Tuesday 21 July 2015

राहुल व कांग्रेस गांव प्रेम की नौटंकी कर रहे हैं

लोकसभा मे 44 सीटों पर सिमटने तथा अनेको राज्य सरकारें हाथ से निकल जाने के बाद कांग्रेस का गांव, गरीब, मजदूर और किसान प्रेम अचानक कुलांचे मारने लगा है। तभी तो राहुल कभी रेहड़ी वालों के बीच, कभी आटो वालों के बीच पँहुचकर उनके सबसे बडे हितैषी बनने की बात करते हैं, भूमि अधिग्रहण बिल पर ग्रहण लगाने के लिये किसानों के सबसे बडे मसीहा बनते हैं। गांव, किसानों की गरीबी, पिछडेपन का रोना रोते हैं। वर्तमान सरकार को सूटबूट व अदानी की सरकार बताते हैं। अफसोस है कि 67 वर्षों तक सत्ता से चिपके रहने के दौरान न तो उनके पुरखों, न ही उनको गांव व किसान की कभी याद आई। महात्मा गांधी के लाख समझाने के बाद भी नेहरू ने जिस दिन विकास के रूसी माडल अपनाया, देश मे गांव व किसानों की गरीबी व बदहाली की नींव तो उसी दिन रख दी गई थी।


भूमि अधिग्रहण बिल पर राहुल व कांग्रेस 67 सालों तक किसानों को लूटने के बाद आज जिस तरह छाती पीट रही है, उसका कच्चा चिट्ठा जॉन हापकिन्स विश्वविद्यालय के माइकल लेविन ने अपने शोध " From Punitive Accumulation to Regimes of Dispossession" भारत मे भूमिअधिग्रहण के 6 शोधपत्रों मे खोला है। मालूम हो कि 2013 क भूमिअधिग्रहण कानून कांग्रेस सरकार देश भर मे भूमिअधिग्रहण पर किसानों के भारी रोष प्रर्दशन और अदालत मे बढते मुकदमों के दबाव मे ही लाई थी। वरना् वह तो 1894 मे अंग्रेजों के बनाये कानून के आधार पर किसानो को लूटने मे मस्त थी। और तो और उसने 1984 मे इस कानून मे संशोधन कर निजी कम्पनियों के लिये भी भूमि अधिग्रहण करने की धारा जोड़ दी थी। इसी के तहत कांग्रेस सरकारों ने किसानों को जिस तरह नोचा, वही आक्रोश चारो ओर दिखाई दे रहा है।

गरीबों, किसानों का मसीहा होने का दम्भ कांग्रेस मुख्य रूप से जिन दो योजनाओं के आधार पर भरती है, वह हैं मनरेगा और सार्वजनिक वितरण प्रणाली, राहुल की सरकार मनरेगा पर 34000 करोड व सा.वि.प्र. पर 1,15,000 करोड रूपये वार्षिक खर्च किया करती थी। गरीबों, किसानों की इन दो योजनाओं पर कांग्रेस अक्सर अपनी पीठ थपथपाती है। परन्तु कांग्रेस कभी देश को यह नहीं बताती कि उन्होने सिर्फ 2006-07 से 2013-14 तक 9 वर्षों मे अपने शासन के दौरानअमीरों और उद्योगपतियों को 365 खरब या 36,50,000 करोड रूपयों की छूट दे डाली है अर्थात 107 सालों तक मनरेगा मे लगने वाली रकम 9 वर्षों मे अमीरों, उद्योगपतियों को दे डाली। इस रकम से सार्वजनिक वितरण प्रणाली को 32 वर्षों तक चलाया जा सकता था। यह कह सकते हैं कि राहुल की सरकार ने पिछले 9 वर्षों मे उद्योगपतियों को 7 करोड रूपये की प्रति घंटे या 168 करोड रूपये प्रतिदिन की छूट दी। सबब यह कि फिसल पडे तो हरिगंगा कहने वाली राहुल कांग्रेस का वास्तविक चेहरा यह है।है।                         



2006-07 से सरकार के बजट मे दिये इन आंकड़ों का और विश्लेषण करने से पहले यह बता दें कि अमीरों, उद्योगपतियों को यह छूट कार्पोरेट आयकर, उत्पादन शुल्क व आयात शुल्क पर दी जाती है। यदि उद्योगपतियों को दी जाने वाली विभिन्न छूटों को भी इसमे जोड दें तो यह आंकडा कहीं का कहीं पँहुच जायेगा। आपको आश्चर्य होगा 2013-14 मे उद्योगपतियों को 532 लाख करोड़ की छूट दी गई, जो 2012-13 मे सरकारी तेल कम्पनियों के कुल घाटे का चार गुना है, इस छूट मे 48,635 करोड की छूट हीरों, सोने जैसी वस्तुओं की खरीद पर दी गई है। साथ ही 76,116 करोड कार्पोरेट आयकर, 1,95,679 उत्पादन शुल्क व 2,60,714 करोड आयात शुल्क की माफी की गई है। 2005-06 से इस रकम को लगातार बढाया जा रहा है, 2005-06 की तुलना मे 2013-14 मे इस रकम की वृद्धि 132% है। 

हम देश के विकास मे उद्योगों के महत्व को समझते हैं, उद्योग विरोधी नही हैं, परन्तु बहुसंख्य आबादी के हितों की कीमत पर उद्योगों अमर्यादित छूट को उचित नहीं कहा जा सकता, जनगणना के अनुसार आज राहुल को देश की कुल आबादी के उसी 73 प्रतिशत हिस्से, गांवों मे रहने वाले किसान व खेतिहर मजदूरों की चिन्ता हो रही ह, जिन्हे लूटने मे उनकी सरकारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी । जिसके कारण देश मे 39,961 रू प्रतिव्यक्ति की आय की तुलना मे देश की 74.5 प्रतिशत की आय 5000 रू पर सिमट कर रह गई । वर्षों पहले कलावती के यहां एक रात रहकर आये राहुल इतने वर्षों तक गांव, किसान का दर्द नहीं समझ पाये। 

Thursday 16 July 2015

प्रकृति मे घुले कैमिकलों से माँ का दूध भी नहीं बचा शुद्ध

नेचुरल रिसोर्स डिफेन्स काउन्सिल (NRDC) के अनुसार अमेरिका मे लगभग 85000 मानव निर्मित (Man made) कैमिकल रजिस्टर्ड हैं। इन सभी कैमिकलों का उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में किया जाता है, अतः इनके अंश किसी न किसी रूप में प्रकृति के साथ मिश्रित हो रहे हैं। सभी को मानव जीवन के लिये खतरनाक कहना उचित नहीं होगा, परन्तु इनमे से बहुत से हमारे लिये कम या अधिक नुकसानदायक हैं, जो शरीर की प्रतिरोध क्षमता को प्रभावित करने के साथ विभिन्न गम्भीर रोगों का कारण बनते हैं। प्रकृति से विभिन्न माध्यमों द्वारा इनमे से अनेको कैमिकल हमारे शरीर मे पँहुच रहे हैं। मानव निर्मित कैमिकलों की इतनी अधिक संख्या पर अमेरिका मे भी न तो नियन्त्रण रखना संभव है, न ही उनका उपयुक्त, संरक्षित प्रयोग करना। यदि अन्य कैमिकलों को दुर्लक्षित भी कर दें तो विश्व मे सिर्फ खेती के लिए प्रतिवर्ष 190.4 मिलियन टन रासायनिक उर्वरक और 2.3 मिलियन टन कीटनाशक प्रकृति में मिलाये जा रहे हैं, जो हमारे शरीर मे जहर घोल कर हमारे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं।

NRDC के अनुसार कैमिकलों का अन्धाधुन्ध उपयोग वातावरण, पानी, हवा, मिट्टी, जानवरों, मछलियों व पृथ्वी पर उपलब्ध बनस्पतियों तथा जीवों को प्रदूषित कर रहा है। 1940-50 के दशक मे DDT के भारी उपयोग के कारण DDT के अंश प्रत्येक जगह बहुतायत मे पाये जाने लगे थे जिसके कारण विश्व मे काफी हो हल्ला मचा था, जिसके कारण विश्व के अनेक देशों ने ओरगेनोक्लोरीन कीटनाशकों के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाया था। आज मानव निर्मित कैमिकलों का असीमित उपयोग हमारे जीवन के लिये खतरा बन चुका है। हमारे शरीर मे हानिकारक कैमिकल हमारे भोजन व अन्यान्य माध्यमों से पँहुच कर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं। यहां तक कि गर्भ मे पलने वाले शिशु तथा माताओं द्वारा शिशुओं को पिलाया जाने वाला दूध भी इन कैमिकलों के प्रभावों से नहीं बचा है। विश्व के अनेक देशों मे किये परीक्षणों मे मां के दूध (Brest Milk) में भी कैमिकलों तथा कीटनाशकों का अंश मिला है। भारत मे भी राजस्थान विश्वविद्यालय तथा हरियाणा मे यह परीक्षण किये गये। जिनमे मां के दूध मे विभिन्न कीटनाशक, DDT, डाईआक्सीन्स PCB's (पालीक्लोरीनेटेड बाईफिनाइलस्) मिले, जो बच्चों मे कैन्सर की संभावनाओं को बढ़ाने के साथ मानसिक विकास को प्रभावित कर सकते है।




खाद्य पदार्थों मे हानिकारक कैमिकलों की उपस्थिति के विषय मे हमारे देश मे मैगी कांड के बाद थोड़ी चेतना अवश्य दिखाई दी, परन्तु यह चेतना ऊँट के मुँह मे जीरे से अधिक नहीं है। काफी शोर शराबे के बाद हमने बाजार मे बिकने वाले खाद्य पदार्थों के लिये मानक तो बना दिये। पर FSSI द्वारा निर्धारित इन मानकों पर नियन्त्रण रखने की न तो हममे इच्छा शक्ति है, न ही हमारी केन्द्र तथा राज्य सरकारों के पास इस कार्य के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचा है। प्राकृतिक प्रदूषण के कारण हमारे शरीर मे  प्रवेश करने वाले रासायनिक जहर पर नियन्त्रण तो दूर की बात है। टाईम्स आफ इन्डिया मे छपी एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले दिनों हैदराबाद मे चलने वाली कई रेस्टोरेन्ट श्रंखलाओं मे बिकने वाले पदार्थों की खाद्य विभाग ने जांच की तो पाया कि बिकन वाले खाद्यपदार्थ पदार्थ मानव उपयोग के योग्य ही नहीं हैं, बच्चों के लिये तो इनका उपयोग खतरनाक है। कई ब्रान्ड के दूध की जांच करने पर उनमे पैथोजन और ई कोली बैक्टीरिया पाया गया। सिर्फ हैदराबाद की बात नही है। देश के किसी भी छोटे बड़े शहर मे  इसी प्रकार की स्थितियां हैं। 

केन्द्रीय खाद्य प्रसंस्करण मन्त्री सिमरनजीत कौर इन हालातों मे बयान देती हैं कि खाद्य इन्सपेक्टर निर्माताओं को परेशान कर 'इन्सपेक्टर राज' लाने के प्रयास मे हैं। मन्त्री जी का बयान वास्तविकता से दूर ही नहीं हास्यास्पद भी हैं। खाद्य पदार्थों के उत्पादन से अधिक महत्वपूर्ण है, ग्राहकों के लिये उत्पादनों का सुरक्षित होना और फिर टाईम्स आफ इन्डिया की यही रिपोर्ट बताती है कि सरकारी विभागों मे इन्सपेक्टर राज लाने के लिए उचित संख्या मे फूड इन्सपेक्टर ही नहीं हैं। हैदराबाद मे मात्र 4 इन्सपेक्टर हैं, नई दिल्ली की स्थितियां भी अलग नहीं हैं। वहां सिर्फ 12 इन्सपेक्टर हैं। देशभर मे यही हालात हैं। इन हालातों मे मंत्री का बयान ग्राहकों के स्वास्थ से खिलवाड़ करने वाला है।
                                 

ग्राहकों के जीवन से सम्बन्धित यह लड़ाई  ग्राहकों को ही लड़नी पड़ेगी। यह लड़ाई दो मोर्चों पर लड़ी जानी है। बाजार मे बिकने वाले खाद्य पदार्थों मे FSSI के मानदण्डों का कड़ाई से अनुपालन। दूसरा प्रकृति से हमारे शरीर मे पँहुचने वाले हानिकारक कैमिकलों पर नियन्त्रण। विषय तथा क्षेत्र व्यापक है, पूरा विश्व ही इस समस्या से ग्रसित है अतः निराकरण के लिये सिर्फ सरकारों पर आश्रित रहने से काम नहीं चलेगा। सरकारों पर ग्राहकों को दबाव तो बनाना पड़ेगा, नहीं तो सरकारें उत्पादकों के दबाव में ग्राहक हितों से समझौता कर लेंगी, इन्ही समझौतों के कारण ही तो हमने हवा, पानी, मिट्टी, वनस्पति, पशु, जीवों में खतरनाक कैमिकलों का जहर घोला है। हमें जागरूक रहने के साथ अपने क्षेत्र के लोगों को भी जागरूक करना होगा, अपने खानपान की आदतें बदलनी होंगी, तथाकथित हाईजीन के नाम पर चमकीले आवरणों मे लिपटेसजे हुये खाद्य पदार्थों पर पारंपरिक पध्दति से उत्पादित उत्पादनों को प्राथमिकता देनी होगी। कुछ भी खाने से पहले हम क्या खा रहे हैं, कब खा रहे हैं, क्यों खा रहे हैं, कहाँ खा रहे हैं, जैसे प्रश्नों के उत्तर स्वयं से पूछने होंगे। प्रश्न हमारे जीवन का है, अतः सरकार से अधिक ग्राहकों को सजग रह कर पृथ्वी, जल व आकाश को क्रत्रिम रसायनों के जहर से मुक्त करने की आवश्यकता है। 

जनगणना मे गांव विकास से बहुत दूर!

विश्व मानचित्र पर तेजी से उभरती हुई 1.7 ट्रिलियन डालर की भारतीय अर्थव्यवस्था के बड़े बड़े दावों को कुछ दिन पहले घोषित जनगणना के आंकड़ों ने टांय टांय फिस्स् कर दिया। इन आंकड़ों के जारी होने के बाद देश मे जिस तरह की चर्चा प्रारम्भ होनी चाहिये थी, जो बहस छिड़नी चाहिये थी, नहीं छिड़ी। आंकड़ों ने स्पष्ट कर दिया 67 वर्षों तक हमारे नीति निर्धारक अपनी सामाजिक, भौगोलिक, प्राकृतिक एवं आर्थिक मर्यादाओं को भूलकर जिस पश्चमी विश्व की नकल करने मे व्यस्त थे उसने हमारी गावों मे रहने वाली 73.43 प्रतिशत जनसंख्या को विकास के हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया। इतने वर्षों तक हम भारत के अन्दर INDIA गढने मे लगे रहे। बहुत हद तक हम उसमे कामयाब भी हुए, परन्तु देश की बहुत बड़ी जनसंख्या ने उसके लिये बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। मै न तो "भारत की आत्मा गांवो में बसती है" जैसे वाक्यों का यहां उपयोग करना चाहूंगा, न ही भारत को अपने मन की आँखों से देखने वाले महात्मा गांधी, पंडित दीनदयाल उपध्याय की धारणाओं का सहारा लेना चाहूंगा। हां जनगणना की इस नवीन पध्दति के शिल्पकारों को धन्यवाद अवश्य कहना चाहूंगा, क्योंकि इससे देश की आर्थिक स्थिति का वास्तविक धरातल स्पष्ट हो गया। वरना् आज तक जनगणना हमें सिर्फ इतना बताती थी कि हम कितने करोड़ हो गये हैं।


जनगणना से स्पष्ट है कि गांवों मे रहने वाली देश की बहुसंख्य आबादी कल भी मुख्यधारा से अलग थलग थी ,आज भी अलग थलग ही है। उसके जीवनयापन के संसाधन कल भी अविकसित, अपर्याप्त थे, आज भी स्थितियां वही हैं। आंकड़ों का खेल भी अजीब है, गरीबी ,भुखमरी को ढक लेता है। शायद यही वजह है, गरीबी व गरीबों को बहलाने के लिए, हकीकत पर पर्दा डालने के लिये इसे खेला जा रहा है, देखिये - एक व्यक्ति ने 8 रोटी खाई, दूसरे ने 4 रोटी खाई, तीसरा भूखा रहा, उसे एक भी रोटी खाने को नहीं मिली। आंकड़ों के बाजीगर यही कहेंगे कि औसतन प्रतिव्यक्ति 4 रोटी खा रहा है, कहां है भूख, कहां है गरीबी। जनगणना स्पष्ट कर रही है कि गांव मे रहने वाली 74.5 प्रतिशत जनसंख्या की आय आज भी 5000 रूपये तक सीमित है, 10,000 रूपये आय तक पँहुचने वाली ग्रामीण जनसंख्या मात्र 8.3 प्रतिशत है। इन आंकड़ों की तुलना आप 2013-14 मे घोषित प्रतिव्यक्ति 39,961 रू आय से कर देखिये। विकास की गंगा किस दिशा मे बह रही है, समाज के अन्तिम छोर पर बैठा व्यक्ति आजादी के 67 वर्षों बाद भी किस जमीन पर खड़ा है, स्पष्ट हो जायेगा। गणना की प्रक्रिया थोड़ी कठिन अवश्य है परन्तु स्पष्ट है, नवीन जनगणना पद्धति की वजह से।

1950-51 में देश की GDP मे कृषि क्षेत्र की सहभागिता 51.9 प्रतिशत थी, जो आज घटकर मात्र 13.7 प्रतिशत रह गई है। तर्क दिया जा सकता है कि तब अर्थव्यवस्था उपेक्षित थी, GDP की विकास दर बमुश्किल 1 प्रतिशत हुआ करती थी, उद्योग थे ही नहीं, राष्ट्रीय उत्पादन एक मात्र कृषि पर निर्भर था, अतः GDP मे कृषि क्षेत्र की भागीदारी अधिक थी, जो औद्योगिक विकास के साथ धीरे धीरे कम होती चली गई। बात उचित लगे तो भी जनगणना के आंकड़ों से यह साफ हो रहा है कि कृषि पर आश्रित ग्रामीण भागों की घोर उपेक्षा की गई। मजदूरी पर आश्रित वहां रहने वाले 9.16 करोड़ परिवारों, 51.41 प्रतिशत जनसंख्या का इतने वर्षों तक विचार ही नहीं किया गया। सघन रोजगार वाले कृषी व उस पर आधारित छोटे छोटे उद्योगों के विकास व संरक्षण की घोर उपेक्षा की गई। यह जनगणना के आंकड़ों से स्पष्ट है। महत्मा गांधी व पंडित दीनदयाल उपध्याय जी का अर्थव्यवस्था में इन क्षेत्रों के समुचित प्रतिनिधित्व पर जोर था।

जनगणना का नवीन स्वरूप उन क्षेत्रों को चिन्हित करता है जिन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इन क्षेत्रों की उपेक्षा से न तो सबका साथ लिया जा सकता है, न ही सबका विकास किया जा सकता है। किसी भी सरकार के लिये यह चिन्ता का विषय होना चाहिये कि जिस क्षेत्र मे देश की आबादी का 73 प्रतिशत हिस्सा रहता है वहां के लोग (किसान) आत्महत्या कर रहे हैं। इस क्षेत्र के लोगों की आय कहीं अधिक होती, जीवनस्तर भी बेहतर होता यदि इन वर्षों में कृषि व उस पर आधारित छोटे उद्योगों पर समुचित ध्यान दिया गया होता। देश विकास का कौन सा रास्ता आगामी वर्षों मे अपनाये, स्मार्ट सिटी की राह मे आने वाले गांवों को विकास की किस डोर से उनके साथ जोड़ा जाये, जनगणना के आंकड़े कौन से क्षेत्रों को प्राथमिकता देने का इशारा कर रहे हैं, इन बातों पर देश में व्यापक चर्चा की आवश्यकता है।

Thursday 2 July 2015

खाद्य पदार्थ, ग्राहक और बीमारियां


लखनऊ मे एक डाक्टर परिवार मे जाना हुआ, जिसमे बहुसंख्य वयस्क सदस्य एलोपैथिक डाक्टर थे। मस्तिष्क मे कई दिनों से एक बड़े डाक्टर की सलाह घूम रही थी जिसमे उसने एक वर्ष से कुछ कम आयु के बच्चे को गाय का दूध नहीं देकर डब्बा बन्द दूध और शिशु खाद्य देने की सलाह हाईजीन को आधार बना कर दी थी। डाक्टर सामने थे, नजदीक के थे, अवसर भी था, उनसे समझना माकूल लगा, अतः प्रश्न किया। प्रश्न का उत्तर न देकर वह मुस्कराये और बताने लगे कि उनके परिवार मे खान पान की क्या व्यवस्थायें हैं। आधुनिकता और फैशन के लेबल मे ढके बहुसंख्य समाज से अलग उनका कहना था कि मै डाक्टर हूँ, जानता हूँ कि कौन से पदार्थ खाने से स्वास्थ सुरक्षित रहेगा, अतः अपने परिवार के स्वास्थ को सुरक्षित रखना मेरी प्राथमिकता है। मेरा प्रयास है कि रोजमर्रा के खानपान मे क्रत्रिम खाद्य पदार्थों से बचा जा सके। डाक्टर साहब सिर्फ आरगेनिक अर्थात बिना कैमिकल, खाद, कीटनाशक तथा प्रिजर्वेटिव वाले अनाज, सब्जियों व अन्य खाद्य पदार्थों का उपयोग परिवार मे करते थे।

                                                       कैसे बचें

पूरे विश्व के जानकार आर्गेनिक खाद्य पदार्थों के सेवन को प्राथमिकता दे रहे हैं। उससे उलट क्रत्रिम खाद्य पदार्थ (Readymade or Ready to make) हमारी दिनचर्या का अभिन्न अंग बनते जा रहे हैं। देश मे मैगी जैसा खुलासा भी हमे यह समझाने मे असमर्थ है कि हम जाने अनजाने कितनी गम्भीर बीमारियां पैदा करने वाले खाद्य पदार्थ खा चुके हैं, खाते जा रहे हैं, अपने परिवार को गम्भीर बीमारियों के मुंह मे झोंकने का खतरा मोल ले रहे हैं। तथ्य है कि कैमिकल खाद(Fertilizers) व कीटनाशक (Pesticides) की सहायता से उत्पादित खाद्यान्नों से निर्मित तमाम पैक व डब्बा बन्द खाद्य पदार्थों को बनाने में विभिन तरह के कैमिकलों तथा प्रिजर्वेटिव (Preservatives) का उपयोग किया जाता है, जो स्वास्थ के लिये खतरनाक तो हैं ही, परन्तु इनकी तय मानकों से एक ग्राम भी अधिक मात्रा दुनियाभर की गम्भीर बीमारियों को आमन्त्रण देती है। जिस देश मे धडल्ले से हार्मोन के इंजैक्शन देकर गली गली मे गाय - भैंसों से दूध निकाला जाता हो। प्रत्येक फल बाजार मे कार्बाइड व अन्य कैमिकलों से फल पकाये जाते हों, वहां न तो इन सभी खाद्य पदार्थों के लिये आवश्यक मानक निर्धारित हैं, न ही उनको जांचने परखने के लिये पर्याप्त प्रयोगशालायें व अन्य व्यवस्थायें। अत: सरकार पर आश्रित रहना बेमानी है, जो कुछ भी करना है हमें ही करना है, यह सोचने, करने की आवश्यकता है। 

हम कर क्या सकते हैं सोचने वालों को इतना जान, समझ लेना चाहिये कि यह भारत हैं, जहां की रसोई विश्व के किसी भी देश से कहीं अधिक उन्नत एवं विकसित है। इसी रसोई ने विश्व की अनेको बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को अरबों खरबों का व्यापार देने के साथ साथ दुनिया को स्वाद और स्वास्थ का सही अर्थ समझाया है। गलती सिर्फ इतनी हो गई कि हम थोड़ा रंगीन पैकिंगों, विज्ञापनों के चक्कर मे फँस गये और थोड़े आलसी बन गये, कच्चे पदार्थों से व्यंजन बनाने के काम को हम झंझट समझने लगे। बस यहीं से हम अपने परिवार के स्वास्थ के प्रति उदासीन होते चले गये। जहां होना यह चाहिये था कि विश्व हमारी विकसित रसोई से सीखता, उसे अपनाता। चतुर व्यापारियों ने भरपूर विज्ञापनबाजी से हमें बहका लिया, हाईजीन जैसे शब्दों का उपयोग कर हमारे स्वच्छ, बेहतर कच्चे माल से ताजे बने खाद्य पदार्थों को निकृष्ट बताने के साथ, अपना कैमिकल युक्त महीनों पुराना, बेहतर लाभ हेतु, हल्के दर्जे के कच्चे माल से बने खाद्य पदार्थों का हमें आदी बना दिया। प्रश्न है कि अपने परिवार के स्वास्थ व बीमारीमुक्त जीवन के लिये क्या हम थोड़ा वक्त नहीं दे सकते, थोड़ा परिश्रम नहीं कर सकते। प्रश्न है तो फिर इतनी व्यस्तता, इतनी भागदौड़, इतने संसाधनों का जखीरा किस लिये, किसके लिये। डाक्टर साहब ने इस प्रश्न का उत्तर पा लिया, आपको खोजना है।

                                       आ अब लौट चलें

यदि आरगैनिक खाद्य पदार्थों जिनमें विटामिन और आक्सीडेन्ट का स्तर अधिक होता है की उपलब्धता सम्भव नहीं, तो कम से कम इतना तो किया ही जा सकता है कि बाजार से तैयार आटा या खाद्य सामग्री न खरीदकर कच्चा माल खरीदें, घर मे उसकी सफाई-धुलाई कर खाद्य पदार्थ बनायें। अपनी रसोई को ही परिवार के उपयोग मे लिये जाने वाले विभिन्न खाद्यों का केन्द्र बनायें, जहां का प्रत्येक अवयव आपकी आंखों के सामने से गुजरेगा, जिसमें उसे महीनों तक ठीक व सुगन्धित रखने के लिये कैमिकलों का प्रयोग नहीं होगा, आपके परिवार को उन कैमिकलों से निजात मिलेगी जिनकी उपस्थिति अनावश्यक रूप से शरीर मे बीमारियों पैदा करती हैं। शिशुओं के लिये तो यह और भी जरूरी है, उनका आहार कुछ भुने हुये अनाजों का पाउडर, कुछ उबले हुये फल, सब्जियों, अनाजों का मिश्रण होता है। जिसे बनाने के तमाम तरीके हमारे देश के सभी क्षेत्रों मे प्रचुर मात्रा मे उपलब्ध हैं। 

आज आवश्यकता कैमिकलयुक्त खाद्य पदार्थों से छुटकारा पाने की है। इसलिये क्योंकि यह खाद्य आपको व आपके परिवार को गम्भीर बीमारियों की तरफ धकेल रहे हैं। आपसे सुखी व खुशीभरा परिवार छीननें को आतुर हैं।यह सब इसलिये किया जा रहा है ताकि वह आपसे धन छीनकर करोड़ों अरबों कमा सकें। अन्धाधुन्ध पैसा खर्चकर भी आपको क्या मिल रहा है यह सोचने की आवश्यकता है। विशेषकर हम जिस समाज मे रहते हैं, जहां की रसोई से निकलकर हजारों खाद्य पूरे विश्व मे गये हैं, जहां हर तरह के स्वाद और गुणवत्ता की भरमार है। बस थोड़ा सा श्रम, थोड़ा सा समय, अपने परिवार के लिये, अपनों के लिये, जिनको सुखी व रोगमुक्त जीवन देने की जिम्मेदारी आपकी है। बहुत कर ली पश्चिमी सभ्यता, आदतों व खान-पान की नकल़़.....   आ अब लौट चलें............