Thursday 6 April 2023

कृषि कानूनों की वापसी किसानों पर भारी पड़ रही है।

 वर्ष 2020-21 का किसान आंदोलन और तीनों कृषि कानूनों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा वापस लिए जाने को देश भूल चुका है, क्यों ना भूले किसान जो चाहते थे, उन्हें वह मिल गया। बाकी देश का उससे लेना-देना भी क्या, जो उसे याद रखे। आंदोलन के समय विभिन्न समूह और सरकार लगातार यह बात कहते रहे कि यह तीनों कानून किसानों के हित में हैं। कानूनों के प्रावधानों से किसानों को कोई परेशानी है, उन पर चर्चा कर उन्हें बदला जा सकता है। परंतु किसान आंदोलन का नेतृत्व किसान नहीं कर रहे थे। मोदी विरोधी राजनीतिक दलों के हाथ में इस किसान आंदोलन का नेतृत्व था, जिसके तार विदेशों तक फैले थे, जो मोदी को असफल और परेशान देखना चाहते थे। वह किसी भी तरह मोदी को नीचा दिखाना चाहते थे। अतः वह किसानों को बेवकूफ बनाते रहे, किसान इन विपक्षी नेताओं के झांसे में आकर उनका दिया झुनझुना बचाते बजाते रहे। अंततः मोदी सरकार ने 19 नवंबर 2021 को तीनों कृषि कानून वापस ले लिए।



सरकार की इस कार्यवाही से विपक्षी राजनीतिक दलों की तो बांछे खिल गई। उनको विजेता होने का एहसास भी हुआ। जिसकी पूरी कीमत किसानों ने चुकाई। परंतु किसान ना तो यह समझ पाया, ना ही यह सोच पाया कि उसने क्या खोया है या उसे क्या मिला है। इसी कशमकश में किसान 1 वर्ष बाद फिर अपनी 70 वर्ष पुरानी उन्हीं खस्ताहाल मांगों और समस्याओं को लेकर दिल्ली के मुहाने को ताकने के लिए मजबूर है। तीनों कृषि कानूनों की वापसी न तो सरकार की हार थी और ना ही विपक्षी राजनीतिक दलों की जीत। कानूनों की यह वापसी किसानों की बहुत बड़ी हार थी। किसानों की फसलों के लाभकारी मूल्य दिलाने की दिशा में सरकार के द्वारा किए जाने वाले प्रयास को किसानों ने खुद ही पलीता लगा दिया। वह भी विपक्षी राजनीतिक दलों और बाजार के दलालों के बहकावे में आकर।


यही वजह है कि कृषि कानून किसानों को जिस दलदल से निकालना चाहते थे, उसी में फंसे रहने को उन्होंने बेहतर समझा। कानून वापस हुए बमुश्किल 1 साल ही बीता है, किसान अपनी पुरानी दुर्दशा में वापस लौट चुका है। वह यह समझ ही नहीं पाया कि APMC मंडियों पर राजनीतिक दलों और व्यापारी/दलालों का कब्जा होता है। वर्तमान सरकारी कानून किसानों को उनके जाल में फंसे के लिए मजबूर करते हैं। तीनों कृषि कानून किसानों को इस जाल से निकालने के लिए सरकार लाई थी। परंतु किसान जाल काटने वाले का साथ देने की जगह, उन जाल फैलाने वाले के साथ खड़े हो गए। जो निर्धारित बाजारों में अपने उत्पादनों को बेचने आए किसानों को जमकर लूटते हैं। तीनों कृषि कानून वापस लिए जाने के बाद, उन्हें बचाने के लिए न तो कोई कानून है। ना ही विपक्षी राजनीतिक दलों के नेता सामने आते हैं और ना ही वह व्यापारी/दलाल किसानों पर दया दिखाते हैं। जिन्होंने तीनों कृषि कानूनों के विरोध में किसानों को जबरदस्त भड़काया था। उदाहरण देखिए -
आम का मौसम आ गया है। बाजार में आम थोड़ा बहुत दिखाई देने लगा है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना का आम के उत्पादन में महत्वपूर्ण स्थान है। यहां के आम की बैगनपल्ली किस्म ने पूरे भारत के आम बाजार में अपनी पैठ बनाई है। तेलंगाना में करीमनगर जिले के चिंतकुंता गांव के, पी कृष्णैय्या बताते हैं कि उन्होंने आमों की वर्तमान फसल के उत्पादन के लिए ₹7 लाख खर्च किए। जिसमें रासायनिक खाद, यातायात और मजदूरी आदि खर्च सम्मिलित है। पिछले वर्ष बाजार में आम की फसल ₹70,000 से ₹90,000 प्रति टन अर्थात ₹70 से ₹90 प्रति किलो के भाव से बिक रही थी। लेकिन 2 दिन पहले जब वह अपनी बैगनपल्ली आम की फसल लेकर हैदराबाद की गड्डीनाराम मंडी में पहुंचे तो उनके पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। व्यापारी/दलाल उनकी आम की फसल के ₹40,000 से ₹50000 प्रति टन का भाव लगा रहे थे। कृष्णैय्या का कहना है कि इस हिसाब से तो उनके द्वारा आम की फसल पर खर्च किए गए ₹7 लाख में से ₹6 लाख डूब जाएंगे।


वह आगे बताते हैं कि 1 टन आम के लिए भी उनको पूरे ₹50000 नहीं मिलते हैं। इसमें से व्यापारी दलाल अपना कमीशन और मार्केट शुल्क काटकर ही उनको पैसा देता है। नागरकुरनूल जिले के राम कृष्णा 1 टन से अधिक आम लेकर मंडी में पहुंचे थे। परंतु उन्हें सिर्फ ₹60,000 लेकर ही संतोष करना पड़ा।


आम की फसल अभी आनी शुरू हुई है बैगनपल्ली आम ने पूरे देश में अपनी मंडी बना ली है। ग्राहकों को भी यह आम अच्छा खासा पसंद आता है। न तो आम की मांग में अभी कोई कमी है और ना ही स्वाद में। किसानों को पाठ पढ़ाकर व्यापारी/दलाल भले ही उनका माल सस्ते दामों में ऐंठ लें, लेकिन बाजार में ग्राहकों को आज आम ₹100 से ₹150 प्रति किलो के भाव से खरीदना पड़ रहा है। यानी किसानों को उनके उत्पादन का बाजार मूल्य के आधे से भी कम व्यापारी/दलाल दे रहे हैं। यानी तीनों कृषि कानून जिन व्यापारी दलालों के दबाव बनाने पर किसानों ने वापस लेने के लिए सरकार को मजबूर किया। वही व्यापारी/दलाल उन तीनों कानूनों के अभाव में किसानों को जमकर लूट रहे हैं।


ताज्जुब इस बात का है कि नागरकुरनूल जिले के एक अन्य किसान नरसिम्हा का कहना है कि हमें अपने आम बेचने के लिए नए बाजार उपलब्ध कराए जाएं। क्योंकि गड्डीनाराम पूरे तेलंगाना में आम बेचने की एकमात्र मंडी है। अरे भाई यही संरक्षण तो मोदी सरकार के द्वारा बनाए गए कृषि कानून किसानों को दे रहे थे। यदि मोदी सरकार के द्वारा बनाया पहला कानून कृषि उत्पाद ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एवं फेसिलेसन) कानून 2020, आज लागू होता तो किसानों को अपने आम बेचने के लिए 1या 2 नहीं, हजारों मंडियां उपलब्ध थी। किसान अपने आमों को देश के अन्य राज्यों में भी बेच सकते थे। उन्हें अपने आमों को लेकर हैदराबाद तक भी ना आना पड़ता। बीच रास्ते में किसी भी स्थान पर वह अपना उत्पादन बेचने के लिए स्वतंत्र थे। या फिर देश के व्यापारी खुद उनके गांव तक उनकी आम की फसल खरीदने के लिए पहुंच जाते। मोदी सरकार के द्वारा बनाए दूसरे कानून से तो किसानों का और भी बड़ा लाभ जुड़ा था। जिन किसानों ने आम की वर्तमान फसल लेने के लिए ₹7 लाख से ₹10 लाख निवेश किए शायद उन्हें इस रकम का निवेश भी न करना पड़ता। क्योंकि व्यापारी/दलाल उनके ही गांव पहुंचकर उनसे एग्रीमेंट करते कि आप अपने आम की फसल हमें बेचें और हम आपसे आपके आम की फसल, किस दाम पर खरीदेंगे। यह एग्रीमेंट करने के साथ ही व्यापारी किसानों को कुछ अग्रिम राशि भी देते। जिससे किसानों को अपनी जेब से लागत मूल्य ना लगाना पड़ता।


पर "अब पछताए होत क्या, चिड़िया चुग गई खेत" वाली स्थिति नहीं है। परिस्थितियां अभी भी किसानों के ऊपर निर्भर हैं। वह सरकार से तीनों कृषि कानूनों को दोबारा वापस लाने की मांग कर सकते हैं। यह अलग बात है की उनको यदि तीनों कानूनों के प्रावधानों में कुछ कठिनाई नजर आती है। तो उनको संशोधित करने का प्रस्ताव भी सरकार को दे सकते हैं। फैसला अब किसानों के हाथ में है। वह निर्धारित मंडियों में ही अपना माल व्यापारी/दलालों के द्वारा तय की गई कीमतों पर बेच कर लुटते रहना चाहते हैं या फिर अपने लिए स्वतंत्र बाजार चाहते हैं। जहां उनके माल का मूल्य मांग एवं पूर्ति के आधार पर तय हो न की व्यापारी दलालों की मर्जी के आधार पर।

तीनो कृषि कानून, ग्राहक और किसान

 ग्रामीण आर्थिक संरचना से संबंधित कोई नया कानून बनाने या किसी प्रचलित कानून को बदलने से पहले, सरकारों को यह ध्यान रखना चाहिए कि ग्रामीण संरचना के लिए बनाए जाने वाले आर्थिक कानूनों का स्वरूप विशुद्ध रूप से आर्थिक नहीं हो सकता। इन कानूनों को आर्थिक-सामाजिक स्वरूप के रूप में ही लिया जाना चाहिए। इसी आधार पर इनको सही तरीके से विकसित कर लागू किया जा सकता है। इसी स्वरूप में इन कानूनों को लागू करने पर सफलता व आशा के अनुरूप परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। सरकार द्वारा तीनों कृषि कानूनों को लागू करते समय बस यही चूक हो गई। जिसका पूरा लाभ विपक्षी राजनीतिक दलों और उनकी विचारधारा से प्रभावित किसान नेताओं ने किसानों को बरगला कर उठाया। जिसके कारण अंततः सरकार को किसानों के लाभ के लिए बनाए तीनों कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा। यदि पूर्व में ही इन कानूनों की आधारभूत आर्थिक- सामाजिक संरचना को लेकर कुछ कार्य कर लिया जाता। किसानों को आने वाले सामाजिक बदलाव के बारे में कल्पना दे दी जाती या इन कानूनों को लागू करने के लिए एक सामाजिक संरचना बनाने की दिशा में प्रयास शुरू होता नजर आता, तो किसान हित के यह कानून सफलतापूर्वक लागू हो जाते।


यदि तीनों कृषि कानूनों के मूल ढांचे का विचार किया जाए तो यह कानून ग्रामीण संरचना से संबंधित आर्थिक कानून होने के साथ ही सामाजिक स्वरूप में भी बदलाव लाने वाले हैं। क्योंकि यह कानून आर्थिक पक्ष के साथ-साथ किसानों के बीच वर्षों से प्रचलित व्यवस्था में भी परिवर्तन लाने वाले थे। अतः इन कानूनों के सामाजिक पक्ष पर भी कार्य करने की आवश्यकता थी। किसानों के बीच यह समझ विकसित की जानी थी कि अपनी उपज की बिक्री हेतु वह आवश्यक समुचित मात्रा की व्यवस्था किस प्रकार करें। उनकी उपज बेचने के लिए बाजार किस प्रकार विकसित होगा। बाजार विकसित करने में उनकी भूमिका क्या होगी। वह किस तरह उस बाजार तक अपनी पहुंच बनायेंगे। इन सभी व्यवस्थाओं से किसानों का परिचय जिन लोगों को कराना था। वह सब सरकार से राजनीतिक मतभेदों के चलते, किसानों को कानूनों के विरुद्ध बरगलाने में लग गये। सरकार ने भी कानून लाने के पूर्व इस दिशा में ध्यान नहीं दिया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात किसानों को यह समझाना था कि इस प्रक्रिया में किसानों की सहभागिता किस प्रकार की होगी। ताकि आने वाले समय में इस व्यवस्था में शोषणकारी तत्वों की उत्पत्ति ना हो सके।

ध्यान देने वाली बात यह है कि एपीएमसी कानून भी किसानों की भलाई के लिए ही बनाया गया था। इस कानून में भी आदर्श व्यवस्थायें थी। कानून के अनुसार किसान एक निर्धारित स्थान पर अपनी उपज लेकर आना था। उस स्थान पर विभिन्न व्यापारी/दलाल आपस में प्रतिस्पर्धा करते, किसानों को उनकी उपज का अधिकतम मूल्य मिलता। परंतु कालांतर में यह आदर्श व्यवस्था किसानों का शोषण करने वाली व्यवस्था बन गई। व्यापारियों/दलालों ने संगठित होकर, किसानों का शोषण शुरू कर दिया। किसानों के पास अपनी उपज बेचने के लिए कोई अन्य वैकल्पिक बाजार उपलब्ध न होने के कारण, वह इन्हीं बाजारों में आने और व्यापारियों/दलालों के हाथों लूटने के लिए मजबूर हो गए।


केंद्र सरकार अपने तीनों कृषि कानूनों में इन बातों का ध्यान तो रखा। कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम 2020 के अंतर्गत उसने किसानों को एपीएमसी के अतिरिक्त अपनी उपज बेचने के लिए असंख्य वैकल्पिक बाजार तो उपलब्ध करा दिए। यही नहीं, सरकार ने किसानों को उनकी उपज को बेचने में लिए जाने वाले टैक्स से भी राहत दी। परंतु वह किसानों को व्यापारियों की कारटेलिंग और अपनाए जाने वाले हथकंडों से बचाने का कोई ठोस आधार नहीं समझा सके। वह यह बताने में असफल रहे कि सरकार नये कानून में व्यापारी/दलालों को इन नवीन बाजारों पुराने हथकंडे अपनाने से कैसे रोकेगी। जिसके कारण किसान नेता और व्यापारी/दलाल उन्हें बरगलाने में सक्षम हुए। इसके पीछे विपक्षी राजनेताओं द्वारा किसानों को गुमराह कर सरकार को किसान विरोधी दिखाने की योजना भी काम कर रही थी।
प्रसिद्ध विचारक दार्शनिक दत्तोपंत ठेंगड़ी अपनी पुस्तक Consumer - Souvergen without Sourveginity में लिखते हैं -
किसानों को इस बात को याद रखना चाहिए कि ग्राहकों के द्वारा की जाने वाली उचित दामों की मांग और उनकी लाभकारी मूल्यों की मांग के बीच कोई भी असंगति नहीं है। यह दोनों मांगे दोषपूर्ण सरकारी नीतियों और योजनाओं के कारण परस्पर विरोधी लगती हैं।


ग्राहक या उनकी सहकारी संस्थाएं जहां कहीं पर भी किसानों के सीधे संपर्क में हैं। दोनों को ही इसका लाभ मिलता है। क्योंकि इस प्रक्रिया में मध्यस्थ और उनके द्वारा लिया जाने वाला कमीशन बच जाता है। अधिकतर वस्तुएं मध्यस्थों की एक लंबी श्रृंखला से होकर गुजरती हैं। इन दलालों की कीमत, किसान तथा ग्राहक दोनों को चुकानी पड़ती है। जहां कहीं राज्य मध्यस्थ की भूमिका में होता है। वहां भी इन स्थितियों में कोई अंतर नहीं आता।


कृषि फसलों के बारे में छोटे और मझले किसानों को तो बहुत ही विचित्र परिस्थिति का सामना करना पड़ता है। क्योंकि उनके पास फसल भंडारण की कोई सुविधा नहीं होती। दूसरी तरफ पूंजीपति बैंकों से कर्ज लेकर बहुत बड़ी मात्रा में भंडारण की सुविधा बना लेते हैं। नई फसलों के आने के पहले यह लोग समाचार माध्यम से प्रचारित करवाते हैं कि फसल बहुत अच्छी हुई है। यह प्रचार प्रमुख रूप से छोटे और मझोले किसानों पर मानसिक दबाव बनाने के लिए किया जाता है। ताकि किसान अपनी फसल बाजार में सस्ते दामों पर बेच दे। किसान गरीब होते हैं। वह बाजार में स्थितियों के बेहतर होने की प्रतीक्षा नहीं कर सकते। वह अपने उत्पादन को लंबे समय तक सुरक्षित रख पाने में भी असमर्थ होते हैं। यदि उत्पादन खराब होने वाला हो, तब तो स्थिति और भी गंभीर हो जाती है। किसान बिल्कुल असहाय हो जाते हैं। दलाल इस स्थिति का निर्दयता पूर्वक दोहन करते हैं। ग्राहकों को आवश्यक कृषि उत्पादनों की ऊंची कीमत चुकानी पड़ती है। लेकिन किसान न्यायपूर्ण मूल्य प्राप्त करने से वंचित कर दिए जाते हैं।


सरकार को उदाहरण के रूप में किसानों को उनकी फसलों के लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए कृषि कानून के अंतर्गत उपलब्ध कराए जाने वाले अतिरिक्त बाजारों को विकसित करने के कुछ मॉडल खड़े करने की आवश्यकता है। यह कार्य किसान संघ और ग्राहक संगठनों के साथ-साथ आने पर आसानी से संपादित है सकता है। किसानों को अपने गांव के आसपास ही बाजार मिले। ग्राहकों को उनकी फसलें उचित दामों पर उपलब्ध हो सकें। यह सिलसिला शुरू किए जाने की आवश्यकता है। एक बार इस सिलसिले के शुरू होने के बाद यह किसी के भी रोके रुकने वाला नहीं है।


किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए तथा उनकी फसलों के लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए प्रारंभिक तौर पर दो स्तरीय व्यवस्था बनाने की जरूरत है। पहले स्तर पर किसानों को ग्राम स्तर पर उनकी उपज बेचने के लिए संगठित करना। उपज के विक्रय मूल्य का निर्धारण करना। उपज की बिक्री हेतु नजदीक ही समुचित बाजार उपलब्ध कराना। इसके लिए किसान संघ और ग्राहक संगठन आपसी संपर्क बनाकर किसानों की फसल के लाभकारी मूल्य दिला सकते हैं। इन मूल्यों को देने के लिए ग्राहक सहर्ष तैयार हो जाएंगे।
इस व्यवस्था को सरकारी स्तर पर नहीं बल्कि सामाजिक आधार पर विकसित करना चाहिए। इसमें किसान संघ और ग्राहक संगठनों को प्रमुख भूमिका निभानी चाहिए। सरकार इन संगठनों को मूलभूत संरचनात्मक सुविधाएं उपलब्ध कराकर मदद दे सकती है। यदि कृषि उपज के निस्तारण की यह बाजार व्यवस्था विकसित हो गई, तो सदियों से चली आ रही किसानों और ग्राहकों के शोषण की कहानी का अंत हो जाएगा।


इस व्यवस्था का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि किसानों को अपनी आंखों के सामने अपनी उपज के निस्तारण की सुविधा नजर आएगी। जिसके कारण वह राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित किसान नेताओं के बरगलाने से प्रभावित नहीं होगा और के।फिर कानूनों के समर्थन में डटकर खड़ा होगा।

Sunday 8 January 2023

अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी थे, ग्राहक पंचायत के उपाध्यक्ष केदारनाथ पटेल

अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत के उड़ीसा प्रांत के उपाध्यक्ष सुंदरगढ़ के निवासी श्री केदारनाथ पटेल जी के आकस्मिक निधन से मैं स्तब्ध हूं। कुछ वर्ष पूर्व जब मैं उनके निमंत्रण पर ग्राहक पंचायत के एक कार्यक्रम में भाग लेने सुंदरगढ़ गया था। वह मुझे लेने झारसुगड़ा स्टेशन पर आए थे। झारसुगड़ा से सुंदरगढ़ जिला जो एक खनन क्षेत्र है, लगभग 15 किलोमीटर दूर है। हम उनकी कार से सुंदरगढ़ पहुंचे, रात हो गई थी। अतः उन्होंने मुझे मेरे विश्राम स्थल पर छोड़ दिया, उन दिनों उनकी माता जी अस्वस्थ थी, वह उनकी बहुत सेवा करते थे। उन्होंने मुझसे कहा कि माता जी की देखभाल के लिए उनका घर पर रहना आवश्यक है। अगले दिन प्रातः हम शाखा में जाकर कई स्वयंसेवकों से मिले। कार्यक्रम लगभग 11:00 से शुरू होना था। जिसमें केदारनाथ जी ने सुंदरगढ़ की कई तहसीलों से ग्राहक पंचायत के कार्यकर्ताओं को बुलाया था। कार्यक्रम की समाप्ति के बाद मुझे संभलपुर जाना था संभलपुर से मुझे लेने के लिए आने वाली गाड़ी में कुछ विलंब था। इस बीच हम दोनों उनके स्कूटर पर संभलपुर की सड़कों पर काफी देर तक घूमे। मुझे उनके साथ बिताया वह समय आज भी अच्छी तरह याद है।



श्री केदारनाथ जी अंतरराष्ट्रीय स्तर के एथलीट थे। तेज गति से चलने में उनका कोई सानी न था। उन्होंने तेज गति से चलने की अनेकों प्रतियोगिताओं में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का प्रतिनिधित्व किया था। जिसमें ओलंपिक तथा एशियाड जैसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताएं भी हैं। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के डरबन, इंग्लैंड के लंदन, ऑस्ट्रेलिया के मेलबोर्न के साथ ही चीन तथा अनेकों देशों में तेज गति से चलने की प्रतियोगिताओं में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। उन्होंने अनेकों पदक भी जीते। राष्ट्रीय स्तर की की प्रतियोगिताओं में भी उन्होंने भाग लेकर स्वर्ण पदक जीते।


अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी ने चलते चलते ही अपनी अंतिम सांस ली, रविवार की प्रातः केदारनाथ जी जो इन दिनों अपने पुत्र सस्मित के पास राउरकेला में रह रहे थे, प्रातः भ्रमण की स्वाभाविक दिनचर्या थी के कारण वह प्रायः घर से बहुत दूर तक भ्रमण करने निकल जाते थे। रविवार को भी ऐसा ही हुआ, वह भ्रमण करने अपने घर से काफी दूर तक निकल गए। उनके पुत्र सस्मित से पता चला कि सुबह दूधवाले ने उन्हें बताया कि वहां सड़क पर एक बूढ़ा आदमी गिर पड़ा है। उसे दिल का दौरा पड़ा है। उन्होंने कहा कि हम लोगों ने इस बात को साधारण तौर पर लिया और आपस में कहा भी कि बूढ़े व्यक्ति को इतनी सर्दी में घूमने के लिए नहीं निकलना चाहिए। परंतु जब पिताजी काफी देर तक घर नहीं लौटे, तो हम उनको ढूंढने पार्क तक गए, इधर उधर सड़कों पर भी उनकी तलाश की, परंतु वह नहीं मिले। जब हम उनकी तलाश में भटक रहे थे, हमें दूध वाले की बात याद आई, मैंने दूध वाले को फोन कर पूछा तो उसने बताया कि वह बूढ़ा व्यक्ति टोपी पहने हुए था। मेरे पिताजी हमेशा ही स्पोर्ट्स कैप लगाते हैं। अतः मैं दूधवाले के द्वारा बताएं स्थान पर पहुंचा। वहां कुछ दूर पीसीआर वैन खड़ी थी। जब हमने पुलिस वालों से पूछताछ की तो पता चला कि उन्होंने ही पिताजी को एंबुलेंस के द्वारा अस्पताल भिजवाया था।


ग्राहक पंचायत के ओजस्वी कार्यकर्ता और अंतरराष्ट्रीय स्तर के एथलीट श्री केदारनाथ जी के अचानक इस तरह चले जाने की घटना दुखद है मुझे रह रह कर उनके साथ बिताया गया 2 दिन का समय याद आता है। मेरे सुंदरगढ़ प्रवास के बाद भी अनेकों बार ग्राहक पंचायत की बैठकों में मेरी केदारनाथ जी से भेंट हुई सोशल मीडिया प्लेटफार्म व फोन के द्वारा उनसे अक्सर चर्चा होती रहती थी। मैं अंतर्राष्ट्रीय स्तर के इस एथलीट और ग्राहक पंचायत के कार्यकर्ता के आकस्मिक निधन पर अपनी भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। साथ ही ईश्वर से प्रार्थना करता हूं की उनके शोकाकुल परिवार को इस आकस्मिक क्षति को सहने की शक्ति प्रदान करे।


 हरि ओम!

Wednesday 4 January 2023

आनलाईन होटल बुकिंग में बड़ा घपला, पर्यटकों की लूट

 पर्यटक विशेष अवसरों पर होने वाली छुट्टियों में पर्यटन के लिए निकलते हैं। पर्यटन स्थल पर किसी प्रकार की असुविधा ना हो इस कारण पूर्व में ही विभिन्न ऑनलाइन एजेंसियों के माध्यम से होटल की बुकिंग भी करवा लेते हैं। पर्यटक सावधानी अपनाएं, ऑनलाइन होटल बुकिंग पर आंख बंद कर विश्वास करने से बचें, उन्हें पर्यटन स्थल पर कई समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है, यह ध्यान रहे। बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए, मैं एक सच्ची घटना का सिलसिलेवार वर्णन करता हूं। 

इस वर्ष क्रिसमस और नववर्ष की छुट्टियां गोवा में बिताने की मैंने योजना बनाई। इस अवसर पर गोवा में बहुत भीड़ होती है। अतः असुविधा ना हो इसलिए सितंबर माह में ही 26 दिसंबर से 28 दिसंबर तक, गोवा के पंजीम शहर में और 31 दिसंबर से 4 जनवरी तक गोवा के कैलेंगुटे शहर में एक ऑनलाइन एजेंसी के माध्यम से होटल भी बुक कर लिए। मैंने होटल बुकिंग की राशि चुका दी, ताकि कोई गलतफहमी ना रहे। परंतु मुझे मालूम नहीं था कि उधर पर्यटकों को ठगने के लिए, ऑनलाइन बुकिंग एजेंसी एवं होटल वालों के बीच पहले से ही एक अलग षड्यंत्र चलता है। जिसकी कार्य पद्धति लगभग सभी पर्यटन स्थलों पर एक जैसी ही है।


निर्धारित समय पर मैं गोवा के मडगांव पहुंच गया। वहां से टैक्सी द्वारा पणजी में होटल पहुंचने के लिए निकला। होटल के दिए पते पर पहुंचने के बाद मेरे पांव के नीचे से जमीन खिसक गई। होटल स्थल के आसपास रहने वाले बता रहे थे कि होटल तो कब का बंद हो चुका है। मैं सामान के साथ गोवा के पंजिम शहर में सड़क पर, उधर सीजन होने के कारण 500-600 रूपों में मिलने वाले होटलों के लिए, उनके मालिक 2500 से ₹3000 पर्यटकों से वसूल रहे थे। ऑनलाइन बुकिंग एजेंसी के ऐप और वेबसाइट पर होटल बुकिंग करने की तो सभी एक तरफा सुविधाएं मौजूद हैं। परंतु कठिन स्थितियों में पर्यटक बुकिंग एजेंसी से बात कर अपनी समस्या का समाधान पा सके, इस प्रकार की कोई सुविधा सरलता से आपको नजर नहीं आयेगी। यदि आप किसी प्रकार बुकिंग एजेंसी का संपर्क नंबर प्राप्त करने में सफल हो भी गये और वह आपकी मदद के लिए आगे आए, तो भी निश्चित मानिए आप से वसूले गए रुपयों के बदले वह आपको सस्ती और घटिया सुविधा उपलब्ध करवाएंगे। आप के पास मजबूरी में उस घटिया सुविधा को स्वीकार करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं होगा। यदि आप बुकिंग एजेंसी से संपर्क नहीं कर पाए, तो आप रामभरोसे टैक्सी में इधर उधर की खाक छानते घूमेंगे, पैसा और समय दोनों बर्बाद करेंगे, महंगे दामों में साधारण होटल की सुविधा लेकर अपना काम निकालने के लिए मजबूर हो जायेंगे। पर्यटन स्थल पर जाकर घूमने और मौज मस्ती करने की आपकी इच्छायें धरी रह जाएगी। मजे की बात यह कि आप जब भी बुकिंग एजेंसी वालों से संपर्क करने में सफल होंगे, वह सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र का अवतार बनकर आपका पूरा पैसा आपको वापस कर, आप पर एहसान लादने के लिए तैयार मिलेंगे। क्योंकि वह पहले ही आपको भटकने के लिए मजबूर कर आपके द्वारा बुक कराये गये होटल रूम को किसी अन्य को लेकर, अच्छा खासा पैसा कमा चुके होते हैं।


यह अपवित्र गठबंधन लगभग सभी राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय और स्थानीय ऑनलाइन बुकिंग एजेंसियों, होटल मालिकों के बीच चलता है, कुछ अपवाद छोड़कर। मुझे भी यही झेलना पड़ा, तुरंत नए होटल की खोज, अधिक पैसा देकर घटिया होटल में रुकने की विवशता और समय काटना। अभी कलंगुटे के एक होटल में, मेरी 31 दिसंबर से 4 जनवरी तक की बुकिंग बाकी थी। 31 दिसंबर को भी मैं, कलेंगुटे में बुक किए गए होटल की तलाश में भटका, परंतु यहां पर भी न तो मेरे द्वारा बुक किया गया होटल नहीं मिला। परेशान होकर मुझे अपना पर्यटन कार्यक्रम रद्द कर वापस घर लौटना पड़ा। क्योंकि वहां पर नये होटल की व्यवस्था कर होटल रुकना, अपने पूरे बजट का सत्यानाश करना था। परंतु ऐसे समय में क्या आपको आनन-फानन में रेल या बस का आरक्षण मिलना आसान है। आपको यात्रा भी अधिक पैसा देकर धक्के खाते हुए ही करनी पड़ेगी मुझे भी यही करना पड़ा।


रूकिए अभी कहानी में एक ट्विस्ट बाकी है इस प्रकार के अवसरों पर स्वाभाविक है कि कोई भी पर्यटक इंटरनेट, फोन पर होटल बुकिंग एजेंसी से संपर्क करने के लिए, उनके कस्टमर केयर के नंबर और ईमेल को सर्च करेगा। मैंने भी प्रयास किया, परंतु सफलता नहीं मिली। अगले दिन जब मैं ट्रेन द्वारा घर वापस लौट रहा था। मैंने एक बार फिर ऑनलाइन बुकिंग एजेंसी को सूचना देने के इरादे से उनका संपर्क सर्च किया। मुझे आश्चर्य हुआ की इस समय सर्च करते ही कस्टमर केयर का नंबर और वेबसाइट सामने था। जब मैंने कस्टमर केयर नंबर पर फोन मिलाया तो दूसरी तरफ से एक सज्जन बड़ी ही मधुर आवाज में बोले, आपकी असुविधा के लिए मुझे खेद है। मैं तुरंत आपके पूरे पैसे वापस करवा देता हूं। जब मैंने उनसे कहा कि ठीक है, अब आप यही कर सकते हैं। पैसे ही वापस करवाइए तो वह बोले कि पैसे वापस करने की एक प्रक्रिया है। मैं आपकी मदद करूंगा। आपको अपने रजिस्टर्ड मोबाइल के द्वारा इस प्रक्रिया को पूरा करना पड़ेगा। इतनी ही बात हुई थी कि जिस नंबर पर मैंने डायल किया था वह कॉल कट गई। थोड़ी ही देर में एक अन्य नंबर से उन्हीं सज्जन का फिर फोन आया। वह बोले मैं आपकी मदद करता हूं मैं जो कहता हूं। आप करते जाइए, 5 मिनट में आपके पैसे वापस हो जाएंगे। यह कहकर उन्होंने मुझे प्ले स्टोर में जाकर QS टाइप कर सर्च करने के लिए कहा। मुझे बात अजीब लगी कि मैंने शिकायत कर दी है। अब जो कुछ भी करना है बुकिंग एजेंसी को ही करना है। मैं एक नये एप के जरिए कुछ नया क्यों करुं,  फिर भी मैंने उनसे कहा कि मैं ट्रेन में हूं सही नेटवर्क नहीं आ रहा है। अतः प्ले स्टोर में जाकर किसी ऐप को डाउनलोड करना संभव नहीं है। कल सुबह मैं घर पहुंच जाऊंगा फिर आपको फोन करूंगा। उदारता की मूर्ति बनकर वह सज्जन बोले की कल सुबह 9:00 बजे मैं ही, आपको फोन कर लूंगा। उन सज्जन का सुबह 10:00 बजे फोन आ गया। मैंने उनसे कहा कि मुझे ऐप डाउनलोड करना व अन्य बातें नहीं समझती हैं। मैं अपने लड़के को फोन देता हूं। वह कहते रहे कि इसकी आवश्यकता नहीं है। मैं आपकी मदद करता हूं। 5 मिनट में आपके पैसे आपके खाते में पहुंच जाएंगे। यह बात हो ही रही थी। तब तक मैं अपना फोन लड़के के हाथों में पकड़ा चुका था। लड़के ने उन सज्जन से बात की वह जैसे ही प्ले स्टोर से ऐप डाउनलोड करने के लिए कहने लगे। मेरे लड़के ने कहा कहीं इस तरह भी होता है। आप मेरे फोन के ऑपरेशन कंट्रोल आपको देने के लिए क्यों कह रहे हैं। जब उन्होंने एक पिन, उनको बताने के लिए कहा मेरे लड़के ने उनसे कहा कि यह पिन मैं आपको क्यों बताऊं। यह पिन लेकर आप मेरे फोन का कंट्रोल अपने हाथ में क्यों लेना चाहते हैं। यह बात कहते ही उन सज्जन ने फोन काट दिया, पता चला कि वह सज्जन ऑनलाइन फ्रॉड वाले थे। मेरे फोन की शेयरिंग लेकर, वह मेरी होटल की बुकिंग की राशि और बैंक अकाउंट पर हाथ साफ करने की तैयारी में थे।


पर्यटकों को अपनी यात्रा सफल करने के लिए ऑनलाइन होटल बुकिंग करते समय कुछ बातें ध्यान रखनी आवश्यक है। केंद्र और राज्य सरकार के पर्यटन मंत्रालयों को भी इस पर्यटकों की मदद के लिए त्वरित,आवश्यक व कठोर कार्यवाही करने की व्यवस्था करनी चाहिए। सरकार पर्यटकों की मदद के लिए पर्यटन स्थलों पर पर्यटन केंद्र खोलकर कठिनाई की स्थिति में पर्यटकों की मदद कर सकती हैं। उन्हें न्याय दिला सकती हैं। पर्यटकों को ऑनलाइन बुकिंग करते समय भी कुछ बिंदुओं पर ध्यान देना चाहिए -
1. ऑनलाइन होटल बुकिंग करते समय होटल का संपर्क नंबर और ईमेल आईडी अवश्य मांगे। यह यदि बुकिंग एजेंसी यह देने से मना करें तो उस होटल की बुकिंग न करें।
2. पर्यटन स्थल की ओर प्रस्थान करने से पहले ही होटल से ई-मेल द्वारा संपर्क कर अपनी बुकिंग निश्चित कर लें, फोन पर होटल से उसका पता और होटल के आसपास के स्थानों की जानकारी ले लें, ताकि नए शहर में आपको होटल तक पहुंचने में असुविधा ना हो।
3. होटल में मिलने वाली समस्त सुविधाओं की विस्तृत जानकारी ऑनलाइन बुकिंग एजेंसी से पहले ही प्राप्त कर लें। निश्चित सुविधाएं न मिलने पर बुकिंग एजेंसी से शिकायत करें तथा सोशल मीडिया पर अपना अनुभव डालना न भूलें ताकि अन्य पर्यटक सचेत हो सके।
4. सरकार पर्यटकों की सुविधा के लिए हेल्पलाइन नंबर जारी करें। होटल द्वारा ग्राहक को बुकिंग देने से मना करने पर होटल और ऑनलाइन बुकिंग एजेंसी पर दबाव डालकर उस उन्हें पर्यटकों को तुरंत स्थान उपलब्ध कराने के लिए दबाव डालें तथा इस प्रकार के होटलों के रजिस्ट्रेशन रद्द करें।
5. होटल की बुकिंग रद्द कर दिए जाने की स्थिति में पर्यटकों को होटल व बुकिंग एजेंसी से पर्यटन स्थल से उनके स्थान तक का, आने जाने का किराया व होटल बुकिंग के लिए दी गई राशि की दुगनी रकम पर्यटकों को दिलाएं।
6. सरकार द्वारा पर्यटन स्थल बनाए गए पर्यटन कार्यालय और हेल्पलाइन शिकायत मिलने की स्थिति में तुरंत कार्यवाही कर पर्यटकों को राहत और न्याय दिलवाये

Friday 16 December 2022

मुफ्तखोरी का खेल, कोई पास - कोई फेल



देश में लोगों को मुफ्त में वस्तुएं और सुविधाएं उपलब्ध कराने का जो खेल राजनीतिक दल खेल रहे हैं , यदि उसे सरल भाषा में समझा जाए तो टैक्स की गुल्लक में हमसे रोजाना अप्रत्यक्ष कर के माध्यम से जो पैसे डलवाए जाते हैं, उन्हीं पैसों से राजनीतिक दल वस्तुएं और सुविधाएं हमें उपलब्ध कराकर, मुफ्तखोरी का भोंपू बजाते हैं। कब तक राजनैतिक दल हमें मूर्ख बना कर ठगते रहेंगे और हम मूर्ख बनकर ठगे जाते रहेंगे, इस बात पर हमें गंभीरता से विचार करना है।


                                          "थोड़ा है थोड़े की जरूरत है ......"

प्रसिद्ध गीतकार गुलजार के द्वारा फिल्म खट्टा मीठा के लिए लिखे गए इस गीत में जीवन की वास्तविक स्थितियों का दर्शन छिपा है। लगभग सभी की इच्छा होती है कि जो कुछ भी उसके पास है, काश उससे थोड़ा सा अधिक उसे मिल जाए, मानव स्वभाव की इसी कमजोर नस को कुछ राजनीतिक दल अपना उल्लू साधने के लिए दबाते हैं। वास्तविकता है की राजनीतिक दल इस काम में सफल भी हुए हैं। थोड़े से अधिक की अपेक्षा करने वाले लोग उनके इस जाल में फंसे हैं। यह दीगर बात है कि मुफ्त में थोड़ा और पाने की इच्छा उन लोगों को अनेकों स्थानों पर दर्द भरे दंश देकर गई है।


कोई वस्तु या सुविधा आपको मुफ्त में मिल जाएगी यह मन का भ्रम ही हो सकता है, सत्य नहीं। प्रत्येक वस्तु या सुविधा का कुछ ना कुछ मूल्य होता है, जिसे हमें चुकाना ही पड़ता है। यह दीगर बात है की उस वस्तु का मूल्य हम धन के रूप में न चुका कर, किसी अन्य रूप में चुकाते हैं और सही स्थिति का आकलन करने में हम सक्षम न हों। मुफ्त मिलने वाली वस्तु या सुविधा का मूल्य किसी भी स्वरूप में हो सकता है। श्रम के रूप में, प्राकृतिक संसाधनों के रूप में या फिर ऊर्जा के किसी रूप में। जिसे हमें मुफ्त में मिलने वाली उस वस्तु या सुविधा के लिए चुकाना ही पड़ता है।


पिछले कुछ वर्षों से देश में एक रवायत चल पड़ी है। कुछ राजनीतिक दल चुनावों के वक्त वोटरों को (जो ग्राहक ही होते हैं) लुभाने के लिए तरह-तरह की वस्तुएं या सुविधाएं मुफ्त में उपलब्ध कराने का लालच देते हैं। आर्थिक विषयों का समुचित ज्ञान या समझ ना होने के कारण, ग्राहक उनके झांसे में फंसकर देश समाज और परिवार का बड़ा अहित कर बैठते हैं।


आज यह आवश्यक हो गया है की ग्राहक आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ता मुफ्त के इस खेल को समझें तथा इसे समाज को समझाएं कि मुफ्त के आवरण में लिपटी जिन वस्तुओं और सुविधाओं को देने का वादा राजनीतिक दल कर रहे हैं। उससे देश की अर्थव्यवस्था खोखली होती है। इससे देश समाज परिवार और व्यक्ति को ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी आर्थिक विपन्नता की गर्त में धकेला जाता है। देश और समाज को मुफ्त की इस लत से बचने की आवश्यकता है। राजनीतिक दल लोगों को मुफ्त में जो भी वस्तुएं या सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं। वह उन्हीं लोगों के द्वारा अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में खरीदी गई वस्तुओं पर चुकाए गए टैक्स से ही खरीदी जाती है। अतः यह समझने की आवश्यकता है कि मुफ्त के नाम पर लोगों को जो कुछ भी उपलब्ध कराया जा रहा है। उसका मूल्य उन्हीं से विभिन्न अप्रत्यक्ष करों के माध्यम से वसूला जाता हैं।


सरकार के पास आने वाले राजस्व का बड़ा भाग ग्राहकों के द्वारा चुकाये गये अप्रत्यक्ष टैक्स जीएसटी से आता है। यह जीएसटी सुबह से शाम तक ग्राहक माचिस से लेकर बड़ी-बड़ी वस्तुओं को खरीदने में सरकार को चुकाता है। ग्राहकों के इसी पैसे का दुरुपयोग कर राजनीतिक दल चतुराई से मुफ्तखोरी का खेल खेलते हैं। हम से ही लिए गए पैसे से वस्तुएं या सेवाएं खरीद कर मुफ्त के नाम पर राजनैतिक दल हम पर चिपकाते हैं।


राजस्व का सही उपयोग न किए जाने से देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है। उसका बड़ा नुक़सान होता है। देश का विकास रुकता है। हमारे द्वारा दिए गए टैक्स के पैसे का अधिक से अधिक उपयोग सरकार को देश की जीडीपी बढ़ाने वाली योजनाओं में करना चाहिए। जिनमें उद्योग एवं कृषि क्षेत्र आते हैं। इन क्षेत्रों में खर्च करने से रोजगार का सृजन होता है। देश समृद्ध होता है। देश में प्रति व्यक्ति आय बढ़ती है। इसके अतिरिक्त देश की आधारभूत संरचना के निर्माण में भी इस टैक्स द्वारा प्राप्त इस धन का उपयोग सरकारों को प्राथमिकता के साथ करना चाहिए। इन योजनाओं का उपयोग देश की जीपीडीपी बढ़ाने में सहायक होता है। इसके अतिरिक्त देश की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा को चुस्त-दुरुस्त बनाने, प्रशासनिक एवं न्यायिक व्यवस्था के संचालन के लिए किए जाने वाले खर्च का उपयोग भी सरकारें हम सभी से वसूले गए टैक्स के धन से ही करती हैं। देश में यदा-कदा प्राकृतिक व अन्य आपदाएं भी आती रहती हैं। इस कठिन समय में राहत देने के लिए आवश्यक धन की व्यवस्था भी सरकारें ग्राहकों से वसूली इसी टैक्स की राशि से करती हैं।


यदि राजनीतिक दलों के द्वारा मुफ्तखोरी के लोकलुभावन वादों को पूरा करने में सरकारी धन की लूट होगी तो या तो सरकारों को देश की विकास योजनाओं पर किए जाने वाले खर्च में कमी करनी पड़ेगी या फिर ग्राहकों से वसूले जाने वाले टैक्स को बढ़ाना पड़ेगा। प्रत्येक नागरिक की यह अपेक्षा होती है कि सरकार उन पर पड़ने वाले टैक्स के बोझ को कम करे। ताकि वह कुछ बचत कर अपने लिए कुछ अतिरिक्त संसाधन जुटाने में सक्षम हो सकें। परंतु मुफ्तखोरी की योजनाओं के चलते सरकारी सिर्फ और सिर्फ टैक्स बढ़ाने की ही सोच सकती है। इसके लिए वह नए-नए तरीके और माध्यम तलाश करती हैं।


अर्थव्यवस्था में अनुदान सब्सिडी की व्यवस्था होती है। परंतु इसका उपयोग लोगों को मुफ्त में सामान या सुविधाएं बांटने की लोकलुभावन तात्कालिक सुविधाएं देने के लिए नहीं, बल्कि आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को जीवनावश्यक वस्तुयें उपलब्ध कराने के लिए किया जाना चाहिए। देश की जीडीपी बढ़ाने के लिए, उत्पादन बढ़ाने में सहायक संसाधनों का मूल्य घटाने के लिए किया जाना चाहिए। सरकारों को अपने आवश्यक एवं अनावश्यक खर्चों को पहचानने की तमीज होनी चाहिए। उन्हें निरंतर कम करने का प्रयास करते दिखना चाहिए। सभी राजनीतिक दलों का जोर इन बातों पर होना चाहिए, ना कि मुफ्तखोरी, वस्तुओं और सेवाओं को लोगों में बांटकर सस्ती लोकप्रियता हासिल कर, हमें बेवकूफ बनाने के दुष्प्रचार में जुटना चाहिए।

Sunday 11 December 2022

हलाल जिहाद भारतीय अर्थव्यवस्था पर आक्रमण

 हैदराबाद में "हलाल जिहाद ,भारतीय अर्थव्यवस्था पर आक्रमण" नामक रमेश शिंदे द्वारा लिखित पुस्तक के तेलुगू संस्करण का बदरुका कॉलेज के सभागार में सेवानिवृत्त आईएएस एलवी सुब्रह्मण्यम आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव एवं तेलंगाना सरकार की पूर्व डीजीपी तथा रोड सेफ्टी एवं अथॉरिटी के अध्यक्ष टी कृष्णा प्रसाद आईपीएस के विमोचन समारोह को स्थगित करना पड़ा। 


H2H बिजनेस नेटवर्किंग तथा सनातन हिंदू संघ द्वारा समर्थित इस पुस्तक के विमोचन को स्थगित करने की पीछे पुलिस और पुस्तक के लेखक अलग-अलग कारण बता रहे हैंl पुलिस का कहना है कि कॉलेज प्रबंधन द्वारा अपने सभागार का उपयोग करने की अनुमति रद्द कर दी गई। जबकि पुस्तक के लेखक का कहना है कि पुलिस ने उन्हें समारोह आयोजन की अनुमति नहीं दी। 


"हलाल जिहाद' भारतीय अर्थव्यवस्था पर आक्रमण" पुस्तक का विमोचन चाहे ना हो पाया हो, हम यहां पुस्तक से संबंधित वीडियो आप सबको विषय की जानकारी के लिए दे रहे हैं।


https://www.google.com/url?sa=t&source=web&rct=j&url=%23&ved=2ahUKEwjlz-bf1_H7AhV-R2wGHbFkCJQQuAJ6BAgREAg&usg=AOvVaw0VTJzWxrN8ZFOD4xbU2nov


Saturday 10 December 2022

जीएम सरसों सभी की अपनी अपनी ढ़पली

 



देश में जीएम सरसों की प्रायोगिक खेती की अनुमति देने को लेकर वातावरण गर्म है। एक तरफ सरकार खाद्य तेलों का आयात कम करने तथा खाद्य पदार्थों में आत्मनिर्भरता बढ़ाने के लिए नई नई विधियां अपनाने के लिए प्रयोग करने को उत्सुक है। वहीं दूसरी तरफ कुछ संस्थाएं और पर्यावरणविद जीएम फसलों से जुड़े विभिन्न मुद्दों को उछाल कर सरकार के प्रयासों में रोड़ा अटका रहे हैं। जीएम सरसों का मुद्दा भी कुछ इन्हीं परिस्थितियों के आसपास झूल रहा है। कुछ पर्यावरणविद तो इस मुद्दे को लेकर उच्चतम न्यायालय भी गए हैं। वहां उन्होंने न्यायालय से मांग की है कि सरकार को जीएम सरसों की प्रायोगिक बुवाई को अनुमति देने से रोका जाए। क्योंकि इससे पर्यावरण और उसमें पलने वाले जीवो पर विपरीत प्रभाव पड़ने की संभावना है। उच्चतम न्यायालय ने भी सरकार को उसके द्वारा फैसला लिए जाने तक, कोई कदम न उठाने की सलाह दी है।


वर्तमान वर्ष में देश ने 157 लाख करोड़ रुपए खाद्य तेलों के आयात पर खर्च किये है। खाद्य तेलों के आयात की रकम, देश में किसी भी वस्तु के आयात पर खर्च की जाने वाली तीसरे नंबर की रकम है। साल्वेंट एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अनुसार वर्ष 2021 के नवंबर से फरवरी 2022 तक देश ने 8,43377 टन सूर्यमुखी का तेल यूक्रेन से आयात किया था, जो कुल आयातित तेल का 85% था। शेष में 14.3 % रुस से वह बाकी अर्जेंटीना से आयात किया गया था। इसके साथ ही सरकार बड़ी मात्रा में इंडोनेशिया और मलेशिया से पाम ऑयल का आयात भी कर रही है। अतः सरकार का प्रयास है की देश में सरसों की पैदावार जो कई वर्षों से 1260 किलो प्रति हेक्टेयर पर रुकी हुई है, उसे बढ़ाया जाए सरसों की पैदावार में विश्व का औसत 2000 किलो प्रति हेक्टेयर है, देश में सरसों की पैदावार इससे काफी कम है। इसीलिए सरकार दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर दीपक पेंटल द्वारा विकसित की गई जीएम सरसों DMH11 को फील्ड ट्रायल की अनुमति देने के लिए तैयार हो गई है ।भारत सरकार के कृषि विभाग और आईसीएआर ने रबी के आने वाले सीजन में DMH11 के लिए प्रायोगिक खेती कर पर्यावरणीय प्रभावों के परीक्षण करने की तैयारी के लिए कमर कस ली है।


देश में खाद्य तेल की कमी एक गंभीर विषय है। सरकार हर तरह से प्रयासरत है की तेल बीज के उत्पादन को बढ़ाया जाए और खाद्य तेलों के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल की जाए। जीएम सरसों को सरकार ने इसी आधार पर अनुमति दी है। वैसे यदि देखा जाए तो विश्व के कई देशों में जीएम खाद्य पदार्थों की खेती की जा रही है, जिनमें अमेरिका ब्राज़ील अर्जेंटीना कनाडा ऑस्ट्रेलिया आदि है। हाल ही में ऑस्ट्रेलिया ने भी दी DMH11 के समकक्ष किस्म की खेती करने की अनुमति दे दी है। उसका उद्देश्य दक्षिण एशियाई देशों में खाद्य तेलों की बढ़ती मांग को पूरा करने का है।


मजे की बात यह है कि देश में आज भी 2 से 2.5 मीट्रिक टन सोयाबीन और 1 से 1.5 मीट्रिक टन कैनोला तेल का आयात किया जा रहा है। जो जीएम फसलों के बीजों से निकाला गया है। इसके साथ ही देश में जीएम कॉटन सीड से 1.5 मीट्रिक टन तेल निकाला जा रहा है। जिनका देश में लगातार सेवन किया जा रहा है। सरकार अपने पक्ष में यह दलील भी दे रही है। सरकार का कहना है कि वर्तमान में प्रायोगिक आधार पर जीएम सरसों DMH11 की खेती करने में कोई हर्ज नहीं है। सरकार का यह भी कहना है की दी DMH11 की खेती के कारण पढ़ने वाले पर्यावरणीय प्रभावों का विस्तृत अध्ययन किया जाएगा तथा यह सुनिश्चित किया जाएगा की डीएमएच फसल के कारण मानव, पशु तथा पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव ना पड़े। परंतु वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए यह आवश्यक हो गया है कि खाद्य तेल के मामले में देश में तेल बीजों का उत्पादन बढ़ाकर आत्मनिर्भरता की तरफ कदम बढ़ाया जाए।


वास्तविकता यह है कि विश्व में वैज्ञानिक एवं कृषि अनुसंधानकर्ता जीएम खाद्य फसलों के मामले में एकमत नहीं है। कुछ का मानना है कि यह फसलें मानव उपयोग के लिए सुरक्षित हैं। वही अन्य का कहना है कि इससे मानव तथा जीवों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। वर्ष 2009 में अमेरिका की अंतर्राष्ट्रीय संस्था "द अमेरिकन एकेडमी ऑफ एनवायरमेंट मेडिसिन" ने जीएम फूड के बारे में चेतावनी जारी करते हुए कहा था, जीएम फूड सेहत के लिए खतरनाक है, पशुओं पर किए गए अध्ययन से मालूम हुआ है कि इसके कारण नपुंसकता, इम्यून समस्याएं,  तेजी से बुढ़ापा आना, इंसुलिन के प्रभावों का बेअसर होना, प्रमुख अंगों एवं गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल सिस्टम में बदलाव के संकेत मिले हैं। वहीं दूसरी ओर वर्ष 2013 में "यूरोपीयन नेटवर्क ऑफ साइंटिस्ट फॉर सोशल एंड एनवायरमेंटल रेस्पॉन्सिबिलिटी" ने लगभग 300 अनुसंधानकर्ताओं के हवाले से बयान जारी कर कहा था कि जीएम फूड और फसलों के बारे में विश्व के वैज्ञानिकों में कोई सहमति नहीं बनी है। जो लोग जीएम फूड और फसलों को मानव, पशु और वातावरण के लिए असुरक्षित या सुरक्षित बताते हैं । वह भ्रामक बयान देते हैं। उनका कहना है कि इस संबंध में प्रकाशित रिपोर्टों में एक दूसरे से विरोधी बातें प्रकाशित की गई हैं।