Thursday 16 July 2015

जनगणना मे गांव विकास से बहुत दूर!

विश्व मानचित्र पर तेजी से उभरती हुई 1.7 ट्रिलियन डालर की भारतीय अर्थव्यवस्था के बड़े बड़े दावों को कुछ दिन पहले घोषित जनगणना के आंकड़ों ने टांय टांय फिस्स् कर दिया। इन आंकड़ों के जारी होने के बाद देश मे जिस तरह की चर्चा प्रारम्भ होनी चाहिये थी, जो बहस छिड़नी चाहिये थी, नहीं छिड़ी। आंकड़ों ने स्पष्ट कर दिया 67 वर्षों तक हमारे नीति निर्धारक अपनी सामाजिक, भौगोलिक, प्राकृतिक एवं आर्थिक मर्यादाओं को भूलकर जिस पश्चमी विश्व की नकल करने मे व्यस्त थे उसने हमारी गावों मे रहने वाली 73.43 प्रतिशत जनसंख्या को विकास के हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया। इतने वर्षों तक हम भारत के अन्दर INDIA गढने मे लगे रहे। बहुत हद तक हम उसमे कामयाब भी हुए, परन्तु देश की बहुत बड़ी जनसंख्या ने उसके लिये बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। मै न तो "भारत की आत्मा गांवो में बसती है" जैसे वाक्यों का यहां उपयोग करना चाहूंगा, न ही भारत को अपने मन की आँखों से देखने वाले महात्मा गांधी, पंडित दीनदयाल उपध्याय की धारणाओं का सहारा लेना चाहूंगा। हां जनगणना की इस नवीन पध्दति के शिल्पकारों को धन्यवाद अवश्य कहना चाहूंगा, क्योंकि इससे देश की आर्थिक स्थिति का वास्तविक धरातल स्पष्ट हो गया। वरना् आज तक जनगणना हमें सिर्फ इतना बताती थी कि हम कितने करोड़ हो गये हैं।


जनगणना से स्पष्ट है कि गांवों मे रहने वाली देश की बहुसंख्य आबादी कल भी मुख्यधारा से अलग थलग थी ,आज भी अलग थलग ही है। उसके जीवनयापन के संसाधन कल भी अविकसित, अपर्याप्त थे, आज भी स्थितियां वही हैं। आंकड़ों का खेल भी अजीब है, गरीबी ,भुखमरी को ढक लेता है। शायद यही वजह है, गरीबी व गरीबों को बहलाने के लिए, हकीकत पर पर्दा डालने के लिये इसे खेला जा रहा है, देखिये - एक व्यक्ति ने 8 रोटी खाई, दूसरे ने 4 रोटी खाई, तीसरा भूखा रहा, उसे एक भी रोटी खाने को नहीं मिली। आंकड़ों के बाजीगर यही कहेंगे कि औसतन प्रतिव्यक्ति 4 रोटी खा रहा है, कहां है भूख, कहां है गरीबी। जनगणना स्पष्ट कर रही है कि गांव मे रहने वाली 74.5 प्रतिशत जनसंख्या की आय आज भी 5000 रूपये तक सीमित है, 10,000 रूपये आय तक पँहुचने वाली ग्रामीण जनसंख्या मात्र 8.3 प्रतिशत है। इन आंकड़ों की तुलना आप 2013-14 मे घोषित प्रतिव्यक्ति 39,961 रू आय से कर देखिये। विकास की गंगा किस दिशा मे बह रही है, समाज के अन्तिम छोर पर बैठा व्यक्ति आजादी के 67 वर्षों बाद भी किस जमीन पर खड़ा है, स्पष्ट हो जायेगा। गणना की प्रक्रिया थोड़ी कठिन अवश्य है परन्तु स्पष्ट है, नवीन जनगणना पद्धति की वजह से।

1950-51 में देश की GDP मे कृषि क्षेत्र की सहभागिता 51.9 प्रतिशत थी, जो आज घटकर मात्र 13.7 प्रतिशत रह गई है। तर्क दिया जा सकता है कि तब अर्थव्यवस्था उपेक्षित थी, GDP की विकास दर बमुश्किल 1 प्रतिशत हुआ करती थी, उद्योग थे ही नहीं, राष्ट्रीय उत्पादन एक मात्र कृषि पर निर्भर था, अतः GDP मे कृषि क्षेत्र की भागीदारी अधिक थी, जो औद्योगिक विकास के साथ धीरे धीरे कम होती चली गई। बात उचित लगे तो भी जनगणना के आंकड़ों से यह साफ हो रहा है कि कृषि पर आश्रित ग्रामीण भागों की घोर उपेक्षा की गई। मजदूरी पर आश्रित वहां रहने वाले 9.16 करोड़ परिवारों, 51.41 प्रतिशत जनसंख्या का इतने वर्षों तक विचार ही नहीं किया गया। सघन रोजगार वाले कृषी व उस पर आधारित छोटे छोटे उद्योगों के विकास व संरक्षण की घोर उपेक्षा की गई। यह जनगणना के आंकड़ों से स्पष्ट है। महत्मा गांधी व पंडित दीनदयाल उपध्याय जी का अर्थव्यवस्था में इन क्षेत्रों के समुचित प्रतिनिधित्व पर जोर था।

जनगणना का नवीन स्वरूप उन क्षेत्रों को चिन्हित करता है जिन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इन क्षेत्रों की उपेक्षा से न तो सबका साथ लिया जा सकता है, न ही सबका विकास किया जा सकता है। किसी भी सरकार के लिये यह चिन्ता का विषय होना चाहिये कि जिस क्षेत्र मे देश की आबादी का 73 प्रतिशत हिस्सा रहता है वहां के लोग (किसान) आत्महत्या कर रहे हैं। इस क्षेत्र के लोगों की आय कहीं अधिक होती, जीवनस्तर भी बेहतर होता यदि इन वर्षों में कृषि व उस पर आधारित छोटे उद्योगों पर समुचित ध्यान दिया गया होता। देश विकास का कौन सा रास्ता आगामी वर्षों मे अपनाये, स्मार्ट सिटी की राह मे आने वाले गांवों को विकास की किस डोर से उनके साथ जोड़ा जाये, जनगणना के आंकड़े कौन से क्षेत्रों को प्राथमिकता देने का इशारा कर रहे हैं, इन बातों पर देश में व्यापक चर्चा की आवश्यकता है।

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