Thursday 6 April 2023

कृषि कानूनों की वापसी किसानों पर भारी पड़ रही है।

 वर्ष 2020-21 का किसान आंदोलन और तीनों कृषि कानूनों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा वापस लिए जाने को देश भूल चुका है, क्यों ना भूले किसान जो चाहते थे, उन्हें वह मिल गया। बाकी देश का उससे लेना-देना भी क्या, जो उसे याद रखे। आंदोलन के समय विभिन्न समूह और सरकार लगातार यह बात कहते रहे कि यह तीनों कानून किसानों के हित में हैं। कानूनों के प्रावधानों से किसानों को कोई परेशानी है, उन पर चर्चा कर उन्हें बदला जा सकता है। परंतु किसान आंदोलन का नेतृत्व किसान नहीं कर रहे थे। मोदी विरोधी राजनीतिक दलों के हाथ में इस किसान आंदोलन का नेतृत्व था, जिसके तार विदेशों तक फैले थे, जो मोदी को असफल और परेशान देखना चाहते थे। वह किसी भी तरह मोदी को नीचा दिखाना चाहते थे। अतः वह किसानों को बेवकूफ बनाते रहे, किसान इन विपक्षी नेताओं के झांसे में आकर उनका दिया झुनझुना बचाते बजाते रहे। अंततः मोदी सरकार ने 19 नवंबर 2021 को तीनों कृषि कानून वापस ले लिए।



सरकार की इस कार्यवाही से विपक्षी राजनीतिक दलों की तो बांछे खिल गई। उनको विजेता होने का एहसास भी हुआ। जिसकी पूरी कीमत किसानों ने चुकाई। परंतु किसान ना तो यह समझ पाया, ना ही यह सोच पाया कि उसने क्या खोया है या उसे क्या मिला है। इसी कशमकश में किसान 1 वर्ष बाद फिर अपनी 70 वर्ष पुरानी उन्हीं खस्ताहाल मांगों और समस्याओं को लेकर दिल्ली के मुहाने को ताकने के लिए मजबूर है। तीनों कृषि कानूनों की वापसी न तो सरकार की हार थी और ना ही विपक्षी राजनीतिक दलों की जीत। कानूनों की यह वापसी किसानों की बहुत बड़ी हार थी। किसानों की फसलों के लाभकारी मूल्य दिलाने की दिशा में सरकार के द्वारा किए जाने वाले प्रयास को किसानों ने खुद ही पलीता लगा दिया। वह भी विपक्षी राजनीतिक दलों और बाजार के दलालों के बहकावे में आकर।


यही वजह है कि कृषि कानून किसानों को जिस दलदल से निकालना चाहते थे, उसी में फंसे रहने को उन्होंने बेहतर समझा। कानून वापस हुए बमुश्किल 1 साल ही बीता है, किसान अपनी पुरानी दुर्दशा में वापस लौट चुका है। वह यह समझ ही नहीं पाया कि APMC मंडियों पर राजनीतिक दलों और व्यापारी/दलालों का कब्जा होता है। वर्तमान सरकारी कानून किसानों को उनके जाल में फंसे के लिए मजबूर करते हैं। तीनों कृषि कानून किसानों को इस जाल से निकालने के लिए सरकार लाई थी। परंतु किसान जाल काटने वाले का साथ देने की जगह, उन जाल फैलाने वाले के साथ खड़े हो गए। जो निर्धारित बाजारों में अपने उत्पादनों को बेचने आए किसानों को जमकर लूटते हैं। तीनों कृषि कानून वापस लिए जाने के बाद, उन्हें बचाने के लिए न तो कोई कानून है। ना ही विपक्षी राजनीतिक दलों के नेता सामने आते हैं और ना ही वह व्यापारी/दलाल किसानों पर दया दिखाते हैं। जिन्होंने तीनों कृषि कानूनों के विरोध में किसानों को जबरदस्त भड़काया था। उदाहरण देखिए -
आम का मौसम आ गया है। बाजार में आम थोड़ा बहुत दिखाई देने लगा है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना का आम के उत्पादन में महत्वपूर्ण स्थान है। यहां के आम की बैगनपल्ली किस्म ने पूरे भारत के आम बाजार में अपनी पैठ बनाई है। तेलंगाना में करीमनगर जिले के चिंतकुंता गांव के, पी कृष्णैय्या बताते हैं कि उन्होंने आमों की वर्तमान फसल के उत्पादन के लिए ₹7 लाख खर्च किए। जिसमें रासायनिक खाद, यातायात और मजदूरी आदि खर्च सम्मिलित है। पिछले वर्ष बाजार में आम की फसल ₹70,000 से ₹90,000 प्रति टन अर्थात ₹70 से ₹90 प्रति किलो के भाव से बिक रही थी। लेकिन 2 दिन पहले जब वह अपनी बैगनपल्ली आम की फसल लेकर हैदराबाद की गड्डीनाराम मंडी में पहुंचे तो उनके पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। व्यापारी/दलाल उनकी आम की फसल के ₹40,000 से ₹50000 प्रति टन का भाव लगा रहे थे। कृष्णैय्या का कहना है कि इस हिसाब से तो उनके द्वारा आम की फसल पर खर्च किए गए ₹7 लाख में से ₹6 लाख डूब जाएंगे।


वह आगे बताते हैं कि 1 टन आम के लिए भी उनको पूरे ₹50000 नहीं मिलते हैं। इसमें से व्यापारी दलाल अपना कमीशन और मार्केट शुल्क काटकर ही उनको पैसा देता है। नागरकुरनूल जिले के राम कृष्णा 1 टन से अधिक आम लेकर मंडी में पहुंचे थे। परंतु उन्हें सिर्फ ₹60,000 लेकर ही संतोष करना पड़ा।


आम की फसल अभी आनी शुरू हुई है बैगनपल्ली आम ने पूरे देश में अपनी मंडी बना ली है। ग्राहकों को भी यह आम अच्छा खासा पसंद आता है। न तो आम की मांग में अभी कोई कमी है और ना ही स्वाद में। किसानों को पाठ पढ़ाकर व्यापारी/दलाल भले ही उनका माल सस्ते दामों में ऐंठ लें, लेकिन बाजार में ग्राहकों को आज आम ₹100 से ₹150 प्रति किलो के भाव से खरीदना पड़ रहा है। यानी किसानों को उनके उत्पादन का बाजार मूल्य के आधे से भी कम व्यापारी/दलाल दे रहे हैं। यानी तीनों कृषि कानून जिन व्यापारी दलालों के दबाव बनाने पर किसानों ने वापस लेने के लिए सरकार को मजबूर किया। वही व्यापारी/दलाल उन तीनों कानूनों के अभाव में किसानों को जमकर लूट रहे हैं।


ताज्जुब इस बात का है कि नागरकुरनूल जिले के एक अन्य किसान नरसिम्हा का कहना है कि हमें अपने आम बेचने के लिए नए बाजार उपलब्ध कराए जाएं। क्योंकि गड्डीनाराम पूरे तेलंगाना में आम बेचने की एकमात्र मंडी है। अरे भाई यही संरक्षण तो मोदी सरकार के द्वारा बनाए गए कृषि कानून किसानों को दे रहे थे। यदि मोदी सरकार के द्वारा बनाया पहला कानून कृषि उत्पाद ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एवं फेसिलेसन) कानून 2020, आज लागू होता तो किसानों को अपने आम बेचने के लिए 1या 2 नहीं, हजारों मंडियां उपलब्ध थी। किसान अपने आमों को देश के अन्य राज्यों में भी बेच सकते थे। उन्हें अपने आमों को लेकर हैदराबाद तक भी ना आना पड़ता। बीच रास्ते में किसी भी स्थान पर वह अपना उत्पादन बेचने के लिए स्वतंत्र थे। या फिर देश के व्यापारी खुद उनके गांव तक उनकी आम की फसल खरीदने के लिए पहुंच जाते। मोदी सरकार के द्वारा बनाए दूसरे कानून से तो किसानों का और भी बड़ा लाभ जुड़ा था। जिन किसानों ने आम की वर्तमान फसल लेने के लिए ₹7 लाख से ₹10 लाख निवेश किए शायद उन्हें इस रकम का निवेश भी न करना पड़ता। क्योंकि व्यापारी/दलाल उनके ही गांव पहुंचकर उनसे एग्रीमेंट करते कि आप अपने आम की फसल हमें बेचें और हम आपसे आपके आम की फसल, किस दाम पर खरीदेंगे। यह एग्रीमेंट करने के साथ ही व्यापारी किसानों को कुछ अग्रिम राशि भी देते। जिससे किसानों को अपनी जेब से लागत मूल्य ना लगाना पड़ता।


पर "अब पछताए होत क्या, चिड़िया चुग गई खेत" वाली स्थिति नहीं है। परिस्थितियां अभी भी किसानों के ऊपर निर्भर हैं। वह सरकार से तीनों कृषि कानूनों को दोबारा वापस लाने की मांग कर सकते हैं। यह अलग बात है की उनको यदि तीनों कानूनों के प्रावधानों में कुछ कठिनाई नजर आती है। तो उनको संशोधित करने का प्रस्ताव भी सरकार को दे सकते हैं। फैसला अब किसानों के हाथ में है। वह निर्धारित मंडियों में ही अपना माल व्यापारी/दलालों के द्वारा तय की गई कीमतों पर बेच कर लुटते रहना चाहते हैं या फिर अपने लिए स्वतंत्र बाजार चाहते हैं। जहां उनके माल का मूल्य मांग एवं पूर्ति के आधार पर तय हो न की व्यापारी दलालों की मर्जी के आधार पर।

तीनो कृषि कानून, ग्राहक और किसान

 ग्रामीण आर्थिक संरचना से संबंधित कोई नया कानून बनाने या किसी प्रचलित कानून को बदलने से पहले, सरकारों को यह ध्यान रखना चाहिए कि ग्रामीण संरचना के लिए बनाए जाने वाले आर्थिक कानूनों का स्वरूप विशुद्ध रूप से आर्थिक नहीं हो सकता। इन कानूनों को आर्थिक-सामाजिक स्वरूप के रूप में ही लिया जाना चाहिए। इसी आधार पर इनको सही तरीके से विकसित कर लागू किया जा सकता है। इसी स्वरूप में इन कानूनों को लागू करने पर सफलता व आशा के अनुरूप परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। सरकार द्वारा तीनों कृषि कानूनों को लागू करते समय बस यही चूक हो गई। जिसका पूरा लाभ विपक्षी राजनीतिक दलों और उनकी विचारधारा से प्रभावित किसान नेताओं ने किसानों को बरगला कर उठाया। जिसके कारण अंततः सरकार को किसानों के लाभ के लिए बनाए तीनों कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा। यदि पूर्व में ही इन कानूनों की आधारभूत आर्थिक- सामाजिक संरचना को लेकर कुछ कार्य कर लिया जाता। किसानों को आने वाले सामाजिक बदलाव के बारे में कल्पना दे दी जाती या इन कानूनों को लागू करने के लिए एक सामाजिक संरचना बनाने की दिशा में प्रयास शुरू होता नजर आता, तो किसान हित के यह कानून सफलतापूर्वक लागू हो जाते।


यदि तीनों कृषि कानूनों के मूल ढांचे का विचार किया जाए तो यह कानून ग्रामीण संरचना से संबंधित आर्थिक कानून होने के साथ ही सामाजिक स्वरूप में भी बदलाव लाने वाले हैं। क्योंकि यह कानून आर्थिक पक्ष के साथ-साथ किसानों के बीच वर्षों से प्रचलित व्यवस्था में भी परिवर्तन लाने वाले थे। अतः इन कानूनों के सामाजिक पक्ष पर भी कार्य करने की आवश्यकता थी। किसानों के बीच यह समझ विकसित की जानी थी कि अपनी उपज की बिक्री हेतु वह आवश्यक समुचित मात्रा की व्यवस्था किस प्रकार करें। उनकी उपज बेचने के लिए बाजार किस प्रकार विकसित होगा। बाजार विकसित करने में उनकी भूमिका क्या होगी। वह किस तरह उस बाजार तक अपनी पहुंच बनायेंगे। इन सभी व्यवस्थाओं से किसानों का परिचय जिन लोगों को कराना था। वह सब सरकार से राजनीतिक मतभेदों के चलते, किसानों को कानूनों के विरुद्ध बरगलाने में लग गये। सरकार ने भी कानून लाने के पूर्व इस दिशा में ध्यान नहीं दिया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात किसानों को यह समझाना था कि इस प्रक्रिया में किसानों की सहभागिता किस प्रकार की होगी। ताकि आने वाले समय में इस व्यवस्था में शोषणकारी तत्वों की उत्पत्ति ना हो सके।

ध्यान देने वाली बात यह है कि एपीएमसी कानून भी किसानों की भलाई के लिए ही बनाया गया था। इस कानून में भी आदर्श व्यवस्थायें थी। कानून के अनुसार किसान एक निर्धारित स्थान पर अपनी उपज लेकर आना था। उस स्थान पर विभिन्न व्यापारी/दलाल आपस में प्रतिस्पर्धा करते, किसानों को उनकी उपज का अधिकतम मूल्य मिलता। परंतु कालांतर में यह आदर्श व्यवस्था किसानों का शोषण करने वाली व्यवस्था बन गई। व्यापारियों/दलालों ने संगठित होकर, किसानों का शोषण शुरू कर दिया। किसानों के पास अपनी उपज बेचने के लिए कोई अन्य वैकल्पिक बाजार उपलब्ध न होने के कारण, वह इन्हीं बाजारों में आने और व्यापारियों/दलालों के हाथों लूटने के लिए मजबूर हो गए।


केंद्र सरकार अपने तीनों कृषि कानूनों में इन बातों का ध्यान तो रखा। कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम 2020 के अंतर्गत उसने किसानों को एपीएमसी के अतिरिक्त अपनी उपज बेचने के लिए असंख्य वैकल्पिक बाजार तो उपलब्ध करा दिए। यही नहीं, सरकार ने किसानों को उनकी उपज को बेचने में लिए जाने वाले टैक्स से भी राहत दी। परंतु वह किसानों को व्यापारियों की कारटेलिंग और अपनाए जाने वाले हथकंडों से बचाने का कोई ठोस आधार नहीं समझा सके। वह यह बताने में असफल रहे कि सरकार नये कानून में व्यापारी/दलालों को इन नवीन बाजारों पुराने हथकंडे अपनाने से कैसे रोकेगी। जिसके कारण किसान नेता और व्यापारी/दलाल उन्हें बरगलाने में सक्षम हुए। इसके पीछे विपक्षी राजनेताओं द्वारा किसानों को गुमराह कर सरकार को किसान विरोधी दिखाने की योजना भी काम कर रही थी।
प्रसिद्ध विचारक दार्शनिक दत्तोपंत ठेंगड़ी अपनी पुस्तक Consumer - Souvergen without Sourveginity में लिखते हैं -
किसानों को इस बात को याद रखना चाहिए कि ग्राहकों के द्वारा की जाने वाली उचित दामों की मांग और उनकी लाभकारी मूल्यों की मांग के बीच कोई भी असंगति नहीं है। यह दोनों मांगे दोषपूर्ण सरकारी नीतियों और योजनाओं के कारण परस्पर विरोधी लगती हैं।


ग्राहक या उनकी सहकारी संस्थाएं जहां कहीं पर भी किसानों के सीधे संपर्क में हैं। दोनों को ही इसका लाभ मिलता है। क्योंकि इस प्रक्रिया में मध्यस्थ और उनके द्वारा लिया जाने वाला कमीशन बच जाता है। अधिकतर वस्तुएं मध्यस्थों की एक लंबी श्रृंखला से होकर गुजरती हैं। इन दलालों की कीमत, किसान तथा ग्राहक दोनों को चुकानी पड़ती है। जहां कहीं राज्य मध्यस्थ की भूमिका में होता है। वहां भी इन स्थितियों में कोई अंतर नहीं आता।


कृषि फसलों के बारे में छोटे और मझले किसानों को तो बहुत ही विचित्र परिस्थिति का सामना करना पड़ता है। क्योंकि उनके पास फसल भंडारण की कोई सुविधा नहीं होती। दूसरी तरफ पूंजीपति बैंकों से कर्ज लेकर बहुत बड़ी मात्रा में भंडारण की सुविधा बना लेते हैं। नई फसलों के आने के पहले यह लोग समाचार माध्यम से प्रचारित करवाते हैं कि फसल बहुत अच्छी हुई है। यह प्रचार प्रमुख रूप से छोटे और मझोले किसानों पर मानसिक दबाव बनाने के लिए किया जाता है। ताकि किसान अपनी फसल बाजार में सस्ते दामों पर बेच दे। किसान गरीब होते हैं। वह बाजार में स्थितियों के बेहतर होने की प्रतीक्षा नहीं कर सकते। वह अपने उत्पादन को लंबे समय तक सुरक्षित रख पाने में भी असमर्थ होते हैं। यदि उत्पादन खराब होने वाला हो, तब तो स्थिति और भी गंभीर हो जाती है। किसान बिल्कुल असहाय हो जाते हैं। दलाल इस स्थिति का निर्दयता पूर्वक दोहन करते हैं। ग्राहकों को आवश्यक कृषि उत्पादनों की ऊंची कीमत चुकानी पड़ती है। लेकिन किसान न्यायपूर्ण मूल्य प्राप्त करने से वंचित कर दिए जाते हैं।


सरकार को उदाहरण के रूप में किसानों को उनकी फसलों के लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए कृषि कानून के अंतर्गत उपलब्ध कराए जाने वाले अतिरिक्त बाजारों को विकसित करने के कुछ मॉडल खड़े करने की आवश्यकता है। यह कार्य किसान संघ और ग्राहक संगठनों के साथ-साथ आने पर आसानी से संपादित है सकता है। किसानों को अपने गांव के आसपास ही बाजार मिले। ग्राहकों को उनकी फसलें उचित दामों पर उपलब्ध हो सकें। यह सिलसिला शुरू किए जाने की आवश्यकता है। एक बार इस सिलसिले के शुरू होने के बाद यह किसी के भी रोके रुकने वाला नहीं है।


किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए तथा उनकी फसलों के लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए प्रारंभिक तौर पर दो स्तरीय व्यवस्था बनाने की जरूरत है। पहले स्तर पर किसानों को ग्राम स्तर पर उनकी उपज बेचने के लिए संगठित करना। उपज के विक्रय मूल्य का निर्धारण करना। उपज की बिक्री हेतु नजदीक ही समुचित बाजार उपलब्ध कराना। इसके लिए किसान संघ और ग्राहक संगठन आपसी संपर्क बनाकर किसानों की फसल के लाभकारी मूल्य दिला सकते हैं। इन मूल्यों को देने के लिए ग्राहक सहर्ष तैयार हो जाएंगे।
इस व्यवस्था को सरकारी स्तर पर नहीं बल्कि सामाजिक आधार पर विकसित करना चाहिए। इसमें किसान संघ और ग्राहक संगठनों को प्रमुख भूमिका निभानी चाहिए। सरकार इन संगठनों को मूलभूत संरचनात्मक सुविधाएं उपलब्ध कराकर मदद दे सकती है। यदि कृषि उपज के निस्तारण की यह बाजार व्यवस्था विकसित हो गई, तो सदियों से चली आ रही किसानों और ग्राहकों के शोषण की कहानी का अंत हो जाएगा।


इस व्यवस्था का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि किसानों को अपनी आंखों के सामने अपनी उपज के निस्तारण की सुविधा नजर आएगी। जिसके कारण वह राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित किसान नेताओं के बरगलाने से प्रभावित नहीं होगा और के।फिर कानूनों के समर्थन में डटकर खड़ा होगा।