Wednesday 24 September 2014

हर खेत को पानी, हर हाथ को काम

 हर खेत को पानी, हर हाथ को काम, पंडित दीनदयाल जी का यह वाक्य आज भी भारत की अर्थव्यवस्था की मुख्य कुंजी बना हुआ है। यह वाक्य आज भी देश को समृद्ध बनाने का मन्त्र है, विशेष बात तो यह है कि अपने देश में इस मन्त्र को अपनाने के सम्पूर्ण साधन सामग्री के साथ ही परिस्थितियाँ भी मौजूद हैं। आवश्यकता बस इच्छाशक्ति की है जिसका आज़ादी के बाद से ही इस देश में अभाव रहा है। यदि हम एक दो अपवादों को छोड़ दें तो हमारे देश के नेतृत्व को प्रारम्भ से ही अपने लोगों से अधिक भरोसा पश्चिमी देशों के लोगों पर रहा है। पश्चिम के अर्थशास्त्र से प्रभावित हमारे देश का नेतृत्व यह भी भूल गया कि देश की राजनीतिक स्वतन्त्रता  बनाये  रखने के लिए कम से कम खाद्यान्नों के मामले में देश का आत्मनिर्भर होना बहुत जरुरी है। दीनदयाल जी देश की भौगोलिक ,सामाजिक विविधता के साथ ही विशाल जनसँख्या को ध्यान में रखते हुए, उसके अनुरूप ही उचित मार्ग चुनने के पक्षधर थे।

देश की विशाल जनसंख्या को देखते हुए उसे खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर बनाते हुए विकास के मार्ग की दिशा ही 'हर खेत को पानी, हर हाथ को काम' के रास्ते वाली है। जिसका सीधा अर्थ है देश में पर्याप्त खाद्यान्नों का उत्पादन तथा प्रत्येक ग्राहक के हाथ में क्रय शक्ति का नियोजन। पश्चिम के अर्थशास्त्री भी इसी बात को मानते हैं कि अर्थव्यवस्था की प्रगति के लिए अधिक से अधिक ग्राहकों के हाथ में अधिक से अधिक क्रय शक्ति का होना जरुरी है। क्योंकि जब ग्राहकों के हाथ में क्रयशक्ति होगी तभी वह बाजार में अपनी आवश्यकता के उत्पादनों की मांग करेगा।  बाज़ारों में मांग आने से उद्योगों को अधिक से अधिक उत्पादन करने की आवश्यकता होगी। जिससे देश की कुल आय भी बढ़ेगी और देश के लोगों को रोजगार भी मिलेगा। दीनदयाल जी कृषि के विका पर जोर इसीलिए देते थे क्योंकि वह ज़मींन से जुड़े थे तथा जानते थे कि देश में पूंजी का अभाव है और खेती ही एकमात्र उपाय है जिससे देश में आसानी से पूंजी का निर्माण हो सकता है। यही नहीं भारत जैसे कृषि प्रधान देश में खेती उत्पादन पर निर्भरता पूंजी निर्माण का सबसे सरल और सटीक उपाय है।  इसके साथ ही खेती देश के एक बहुत बड़े वर्ग को रोजगार देने में भी सक्षम है।

देश में उस समय के नेतृत्व को देशी से अधिक विदेशी पर विश्वास था या फिर वह देश के विषय में अधिक जनता ही नहीं था। अतः उसने देश के विकास के लिए जो आर्थिक और राजनीतिक मार्ग चुना वह खेती से दूर बड़े उद्योगों तथा बड़ी पूंजी निवेश वाला था, पंडित जी इस मार्ग के पक्षधर नहीं थे। देश को शीघ्र ही अहसास हो गया कि यह सही मार्ग नहीं था पर तब तक देर हो चुकी थी। हम भूल गए कि हमें अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता की रक्षा की सामर्थ्य शीघ्र से शीघ्र हासिल करनी है जिसकी कीमत हमे 1962 के चीन युद्ध में पराजय झेलकर चुकानी पड़ी। हम अपनी लचर अर्थव्यस्था के चलते हर बात यहाँ तक रोटी के लिए भी विदेशों का मुँह ताकने को लाचार थे। फिर युद्ध लड़ना तो दूर की बात थी। खेती को दुर्लक्ष्य करने के कारण खाद्यान्नों की कमी को पूरा करने के लिए हमें अमेरिका से पी एल 480 जैसे अनुबन्धों को करना पड़ा। हम भिखारी बन चुके थे, दुनिया के आगे झुकना और उनकी बात मानना हमारी नियति बन चुकी थी,  इसका अहसास हमें 1966 की पाकिस्तान लड़ाई के समय हुआ। जब अमेरिका ने पाकिस्तान के कहने पर हमें पी एल 480 के तहत अनाज देने से मना कर दिया , अनाज देने की शर्त रखी की हम पाकिस्तान के साथ युद्ध तुरंत बंद करें, और पाकिस्तान का पूरा जीता हुआ भाग उसे बिना शर्त वापस कर दें। हमें अपने नेतृत्व की गलत नीतियों के कारण यह अपमान का घूंट पीना पड़ा। इसी कारण उस समय लालबहादुर शास्त्री ने देश की जनता से साप्ताहिक उपवास करने की प्रार्थना की थी तथा 'जय जवान, जय किसान' का नारा दिया था।

पंडित दीनदयाल जी का स्पष्ट चिंतन था "हमारी योजनाओं का प्रथम लक्ष्य होना चाहिए अपनी राजनितिक स्वतन्त्रता की रक्षा का सामर्थ्य उत्पन्न करना। दूसरे हमने अपने लिए प्रजातंत्रीय ढांचा चुना है।  यदि आर्थिक समृद्धि का कोई भी कार्यकृम हमारी प्रजातंत्रीय पद्धति के मार्ग में बाधक होता है तो वह हमें स्वीकार नहीं होगा।  तीसरे हमारे जीवन के कुछ सांस्कृतिक मूल्य हैं जो हमारे लिए तो राष्ट्रीय जीवन के कारण परिणाम और सूचक हैं तथा विश्व के लिए भी अत्यंत उपादेय हैं।  विश्व को इस संस्कृति का ज्ञान कराना हमारा राष्ट्रीय जीवनोद्देश्य हो सकता है।  इस संस्कृति को गंवाकर यदि हमने अर्थ कमाया भी तो वह निरर्थक और अनिष्टकारी होगा। "  दुर्भाग्य की बात है कि हमने अपनी गलतियों से सबक लेने के स्थान पर उसी मार्ग पर आगे बढ़ना और उसमें उलझना अधिक श्रेयष्कर समझा।  जिसके परिणाम आज देश भोग रहा है। दीनदयाल जी के विचार आज देश ही नहीं पूरे विश्व के लिए सार्थक बन चुके हैं। आज भारत ही नहीं पूरे विश्व के सामने हर हाथ को काम देने का प्रश्न चुनौती बनकर खड़ा है। जिसका कोई हल किसी को नहीं सूझ रहा है। पश्चिम के अर्थशास्त्रियों के सिद्धांतों के अनुरूप विकास का मार्ग खोजते खोजते विश्व की अर्थव्यवस्था आज अन्धे मोड़ पर पहुँच चुकी है।  इस परिस्थिति को पंडित दीनदयाल जी ने 50 वर्ष पूर्व ही भांप लिया था। समाज के अंतिम व्यक्ति तक आवश्यक सुविधाएँ पहुँचाने के लिए इस मार्ग के अलावा कोई पर्याय नहीं हैं।

Wednesday 27 August 2014

वर्तमान में पंडित दीनदयाल जी की एकात्म अर्थनीति कितनी सार्थक


पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय के बारे में चर्चा या लेखन करते समय यदि हम इस बात को भी ध्यान में रखें कि पंडित जी का स्वर्गवास फ़रवरी 1968 में लगभग 46 वर्ष पूर्व हो गया था।अल्पायु में पंडित जी के निधन के कारण उनके विचारों की वृहद्ता जनमानस तक नहीं पहुँच सकी। दीनदयाल जी का मौलिक लेखन बहुत कम है, जो कुछ भी दीनदयाल जी के नाम पर लिखा गया वह उनके भाषणों में उपस्थित महानुभावों द्वारा ग्रहण किये गए विचारों का संकलन तथा विस्तार है। यह साहित्य भी अधिक मात्रा में उपलब्ध नहीं है, इसका एक महत्वपूर्ण कारण आज़ादी के बाद से ही कांग्रेसी सरकारों का पश्चिमी देशों के प्रति भक्तिभाव निश्चित रूप से रहा है। क्योंकि देश में जब किसी महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करने की पद्धति ही न हो, तो अनेकों मौलिक विचारों को पनपने का अवसर नहीं मिल पाता है। अतः दीनदयाल जी के विचार सतह पर प्रमुखता से नहीं आ पाये। परन्तु आज जो कुछ भी उपलब्ध है, जब उसकी टिमटिमाती रोशनी में हम देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति पर नज़र डालते हैं, तो उस काल में दीनदयाल जी द्वारा विश्लेषित आशंकाएं हमारे सामने सजीव स्वरूप में आकर खड़ी हो जाती हैं। हमारा दुर्भाग्य तो यह है कि हम 'अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत ' भी नहीं कह सकते क्योंकि हमने चिड़ियाओं को खुद खेत चुगने का निमन्त्रण दिया था। दीनदयाल जी की बातों को दरकिनार कर दिया था। 

 दीनदयाल जी के समय देश की आर्थिक व् राजनैतिक परिस्थिति भिन्न थी। देश आज़ाद हुआ ही था, पंचवर्षीय योजनाओं का सूत्रपात प्रारम्भ ही हुआ था। नेतृत्व पश्चिम में पले बढे, पश्चिम से नीचे से ऊपर तक प्रभावित नेहरू के हाथों में था।  दीनदयाल जी तथा नेहरू एवं अन्य योजनाकारों के विचारों  में भिन्नता थी।   दीनदयाल जी  देश की जनसंख्या ,उपलब्ध संसाधन ,देश के व्यक्ति व समाज की आवश्यकताएं, उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन तथा राष्ट्रीय परिवेश के आधार पर , उसे समझकर , उसमे से लोकहितकारी मार्ग निकालने के पक्ष में थे, एकात्म मानववाद इन्ही विचारों का प्रतिबिम्ब है। परन्तु हम पश्चिमी देशों का अन्धानुकरण करने की दिशा में आगे बढ़ गए, लिहाजा इसमें जो भी बुराइयाँ थी उन्हें हम आज पश्चिमी देशों के साथ भुगत रहे हैं।

 दीनदयाल जी के सिद्धांतों की वर्तमान में उपयोगिता के सम्बन्ध में आज के आलोचक आसानी से कह सकते हैं कि आज परिस्थितियां भिन्न हैं, बात सच भी है, उस समय हम देश गढ़ने की प्रक्रिया में थे , आज 67 वर्षों के अन्तराल के बाद हम विभिन्न प्रयोग कर उनके परिणाम चख चुके हैं। परन्तु आज भी घूम फिर कर हम उसी दोराहे पर आ खड़े हुए हैं, जिस पर  दीनदयाल जी के काल खंड में थे।  हमें किसी एक मार्ग को चुनना है। विचित्र बात तो यह है कि आज भी हम उसी मार्ग को अपनाने के लिए लालायित हैं जिसका  दीनदयाल जी ने निषेध किया था।  हम यह समझाना ही नहीं चाहते कि वर्तमान में पूंजीवाद , साम्यवाद तथा समाजवाद तीनों अपनी सार्थकता खो चुके हैं।  विश्व ने इन तीनों के तम्बू उखड़ते हुए देखे हैं। उन देशों में भी ये वाद अपनी जड़ें टिकाने में सफल नहीं हुए जहाँ इन्होने अपने स्वर्णिम अध्याय लिखे थे। हम आज भी 67 वर्षों के अनुभवों से सीखकर  दीनदयाल जी के रास्ते पर चलने की हिम्मत जुटाने में अपने को असमर्थ पा रहे हैं। 

शायद यह लार्ड मेकाले द्वारा दी गई हमारी शिक्षा पद्धति का परिणाम है, हमने लगातार पश्चिमी विद्वानों का ही अनुवादित साहित्य पढ़ा है, हमें वही रास्ता मालूम है , हमारा विचार करने का तरीका भी वही है, हम अपना मौलिक तरीका खोकर एडम स्मिथ,रिकार्डो ,मिल ,मार्क्स ,हॉब्सन ,वेब्लेन ,केन्स ,बर्नहम ,शुम्पीटर ,प्रो मिड्ल ,प्रो जैकब विनर तथा प्रो जॉन मेलोर की आर्थिक संकल्पनाओं को यथार्थ के धरातल पर टूटते बिखरते देखकर भी (विकसित देशों की जमीन पर ) यह सोचने की स्थिति में नहीं हैं कि इससे हटकर भी एक मार्ग हमारे पास है। यह विडंबना ही है कि हम न तो उस मार्ग को अपनाने के इच्छुक दिखाई दे रहे हैं, न ही उस मार्ग पर कदम बढ़ाने की हिम्मत दिखा पा रहे हैं।  दीनदयाल जी के आर्थिक सिद्धान्त आज भी उतने ही नवीन तथा व्यवहारिक हैं जितने उस काल खंड में थे। मानव जीवन के शाश्वत सिद्धान्त शायद कभी भी कहीं भी सटीक ही होते हैं।

मेरे लेखन के सम्बन्ध में यह सन्देह हो सकता है कि मै ग्राहक आंदोलन का कार्यकर्ता अपना मूल कार्य छोड़कर कहां  दीनदयाल जी के एकात्म मानववाद का आर्थिक सिद्धान्त ले बैठा। मुझे अर्थ संरचना से क्या मतलब। स्पष्ट कर दूँ ! अनेक वर्षों से यह छटपटाहट थी कि ग्राहक आंदोलन का स्वरूप क्या प्रतिक्रियात्मक ही रहेगा। पूरे विश्व ने ग्राहक आंदोलन के प्रतिक्रियात्मक स्वरूप को ही अपनाया है। पहले समस्या पैदा करो फिर उसका हल खोजो। मै सोचता था कि हम कभी इस क्रिया प्रतिक्रिया के द्वन्द से बाहर निकलकर कुछ मौलिक कुछ अलग कर सकते हैं क्या , जिससे ग्राहकों को कष्ट देने वाली क्रिया को ही रोका जा सके। ग्राहकों को कुछ भी प्रतिक्रिया करने की आवश्यकता ही न पड़े। दीनदयाल जी के एकात्म मानववाद के आर्थिक सिद्धान्त अंधकार के सागर में दीपस्तम्भ की रोशनी बनकर सामने आये हैं ,जिन्हे मै अगले लेखों में शनः शनः स्पष्टता से रखने का प्रयास करता रहूँगा।

Friday 8 August 2014

किसी भी वस्तु पर बिका हुआ मॉल वापस नहीं होगा लिखना गैर क़ानूनी

महाराष्ट्र राज्य ग्राहक विवाद निवारण आयोग द्वारा एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया गया है , जिसके अनुसार किसी भी दुकानदार द्वारा बिका  हुआ माल वापस नहीं होगा  लिखना गैरकानूनी  है। किसी भी दुकान से कोई भी ख़रीदा हुआ मॉल पसंद न आने पर वापस किया जा सकता है , और यदि उस मॉल के बदले में ग्राहक कोई दूसरा मॉल बदल कर लेता है, और ग्राहक को वह मॉल भी पसंद नहीं आता है तो दुकानदार को ग्राहक को पूरे पैसे वापस देने बंधनकारी हैं। 

लोनके नामक ग्राहक ने एक दुकान से १४ अगस्त २०१३ को  2  हज़ार 198 रूपये में 2 पैंट व 1190 रूपये की 2 कमीजें खरीदीं। इस खरीद पर दुकानदार ने ग्राहक को 2 % छूट भी दी, परन्तु ग्राहक को कपड़ा पसंद नहीं आया, अतः दुकानदार ने दूसरे दिन ग्राहक को कपड़े बदल दिये , परन्तु ग्राहक को यह बदले हुए कपड़े भी पसंद नहीं आये , इसलिए उसने दुकानदार से अपने पैसे वापस मांगे। दुकानदार ने एक बार बिका हुआ मॉल वापस नहीं होगा कहकर ग्राहक को पैसे देने से मना कर दिया। बात न बनने पर ग्राहक ने जिला फोरम में विवाद दाखिल किया , परन्तु जिला मंच ने ग्राहक की शिकायत को निरस्त कर दिया।  ग्राहक ने राज्य आयोग में अपील की , केंद्रीय ग्राहक व्यवहार मन्त्रालय द्वारा  22 दिसम्बर 1999  को जारी एक निर्देश के अनुसार किसी भी बिल पर यह लिखना या छापना कि  एक बार बिकी हुई वस्तु वापस नहीं होगी गलत है।  इसी नियम का सहारा लेकर ग्राहक ने दुकानदार को चुके गई मूल रकम के साथ 1000 रूपये दण्ड की भी मांग की, जिसे स्वीकार कर आयोग ने ग्राहक के पक्ष में निर्णय दिया. 

Thursday 17 July 2014

कब तक इन्सानियत को कत्ल होते देखेगी दुनिया

इस बात में कोई शक नहीं कि वह लोग महान हैं जो साँपों को पालते हैं दूध पिलाते हैं। बाद में जब कभी भी मौका मिलता हे यही साँप कई निर्दोष लोगों को डसकर मौत की नींद सुला देते हैं।  यही नहीं कभी घात लगी तो सांप  इन दूध पिलाने वाले लोगों को भी मारने में कोई कसर नहीं छोड़ता। अब इसे इन लोगों की महानता कहा जाये या मूर्खता यह बताने की स्थिति में तो हम नहीं हैं पर हम यह जरूर कह सकते हैं कि मौत की इबारतों को सहेज कर रखना किसी के लिए भी फायदेमंद नहीं हो सकता। इससे होने वाले नुकसान को हम अपना या दूसरे का नहीं कह सकते।  अंततोगत्वा यह नुकसान समाज का होता है , ऐसे समय में निर्णय लेने में समाज के हितों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। परन्तु आजकल हो यही रहा है, अपने निजी या राजनीतिक स्वार्थों के चलते हम समाज के इन दुश्मनों को हवा दे रहे हैं ,पाल रहे हैं।  

इंदिरा गांधी और राजीव गांधी इसी तरह के सांपों द्वारा डसे जाने के विश्व के सामने उदाहरण हैं।  भिंडरनवाले और प्रभाकरण को पालते वक्त इंदिरा, राजीव  ने यह नहीं सोचा होगा कि वह सामाजिक हित को किस बलिवेदी पर चढ़ा रहे हैं। दुर्भाग्य की ही बात है कि आज समाज में इन लोगों का झंडा उठाने वाले लोग काफी तादाद में पैदा हो गए हैं। जरा सी हवा चली नहीं की सड़क से लेकर संसद तक इन लोगों की तरफदारी की आवाजें सुनाई देने लगती हैं। इन लोगों को न तो इराक का नरसंहार दिखाई देता है ,न गाजा में बच्चों की चीखती आवाजें सुनाई देती हैं। मलेशिया के विमान में सफर करने वाले उन 80  बच्चों व् 250 लोगों का क्या कसूर था जो उन्हें उक्रेनी आतंकवादियों ने मौत की नींद सुला दिया, अगर इन लोगों को जीने का अधिकार है तो फिर किसको मरना पड़ेगा यह सारी दुनिया देख रही है झेल रही है। मैं एक और विचित्र बात इन दिनों देख रहा हूँ , दुनिया के सभी मानवतावादी इन दिनों खामोश हैं , उन्हें लगता है सांप सूंघ गया है। मानवता के प्रति ये कैसा दृष्टिकोण है। इन लोगों को भी क्या खा जाये आप ही सोचिये, यह किन लोगों के इशारे पर किसके लिए काम कर रहे हैं।   

आज लगभग पूरी दुनिया इस तरह के लोगों की गिरफ्त में है। जो किसी को भी कहीं भी मौत की नींद सुलाने को तैयार बैठे हैं। कोई कारण नहीं है उन लोगों को मारने का जिन्हें ये मारने को तैयार बैठे हैं, ठीक उसी तरह जैसे साँप को नहीं मालूम होता वह किसे काटेगा। जो लोग इन्हे दूध पिला रहे हैं उन्हें भी आज सोचना है और सोचना उन्हें भी है जो मरने वालों की लाइन में खड़े हैं। क्या इलाज होना चाहिए इस बीमारी का, उन्हें किश्तों में तबाही चाहिये जैसे आजकल हो रही है या फिर एक बार गुलशन से काँटों को उखाड फेको बाद में उसे बेहतर बना लेंगे। जो बात तय है वह यह कि इस तरह से वही मरेंगे जो किसी दूसरे को मारने के लिए जी रहे हैं, इसमें भी बड़ी बात यह कि ये लोग यह नही जानते कि इन्हे लोगों को क्यों मारना है। 

आतंक के साये से निकलने के लिए कम से कम आज तो दुनिया में वह छटपटाहट नहीं दिखाई दे रही जो दिखाई देनी चाहिए। शायद इस इंतजार में कि कोई दूसरा ही मरेगा मैं नहीं। जो लोग दुनिया को खून से रंगने का डर दिखाते हैं ,जो दूसरा रास्ता निकालने की बात सुझाते हैं वह दिवास्वप्न देख रहे हैं।उन्हें भी यह मालूम है कि दुनिया किश्तों में मर रही है और वह इसे रोक नहीं सकते। कुछ भी हो कोई भी रास्ता निकला जाये दुनिया को इस बीमारी से निजात दिलाना जरूरी हो गया है।  सभी को इस विषय पर कम से कम खुलकर अपने विचार रखने की आज जरूरत है।

Saturday 12 July 2014

अच्छे दिन आने वाले हैं - मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना



मोदी सरकार ने १० जुलाई को जबसे अपना पहला आंशिक बजट संसद में रखा है , देश भर के सभी मीडिया में यह गहन चर्चा का विषय बना हुआ है। तमाम टी वी चैनलों पर पेनलिस्ट बजट की चीरफाड़ में व्यस्त हैं। इस बार 6 माह के बजट पर कुछ इस तरह लोग पिले हैं कि लगता है इसके बाद दुनिया नहीं है।  लेकिन सभी एक महत्वपूर्ण बात को छोड़ रहे हैं या फिर इस तरफ उनका ध्यान ही नहीं है। जिसके आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अच्छे दिन जरूर आएंगे।  अर्थव्यस्था ठीक पटरी पर आयेगी।  देश के सूखे जैसे हालात कुछ समय के लिए लोगों को विचलित कर सकते हैं, परन्तु अंतिम बाज़ी मोदी सरकार के हाथ में ही होगी।  अपने बजट भाषण में वित्तमन्त्री ने एक जिक्र सामान्य सा किया था, या तो लोगों ने उसे सुना नहीं या फिर उसे अनसुना कर दिया. क्योंकि कहीं भी उस बात का जिक्र बजट की चीरफाड़ करने में सुनाई नहीं दिया।  वित्तमंत्री ने कहा था कि हर परिवार के 2 बैंक खाते खोले जायेंगे। यह छोटी सी घोषणा आने वाले दिनों में देश की अर्थव्यस्था में क्रन्तिकारी परिवर्तन लाने वाली है। वित्तमंत्री ने चाहे अत्यंत सहजता से यह घोषणा की, परन्तु  पूरी गंभीरता से इस योजना पर काम शुरू कर दिया है।

सभी जानते हैं देश में लोगों के पास सरकारी पैसा एक रूपये के स्थान पर 10 से 20 पैसे ही पहुँचता है।  बाकी का 80 से 90  पैसा रास्ते में ही खा लिया जाता है।जिसके कारण 66 वर्षों से देश में कोई भी योजना बना लो, उसमें पलीता लग जाता है।  भ्रष्टाचार की इस दलदल से सभी परेशान हैं , इस पर नकेल चाहते हैं। इस पर नकेल तभी कसी जा सकती है जब कोई फुलप्रूफ तरीका निकाला जाये कि जिसको जितना पैसा पहुँचाना है उतना ठीक उसी के हाथ में जाय। इधर होता यह है कि सरकार किसी वर्ग विशेष को वित्तीय अनुदान देती है, जिसको अनुदान दिया जाता है ,उस तक पहुँचने के स्थान पर पैसा रास्ते में ही गायब हो जाता है । 

काफी समय से यह बात चर्चा में है कि सरकार जिसको मदद देना चाहती है ,पैसा सीधे उसके बैंक खाते में सरकार द्वारा ही स्थानान्तरित किया जाये।  परन्तु यह बात जितनी सरल दिखाई देती है उतनी है नहीं।  6,00,000 से अधिक गावों वाला विविधता भरा हमारा देश। साक्षरता बहुत कम, इसे किस तरह किया जाये।  कठिन असम्भव काम को करने का नाम ही मोदी है।  वित्तमन्त्री ने सहजता से जिस बात का उल्लेख किया , जिसे दिग्गज पकड़ नहीं पाये वह यही असंभव काम था। सिर्फ घोषणा ही नहीं हुई है, सरकार ने इस पर गंभीरता से काम भी शुरू कर दिया है , इस काम को पूरा करने का लक्ष्य भी तय कर दिया है। जो असम्भव को चुटकी बजाते करने की सामर्थ्य रखता हो, उसके नेतृत्व में अच्छे दिन आने में किसी को संदेह भला हो सकता है ,सिर्फ उनको छोड़कर जो देख समझ रहे हैं कि यह लम्बी दौड़ का घोडा आ गया है और बाज़ी उनके हाथ से निकल गई है। 

अब बात करते हैं इस योजना की,सरकार देश के सभी परिवारों को बैंक से जोड़ने जा रही है, सरकार ने 200 मिलियन नए बैंक खाते 1 वर्ष में खोलने का लक्ष्य रखा है, प्रत्येक परिवार के 2 बैंक खाते खोले जायेंगे। 'सम्पूर्ण वित्तीय समावेशन योजना' नाम की इस योजना के अन्तर्गत अन्य वित्तीय सेवाओ तथा पेंशन को भी समाहित करने की योजना है। यह काम ढंग से तय समय सीमा में पूरा हो इसके लिए वित्तमन्त्री ,रिजर्व बैंक के गवर्नर ,बीमा नियामक आयोग के अध्यक्ष तथा पेन्सन बोर्ड के अध्यक्ष को इस काम के देखरेख की जिम्मेदारी भी दे दी गई है। 2011 की जनगणना को आधार मानते हुए देश के 246.7 मिलियन परिवारों में से सिर्फ 144. 8 मिलियन परिवारों की ही बैंकों तक पहुँच है।सभी परिवारों को बैंक से जोड़ने वाली इस योजना को सफल बनाने वाले यह सभी बैंक खाते 15 अगस्त 2014 से खुलना प्रारम्भ होकर 14 अगस्त 2015 तक पूरे कर लिए जायेंगे। सभी जिलों को सहायक सेवा क्षेत्र योजना के अन्तर्गत 1000 से 1500 परिवारों तक इस योजना से इस तरह जोड़ा जायेगा कि किसी भी परिवार को बैंक के लिए 5 कि. मी. से अधिक दूर न जाना पड़े। मार्च 2016 तक देश के सभी 6,00,000 गावों को इस योजना का अंग बना लिया जायेगा। यही नहीं इस योजना को समय से पूरा करने के लिए 60,000 बैंक संवाददाताओं की नियुक्ति, भी की जाएगी जिसके लिए सरकार और बैंकों के सेवानिवृत्त कर्मचारी ,डाकघर कर्मचारियों तथा किराना दुकानदारों की मदद ली जाएगी। 

इस योजना का सीधा अर्थ है की देश में चलने वाले सभी पैसे के लेनदेन बैंकों के माध्यम से करना।पैसों का गायब होना रोकना, एक बार यह योजना पूरी हो गई तो शायद सरकार द्वारा दी जाने वाली वित्तीय सहायता में कटौती करने की जरूरत ही न पड़े , क्योंकि पैसा सीधा उन तक पहुंचेगा जिनको देना है , बीच में भ्रष्टाचार के सभी रस्ते बंद हो जायेंगे। शायद इस योजना के गर्भ में बहुत कुछ छिपा है,शायद सरकार जो बहुचर्चित टैक्स सुधार  लागू करना चाहती  है। वह रास्ता भी इसी से निकलने वाला होगा।  जिस पर अभी से कुछ कहना उचित नहीं है वह समय समय पर बाहर आयेगा, परन्तु एक बात तय है, यह रास्ता देश को खुशहाल बनायेगा - अच्छे दिन लायेगा।

Thursday 5 June 2014

क्यों नहीं लिख रहे डाक्टर जेनरिक दवाइओं के प्रिस्क्रिप्शन

दवाई कंपनियों और दवाई के दामों पर चर्चा कोई नई नहीं है। पेटेन्टेड दवाइओं और जेनेरिक दवाइओं की कीमतों में अन्तर पर चर्चा वर्षों से चल रही है। अब तो यह पूरे विश्व में फ़ैल चुकी है। बड़ी कम्पनियाँ अपनी दवाइओं के दाम उनकी उत्पादन लागत से हज़ारों  गुना ज्यादा वसूलती हैं। इन कम्पनियों ने इस बात पर भी बहुत हो हल्ला मचाया कि भारतीय कम्पनियां वही दवाईयां जेनेरिक नाम से बहुत ही कम कीमतों पर बेचती हैं अतः उन पर प्रतिबन्ध लगाया जाय। नोवार्टिस नाम की कम्पनी तो इस लड़ाई को उच्चतम न्यायालय तक खींच ले गई। यह दूसरी बात है कि नोवार्टिस इस लड़ाई को उच्चतम न्यायालय में जीत नहीं सकी।बाजार में दवाएं तो दोनों तरह की मिलती हैं। परन्तु डाक्टर अपने मरीजों को कौन सी दवायें लिख कर देते हैं, यह बात महत्वपूर्ण है। इसके बारे में भी बहुत सी कहानियां प्रचलित हैं। आज की महंगाई में ग्राहकों की मुसीबत यह है की वह महंगी दवायें कैसे खरीद कर खाए। इस ऊहापोह की स्थिति में सिर्फ डाक्टर ही मरीजों की मदद कर सकते हैं। परन्तु विभिन्न कारणों से यह हो नहीं रहा है।  अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत इस बारे में विचार कर रही थी कि किस तरह से डाक्टरों में इस बात को फैलाया जाये कि वो मरीज़ों को जेनरिक दवाएं ही लिख कर दें। 

महंगाई के इस दौर में मरीजों की मदद के लिए भारतीय चिकत्सा परिषद (इंडियन मेडिकल काउन्सिल ) आगे आई है।  यह संस्था देश में डाक्टरों का रजिस्ट्रेशन करती है तथा उनके लिए आचार संहिता तय करती है। इस संस्था में पंजीयन कराये बिना कोई भी डाक्टर मरीजों का इलाज नहीं कर सकता है और यदि इस संस्था को लगे कि डाक्टर ने इलाज में आचार संहिता का पालन नहीं किया है तो डाक्टर का लाइसेंस रद्द किया जा सकता है। इस संस्था ने व्यावसायिक आचरण,शिष्टाचार तथा सहिंता नियमावली 2002 की धारा 1 - 5 में स्पष्ट उल्लेख किया है - "जहां तक सम्भव हो सभी फिजिशियन ,जेनेरिक नाम से दवाइओं को लिख कर दें।  वह सुनिश्चित करें कि उनके द्वारा लिखा दवाई का पर्चा दवाओं के प्रयोग के बारे में संतुलित है।"

इंडियन मेडिकल काउन्सिल ने तो नियम बना दिया परन्तु अभी देश में यह अच्छी तरह से लागू नहीं है। अतः अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत के कार्यकर्ताओं का यह कार्य है कि वो डाक्टरों से मिलकर प्रार्थना करें कि डाक्टर अधिक से अधिक जेनेरिक दवाइयाँ ही लिखें।  देश भर में फैले इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के पदाधिकारियों से मिलकर अनुरोध करें कि वह अपने सदस्यों को जेनरिक दवाइओं के अधिक से अधिक उपयोग के लिए प्रेरित करें 

Saturday 12 April 2014

जब मुलायम के गुरु लोहिया संघ की मदद से चुनाव लड़े

डा राममनोहर लोहिया  का खुद को चेला  बताकर ,समाजवादी होने का ढोंग रचाकर ,परिवारवाद की राजनीति करने वाले मुलायम सिंह का न तो लोहिया  से कुछ लेना देना है ,न ही समाजवाद से। हमेशा मुलायम उसी कांग्रेस की गोद में बैठने को तैयार रहते हैं ,जिसके विरुद्ध उनके गुरु डा राममनोहर लोहिया कदम कदम पर लड़ने को तैयार रहते थे। एक तरफ जहाँ डा राममनोहर लोहिया कांग्रेस के विरोध में सभी विरोधी दलों को एक साथ लेने के लिए तत्पर रहते थे ,मुलायम उनके साथ सिर्फ अपना मतलब सिद्ध करने के लिए जाते हैं। ऐसा नहीं कि कांग्रेस में अब कोई बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया है , वह तो पहले से अधिक स्वार्थी और भृष्ट हो गई है.अपने साथ साथ उसने मुलायम को भी भृष्ट कर दिए है और समाजवाद को भी।

60 के दशक में विभिन्न प्रदेशों में संविद सरकारें देश में पहली बार बनी थीं। इसके पीछे की लोहिया की भूमिका को मुलायम भूल सकते हैं देश नहीं। उस समय डा राममनोहर लोहिया  ने किन राजनैतिक दलों को साथ लिया था उसे जानबूझ कर मुलायम इसलिए नहीं याद करना चाहते क्योंकि इससे उनके परिवार की राजनैतिक महत्वकाँक्षाऐं प्रभावित होती हैं यह सभी बातें उनके दिमाग में इस तरह घुस गई हैं की वह देश समाज सभी को भूलकर अनर्गल प्रलाप करने लगे हैं ,सामाजिक विखंडन करने में लग गए हैं।

संघ और बी जे पी को पानी पानी पी पी कर कोसने वाले मुलायम के गुरु राममनोहर लोहिया राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ की सहायता से ही कांग्रेस के नेहरू को चुनौती देने में सक्षम हुए वह संघ की ताकत पर ही चुनाव लड़ने को तैयार हुए। बात 1962 चुनाव की है ,लोहिया प्रयाग प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी से यह अनुरोध करने के लिए आये थे कि ब्रह्मचारी जी नेहरू जके खिलाफ प्रयाग से चुनाव लड़ें ,ब्रह्मचारी जी ने कहा कि 1952 में वह चुनाव दूसरे प्रश्नों के कारण लड़े थे अभी जो प्रश्न हैं उन पर आप अच्छा काम कर सकते हैं। यही नहीं ब्रह्मचारी जी ने लोहिया को प्रयाग से नेहरू के खिलाफ चुनाव लड़ने को कहा। लोहिया का कहना था कि प्रयाग सीट पर उनका बहुत कम काम है अतः वह कैसे लड़ सकते हैं।  इस पर ब्रह्मचारी जी ने उन्हें प्रयाग के जिस व्यक्ति से मिलने को कहा वह थे राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ के चतुर्थ सरसंघचालक श्री रज्जु भैया जी ,लोहिया रज्जु भैया जी से मिले जो उन दिनों वहीँ पर संघ कार्य करते थे , रज्जूभैया जी ने लोहिया को सभी बातें विस्तार से समझाईं कि ब्रह्मचारी जी का चुनाव कैसे लड़ा गया ,क्या मुद्दे थे ,कैसे वोट मिले ,क्या बातें सामने आयीं , नेहरू को कैसे अच्छी टक्कर दी जा सकती है आदि आदि। लोहिया का कहना था कि उस क्षेत्र में उनकी 2 ,3 स्थानों पर भी कमेटियां नहीं हैं ,जनसंघ से भी कभी कभी ही बात होती है , इस स्थिति में काम कौन करेगा। रज्जू भैया जी ने उन्हें समझाया की संघ की उस क्षेत्र में 60 शाखाएं हैं अतः संपर्क का लाभ उठाया जा सकता है ,यदि आप खड़े होते हैं तो उन लोगों के लिए काम करने में कोई कठिनाई नहीं होगी। रज्जु भैया जी की इस बात से लोहिया जी खुश हो गए और कहने लगे यदि 60 जगह पर आपका संपर्क है तो ठीक है सभी जगह कह देना। लोहिया जी प्रयाग से राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ की सहायता से चुनाव लड़े , अच्छा लड़े। नेहरू जो उन दिनों सबकी जमानत जब्त करवा देते थे लोहिया की जमानत जब्त नहीं करा पाये।

आज मुलायम के पास न तो समाजवाद का सिद्धान्त है न ही कोई विचारधारा। एक भीड़ है जिसके सहारे वह वह तमाम हथकंडे अपनाकर सत्ता में रहना चाहते हैं। जहाँ विचारधारा समाप्त हो जाती है ,देश समाज के विषयों का महत्व ख़त्म हो जाता है। इसका स्पष्ट चित्र देश के सामने है ,इस तरह के दल और व्यक्ति का क्या करना चाहिए सब जानते हैं विशेष रूप से आज का प्रबुद्ध युवा मतदाता। 

Wednesday 9 April 2014

जीवनावश्यक वस्तुओं कि कीमतें स्थिर रखी जाएँगी।

अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत ने भा ज पा सहित सभी राजनैतिक दलों को ग्राहकों की मांगों से सम्बन्धित एजेंडा घोषणापत्र में शामिल करने को भेजा था। सबसे अहम् मांग जीवनावश्यक वस्तुओं की कीमतों के बारे में थी।  ग्राहकों ने बीते 10 सालों की सरकार के कार्यकाल में भुगता है ,हर दूसरे दिन कीमतें बढ़  जाती थी , डीजल ,पेट्रोल और रसोई गैस ने तो हद ही कर दी थी। मुख्य मांग थी बजट से बजट तक जीवनावश्यक वस्तुओं की कीमतें स्थिर रखी जाएँ। भा ज पा ने अपने घोषणा पत्र में ग्राहक पंचायत की इस मांग को प्रमुखता दी है। वादा किया है कि जीवनावश्यक वस्तुओं कि कीमतें स्थिर रखी जाएँगी।


ग्राहक पंचायत भा ज पा के घोषणा पत्र का स्वागत करती है।हम चुनाव में भा ज पा का समर्थन करने कि सभी ग्राहकों से अपील करते हैं तथा यह भी विश्वास दिलाते हैं कि  ग्राहक पंचायत यहाँ रुकने वाली नहीं है। दिन रात सर्कार पर निगाह रखेगी और ग्राहकों से किये वादों को पूरा करने के लिए दबाव बनाएगी।

Thursday 3 April 2014

कांग्रेस जानबूझकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में ग़लतफ़हमी फैला रही है

स्वतन्त्रता पूर्व से ही कांग्रेस नेता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  प्रति विद्वेष पाले हुए थे। यद्यपि उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे  में तनिक भी जानकारी नहीं थी। न जाने किन राजनैतिक कारणों से उनमें यह ग़लतफ़हमी थी। जबकि संघ के कई पुराने स्वयंसेवक आज़ादी से पूर्व
कांग्रेस के साथ मिलकर स्वतन्त्रता की लड़ाई में लगे हुए थे। संघ की प्रारम्भ से ही प्रचार विमुख रहने की आदत रही है , जिसके कारण संघ ने कभी समाज को अपने बारे में अधिक कुछ बताया नहीं और कांग्रेस के नेता दुस्प्रचार करते हुए समाज के मन में विष का बीजारोपण करते रहे , संघ के स्वयंसेवकों द्वारा राजनैतिक दल जनसंघ कि स्थापना के बाद से तो उनका संघ और जनसंघ पर हमला और तेज हो गया। दूसरे कांग्रेस के नेहरू इस बात का खास ख्याल रख रहे थे कि उनके लिए कोई भी राजनैतिक दल चुनौती न बन पाये , आतः उन्होंने धर्मगत, जातिगत सभी समीकरण बैठा ली थी। उन्हें अन्य किसी दल से तो खतरा था ही नहीं ,सिर्फ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों के जनसंघ से खतरा था कि कालान्तर में यही दल कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती बन सकता है। अतः उन्होंने प्रारम्भ से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ पर साम्प्रदायिकता कि मुहर लगानी शुरू कर दी थी। आज भी देश में कांग्रेस और अन्य दल इसी साम्प्रदायिकता के आरोप के सहारे जनसंघ के संवर्धित स्वरुप भा ज पा से चुनाव में मुकाबला करते हैं। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चतुर्थ सरसंघचालक प्रो रज्जू भैया के बारे में पड़ते हुए एक प्रकरण सामने आया जिससे पता चलता था कि कांग्रेस के बड़े नेता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे फिर भी उसके विरुद्ध विष वमन करते थे। गांधी जी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था , अन्य स्वयंसेवकों के साथ रज्जू भैया भी जेल में थे , उनकी माता जी उनसे मिलने आती थी , उन्होंने लगभग ५ महीने बाद रज्जू भैया के पिताजी से जो कि चीफ इंजीनियर थे और बहुत व्यस्त रहते थे से कहा कि आप भी एक बार अपने बेटे से जेल में मिल आइये। जब रज्जू भैया के पिता जी उनसे मिलने रेल से जा रहे थे ,शास्त्री जी भी उसी डिब्बे में थे। उन्होंने पूछा कि कहाँ जा रहे हो। रज्जू भैया के पिताजी ने कहा मेरा बड़ा बेटा राजेन्द्र जेल में है ,उसीसे मिलने जा रहा हूँ। शास्त्री जी ने कहा आपका बेटा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का बड़ा कार्यकर्ता  है। उसे समझाईये कि संघ जैसे खतरनाक संगठन में न जाये। रज्जू भैया के पिताजी ने थोडा रूककर कहा कि मैं संघ के बारे में तो अधिक नहीं जानता ,परन्तु अपने पुत्र को अच्छी तरह जनता हूँ , अगर मेरा पुत्र उस संस्था में है तो वह संस्था ख़राब नहीं हो सकती। तब शास्त्री जी ने कहा कि अपने पुत्र से कहिये कि संघ के विषय में बताते हुए एक पत्र मुझे लिखे।  रज्जू भैया ने शास्त्री जी को पत्र लिखा, यह पत्र बाद में पाञ्चजन्य में भी छापा था। शास्त्री जी ने 2 - 3 दिन बाद ही 5 - 6 स्वयंसेवकों के रिलीज आर्डर भिजवा दिए। इस घटना से स्पष्ट है कि कांग्रेस के बड़े नेता भी संघ के बारे में नहीं जानते थे , जिसे पता चल जाता था वह संघ के प्रति आदर भाव से भर जाता था। संघ कि प्रचार विमुखता इसमें और बाधक बनी। कांग्रेस के नेता समाज को संघ के बारे में उल्टी सीधी बातें बता कर भ्रमित करते रहे , बाद में तो राजनैतिक कारणों से सम्प्रदाय विशेष को अपने से मिलाने के खेल में,  यह कांग्रेस के लिए शिगूफा ही बन गया।तब से आज तक कांग्रेस के नेताओं ने संघ के खिलाफ साम्प्रदायिकता की गेंद उछालने में लगे हुए हैं , दूसरे दलों को भी यह बात अपेक्षाकृत सरल लगती है , इसीलिए वह भी इस में शामिल हो जाते हैं।  आज भी बहुत से लोग संघ के विषय में न जानते हैं, न समझते हैं। कांग्रेस के नेता अपनी राजनेतिक रोटियां सेंकने के लिए समाज को भ्रम में बनाये रखने में लगे हुए हैं।  

2014 का जो चुनाव महंगाई , भृष्टाचार को केन्द्र में रख कर लड़ा जाना चाहिए , वह आज साम्प्रदायिकता पर केंद्रित हो रहा है। कोई भी दल कांग्रेस से महंगाई , भृष्टाचार को केंद्र में न रख कर सवाल नहीं पूछ रहा है।  सभी भा ज पा को सांप्रदायिक ठहराने में जी जान से जूटे  हैं। और तो और जिनका जन्म ही भृष्टाचार का विरोध करने के लिए हुआ था ,वह भी इसी राग का रियाज करने में जुट गए हैं। यह तो बात चुनाव के समय की  है। संघ के स्वयंसेवकों के सामने, समाज की ग़लतफ़हमी दूर करने का यह बहुत बड़ा कार्य है।  अब समय भी अधिक नहीं है , कार्य बढ़ने के लिए और देश की प्रगति के लिए यह बहुत ज़रूरी है। 

Wednesday 2 April 2014

अन्ना ने केजरीवाल को उसकी औकात बता दी ,अपने अपमान का बदला ले लिया

अन्ना हज़ारे ने केजरीवाल को आईना दिखा दिया। अन्ना की भ्रष्टाचार विरोधी छवि का फायदा उठाकर ,पहले अन्ना  के साथ अपना नाम चमकाने और फिर अन्ना से अलग होकर राजनैतिक दल बनाने वाले केजरीवाल की हरकतों से अन्ना हतप्रभ ही नहीं क्षुब्ध भी थे।सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में विख्यात ,बेदाग छवि के अन्ना राजनीति से कोसों दूर थे। वह ठगा महसूस कर रहे थे जब केजरीवाल अन्ना  के  नाम का दिल्ली में भ्रम फैलाकर,रात दिन कांग्रेस को कोसने के बाद भी कांग्रेस की  ही मदद से दिल्ली का मुख्यमन्त्री  बन गया। शासन में आने के बाद केजरीवाल ने कभी बंगले के नाम पर ,कभी सुरक्षा के नाम पर तो कभी आम लोगों के काम करने के नाम पर जिस तरह की उछल कूद मचाई उससे अन्ना की जिंदगी भर में कमाई छवि को नुकसान पहुँच रहा था। दूसरे अन्ना यह भी समझ चुके थे कि केजरीवाल अपने विदेशी आकाओं के इशारे पर, देश के खिलाफ षड्यंत्र कर रहा है।  अतः उनके लिए यह ज़रूरी हो गया था कि न सिर्फ केज़रीवाल से दूरी बढ़ाएं बल्कि  केजरीवाल का कद बढ़ाने में मदद करके उन्होंने जो पाप किया था उसका प्रायश्चित भी करें। अन्ना के लिए यह बहुत ज़रूरी हो गया था कि केजरीवाल को उसकी औकात बतायें।

अन्ना समझ गए थे कि शीर्ष पर बने रहने के लिए दो रास्ते होते हैं ,पहला लगातार आगे आगे बढ़ते जाना ,दूसरा जो आगे बढ़ रहा है उसकी टांग खींचकर उसे पीछे धकेलना। आजकल विश्व के शीर्षस्थ देश दूसरा रास्ता अपना रहे हैं। चारो और दुनिया के देशो में जो अराजकता तेजी से बढ़ी है उसके पीछे यही कारण है। यह करने के लिए शीर्षस्थ देशों की कार्यप्रणाली भी अजीब है ,वह उसी देश के लोग चुनते हैं जिसकी टाग खींचनी
होती है।शीर्षस्थ देश उस देश के एन जी ओ को धन देकर उनके माध्यम से उसी देश की जनता को विरोध करने के लिए खड़ा करते हैं।  एक उद्धरण है सभी  जानते हैं कि देश में बिजली की कितनी कमी है ,इसे पूरा करने के लिए हमे तेजी से पॉवर प्लांट लगाने होंगे , यदि हम इस दिशा में तेजी से बढ़ना चाहते हैं तो परमाणु पॉवर प्लांट से बेहतर कोई विकल्प नहीं है। कुछ दिन पहले तमिलनाडु के कुडानकुलम में परमाणु बिजली घर लगाया गया था। शीर्षस्थ देश नहीं चाहते कि हमारा देश जल्दी जल्दी उन्नति करे ,उन्होंने खड़ा कर दिया अपने धन से पलने वाले एन जी ओ को विरोध करने के लिए। आप सभी जानते हैं किस तरह से विरोध हुआ था। दूसरी तरफ 2009 से कांग्रेस पार्टी अपनी पकड़ खोती जा रही थी। जो खेमा मज़बूत होकर उभर रहा था वह उसी अटल बिहारी बाजपेयी के दल से सम्बंधित था जिसने अमेरिका के लाख विरोध के बाद भी पोखरण परमाणु परीक्षण करवा दिया था।यही नहीं अमेरिका के प्रतीबन्धो की परवाह न करते हुए प्रतिबन्ध समाप्त करवाने में उसे घुटने टेकने पर मज़बूर कर दिया था। देश में स्वाभिमान जागने लगा था। बाद में कारगिल युद्ध के समय जब अमेरिका ने भारत और पाकिस्तान के प्रधानमन्त्रियों को समझौते के लिए बुलाया था ,भारत ने मना कर दिया था। अमेरिका उस समय खून के घूंट  पीकर रह गया था। इस बार तो मोदी आगे था ,जो हट में अटल जी से कहीं आगे हैऔर अमेरिका ने वीसा मामले में उनसे पहले ही पंगा पाल रखा है।

 अतः अमेरिका ने फोर्ड फाउंडेशन के माध्यम से 2005  से 2010 तक करोड़ों रुपया खाने वाले केजरीवाल को तलब किया। तय यह हुआ कि भ्रष्टाचार का शोर मचाकर भीड़ जुटाई जाये। केजरीवाल कि औकात नहीं थी कि लोगों को इकठ्ठा कर सके। तलाश शुरू हुई ,अन्ना जो महाराष्ट्र में काफी काम कर चुके थे, साफसुथरी छवि के गाँधीवादी थे ,उन्हें केजरीवाल ने पटाया ,अन्ना सीधे साधे गांव  के  निवासी थे झांसे में आ गए।और भी लोगों को जोड़ा गया ,अधिकतर एन जी ओ वाले ही थे।  दिल्ली में अनशन शुरू हुआ भीड़ बढ़ी। केजरीवाल खुश हो गया। उसने तो अन्ना का बलिदान करने के योजना बना ली थी ताकि देश में अशांति फ़ैल जाये ,उस समय रामलीला मैदान पर अन्ना के खींचते अनशन के बारे में सोचिये ,अग्निवेश द्वारा किये खुलासे के बारे में सोचिये और बाद के घटनाक्रम जिसमे अन्ना कि परवाह करे बिना राजनैतिक पार्टी बना ली गई ,अन्ना को दूध कि मक्खी की तरह निकाल कर जिस तरह फेंक दिया,गया पूरे  घटनाक्रम को एक साथ रखकर सोचिये। योजना तो दूसरी थी। शुरू में अन्ना चुप रहे ,अन्ना के चुप रहने का शातिर केजरीवाल ने फायदा उठाया और दिल्ली के चुनावों में अन्ना के नाम का उपयोग करके आगे बढ़ने में सफलता प्राप्त कर ली।

इसीलिए ज़िन्दगी भर राजनीति से दूर रहने वाले अन्ना ने भी केजरीवाल की तरह ही एक चाल चली.उन्होंने मुख्यमन्त्री केजरीवाल पर  कटाक्ष करना शुरू किया , बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी कि तारीफ करनी  शुरू कर दी ,यही नहीं ममता को हर मामले में केजरीवाल से अच्छा बताया और तो और खुद भी ममता का प्रचार करने के लिए आगे बढे ,मंच साझा किया ,वह सब किया जो उन्होंने ज़िंदगी में कभी नहीं किया था। पूरा देश उन्हें हतप्रभ सा देख रहा था ,कुछ तो यह भी कह रहे थे कि अन्ना सठिया गए हैं , पर अन्ना चुपचाप प्रायश्चित करने में लगे थे। कुछ बोले बिना केजरीवाल की औकात देश को बता रहे थे। देश के लोगों  को केजरीवाल की असलियत दिखा रहे थे। सबने देखा होगा कि इन्ही दिनों केजरीवाल का विरोध ही नहीं बढ़ा बल्कि दिल्ली के लोग भी तरह तरह की आलोचनाएं करने लगे। ममता की दिल्ली रैली तक अन्ना ने यह सब चलने दिया ,उसी दिल्ली तक जहाँ उन्होंने देश को समझाया था कि वह तो सामाजिक कार्यकर्ता हें  ,राजनीति से उनका कोई लेना देना नहीं है।जिन  दिल्ली के नागरिकों को केजरीवाल ने उनके नाम पर गुमराह किया था , उन्हें इशारों इशारों में समझा दिया कि केजरीवाल नौटंकी है ,उससे उनका कोई लेना देना नहीं है, वापस रालेगाव सिद्धी लौट गए अपने उसी पुराने सामाजिक परिवेश में।अब पूरा देश समझ चुका है ,सामाजिक कार्यकर्ताओं को धोखा देने वाला मदांध केजरीवाल कितनी भी उठा पटक कर ले. देश कि जनता समझ गयी है। अन्ना  ने अपना बदला ले लिया है। 16 मई को देश की जनता इस सामाजिक जरासन्ध का वध करने वाली है , केजरीवाल और उसकी आप पार्टी दोनों का विसर्जन होना है। 


Tuesday 1 April 2014

मिनिमम बैलेंस नहीं और सभी शुल्क भी ख़त्म करे रिज़र्व बैंक

बैंक उन ग्राहकों से पेनल्टी वसूल न करें जो अपने खातों में मिनिमम बेलेन्स सुचारु रूप से नहीं रख पाते हैं , रिजर्व बैंक का आज जारी किया गया यह निर्देश स्वागत योग्य है। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत रिज़र्व बैंक द्वारा उठाये इस कदम के लिए उन्हें धन्यवाद देती है, बहुत से लोग जो देश को जानते पहचानते नहीं हैं ,इस बात को नहीं समझ पायेंगे कि देश का सामाजिक आर्थिक जीवन किस स्तर का है। विभिन्न आर्थिक गतिविधियों में उनका सहभाग रहे , इसके लिए क्या आवश्यक है। आजकल बैंक जिस तरह का आचरण अपना रहे हैं, उसे देखकर लगता है कि हम एक विकसित अर्थव्यस्था में रह रहे हैं। हमारे देश के ग्राहक खुशहाल हैं तथा किसी भी तरह का आर्थिक बोझ उठाने में सक्षम है। अतः वह विभिन्न सेवाओं के नाम पर तरह तरह के सेवा शुल्क ग्राहकों से वसूलने में लगे हैं। बैंक एक तथ्य को पूरी तरह नकार रहे  है कि सरकार चाहती है कि अधिकतर  आर्थिक लेन देन बैंकों के माध्यम से हों ताकि टैक्स की चोरी को रोका जा सके, काले धन पर काबू पाया जा सके। इसके लिए जरुरी है कि देश के बहुसंख्य लोग बैंकों के माध्यम से ही अपना आर्थिक व्यवहार करें, जिसके लिए आवश्यक है कि ग्राहकों को बैंक व्यवहार के लिए प्रोत्साहित किया जाये , परन्तु बैंकों का आचरण इसके ठीक विपरीत है, जब भी कोई साधारण ग्राहक बैंक व्यवहार के लिए जाता है, बैंक अपनी विभिन्न सेवाओं के माध्यम से उससे इतने पैसे वसूल लेते हैं कि ग्राहक बैंक को दूर से ही नमस्कार करने में अपनी बेहतरी समझता है। रिज़र्व बैंक को ऐसे समय में ग्राहक कि मदद करनी चाहिए, परन्तु वह भी अपने हाथ खड़े कर देता है। ग्राहक क्या करे ,इस तरह से देश का काले धन का कारोबार किस तरह रुकेगा।  अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत ने इस सम्बन्ध में एक पत्र रिज़र्व बैंक के गवर्नर को लिखा था ,परन्तु उनके कार्यालय ने विषय कि गम्भीरता को दर किनार करते हुए ,ग्राहक पंचायत को अपना रुटीन उत्तर भेज दिया।रिज़र्व बैंकों को ग्राहक पंचायत के प्रतिनिधियों को चर्चा के लिए बुलाना चाहिए, उनसे चर्चा करके बैंकों कि शुल्क नीति में बदलाव करना चाहिए था।  

देश के सामाजिक आर्थिक पक्ष को थोड़ी देर के लिए छोड़ भी दें , हालाँकि रिज़र्व बैंक का गठन इसी पक्ष के हित लाभ की  रक्षा करने के लिए हुआ है , तो भी बैंक व्यवहार एक द्विपक्षीय करार है जो बैंक तथा ग्राहक के बीच तब होता है जब ग्राहक बैंक में अपना खाता खोलता है।  सारी  शर्तें उसी वक्त तय हो जाती हैं , यदि उन शर्तों में किसी तरह का बदलाव लाना है तो यह बदलाव दोनों पक्षों कि सहमति से तय करके होना चाहिए। रिज़र्व बैंक को इसमें मध्यस्थ की भूमिका निभानी चाहिए ,परन्तु देश में हो उल्टा रहा है, रिज़र्व बैंक ने इस व्यवहार से हाथ धो लिए हैं, सभी बैंक ग्राहक को अपनी जागीर समझते हैं , जब जिस तरह का मन में आता है ग्राहक के खाते से पैसे काटने लगते हैं।  रिज़र्व बैंक को बैंकों द्वारा वसूले जाने वाले  सभी तरह के शुल्कों पर तुरंत प्रभाव से रोक लगनी चाहिए , पहले वह इन शुल्कों के विषय में ग्राहकों के प्रतिनिधि अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत से शुल्कों के विषय में चर्चा करें , सहमति बनने  कि दशा में ही शुल्कों को लागू किया जाये , यह ग्राहकों का सवैधानिक अधिकार है।     

ग्राहक पंचायत इस विषय को लेकर गम्भीर है, रिज़र्व बैंक से निवेदन करता है कि विषय की गम्भीरता को समझे।  विशेषकर इस संदर्भ में कि सरकार् देश के गरीब ग्राहकों को भी बैंक खाते खुलवाने के लिए मज़बूर कर रही है ,ताकि वह बैंकों के माध्यम से विभिन्न सरकारी योजनाओं के पैसे ग्राहकों के खातों तक पहुंचा सके। खुलने वाले बैंक खाते गरीब ग्राहकों के लिए सजा बनते जा रहे हैं। बैंकों द्वारा वसूले जाने वाले शुल्क अधिक, अतार्किक ,अनैतिक तथा गैरकानूनी हैं। ग्राहक पंचायत इस अन्याय के विरुद्ध ग्राहकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए , विभिन्न प्लेटफॉर्मों पर अपनी लड़ाई लड़ने का विकल्प खुला रखती है।

Thursday 20 March 2014

आंकड़ों के मकड़जाल में उलझकर रह गया देश का गरीब ग्राहक


देश समाज में गरीबी या गरीबों की जब भी बात होती है।राजनीतिज्ञ ,अर्थशास्त्री तथा बुद्धिवादी आंकड़ों को लेकर पिल पड़ते हैं। इन आंकड़ों के इर्दगिर्द अपने तर्कों कि गाठें लगाकर पूरे विषय को आंकड़ों के मकड़ जाल में उलझकर जस का तस छोड़ देते हैं। हर बार यही होता है ,कोई उपाय या मार्ग खोज पाना कठिन होता जाता है  ,आंकड़ों का सहज सरल विश्लेषण शायद इन बुद्धिवादिओं की बुद्धि पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दे इस दर से यह कभी इस पचड़े में नहीं पड़ते। हम आंकड़ों कि विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगा रहे हैं। चाहे वह सरकारी,निजी या अन्य किन्ही व्यवस्थाओं से प्राप्त किये गए हों। प्रश्न चिन्ह तो इन आंकड़ों के आधार पर किये विश्लेषण द्वारा निकले निष्कर्ष पर लगता है। जिन्हे आप कहीं भी ,कभी भी ,किसी भी स्थान पर परखने का प्रयास कर के देख लीजिये। आप को आंकड़ों के आधार पर निस्पादित निष्कर्ष से कहीं अधिक भयावह वास्तविकता  मिलेगी। औसत के आधार पर जुटाए यह आंकड़े ,काल्पनिक स्थितियों का ही अधिक वर्णन करते हैं। आश्चर्य इस बात का है कि इस बात को सभी जानते हैं ,फिर भी न जाने  किस कारण, क्यों देश के गरीब ग्राहकों को कभी समझ न आने वाली इस बात को समझाने का प्रयास कर उन्हें इस मकड़जाल में उलझाने  में लगे रहते हैं। यह बुद्धिवादी न तो इससे निकलने का कोई प्रयास करते दिखाई देते हैं ,न ही कोई वैकल्पिक मार्ग खोजते। शायद उन्हें यह पचड़ा लगता हो और वह किसी पचड़े में न पड़ना चाहते हों। तब तक आजकल कोई किसी मामले में हाथ नहीं डालता ,खासकर वह जिसकी जिंदगी आराम से चल रही हो ,जब तक कोई मामला उसके गले मैं फांस बनकर न अटक जाए। अतः सभी इस मुद्दे से कन्नी काटना ही बेहतर समझते हैं। यह साधारण सी बात जो मेरे जैसे अल्पबुद्धि कि समझ में आती है ,वह यह कि औसत के आधार पर निकले आंकड़ों का महत्व तभी होता है जब न्यूनतम और अधिकतम आंकड़ों के बीच अंतर 5 प्रतिशत से अधिक न हो। तभी औसत के आधार पर निकाले आंकड़े वास्तविकता के नज़दीक होते हैं। अगर एक व्यक्ति कि आय १००० रुपये हो ,दूसरे कि 100 रुपये व् तीसरे कि 50 रुपये तो औसत  के अधर पर तीनों कि आय 383 रुपये बताना हास्यास्पद होगा , आजकल देश में हो यही रहा है तभी देश कि कुल सम्पत्ति का 70 प्रतिशत मात्र 8200 लोगों के हाथों में सिमट कर रह गई है। और देश कि पूरी कि पूरी आबादी 30 प्रतिशत कि हिस्सेदार होकर रह गई है।  इन परिस्थितियों में वाही होता है जो देश में हो रहा है। जब तक हमारे नीति निर्माता इन स्थितियों को को सुलझाने कि तैयारी नहीं दिखायेंगे तब तक बात नहीं बननें  वाली। गरीबों की स्थितियों में सुधार नहीं होने वाला। 

गरीबों की स्थितियों में सुधार की योजनायें बनाने के लिए धन की आवश्यकता होगी। अतः महत्वपूर्ण यह देखना होगा कि सरकार  इस अतिरिक्त धन कि व्यवस्था कैसे करती है। अपनी आय के श्रोत कैसे बढाती है। आय के श्रोत बढ़ाने में किस वर्ग पर अधिक बोझ डालती है। स्वाधीनता के बाद से देश कि कुल आय के श्रोत और इस आय के नियोजन के कुल आंकड़े निकाल  कर देख लीजिये। यह वस्तुस्थिति सामने आ जायगी कि सभी सरकारें गरीबों से धन वसूल कर (अप्रत्यक्ष कर ) उसका अधिकतर भाग अमीरों पर लुटाती रही हैं ,नतीज़तन गरीब निचुड़ता चला गया और अमीर अधिक अमीर बनता चला गया। स्वाधीनता के बाद कि आय को 3 श्रेणियों में बांटना है। 

1 देश का बुनियादी ढांचा विकसित करने में। 
2 गरीब लोगों के लिए बनाई योजनाओं में। 
3  उद्योग /व्यापार को दी सुविधाओं पर किया खर्च।

बुनियादी सुविधाओं पर किये खर्च को भी गरीबों पर किया खर्च समझा जाये ,क्योंकि गरीब भी इससे लाभान्वित होते है। इसमें से भ्रष्टाचार के धन को निकाल दें , क्योंकि भ्रष्टाचार में गया धन प्रभावशाली लोगों की  जेब में  जाता है। उसी तरह उद्योग /व्यापार को दी सुविधाओं पर खर्च में ,उन्हें सस्ती दर पर दी जमीन ,टैक्स की छूट ,कस्टम ड्युटी की छूट तथा दिए गए विभिन्न अनुदानों को जोड़ लें ,जिनमें बिजली ,पानी ,सस्ती दर पर कोयला आदि सभी आ जाता है। स्थितियां खुद ब् खुद सामने आ जायेंगी ,धन आया किधर से है और गया किधर है। यह न समझा जाये कि हमें किसी देश की प्रगति में उद्योग का महत्व नहीं मालूम। उद्योग देश के विकास तथा रोजगार सृजन में क्या भूमिका निभाते हैं। परन्तु यहाँ बात तो गरीबों से वसूले धन के नियोजन की चल रही है। विडंबना यह कि गरीबों से वसूल कर उद्योग /व्यापार को तो धन दिया ही गया ,उद्योग /व्यापार ने भी गरीब ग्राहकों को चूसने में कोई कसर नहीं बाकी रहने दी। नतीजतन गरीब लूटकर और गरीब होता चला गया और अमीर अधिक अमीर। 

दरसल सरकार दोनों में सन्तुलन रखने की भूमिका निभाती है। दुर्भाग्य से सरकार ने दबाव व् स्वार्थ के चलते उससे हाथ खींच लिए। 60 सालों से यही चलता आ रहा है। उद्योग /व्यापार को कितना भी मुनाफा ग्राहक से वसूलने कि छूट है। अतः उद्योग /व्यापार दोहरा लाभ कमा रहे हैं , सरकार से सुविधायें लेकर ,ग्राहकों से जबरदस्त मुनाफा वसूलकर ,जिसकी वजह से जो पैसा गरीब ग्राहकों के हाथों में रहना चाहिए वह उद्योग /व्यापार के हाथों में सिमटता जा रहा है।एक बात तो साफ़ है सरकार कोई भी बने स्थापित लीक पर चलने से कुछ नहीं होने वाला। इन परिस्थितियों को बदलने के लिए नवीन सम्भावनाएं तलाश करनी होंगी। यह रास्ता कठिन तो होगा ही ,बाधाओं से भी भरा होगा। क्योंकि स्थापित लीक के समर्थन में देश के प्रभावशाली लोग खड़े होंगे। परन्तु नवीन व्यवस्था को छोटे उद्योगों तथा कृषि को ,जो पिछले 10 वर्षों में हाशिये पर चले गए हैं ,सम्भालना होगा। हमारे देश में यही अधिकतम रोजगार का सृजन करते हैं और यही आर्थिक असुंतलन को कम करते हैं। आज जो  देश की जी डी पी 4. 5 % के करीब बची हुई  है ,इसी की  वज़ह से। 

विगत 10 वर्षों का विश्व के तथाकथित अर्थशास्त्रियों के शासन को देश ने बहुत अधिक भुगता है। आज अर्थव्यवस्था उस अन्धे मोड़ पर है ,जहाँ चारो और अँधेरा ही अँधेरा है। बात यहीं समाप्त नहीं होती है ,वर्तमान नेतृत्व ने देश को उन तमाम अंतर्राष्ट्रीय करारों में जकड दिया है ,जिनके कारण आने वाले नेतृत्व को लीक से हटने के साथ साथ राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन तमाम स्थापित व्यवस्थाओं से लड़ना होगा ,उन्हें तोडना होगा जो देश के सर्वांगीण विकास की राह की बेड़ियां बन चुकी हैं। अतः देश को एक शक्तिशाली नेतृत्व कि आवश्यकता है , जो इस कठिन दौर से देश को निकाल सके। 

ग्राहकों को कुछ ही दिनों में देश का नेतृत्व चुनने का मौका मिलने वाला है। अवसर गम्भीरता से विचार कर निर्णय लेने का है। परिवर्तन करने का है। देश की  भावी पीढ़ियों के भविष्य का है। सभी ग्राहक सावधानी से निर्णय लें ,सरकार  चुननें उखाड़ने में शत प्रतिशत सहभाग  करें। वोट जरूर दें। 

Thursday 23 January 2014

TRANSACTION TAX REQUIRES LOT'S OF RETHINKING

Let me clear in the beginning that we are not one, who oppose any new idea. But before advocating anything specially one associated with economics, needs lot of innovative thinking. On paper any scheme appears to be good, but in practice it comes out different.Those advocating the schemes are talking, only superficially. Specially in our
country where every one takes Law by words, not by spirit. Transaction Tax requires lot of thinking, we feel. It is some what like PURCHASE TAX proposed by Dr Ram Manohar Lohia. The idea is well explained in the different books of Dr. Lohia. Once you go through it you will find that the idea is not just vague. If it is implemented every one have to share burden of tax as per his purchasing capacity. Rich one will pay more tax in comparison with the poor one who has very little for purchasing. But it has nothing to do with the price rise. For the purpose Dr. Lohia suggests another alternative ,DAM BANDHO' fix the rates. No one advocated for it, not even SAMAJVADIS. Therefore it remained only in books. Anyway we are not discussing it.



Presently government has only asked to link Aadhar card with the  bank accounts. And we are the people finding it hard and tiresome for the consumers. Presently our country is not ready for it. Bank's can not take burden of all accounts. As per Reserve Bank of India, out of 6,30000 villages only 4,00,000 villages are having connectivity with Bank's. As per World Bank Findex Survey, only 35 adults in India have Bank Accounts. How we are going to cover our entire population by Bank's. We should think of creating infrastructure first. Even developed countries with strong Bank infrastructure could not dare to try any such formula. We are aware about the literacy rate of our country. We have to teach people how to work with the banks. It is also a herculean task. 

Secondly it is not eradicating cash transactions completely. Notes below 100 rs. denomination will be in transactions. Looking to present market people will need to carry heavy amount of notes with them. It is going to create new problems. We have to take estimation of cash transactions before proceeding in this direction. And how we are going to cover these transactions under the umbrella of tax.
We are aware that in olden times we were having BARTER system. In which no cash transactions were required to be made. Only commodities exchanged. Later on PRONOTE and HUNDI system came in. In these systems one person writes on paper that he has to pay certain amount to the holder of that paper. One who have that paper in his possession can exchange it with anything having that much value. Those having good reputation need not to have that much holding of money in their possession. Only under the belief that the person writing the Hundi, Pronote is reputed one. That paper moves in the market doing number of transactions, no one doubts it. That is how paper currency came in existence. If such system developed again for avoiding TAX, then what.

Our opinion is different, it is not the tax which effects price of a commodity in the market but several other factors contributes a lot in deciding the price of a commodity in the market. Specially greed of earning multiples higher profit. We are observing in the market that selling price of a commodity is 100,200 or 1000 times higher to its production cost. Several time govt. gives relaxation in tax, with an intention of passing i to consumers. But consumers never get the benefit of this relaxation. We feel that price rise is a mentality, not effect of any tax. This is not going to effect that mentality.

One thing is important to mention, it is not the system that works but intentions of the society. If intentions are good anything will work, otherwise nothing. The system is not foolproof as supporters are claiming a long way to go, a lot to be discussed

Thursday 9 January 2014

BANK'S ARE GOING TO INVITE PROBLEM IF THEY GO FOR CHARGING 'ATM' FEE,( AKHIL BHARTIYA GRAHAK PANCHAYAT)

                                

Akhil Bhartiya Grahak Panchayat strongly condemn the initiative of Bank's to start charging on ATM withdrawals. Since RBI had given free hand to bank's for deciding their charges. Consumers are feeling cheated for the exorbitant  service charges imposed by the Bank's. These service charges are swelling every now and then. Beside exorbitant difference in the interest rate the Bank's are paying and charging. The bank's are making the consumers to cough out a good money only in the name of service. Reserve Bank not only intervene in the matter,but take regulation of  the service charges in his hand. An intervention in regulation of service charges is necessary to save consumers from exploitation. 

Akhil Bhartiya Grahak Panchayat desist Bank's to stop such practice, forget charging on ATM for withdrawals. Otherwise we will be forced to start nation wide agitation against the Bank's. We promise Bank's are going to invite problem, if they go for charging ATM fee.

After the ATM incident of Bangalore, bank's are directed of providing security to the consumers. And in the name of making provision of Guard at ATM, Bank's are crying for increase in their cost. In the name of this increased cost they are asking for ATM fee, which is no where in the world. Bank's think there is no one to raise voice for the consumers therefore they are free to charge any amount, to make any statement, to give any reason. But Grahak Panchayat will not allow it to happen. In fact it is responsibility of the bank to provide safety when consumer enters in their ATM. Because Consumer only avails banking services inside ATM box, which are promised by the bank. Therefore it is not different from Bank premises. Argument for cost increase in provision of Guard is a foolish argument. Which we are unable to digest. Bank's are not erecting ATM's in any fancy mood. But they are opting it to save their cost. In fact consumer is obliging bank's by using ATM. This cooperation of the consumers have given opportunities to the bank's, for making deep savings in their manpower cost. The Bank's should part with the consumer with this amount saved and should reduce other service charges.

Bank's should not take it lightly. They should come forward and withdraw their statements and apologize consumers. If they are having any slight ray of hope, that they will be able to introduce withdrawal charges from ATM. They should prepare themselves to face the music of the consumers ire in the leadership of Akhil Bhartiya Grahak Panchayat, in every town of the country. 

While agitating we may request the consumers to stop using ATM. Instead personally go to the Bank branch for each and every transaction. We will also see that the bank branch is forced to provide service to each and every consumer with in a fair/prescribed time span. It is headache of Bank Branch and bank officers to manage the show within a fair prescribed time period. It may be 2000 or 5000 consumers in the bank branch for withdrawal of money at a time. We are serious and we want Bank's also to take it seriously.