) नियम 19777 के प्रावधानों के अनुसार उत्पादक वर्तमान में प्रचलित पैक की गई वस्तुओं पर अधिकतम खुदरा विक्रय मूल्य (MRP) लिखना जारी रखेंगे। 
3. यह भी स्पष्ट है कि आयात की गई वस्तुओं पर मूल्य घोषणा सम्बन्धित आवश्यकतायें पूरा करने का दायित्व, वर्तमान प्रचलन के अनुसार आयातक का होगा। विशेषज्ञ समिति का कार्यक्षेत्र इतना स्पष्ट था। उसका कार्य पैकिंग वस्तुओं पर MRP के अतिरिक्त Normative Price उत्पादन मूूल्य के समकक्ष लिखने की सम्भावना तलाश करने के साथ ही, इसे लागू करने के बेहतर तरीकों के सम्बन्ध में सुझाव देना था। 

समिति के अध्यक्ष की नीयत व मंशा उसी समय स्पष्ट हो गई, जब उसने 17 अक्टूबर 2007 को ही सरकार को पत्र लिखकर अपने कार्यक्षेत्र से - "वह मूल्य वस्तु के उत्पादन से लेकर वस्तु के अन्तिम ग्राहक तक पंहुचाने के लिए उत्पादक द्वारा किये जाने वाले सभी खर्चों को पर्याप्त रूप से प्रदर्शित करने वाला हो।" निकाल देने का आग्रह किया। सरकार पर मा. उच्च न्यायालय का दबाव था, उनके आदेश में समिति गठित कर इसी बात की सम्भावना व तरीके की तलाश करनी थी जिसके अनुसार डिब्बा बंद वस्तुओं पर उसका उत्पादन या समकक्ष मूल्य अंकित किया जाये। अत: सरकार ने समिति की बात नहीं मानी। इससे. साफ. है कि समिति का पहले से ही इच्छा व इरादा उत्पादन मूूल्य या उससे संबंधित विषय को छूने का नहीं था, जिसे उसने पहले ही स्पष्ट कर दिया, आगे वही हुआ जिसकी आशंका थी। समिति ने खेत की बात करने के स्थान पर हर जगह खलिहान की बात कर भारतीय ग्राहकों को लुटने के लिए पूंजीपतियों के सामने चारा बनाकर फेंक दिया। 

समिति अपनी नीयत को मूर्त रूप देने के लिए यहीं नहीं रुकी, उसने प्रत्येक स्थान पर अपना ग्राहक विरोधी रूप दिखाया। अब बात समिति द्वारा बनाए उन 13 प्रश्नों की करते हैं, जिनके आधार पर समिति ने सरकार से ग्राहक विरोधी सिफारिश की। इनमें से बहुत से प्रश्न अवांछित व अनावश्यक हैं, जिन्हे किसी विशिष्ट उद्देश्य को पूरा करने के लिये समिति ने प्रश्न सूची में शामिल किया। अत: हम प्रश्न के आगे ही. प्रश्न के. सम्बन्ध में कोष्ठक में अपना विचार भी लिख रहे हैं। 
1. पैकिंग की गई वस्तु पर MRP लिखने का क्या उद्देश्य होना चाहिए।( समिति MRP लिखने का उद्देश्य जानने के लिये नहीं बनी थी, यह समिति के कार्यक्षेत्र से बाहर की बात है।) 
2. ग्राहक हितों को बढ़ावा देने का उद्देश्य क्या MRP छापने से पूरा होता है, दूसरा कौन सा तरीका अपनाने की आवश्यकता है। ( मा. उच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार, सरकार द्वारा समिति का गठन उत्पादन मूल्य के समकक्ष Normative Price छापने की सम्भावना तलाशने के विशिष्ट उद्देश्य के लिए किया गया था। किसी दूसरे तरीके की तलाश समिति के अधिकार क्षेत्र में ही नहीं, फिर यह प्रश्न क्यों?) 
3. आदर्श प्रतिस्पर्धा वाली अर्थव्यवस़्था में वस्तु का मूल्य अत्यल्प खर्च, मामूली लाभ के साथ ही लिखा जाता है। प्रतिस्पर्धा का वातावरण बढ़ाने के लिये क्या किया जाए। ( अर्थशास्त्र के इस किताबी ज्ञान को समिति से जानने की इच्छा किसी की नहीं थी, न ही समिति के कार्यक्षेत्र में प्रतिस्पर्धा का वातावरण बढ़ाने के तरीके तलाशना था।) 
4. पैकिंग की गई वस्तु की MRP की घोषणा उत्पादक या व्यापारी में से किसे करनी चाहिए। ( समिति के सामने MRP से संबंधित कोई प्रश्न ही उनके कार्य क्षेत्र में नहीं था। उसमें स्पष्ट लिखा था कि पैकिंग वस्तुओं पर MRP लिखना यथावत जारी रहेगा, फिर यह प्रश्न क्यों?) 
5. यदि यह घोषणा उत्पादक करता है तो यह कैसे सुनिश्चित हो कि वह उसमें कानून सम्मत लाभ से अधिक न जोड़ सके। ( समिति के कार्यक्षेत्र से MRP का कोई संबंध ही नहीं तो समिति बार बार MRP रटकर अपने किस उद्देश्य को साधने की नीयत से काम कर रही है।) 6. यदि घोषणा खुदरा विक्रेता करता है तो किस तरह सुनिश्चित किया जाये कि घोषित मूल्य में असामान्य लाभ सम्मिलित नहीं है। (यहां भी समिति अपने कार्य क्षेत्र के बाहर MRP की ही बात कर रही है) 
7. घोषित मूल्य उचित है, यह कैसे सुनिश्चित किया जाए। आप यह सुनिश्चित करने के लिए कि घोषित​ मूल्य में उत्पादक तथा व्यापारी का साधारण लाभ ही सम्मिलित है कौन सी सावधानियां अपनाने की सिफारिश करेंगे। ( यह प्रश्न भी समिति के कार्यक्षेत्र से बाहर MRP से सम्बन्धित अनावश्यक है।) 
8. MRP यानी अधिकतम खुदरा विक्रय मूल्य (सभी करों सहित) घोषित करने के वर्तमान स्वरूप से किस प्रकार की समस्याएं खड़ी हो रही हैं। ( अब तक समिति अपना विशिष्ट हित साधने के लिए MRP की ही बात कर रही है। वर्तमान में MRP की प्रचलित प्रक्रिया में आने वाली समस्याओं को चिन्हित करना तथा उनका निराकरण ढूंढना, समिति के कार्यक्षेत्र में नहीं है।) 
9. वैट के युग में हम मूल्य घोषित करने की प्रणाली कैसे लागू करेंगे। ( अब यहां वैट कहां से आ गया, समिति कौन सी मूल्य प्रणाली की बात कर रही है, MRP या Normative Price स्पष्ट नहीं है। समिति प्रश्न का उत्तर देने वालों को भ्रमित कर रही है।) 
10. क्या पैकिंग की गई वस्तुओं पर अधिक मूल्य घोषित करना अभी भी प्रचलित है। 
11. यदि प्रश्न संख्या 10 का उत्तर हां है तो उन वस्तुओं के नाम लिखें, जिनमें यह आज भी प्रचलित है। ( इस प्रश्न से मालूम हो गया कि प्रश्न 10 भी MRP के सम्बन्ध में है। यह कितना बेकार का प्रश्न है। समिति के सदस्यों को अपने सामने रखी मिनरल वाटर की बोतल व उस पर लिखी MRP भी नजर नहीं आई।) 
12. क्या MRP नियंत्रित करने के लिये किसी अधिकारी की नियुक्ति आवश्यक है। ( समिति को MRP नियंत्रित करने के लिये अधिकारी की नियुक्ति की आवश्यकता ढूंढने का कार्य करने के लिए किसने कहा था।) 
13. MRP के प्रभावशाली क्रियान्वयन के लिए किन मानदंडों को अपनाया जाना चाहिए। ( समिति Normative Price ( उत्पादन मूूल्य के समकक्ष) की घोषणा से संबंधित सम्भावनायें तलाश करने के लिये बनाई गई थी या MRP के प्रभावशाली क्रियान्वयन के लिए।) 

प्रश्नों से ही स्पष्ट हो गया कि समिति के मस्तिष्क में सिर्फ MRP का पक्ष लेकर पूंजीपतियों द्वारा जारी ग्राहकों की लूट को न्यायोचित सिद्ध करना था। इसीलिए उसके कार्यक्षेत्र में MRP नहीं होने के बाद भी अपने प्रश्नों को सिर्फ और सिर्फ MRP पर ही केंद्रित रखा। जिस Normative Price को घोषित करने के नाम पर उसका गठन किया गया था उसका कहीं भी जिक्र तक नहीं किया। 

अभी समिति की नौटंकी पूरी नहीं हुई है। 125 करोड़ ग्राहकों को सुबह से शाम तक होने वाली लूट से बचाने के लिये गठित इस समिति के उस सर्वेक्षण पर आप अपना सिर पीट लेंगे, जिसके आधार पर यह समिति निष्कर्ष पर पंहुची। पैकिंग वस्तुओं पर उत्पादन मूूल्य (Normative Price) लिखने की सम्भावना तलाश करने वाली समिति के विद्वान सदस्यों ने ऊपर दिए अनावश्यक व सन्दर्भहीन प्रश्न मात्र 16 लोगों से पूछे, जिनमें 15 उत्पादक, कार्पोरेट कम्पनियां और व्यवसायिक तथा औद्योगिक संगठन थे। ग्राहकों से सम्बन्धित मात्र अकेला मा. उच्च न्यायालय का याचिकाकर्ता था। जब प्रश्न ही सन्दर्भहीन हों तो उनके उत्तर, वह भी मात्र एक पक्ष के समिति के कार्य करने की शैली व आचरण पर प्रश्नचिन्ह छोड़ जाती है। समिति ने इन 16 सदस्यों की मात्र प्रश्न संख्या 4, 8, 10 व 12 ही रिकार्ड की है। 

समिति की रिपोर्ट अनावश्यक, असन्दर्भित व हास्यास्पद टिप्पणियों से भरी पड़ी है। यहां उनका जिक्र भी करना बेकार है, यहां कामनकाज के श्री के के जसवाल व दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर श्रीराम खन्ना का विशेष उल्लेख आवश्यक है, जिन्होने इस ग्राहक विरोधी वातावरण में भी अपनी यह बात मुखरता से रखी कि पैकिंग वस्तुओं पर MRP के अतिरिक्त उत्पादक FPP (First Point Price) प्रथम विक्रय मूल्य भी मुद्रित करें। टैरिफ कमीशन का प्रतिनिधित्व करने वाले एक अन्य सदस्य श्री ए के शहा ने भी सराहनीय भूमिका निभाई, उनका कहना था कि उत्पादक पैकेट पर MRP के साथ ही Cost of Sales (कुल उत्पादन मूूल्य + बिक्री व वितरण खर्च + टैक्स व शुल्क) उत्पादक का लाभ तथा थोक व फुटकर विक्रेता का लाभ भी छापें। परन्तु इन तीनों की आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह थी, जिसे सुना नहीं जाना था और जो सुनी नहीं गई। 

भारतीय ग्राहकों को लूट व शोषण के अन्धे कुयें से बाहर निकल पाने की जो रोशनी मा. उच्च न्यायालय केरल की एर्नाकुलम खण्डपीठ ने दिखाई थी सरकार, उद्योग जगत व सरकारी अनुकम्पा पर पलने वालोंं की इस नूरा कुश्ती को खेलने वालों ने बेचारे ग्राहक को एक बार फिर उस अन्धे कुयें में धकेल कर भारतीय ग्राहक आन्दोलन को कलंकित करने का इतिहास रच दिया। 14 मार्च 2008 को इस काली समिति ने अपनी कालिख भरी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। यह दिन भारतीय ग्राहक आन्दोलन का काला दिन है।

Tuesday 7 March 2017

वित्त मन्त्री को ग्राहक पंचायत के राष्ट्रीय सचिव (पूर्व) का खुला पत्र


आदरणीय वित्त मंत्री जी,
नमस्कार।

कोई कह रहा था, सावन के अंधे को हरा ही हरा नजर आता है। लगता है आपने भी कुछ इसी प्रकार की धारणा बना ली है। आप उस बात को भी भूल चुके हैं, जिसमें कहा गया है कि किसी धागे को क्षमता से अधिक खींचने पर वह टूट जाता है। आज भारत के ग्राहक भी टूटने की स्थिति में ही पंहुचते जा रहे हैं। आप शायद नोटबंदी के बाद स्थानीय चुनावों में भाजपा की बेहताशा जीत से भ्रमित हो गये हैं।आप शायद यह जानना समझना भी नहीं चाहते कि देश के ग्राहक आज किन स्थितियों से गुजर रहे हैं। देश का ग्राहक आज आपके साथ एक पुण्यात्मा के पुण्यों व उसी तपस्वी की तपस्या के कारण खड़ा है। इसी कारण आपको चहुंओर सफलता मिल रही है। माननीय किसी पुण्य या तपस्या के फल को शिरोधार्य किया जाता है, न कि उसकी प्रतिक्रिया व्यक्त की जाती है या अपने व्यवहार को आक्रामक किया जाता है। नोटबंदी के लिए मिले जनता के समर्थन के बाद आई नवीन बैंक नीति आपका कुछ इसी तरह का कदम है। मान्यवर आप दोनों के बीच का अन्तर भी भूल चुके हैं या उसे अनदेखा कर रहे हैं। मंत्री जी नोट बंदी बड़ी मछलियों पर फेंका जाल था, उसका कोई प्रभाव सामान्य ग्राहकों पर नहीं पड़ना था, जबकि बैंको द्वारा व्यवहार पर लागू नई फीस छोटी मछलियों पर निशाना है। आज वही सबसे अधिक परेशान है, वही सबसे अधिक लुटने वाला है। आदरणीय यह बात सार्वजनिक करने के पहले कम से कम अपनी सरकार द्वारा खुलवाये करोडों जीरो बैलेंस के खाते याआद कर लेते। जिसके लिए आपने अपनी व अपनी सरकार की पीठ थपथपाई थी। अब यह खाता धारक न्यूनतम बैलेंस व फीसष के लिए आवश्यक रकम कहां से जुटायेंगे। अभी तक आपके विपक्षी यही झुनझुना बजाते थे, खाते में 15 लाख आये क्या, अब वह यह भी कहेंगे कि जमा तो कुछ कराया नहीं, आपका पैसा लूटकर उल्टी गंगा बहाने लगे।

मंत्री जी, आपने यह नीति लागू करनेपहले-पहले भारत की आर्थिक सामाजिक स्थिति का भी ख्याल नहीं किया। भारत की अधिसंख्य आबादी गरीब है, यहां के 74% संसाधनों पर 10% लोगों का कब्जा है। बाकी लोगों के हिस्से में 26% संसाधन ही आते हैं, उसमें भी 50% तो गरीबी रेखा के इर्द गिर्द ही हैं, जिनका जीवन व्यापन सुबह से शाम तक भटकने के बाद हाथ आई नकद राशि के सहारे ही चल रहा है। महोदय क्या आपको सचमुच याद नहीं कि आपकी साथी पुण्यात्मा ने ही इन लोगों की पंहुच बैंक तक जीरो बैलेंस खाते खुलवा कर बनाई। क्या आपको यह व्यवस्था पसंद नहीं, आप इसे समाप्त करना चाहते हैं। कम से कम ग्राहक पंचायत के कार्यकर्ताओं को आपकी यह नीति, इसीका अनुसरण करने वाली लगी। क्योंकि इस वर्ग को तो अभी यह आदत लगवानी थी, उसमें वित्तीय अनुशासन लाना था कि वह अपनी रोज की कमाई बैंक में जमा कराये। जब जितनी जरूरत हो उतनी रकम निकाले ताकि इस वर्ग को बचत की आदत लग सके, उसकी बचत देश के काम आ सके। आप तो इस वर्ग को डराने लगे, न्यूनतम बैलेंस रखने, पैसा जमा कराने, निकालने के नाम पर। मान्यवर, आज आप देश को सच सच बता दीजिए, आपने इस वर्ग के करोड़ों खाते क्यों खुलवाये थे। उन्हें वित्तीय अनुशासन सिखाने के लिए या उन्हें लुटवाकर बैंको की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए। आज महत्वपूर्ण यह नहीं है कि बैंक में कितनी बार पैसा जमा कराया जाये या निकाला जाये, महत्वपूर्ण देश के बहुत बड़े वर्ग को वित्तीय अनुशासन सिखाने की है और शायद आपकी सरकार भी यही चाहती है। आप तो छुरी लेकर इनकी ही गर्दन रेतने के लिए दौड़ पड़े। आप यह कदम उठाकर देश के बहुत बड़े वर्ग को डरा रहे हैं। उसे यह समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि बैंक धनी लोगों के लिए है, वह बैंक के पास तभी फटकें जब उनमें बैंक के खर्च सहन करने की क्षमता हो। श्रीमान मै उस वर्ग की बात कर रहा हूं जिनकी आय आज भी 5000 से 15000 रुपये प्रतिमाह की है। इतनी रकम में ही अपना परिवार परिवार​ चलाते हैं, जिनको आपने इस आश्वासन के साथ बैंकों तक पंहुचाया कि उनका भला होगा।

मंत्री महोदय माफ कीजिए मैं यह भूल गया था कि नोट बंदी के कारण बैंकों के पास इतना भरमसाट पैसा आया कि आपको बैंकों में इतनी बड़ी संख्या में ग्राहकों की उपस्थिति नागवार लगने लगी। इनकी जरुरत भी नहीं रही, इसीलिए आपने इस वर्ग को बैंक से भगाने की योजना बना डाली। आपकी इस योजना से आपकी सरकार द्वारा जीरो बैलेंस से खुलवाये बैंक खाते ही जीरो हो जायेंगे। अब मुझे भी मालूम पड़ा, दुनिया गोल है, जहां से चले थे वहीं पंहुच गये। आपकी रफ्तार अधिक है इसलिए जल्दी पंहुच गये।

मान्यवर, एक बात कहूं, मैं कैशलैस अर्थव्यवस़्था का बहुत बड़ा समर्थक हूं, चाहता हूं देश तेजी से इस दिशा में आगे बढ़े। परन्तु अर्थक्षेेत्र का जमीन से जुड़ा कार्यकर्ता होने के कारण जानता हूं कि देश में कहां किस रंग व किस्म की जमीन है, इसीलिए कह रहा हूं देश में कैशलैस व्यवहार बढ़ाने व नकद व्यवहार हतोत्साहित करने के हजारों तरीके हैं, उन्हे अपनाइए। इस राह की कठिनाइयों को दूर कीजिए। सबसे बड़ी कठिनाई तो यही है कि कैशलैस व्यवहार करने पर ग्राहक को 2% अतिरिक्त बोझ उठाना पड़ता है। आपने इस सम्बन्ध में तो कुछ किया नहीं, ग्राहक की जेब पर कैंची और चला दी। मेरी आपसे प्रार्थना है, समाज के गरीब ग्राहकों की जेब काटने वाले कामों में सहायक मत बनिए। कम से कम उस पुण्यात्मा का ख्याल कीजिए, जिसकी तपश्या ने हमें यह दिन दिखलाये। आपकी जल्दी कहीं सरकार की तरफ लोगों के देखने का नजरिया ही न बदल दे। आपको चेतावनी या सलाह देने की हममें योग्यता नहीं, अनुरोध कर सकते हैं, कर रहे हैं कि बचत खातों पर बैंक फीस लगाने के निर्णय को तुरन्त वापस लीजिए।

आपका
अशोक त्रिवेदी

Sunday 26 February 2017

दफन हो चुकी पहचान तलाशते कम्युनिस्ट

यह तो अक्सर देखा जाता है कि बहुत समय से किसी पोशाक विशेष को पहनते पहनते, किसी को उस पोशाक से इतनी आसक्ति हो जाती है कि उसके तार तार होने के बाद भी वह उसका. मोह नहीं छोड़ पाता। अपने देश में इस प्रकार के भी समाचार​ आते रहते हैं कि कोई व्यक्ति अपने प्रिय की मृत्यु के बाद भी यह मानने की स्थिति में नहीं आ पाता कि उसका प्रिय अब इस दुनिया में नहीं है और वह निर्बन्ध शव के साथ ही रहने लगता है। अन्तत: समाज को ही उस व्यक्ति और शव को अलग करना पड़ता ji है। इस प्रकार की स्थितियां दो कारणों से आती हैं। अबाध प्रेम समाविष्ट हो या स्वार्थ। अनेक बार अपनी दुकान चलाने के लिए भी यह नाटक जारी रखना पड़ता है। भारतीय कम्युनिस्टों की स्थिति. इससे इतर नहीं है।

रूस के बिखराव, बर्लिन की दीवार ढहने और चीन के बाजारवादी शक्तियों की गोद में जा बैठने के बाद भारतीय कम्युनिस्टों के पास उनका अपना बचा ही क्या है। कार्ल मार्क्सके जिन सिद्धांतों के सहारे यह पूरे विश्व में अपनी अधिसत्ता कायम करने का दिवा स्वप्न पाले थे, 100 वर्षों में ही वह रेत की दीवार की तरह भरभरा कर ढह गये। मैं यहां वह इतिहास नहीं बताना चाहता, जिसे सब जानते हैं। आज मुख्य बात यह है कि आज विश्व के कम्युनिस्टों के पास, उन आर्थिक सिद्धांतों को खोने के बाद, जिसके आधार पर वह शोषण मुक्त समाज की रचना करना चाहते थे, उनका अपना शेष क्या है। सिवाय इसके कि जो जहां जिस सत्ता पर काबिज है, उसे उन्ही तरीकों को अपनाकर बनाये रखना चाहता है, जिनका निषेध करने के लिए मार्क्स ने इतिहास रचना चाहा था। मैंने विभिन्न वादों सिद्धांतों के अध्ययन में यह पाया है कि सिद्धांतों से कहीं अधिक गलत व उनको डुबोने वाले उन सिद्धांतों का अनुसरण करने वाले होते हैं। शायद यह अपनी गलती स्वीकार करने के मोड में नहीं हैं। अत: अनर्गल शोर मचाने में व्यस्त हैं।

भारत के सन्दर्भ में भी कम्युनिस्ट कालबाह्य हैं। आज यह मात्र सेकुलर का लबादा ओढ, अन्य राजनीतिक दलों की बैसाखी के सहारे, अपने ढ़हते अवशेषों की मदद लेकर मीडिया और यहां वहां शोर मचाने तक सीमित हैं। यह तो समझ में आता है कि पुराने नेताओं की रोजी रोटी का सहारा ही उस नाटक के मंचन में है, जिसका पटाक्षेप दशकों पहले हो चुका है। यह समझ रहे हैं कि वर्तमान वातावरण में इनका सिमटता कारोबार अधिक समय तक खिंचने वाला नहीं है। केरल और त्रिपुरा राज्य की सरकारें न जाने कब दम तोड़ दें। वहां भी यह सत्ता में अपने दर्शन या सिद्धांतों के कारण नहीं हैं, बल्कि अन्य राजनीतिक दलों की तरह बैठाई राजनीतिक व जातिगत समीकरणों के कारण। राष्ट्रवादी शक्तियों के सशक्त होने के कारण नक्सली आंदोलन भी दम तोड़ने लगा है। यह भी इस स्थिति में नहीं कि उनका साथ दे सकें या फिर उनके पक्ष में आवाज उठा सकें। अपने को बुद्धिजीवी नाम देने वाली कौम की बुद्धि की तलाश एक ही जगह पर शिक्षा संस्थानों पर जाकर रूक रही है। वहां के कुछ नौजवानों को बरगलाकर अपना स्वार्थ साधने की जुगत लगाने तक ही इनका कार्य क्षेत्र, वर्तमान में शेष बचा है। इसी कारण विश्व विद्यालयों में यह आजकल अधिक सक्रिय नजर आने लगे हैं। यह लोग जिस स्वस्थ दर्शन व चिन्तन का राग अलापने में लगे हैं, वह तो बेसुरा होकर कब का दम तोड़ चुका।

हंसी आती है जब यह लोग आजादी की बात करते हैं। अपने बाप दादाओं द्वारा दी गई आजादी की विरासत को फ्रान्स, पूर्व जर्मनी, रूस और चीन में बनाए रखने में नाकाम रहे लोग किस आजादी की बात कर रहे हैं, जो पूर्वी जर्मनी अर्थव्यवस़्था को वहां की टूटती दीवार के मलबे की तरह छितरा गई या फिर वह जो बिखरते रूस की बरबादी का तमाशा लाचार आंखों से देखने को मजबूर थी, कहीं यह लोग 1989 में बीजिंग की तिनमेन चौक वाली आजादी तो नहीं चाहते। यह लोग अपने को जिस दर्शन का झंडाबरदार बताने का ढोंग करते हैं, दुनिया में उस दर्शन को अपनाने वाले किसी एक देश का उदाहरण बता दें, जहां इन जैसी मानसिकता या आचरण को सहन किया जाता हो। 

सच तो यह है कि इनका, शरीर, मन और बुद्धि सभी अलग अलग दिशाओं में भाग रहे हैं, क्योंकि इन्होंने सभी को आजादी दे दी है। दिमाग जैसे चाहे चलता है, जुबान जो चाहे बोलती है, बस कौन क्या कर रहा है यह नहीं जानना चाहते। एक बात और इन्हें अपनी आजादी को हासिल करने व अभिव्यक्ति देने की जितनी चिंता है, उससे कहीं अधिक दूसरों की आजादी दबाने व रोकने की, फिर उसके लिए गालियों या हिंसा का सहारा लेने से इन्हें गुरेज नहीं। देश व समाज को जल्दी से जल्दी विश्व के अन्य देशों की तरह इनसे छुटकारा पाने जरूरत है।

Thursday 16 February 2017

मोदी ग्राहक लुट गये तेरे राज में, जाने तुझको..............

अपने देश में जनमान्य को लूट या शोषण से बचाने के नाम पर जो कानून बनाये जात हैं, वही कानून जनसामान्य की लूट करने वालों का मुख्य हथियार बनते हैं। अब इस व्यवस्था को क्या कहें या इसका क्या करें जिसमें या तो कानून में ही कामा, फुलस्टॉप कुछ इस तरह छोड़ दिए जाते हैैं, जिससे शातिरों को निकल भागने का मौका मिल जाता है या फिर कानून तो बन जाते हैैं, परन्तु उनका पालन सुनिश्चित करने वाली मशीनरी का दूर दूर तक अता पता नहीं होता। मशीनरी अगर कहीं दिखाई दे भी जाये तो उसकी कानून पालन करा पाने की क्षमता लगभग शून्य होती है, जिससे कानू के अस्तित्व अस्तित्व​ पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है। पीड़ित की गुहार इस मशीनरी के कानों को छूती ही नहीं। अत: देश में कानून का पालन सुनिश्चित करने की एकमात्र जिम्मेदारी न्यायपालिका पर ही आश्रित है। शायद यही वजह है कि हमारे न्यायालयों में इतनी अधिक भीड़ है। क्योंकि विधायिका और कार्यपालिका अपने दायित्व के प्रति न तो ईमानदार है, न ही कार्यक्षम। बस एक व्यवस्था है जिसे ढ़ोये जा रहे हैं।
                            

सर्वसामान्य की लूट को रोकने के नाम पर इसी तर्ज पर "वजन एवं माप कानून 1976" में प्रत्येक वस्तु पर MRP लिखना अनिवार्य किया गया। उत्पादक MRP तो लिखते थे, परन्तु उसके साथ ही "स्थानीय कर अतिरिक्त" लिख दिया करते थे। इस कारण दुकानदार ग्राहकों से स्थानीय कर के नाम पर कुछ भी कीमत वसूल किया करते थे। अत: ग्राहकों की खैरख्वाही के नाम पर सरकार आगे आई। उसने वजन माप कानून 1976 में वर्ष 1990 में एक संशोधन प्रस्तावित किया गया, जिसके अनुसार MRP स्थानीय कर सहित लिखना अनिवार्य किया गया ताकि दुकानदार ग्राहकों से लिखी हुई कीमत से अधिक मूल्य न वसूल सकें। कहने के लिए तो यह संशोधन ग्राहकों के हित संरक्षण के लिए था, परन्तु इससे उत्पादकों की लाटरी खुली। अपने​ देश में संघीय व्यवस्था होने के कारण अलग अलग राज्यों में एक ही वस्तु पर करों की दरें अलग-अलग हैं। उत्पादकों नें MRP लिखने के लिए वस्तु के मूल्य में जिस राज्य में कर की दर सबसे अधिक थी उसको जोड़ा, जिसके कारण जिन राज्यों में कर की दरें कम थी, वहां के ग्राहकों को वस्तु की अधिक कीमत चुकानी पड़ने लगी।

वजन माप कानून का यह संशोधन उत्पादकों को इतना मुफीद लगा कि हर दूसरी वस्तु यहां तक कि कृषि उत्पादों की भी पैकिंग की जाने लगी। वस्तु​ के पैकिंग खर्च की चिंता इसलिए नहीं थी, क्योंकि वस्तुओं पर MRP लिखने का कोई आधार सरकार ने निर्धारित नहीं किया था। उत्पादक अपनी इच्छा से वस्तु पर कितनी भी MRP लिख सकते थे। इस कारण बाजार में पैक वस्तुओं की बाढ़ आने लगी। पैक की हुई वस्तुओं की अनावश्यक बाढ़ आने के बाद भी, न तो इस ओर किसी का ध्यान गया, न ही किसी ने इस बात का विचार किया कि पैकिंग में काम आने वाली सामग्री गन्दगी फैलाने के साथ साथ पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रही है, प्राकृतिक संसाधनों का अनावश्यक विनाश कर रही है।

उत्पादनों पर छापी गई MRP ग्राहकों को भ्रमित करती है। उन्हे यह विश्वास दिलाती है कि वस्तु का छपा मूल्य प्रामाणिक है। बाजार भी ग्राहकों में MRP को गलत तरह से प्रचारित व प्रस्तुत करते हैं। उन्हे यह समझाते हैं कि वस्तु पर लिखी कीमत सरकार द्वारा कानूनन निर्धारित की गयी है, जो पूरी पूरी​ तरह झूठ होता है। ग्राहक पंचायत ने अपने सर्वेक्षण में यह पाया है कि वस्तुओं पर छापी गई MRP उनके वास्तविक मूल्य की 200 से 500 गुना तक अधिक होती है। दवाओं के मामले में तो यह वास्तविक मूल्य की 1000 से 5000 गुना तक अधिक छापी जाती हैं। 

MRP छाप कर ग्राहकों को लूटने की सरकार द्वारा दी गई छूट के बाद, उत्पादकों तथा व्यापारियों के लिए यह आवश्यक था कि ग्राहकों में MRP के आधार को विकसित किया जाये, ताकि ग्राहक की आदत में MRP को वस्तु की न्याय कीमत(Just Price) समझा जाने लगे। जिससे ग्राहकों की लूट अबाधित चले, उनका मुनाफा बढ़े। इस काम का बीड़ा उठाया मार्केटिंग के क्षेत्र में उतरे कार्पोरेट जगत नें,  उन्होंने सबसे पहले बाजार के रंग रूप, आकार व प्रकार को बदला। वस्तुओं को बेचने के आधार, प्रकार, तरीके, साज सज्जा को भी पूरी तरह बदल दिया। अब ग्राहक वस्तुओं की खरीद व मनोरंजन साथ साथ करता है, जिसके कारण उसको न तो वस्तु की पूरी जानकारी प्राप्त करने की सुध रहती है, न ही बाजार में चार स्थानों पर वस्तु का मूल्य पूछकर उसका वास्तविक मूल्य जानने की सुविधा। उसे तो यह भी नहीं मालूम कि उत्पादकों को एक ही वस्तु पर अलग-अलग MRP लिखने की छूट भी मिली हुई है और वह इस छूट का पूरा लाभ उठा रहे हैं। वह वस्तु पर छपी MRP को ही वस्तु का न्याय मूल्य समझने की प्रक्रिया में लग चुका है। मार्केटिंग में लगे कार्पोरेट भी ग्राहकों से मूल्य MRP के आधार पर ही वसूलने में लगे हैं, साथ ही MRP पर छूट प्रस्तावित कर ग्राहकों को MRP की तरफ आकर्षित करने के प्रयास में जुटे है, ताकि बाजार में MRP वस्तु के न्याय मूल्य के रूप में स्थापित हो सके। 

MRP द्वारा ग्राहकों की लूट का यह खेल सार्वजनिक हुआ ई-मार्केटिंग कम्पनियों के उदय एवं प्रसार के साथ, जब ग्राहकों को अहसास हुआ कि ई-मार्केटिंग कम्पनियां उन्हें MRP पर 60% तक छूट किस तरह देने में सक्षम हैं, जबकि उनको वस्तु को कूरियर द्वारा भेजने का अतिरिक्त खर्च भी वहन करना पड़ता है। बाजार तथा कार्पोरेट मार्केटिंग वाले अपनी पोल खुलती देख पहले तो रोते चीखते सरकार की तरफ भागे। वहां से किसी तरह की इमदाद न मिलने पर ग्राहकों के बीच ई-मार्केटिंग कम्पनियों के सम्बन्ध में तरह तरह की अफवाहें फैलाने में जुट गए। ग्राहक यहां एक बात जान लें, 60% तक छूट MRP पर देने के बाद भी ई-मार्केटिंग कम्पनियां उत्पादकों/वितरकों से 30% तक कमीशन तथा कूरियर का खर्च भी वसूल करती हैं। उत्पादक/वितरक इसके बावजूद भी कम से कम उचित लाभ तो प्राप्त कर ही लेते हैं। अब आप खुद ही समझ लीजिए MRP के इस मायाजाल के कारण चलने वाली लूट को।

इससे बचने के लिए ग्राहकों के पास फिलहाल एक ही मार्ग बचता है। SHUFUREN जापानी महिलाओं की तरह संगठित होने और जहां कहीं आवश्यकता हो, बहिष्कार करने की, फिर बात चाहे पारम्परिक बाजार की हो या फिर कार्पोरेट मार्केटिंग द्वारा स्थापित बाजारों की ?

Monday 6 February 2017

मुलायम ने शिवपाल को ठिकाने लगाया

मुलायम को नेताजी बनाने और देश की राजनीति को शिखर तक पंहुचाने में शिवपाल की भूमिका कौन नहीं जानता। यह सही है कि मुलायम से उम्र में 16 साल छोटे शिवपाल ने अपना राजनीतिक सफर अपने बड़े भाई की अगुवाई में ही शुरू किया। शिवपाल को भी मुलायम से पिता जैसा प्रेम मिला और वह भी अपने बड़े भाई के साथ पार्टी मजबूत करने में जी जान से जुट गये। उन्हे अपने बड़ेभाई के आगे बढ़ने में अपनी उपेक्षा जैसी भावना छू भी नहीं गई थी। वह अपने बड़े भाई से इतने एकात्म थे कि स्वार्थ उनके पास आने से भी घबराता था। मुलायम ने भी उन्हें भरपूर प्यार और सम्मान दिया। परन्तु अपने अत्यधिक नजदीकी को भी अवसर आने पर स्वार्थ साधने के लिए पटखनी न दे वह राजनीति ही क्या?

शिवपाल को अपने पिता जैसे बड़े भाई पर जरा भी संदेह नहीं था कि वक्त आने पर वह अपनी विरासत उनको सौंपेंगे। उधर राजनीति में अखिलेश की सक्रियता, मुलायम को कुछ अलग सोचने को मजबूर कर रही थी। शिवपाल पर अपना प्रेम दिखाने का मौका मुलायम को 2012 के यूपी चुनाव के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपने का मिला। यह वह अवसर था जहां से शिवपाल और अखिलेश की सीमायें निर्धारित होनी थी। अखिलेश की चिंता थी यदि चाचा को कुर्सी मिली तो वह काफी समय खींच लेंगे, इस दौरान यदि मुलायम निकल लिए तो चाचा पुत्र मोह में बेटे आदित्य को उन पर तजरीह न दे दें। राजनीति की द्रष्टि से समाजवादी पार्टी में सत्ता के बंटवारे का यह अहम् पडाव था। यहीं मुलायम ने शिवपाल को पहला गच्चा दिया। मुलायम ने अखिलेश की मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी की तथा शिवपाल को यह समझाया कि पार्टी को नया व युवा चेहरा मिलने से हमें देश की राजनीति में विशेष भूमिका प्राप्त करने में मदद मिलेगी। अखिलेश अभी नया है, सिर्फ नाम के लिए कुर्सी पर बैठा है, संभी कुछ संभालना तो तुम्हें ही है।सरल हृदय शिवपाल भाई और भतीजे का यह चक्रव्यूह समझ न सके, उसमें फंस गए।

मुलायम और अखिलेश के सामने अब सबसे बड़ी चिंता शिवपाल के राजनीतिक प्रभाव को पार्टी में कम और समाप्त करने की थी। इसके लिए दोनों ने मिलकर जो जाल बुना उसमें मुलायम के जिम्मे शिवपाल को साधने और अखिलेश के जिम्मे बगावती तेवर दिखाने का काम था। अखिलेश दो वर्षों तक तो शिवपाल को मुख्यमंत्री की तरह व्यवहार करने की छूट दिये रहे, फिर धीरे धीरे शिवपाल का विरोध करने लगे। अखिलेश यह जानते थे कि विरोध किस सीमा में और कितना किया जाये, जिसके कारण शिवपाल भड़ककर रस्सी ही न तोड़ डालें । उधर मुलायम शिवपाल से चिपक लिए, यह दिखाने लगे कि वह भाई को बेटे से अधिक मानते हैं। इसी क्रम में वह भाई के साथ खड़े होकर सार्वजनिक मंचों से भी अखिलेश की आलोचना करने से नहीं चूके। 

सरल हृदय शिवपाल भाई की भक्ति में अन्धे होकर मुलायम के नाटक को सच मानते रहे। अखिलेश सत्ता के बंटवारे को चुनाव के पहले ही निर्णायक बनाना चाहते थे, ताकि सत्ता मिलने के बाद संघर्ष होने पर यदि पार्टी दो फाड़ होती है। तो कहीं पार्टी का बहुमत न चला जाये और शिवपाल भाजपा के साथ मिलकर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक न पहुंच जाएं। अत: अखिलेश ने अंतिम​ चरण में पूरी बगावत कर दी। अब मुलायम को अपनी भूमिका निभानी थी। वह शिवपाल को साधे रहे, अखिलेश को गाली देते रहे। यहां तक कि शिवपाल के कहने पर अखिलेश को पार्टी से निकालने का नाटक भी कर दिया। झगड़े को चुनाव आयोग भी पंहुचा दिया, परन्तु चुनाव आयोग के सामने बेटे का विरोध न कर साइकिल चुनाव चिन्ह भी उसे दिलवा दिया।

मुलायम और अखिलेश ने मिलकर आपरेशन शिवपाल पूरा कर लिया। अब शिवपाल और उनके बेटे की समाजवादी पार्टी में औकात विधायक या सांसद का टिकट मांगने पर सिमट गई है। टिकट देना न देना अखिलेश पर निर्भर करता है। मुलायम और अखिलेश इतने चालाक हैं कि उन्होंने यह व्यवस्था भी जमा ली कि यदि चुनाव में शिवपाल मुलायम की असलियत सूंघ रस्सी तुड़ा कर भागें, तो भी अखिलेश को होने वाले नुकसान को पूरा किया जा सके। कांग्रेस से चुनाव पूर्व उदार समझौता इसी रणनीति के तहत है। राजनीतिक पंडित शायद इसे समझे नहीं या फिर अन्य कारणों से इसे अभिव्यक्ति नहीं दी। आज पार्टी पर अखिलेश का पूरी तरह कब्जा है, मुलायम नाटक पूरा कर अखिलेश और कांग्रेस के प्रचार को तैयार हैं। शिवपाल अपनी विधायकी बचाने और अपने बेटे का राजनीतिक भविष्य बचाने की कोशिश में लगे हैं।

Sunday 5 February 2017

ट्रेन में यात्रियों से रोज 4 करोड़ 60 लाख लूट रहे पैन्ट्री वाले

एक अनुमान के अनुसार रेल में प्रतिदिन 2.3 करोड़ यात्री सफर करते हैं। इन यात्रियों को. अधिकृत वेटरों द्वारा खाना सप्लाई करने में अबाधित लूट का सिलसिला कई वर्षों से चल रहा है। इस लूट में वेटर, पैन्ट्री मैनेजर, कैटरिंग ठेकेदार व रेल अधिकारी सभी सम्मिलित हैं। लगातार लगातार​ सघन प्रवास के बाद भी हमारा ध्यान इस तरफ इसलिए नहीं जा सका क्योंकि हमारे भोजन का प्रबंध हमारे कार्यकर्ता करते हैं, जो बीच सफर में भी स्टेशन पर आकर हमें भोजन दे जाते हैं। ट्रेन यात्रियों की भोजन में होने वाली लूट की तरफ हमारा ध्यान हमारे एक मित्र ने खींचा, जिसने इस लूट के खिलाफ आवाज उठाई। हम उसकी आवाज को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। आगे की कहानी मै अपने मित्र के ही शब्दों में बताता हूं।


अपने कार्य की प्रकृति के कारण मुझे अक्सर सफर करना पड़ता है। ट्रेन में मिलने वाले खाने को लेकर मैं अक्सर आशंकित रहता था कि कहीं कुछ गलत हो रहा है। पिछले सप्ताह मैं विशाखापट्टनम से हावड़ा का सफर यशवंतपुर हावड़ा एक्सप्रेस द्वारा कर रहा था। मैने वेटर से एक शाकाहारी खाना लाने के लिये कहा। कीमत पूछने पर वेटर ने मुझे ₹90 बताया। अब मैं खाने की सही कीमत जानने के प्रयास में लगा। मैं हैरान रह गया जब मैंने IRCTC Help: IRCTC Latest Food Menu Rates, नाम की वेबसाइट खोली। ट्रेन में वेटर यात्रियों को जो शाकाहारी खाना ₹90 व मांसाहारी भोजन ₹100 में बेच रहा था, वेबसाइट पर उसकी कीमत क्रमश: ₹50 व ₹55 ही लिखी हुई थी। इसके अतिरिक्त एक अन्य विकल्प स्टैन्डर्ड थाली मील के रूप में ₹35 शाकाहारी व ₹40 मांसाहारी के लिए भी मौजूद था। अपनी लूट को व्यापक बनाने के लिए पैन्ट्री वाले इस विकल्प को हमेशा नदारद ही रखते हैं।

जब वेटर पैसे लेने आया और उसने मुझसे ₹90 मांगे तो मैंने उससे रेट कार्ड दिखाने को कहा। वेटर ने रेट कार्ड जैसी किसी वस्तु के अपने पास होने से इनकार किया। जब मैंने उसे वेबसाइट पर लिखे रेट पढ़ाये तो वह मुझसे ₹50 लेने के लिए तैयार नहीं गया और प्रार्थना करने लगा कि मैं यह बात किसी. और से न कहूं। मैं इतने अधिक गुस्से में था कि 13 बोगियों वाली ट्रेन के सभी डिब्बों में, खाना लेने वाले सभी यात्रियों को यह बात बता आया। मैं पैन्ट्री कार में भी गया। वहां जब मैंने मैनेजर से रेटकार्ड मांगा तो पहले तो वह टालमटोल करने लगा, फिर बोला रेट कार्ड खो गया है, वह जल्दी ही दूसरा ले आयेगा। पैन्ट्री का मैनेजर भी वेटर की तरह ही, लगभग वही जवाब दे रहा था,. जैसे यह पहले से ही तय था कि इस तरह की स्थिति आने पर किस को क्या कहना और करना है। लगभग यही स्थिति सभी ट्रेनों की पैन्ट्री कारों व जिन ट्रेनों में पैन्ट्री नहीं होती, स्टेशनों से खाना सप्लाई किया जाता है, वहां की है।

पैन्ट्री का मैनेजर हर सम्भव कोशिश कर रहा था कि मैं कम्पलेन्ट बुक में शिकायत न लिखूं। अत: काफी हीला हवाली और आधा घंटा लगाने के बाद उसने कम्पलेन्ट बुक मुझे यह कहते हुये दी कि इसको कौन देखता है और उनके नीचे से ऊपर तक सम्बन्ध हैं। यही नहीं उसने मेरी शिकायत शिकायत​ पर यह टिप्पणी भी लिखी कि यह यात्री इरादतन जब भी सफर करता है शिकायत करता है तथा इससे अमुक अमुक बिल नम्बर के द्वारा ₹50 ही लिए गये हैं।

ट्रेन में रोजाना 2.3 करोड़ सफर करने वाले यात्रियों में यदि 5% यात्री भी खाना लेते हैं, तो यह संख्या 11,50,000 होती है। ₹40 प्रति यात्री अधिक वसूलने पर रोजाना 4 करोड़ 60 लाख रुपये यात्रियों से लूट लिए जाते हैं। यह स्थिति सभी ट्रेनों की पैन्ट्री कारों व जिन ट्रेनों में पैन्ट्री नहीं होती, स्टेशनों से खाना सप्लाई किया जाता है, वहां की है। रेलों की खानपान सेवा में यह अपराध संगठित रूप से चल रहा है। रेल मंत्रालय इस तरफ आंख बन्द कर बैठा है।

अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत रेल मंत्रालय से मांग करती है कि इस लूट को तुरंत रोका जाये। रेल स्टेशनों व ट्रेनों में जगह जगह खान-पान सेवा के रेट कार्ड बोर्ड लगाकर इसे प्रचारित किया जाये। रेल पैन्ट्रियों व स्टेशनों पर भोजन के दोनों विकल्प पर्याप्त मात्रा में यात्रियों को उपलब्ध कराये जायें। ग्राहक पंचायत को अनेकों यात्रियों से शिकायत मिलती है कि वेटर मांगने पर भी बिल नहीं देते। अत: पारदर्शी व्यवहार के लिए यात्रियों को बिल देना अनिवार्य किया जाये। यात्री भी रेलों में कोई भी खाद्य पदार्थ खरीदते समय रेट कार्ड दिखाने का आग्रह करें तथा बिल मांगें। अपनी शिकायत लिखने में किसी प्रकार की कोताही न करें।

Friday 3 February 2017

बजट में दिखा सरकार का अलग चाल, चेहरा और चरित्र




2017-18 के लगभग 21.5 लाख करोड़ रुपए के बजट ने नेपथ्य में गये भाजपा के चाल, चेहरे व चरित्र के नारे को मुखरित कर दिया। बजट में मोदी​ सरकार का देश की आज़ादी के बाद अब तक आई तमाम सरकारों से अलग चाल, चेहरा और चरित्र स्पष्ट नजर आया। सत्ता में रहते सभी धन बटोरने के जुगाड़ में ही रहते थे। यह कठिन बात है कि इस स्थिति में कोई अपने परही अंकुश लगाने. का साहस दिखाये। समाज जीवन में पारदर्शिता लाने के लिए मोदी सरकार ने राजनीतिक दलों पर सिर्फ 2000 रु तक नकद लेने की सीमा ही नहीं लगाई, आय कर में छूट लेने के लिये इन पर तमाम अनुशासन पालन करने की शर्तें भी लगा दी।

बजट इस दृष्टि से से भी महत्वपूर्ण​ है कि इस समय दुनिया के तमाम समृद्ध देश अपनी आन्तरिक व्यवस्थायें, जिनमें आर्थिक व्यवस्था विशेष है, संवारने और सुधारने में लगे हैं। जैसे ब्रिटेन ने यूरोपीय यूनियन छोड़ दी, अमेरिकी ट्रम्प सरकार तमाम बदलाव करने में लगी है। धीरे धीरे विश्व में यह प्रचलन बढ़ेगा। इससे यह स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं कि 90 के दशक से चला वैश्वीकरण का ताना बाना आगे चलकर कमजोर पड़ने की पूरी सम्भावना है। अत: हमें भी अपने आर्थिक आधार को मजबूत व स्वावलम्बी बनाने की जरुरत है।  

आज भी भारत का मुख्य आर्थिक आधार गांव व किसान ही है। जो जीडीपी में बहुमूल्य योगदान के साथ देश को आर्थिक मजबूती के साथ रोजगार देता है। बजट में गांव और किसान की चिंता की गई है। किसानों को कर्ज़ देने के लिए धन का आवंटन बढ़ाने, 60 दिन के कर्ज की माफी की व्यवस्था है। किसानों की सबसे बड़ी समस्या प्राकृतिक या किसी अन्य आपदा के चलते फसल नष्ट होना थी। इन स्थितियों में फसल बीमा किसानों के लिये बड़ी राहत है, यह योजना देश को मोदी सरकार की ही देन है। बजट में फसल बीमा के दायरे को बढ़ाया गया है। देश में आज भी आधे से अधिक खेती के लिये सिंचाई के लिए मौसम पर निर्भर है। मार्च 2017 तक 10 लाख तालाबों के पूरा होने होने​ के बाद और 5 लाख तालाब बनाने की योजना कृषि क्षेत्र की सिंचाई व ग्रामीण क्षेत्र की पानी की आवश्यकता को पूरा करेगी। मनरेगा में बढ़ाये धन से अधिक रोजगार तथा गांवों को सड़क से जोड़ना व बिजली उपलब्ध कराना, बहुसंख्य आबादी के जीवन स्तर को ऊपर उठाने के साथ ही, इन क्षेत्रों से शहरों की ओर होने वाले पलायन को रोकने में सहायक होगा।

बढ़ती आर्थिक असमानता विश्व के लिए चिंता का विषय है। अमीर पर अधिक व गरीब पर कम टैक्स लगाने वाली आदर्श टैक्स योजना अब तक किताबों में ही सिमटी थी। मोदी सरकार ने बजट में इसे किताबों से निकाल मूर्त रूप देकर आर्थिक असमानता पर प्रहार किया है। अब 3 लाख तक की आय करमुक्त होगी,. 5 लाख तक की आय पर 10% के स्थान पर 5% टैक्स  ही देना होगा। 50 लाख से 1 करोड़ तक की आय पर 10% सरचार्ज लगाने का प्रावधान किया गया है।

500-1000 रु के नोटों को बन्द कर मोदी सरकार तिजोरियों में बंद पैसे को पहले ही बैंको तक लाकर काले धन को टैक्स व जुर्माना लेकर सफेद बनाने की प्रक्रिया में लगी थी। भ्रष्टाचार व काले धन की उत्पत्ति को रोकने तथा अधिक से अधिक लोगों को टैक्स की परिधि में लाने के लिये बजट में अनेकों उपाय करने के साथ साथ, सरकार आवश्यकता के अनुसार नये नये कदम उठा रही है।

लघु एवं मध्यम श्रेणी के उद्योगों का देश की जीडीपी व रोजगार में बड़ा बड़ा योगदान है । इन्हे बड़े उद्योगों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में कठिनाई थी। इन उद्योगों को सशक्त करने के लिये इन्हे टैक्स में 5% की छूट दी गई. है, ताकि वह विकसित हो सकें। छोटे मकानों के निर्माण को मूलभूत ढांचे की श्रेणी देना, इस क्षेत्र को विकसित करने के साथ ही बड़ी संख्या में रोजगार निर्माण में सहायक होगा।

देश में आर्थिक अपराधों को रोकने की समुचित व्यवस्था का अभाव था। कोई भी व्यक्ति वित्तीय लेनदेन के व्यापार को खोल, गरीब ग्राहकों की लाखों करोड़ों की पूंजी लेकर गायब हो जाता था। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत इस सम्बन्ध में अनेकों वर्षों से प्रभावी नियम कानून कानून​ बनाने की मांग कर रही थी। बजट में इसे रोकने की व्यवस्था के साथ ही जो लोग बैंको का पैसा लेकर. विदेश भाग जाते थे, उनकी सम्पत्ति जब्त करने संबंधी कानून बनाने की बात है।

2016-17 के बजट में राजस्व घाटा 2.3% प्रस्तावित था। इस घाटे को 2.1% पर समेट कर सरकार ने अपनी कथनी और करनी को एक सिद्ध कर दिया है। FRBM कमेटी ने बजट के वित्तीय घाटे को 3% सीमित करने की अनुशंसा की थी। वित्त मंत्री ने इस अनुशंसा के अनुरूप इसका लक्ष्य जीडीपी का 3.2% निर्धारित किया है।

सभी जानते हैं कि आर्थिक प्रगति करने में किसी भी देश को पर्याप्त समय लगता है। यह बात 70 वर्षों से बजट द्वारा स्वार्थ साधने वालों को न तो दिखाई देगा, न समझ आयेगा। इसीलिए वह अच्छे दिन की आहट सुन पाने में असमर्थ हैं। देश ने अब तक जैसा देखा है, अनेकों वर्षों तक लगातार रहने वाली सरकारें भी इस बजट में लिए गये निर्भीक व जोखिम भरे निर्णय लेने से कतराती हैं। चाहे यह निर्णय देश की प्रगति के लिए आवश्यक ही क्यों न हों, मोदी सरकार ने देशहित को तरजीह देते हुए सर्वहारा की भलाई के लिये भविष्य की दिशा निर्धारित करने वाला बजट प्रस्तुत कर अपनी सरकार के अलग चाल, चेहरे व चरित्र की प्रामाणिकता सिद्ध कर दी है।