Thursday 8 June 2017

आर्थिक विषमता का रोष है किसान आंदोलन

1776 में एडम् स्मिथ ने Wealth of Nations क्या लिख दी, पूरी दुनिया को अधिक से अधिक धन कमाने जुटाने की कुंजी दे दी। 'श्रम विभाजन के सिद्धांत' द्वारा अधिक से अधिक उत्पादन कर अधिक धन कमाने की बात एड्म ने पूरे अर्थक्षेेत्र के लिए कही थी। यह कल भी पूरे अर्थक्षेेत्र पर लागू होती थी, आज भी होती है। उस काल खंड का किसान भी आज के किसानों की तरह न तो अधिक पढ़ा लिखा था, न ही आर्थिक रुप से इतना समर्थ और समृद्ध कि वह देश समाज को प्रभावित कर सके, अत: परिस्थितियों को टुकुर टुकुर ताकते हुए जो भी मिल जाए उसे अपने भाग्य से जोड़कर पर्याप्त मानकर सन्तोष कर लेना ही उसकी नियति थी। हां यह सामर्थ्य और शक्ति उस समय के व्यवसायी वर्ग में थी। अत: उसने अधिक उत्पादन से अधिक धन कमाने के साथ साथ अधिक लाभ कमाने की व्यवस्थाओं को भी टटोलना शुरू कर दिया। इस क्रम में व्यवसायी वर्ग के लिए दो सबसे बड़ी बाधायें थी। पहला श्रमिक जो उत्पादन करता था व दूसरा उत्पादन में लगने वाला कच्चा माल। इस वर्ग द्वारा श्रमिकों के शोषण का पूरा इतिहास है, जिसके कारण एक समय एक अन्य अर्थ संरचना ने पूरे विश्व को झिंझोड़ दिया था। इस ओर विश्व का ध्यान भी गया और इस क्षेत्र की विसंगतियों को दूर करने के विश्व में प्रयास भी हुये। 

चतुर व्यवसायियों द्वारा अधिक लाभ कमाने का दूसरा जो कच्चे माल वाला क्षेत्र था। उसको अपने अनुरुप पूरी तरह मोडने में इस व्यवसायी वर्ग को पूरी सफलता मिल गई। उसने चतुराई के साथ उत्पादन को दो श्रेणियों औद्योगिक उत्पादन व कृषि उत्पादन में बांटने के साथ ही उस समय के शासक वर्ग को यह समझाने में सफलता प्राप्त कर ली कि कृषि उत्पादन को विभिन्न नियंत्रणों में रखने की आवश्यकता है। नहीं तो मंहगाई बढ़ेगी, जनता में हाहाकार मचेगा। इसके पीछे चालाकी यही थी कि उन्हें कारखानों में लगने वाला कच्चा माल कम कीमत पर मिल सके और वह अधिक लाभ कमा सकें। उस समय न तो कच्चे माल के उत्पादक किसान ने उस समय कोई आवाज उठाई, न ही तब से लेकर आज तक विश्व को इस ओर ध्यान देने की आज तक आवश्यकता महसूस हुई। वैसे भी इस संरचना से सबसे अधिक प्रभावित होने वाला देश भारत ही है, जहां छोटे सीमान्त किसान का आर्थिक विश्व दुनिया में सबसे अलग है। अत: तब से दबी हुई यह आवाज आज तक दबी ही चली आ रही है। लोकतंत्र में लोगों को न्याय पूर्ण वितरण की अपेक्षा सरकार से होती है। पर सरकारें भी उद्योगों के साथ गलबहियां कर कान में तेल डालकर बैठीं रही।

अर्थशास्त्री तो किसानों के बारे में बहुत कम सोचते हैं। सरकारें भी उनकी ओर से जबरदस्त विरोध होने के इन्तजार में, औद्योगिक उत्पादनों में असीमित लाभ के खून का स्वाद चख चुके व्यवसायियों व उनके समर्थक अर्थशास्त्रियों की सलाह पर ही आगे बढ़ती रही, जिसने औद्योगिक क्षेत्र के उत्पादनों की सीमा कृषि क्षेत्र के उपकरणों, कीटनाशकों व बीज तक विस्तृत कर अपने असीमित लाभ कमाने की प्रवृत्ति में किसानों को भी जकड़ना शुरू कर दिया। नतीजतन खेती मंहगी होती गई और किसान कर्जदार। इन परिस्थितियों में जो घटित होना चाहिए वही घट रहा है। सरकार को यह सब देखते समझते हुये बुनियादी निर्णय लेने का समय आ गया है।

यह वर्ग संघर्ष है, आर्थिक विषमता से उपजे वर्गों के बीच, वह भी बहुत कुछ सहन करने के बाद। इसीलिए यह विस्तार ले रहा है। क्योंकि कमोबेश सभी तरफ परिस्थितियां एक ही जैसी हैं। इसमें सन्तोष की बात केंद्रीय नेतृत्व है, जिनमें परिस्थितियों का पूरा भान व उनका हल ढूंढने की क्षमता है। यह बात भी सच है कि विपक्ष वर्तमान में विध्वंसक भूमिका में है। उसका निजी स्वार्थों के चलते देश, समाज से कोई सरोकार नहीं रह गया है। वह आग भड़काने के प्रयास में है। अन्यथा किसान आंदोलन सिर्फ भाजपा शासित राज्यों में न होता। तमिलनाडु के किसान भी चेन्नई में प्रदर्शन करने के स्थान पर दिल्ली में आकर नौटंकी न करते।

सरकार कितनी भी सहिष्णुता दिखा ले, अन्ततः उसे कठोर भूमिका में आना ही पड़ेगा। देश सरकार की उस कठोर भूमिका का गवाह बनने को तैयार है। वह समझता है कि कश्मीर मेंपाकिस्तान से घुसने वाले आतंकियों और घाटी में बसने वाले अलगाववादियों की मुश्कें कसते ही, घाटी के हालातों में क्या बदलाव आए हैं। देश में सार्थक विपक्ष की भूमिका निभाने का कार्य छोड़, अराजकता का माहौल बनाने वाले विपक्ष की जनमानस एक अलग ही शक्ल देखना चाहता है। सरकार सक्रिय हो।