Thursday 16 September 2021

कांग्रेस,आर एस एस और स्वतंत्रता आंदोलन

 भारतीय राजनीति के क्षितिज पर अपनी रेखा दूसरे की रेखा से लम्बी दिखाने की निपुणता कांग्रेस ने दूसरे की रेखा मिटाकर हासिल की है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अपनी असफलताओं को छिपाने के लिए कांग्रेस ने इसे डटकर अपनाया। यही वजह थी कि उसने स्वतंत्रता संग्राम में अपने प्राण न्यौछावर करने वाले क्रांतिकारियों को देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन की सफलता का जरा भी श्रेय नहीं दिया। अनेकों क्रांतिकारियों पर अंग्रेजों से माफी मांगने के आरोप लगाये, जबकि कांग्रेस नेता खुद अंग्रेजों की गोद में बैठे और उन्होंने उस प्रत्येक मौके पर अंग्रेजों का साथ दिया, जब क्रांतिकारी आसानी से देश को आजाद करा सकते थे। कांग्रेस द्वारा पिछले 70 वर्षों में देश के इतिहास की तोड़ मरोड़ कर की गई प्रस्तुति के बावजूद, यह तथ्य खुद ब खुद उभर कर सामने आ रहे हैं।

विडंबना यह है कि एक अंग्रेज द्वारा 1985 में यह संगठन अंग्रेजों के प्रति सहानुभूति पैदा करने के लिए स्थापित किया गया था। देश के 1947 में आजाद होने तक कांग्रेस ने ईमानदारी से इस भूमिका का निर्वहन किया। उस पर तुर्रा यह देश की आजादी के लिए तीन असफल आंदोलन करने वाली कांग्रेस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों पर देश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग न लेने के आरोप लगाकर, देश की आजादी का संपूर्ण श्रेय अपने ही खाते में डालती रही है। जबकि 1925 में जन्मा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शैशव काल में भी देश में क्रांतिकारियों और कांग्रेस द्वारा किए गए आन्दोलनों में अपनी शक्ति के अनुसार योगदान करता रहा है। जबकि राजनीति कारणों से कांग्रेस हमेशा यह झूठ प्रचारित करती रही कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आजादी के आंदोलनों से दूर रहा।

हकीकत यह है कि देश की स्वतंत्रता के लिए कांग्रेस के द्वारा किया प्रत्येक आंदोलन में देश के संपूर्ण जनमानस द्वारा पूरा साथ देने के बावजूद, यह आंदोलन कांग्रेस की अकर्मण्यता, दूरदर्शी नीति , सही कार्यक्रम एवं नेतृत्व के अभाव में बुरी तरह असफल हुये। इस विषय में थोड़ी बहुत चर्चा हुई, परंतु आजादी के बाद लम्बे समय तक सत्ता पर काबिज कांग्रेस इस विषय को दबाने में कामयाब रही?



असहयोग आन्दोलन

कांग्रेस ने 4 सितंबर 1920 में अपने कलकत्ता अधिवेशन में प्रस्ताव पास कर असहयोग आन्दोलन शुरू किया, परंतु इस आंदोलन के साथ अंग्रेजों के द्वारा तुर्की के खलीफा को अपदस्थ करने के विरोध में भारत के मुसलमानों द्वारा किए जाने वाले आंदोलन को जोड़ दिया। जिसके कारण पूरे देश का जनमानस भ्रमित हो गया कि वह देश की स्वतंत्रता के लिए आंदोलन कर रहा है या तुर्की के खलीफा को दोबारा स्थापित करने के लिए अंग्रेजों से लड़ रहा है। कांग्रेस नेतृत्व जनमानस को दिशा वह नेतृत्व दे पाने में पूरी तरह विफल था। इसी कारण उत्तर प्रदेश के चौरी चौरा की घटना घटित हो गई, जिसके कारण कांग्रेस ने अपना आंदोलन वापस ले लिया। नतीजा ढाक के तीन पात रहा, न देश को आजादी मिली और न ही तुर्की के खलीफा को अंग्रेजों ने कोई रियायत दी।

देश में सिर्फ कुछ स्थानों पर यह आंदोलन अपना प्रभाव छोड़ पाया। क्योंकि वहां के नेताओं ने रणनीति भी बनाई थी, कार्यक्रम भी तय किये थे और आगे आकर जनमानस को नेतृत्व भी दिया था। इन स्थानों में मध्य प्रांत भी था, जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जन्मदाता डा हेडगेवार के नेतृत्व में "असहयोग आंदोलन समिति" बनाई गई। 18 अगस्त 1920 को बनाई गई इस समिति में डा घोलकर, मनोहर पंत बोबडे, आर एन पाध्ये एवं विश्वनाथ केलकर थे। असहयोग आंदोलन के लिए कार्यकर्ता तैयार करने के लिए आंदोलन समिति बाकायदा बौद्धिक एवं शारीरिक प्रशिक्षण वर्गों का आयोजन कर रही थी। डा हेडगेवार ने प्रयास कर सैकड़ों युवाओं को आंदोलन से जोड़ लिया था। 11 नवंबर 1920 को नागपुर असहयोग समिति ने एक सप्ताह असहयोग सप्ताह के रूप में मनाया, अनेकों सभायें आयोजित की गई।(महाराष्ट्र, 19मई 1921, पृष्ठ 5) वर्ष 1921 के प्रारंभ तक मध्यप्रान्त में आंदोलन की लपटें तेज हो गई थी।

22 फरवरी 1921 को डा हेडगेवार ने एक सभा में घोषणा की कि नागपुर में न तो शराब की कोई दुकान चलने दी जाएगी, न ही किसी को शराब पीने दिया जायेगा। इस सभा के बाद नागपुर के जिला अधीक्षक सुरीली जेम्स इरविन ने डा हेडगेवार को लिखित नोटिस भेजा - "मैं आप पर सभा करने, सभा में भाग लेने और किसी भी तरह से आम सभा से जुड़ने पर प्रतिबंध लगाता हूं।" डा हेडगेवार ने इस आदेश को मानने से मना कर दिया।(महाराष्ट्र, 20 अप्रैल 1921, पृष्ठ 3)

नागपुर में असहयोग आंदोलन से उच्च जातियों और पढ़े लिखे लोगों के साथ कमजोर और गरीब लोग बड़ी संख्या में जुड़ रहे थे, जिसे देखकर कर नागपुर से प्रकाशित होने वाले अंग्रेजों के समर्थक अखबार ने टिप्पणी की - जिस प्रकार के लोगों को स्वयंसेवक बनाया जा रहा है, उसे देखकर यह कहना अतिश्योक्ति होगा कि आंदोलन का शांतिपूर्ण चरित्र बना रहेगा।(महाराष्ट्र, 26 अप्रैल 1921, पृष्ठ 4)

मई 1921 में डा हेडगेवार पर राजद्रोही भाषण देने के लिए मुकदमा चलाया गया। इस मुकदमे का आधार डा हेडगेवार द्वारा अक्टूबर 1920 में काटोल और भरतवाडा की सभाओं में दिये भाषण थे।(फाइल नं 28/1921, राजनीतिक भाग 1, पैरा 17 राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली)

अदालत ने डा हेडगेवार को राजद्रोह का दोषी मानते हुए, 1 वर्ष तक इस प्रकार के भाषण न देने का आश्वासन देने के साथ ही 1 - 1 हजार रुपए की दो जमानतें और 1 हजार रुपए का मुचलका देने के लिए कहा। डा हेडगेवार ने स्वयं को निर्दोष बताते हुए जमानत और मुचलका देने से मना कर दिया। जिसके कारण न्यायाधीश ने उनको 1 वर्ष सश्रम कारावास की सजा सुनाई। मध्य भारत प्रांत से प्रकाशित केसरी, महाराष्ट्र,यंग पैट्रियट और उदया आदि अखबारों ने अदालत में डा हेडगेवार द्वारा दिये तर्कों की सराहना की, उदया ने अपने संपादकीय में लिखा - न्यायालय में डा हेडगेवार का वक्तव्य स्पष्ट एवं सरल था। यद्यपि डा चोलकर की तरह उन्होंने भी स्वतंत्रता के लक्ष्य का प्रतिपादन किया, परंतु उन्हें 1 वर्ष सश्रम कारावास की सजा दी गई। इस तरह की सजा नौकरशाही पर आधारित व्यवस्था के विरुद्ध जनसामान्य के आक्रोश एवं घृणा को नहीं रोक सकती है। (उदया, संपादक भी जी खापर्डे, भारतीय समाचार पत्रों पर रिपोर्ट, मध्य प्रांत एवं बरार, संख्या 35/1921, राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली)

डा हेडगेवार को नागपुर की अजनी जेल में रखा गया। 11 जुलाई 1922 को सजा पूरी कर डा हेडगेवार बाहर आये। अगले ही दिन चिटणीस पार्क में उनके स्वागत के लिए सभा रखी थी, जिसमें प्रांत के कांग्रेसी नेताओं के साथ कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की तरफ से हकीम अजमल खां, मोतीलाल नेहरू, राजगोपालाचारी, डा अंसारी और विट्ठल भाई पटेल मौजूद थे। (महाराष्ट्र, 12 जुलाई 1922, पृष्ठ 5)

फ़रवरी 1922 में ही कांग्रेस उत्तर प्रदेश के चौरी चौरा की घटना के कारण आंदोलन वापस ले चुकी थी।



सविनय अवज्ञा आंदोलन

कांग्रेस का दूसरा आंदोलन सविनय अवज्ञा आंदोलन था। कांग्रेस ने फरवरी 1930 में लाहौर अधिवेशन के बाद साबरमती की सभा में सविनय अवज्ञा आंदोलन करने का निर्णय लिया। यह आंदोलन अंग्रेजों द्वारा बनाए नमक कानून के विरोध में था। आंदोलन का प्रारंभ गांधी जी ने 6 अप्रैल 1930 को गुजरात के दांडी नामक स्थान में नमक कानून तोड़कर किया।

मध्यप्रान्त के अकोला में यह आंदोलन गुरुवार 9 अप्रैल 1930 को नमक कानून तोड़कर शुरू किया गया। परंतु आंदोलन अन्य स्थानों की तरह प्रभावहीन था। कांग्रेस की प्रांतीय समिति ने आंदोलन में जान फूंकने के लिए केन्द्रीय नेतृत्व को इसमें जंगल सत्याग्रह शामिल करने की सलाह दी, जिसे कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने स्वीकृति दे दी। इसी से स्पष्ट है कि आंदोलन शुरू करने के पूर्व आंदोलन के स्वरूप के विषय में सही जानकारी का अभाव रहा। जिसका प्रभाव आंदोलन पर पड़ा।

इस समय तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हो चुकी थी। नागपुर में संघ की 37 शाखाएं खुल चुकी थी। संघ का दूसरा सबसे बड़ा केन्द्र वर्धा था, जहां 12 शाखाएं थीं। इस समय देश राजनीतिक उथल-पुथल से गुजर रहा था। राष्ट्रीय आंदोलनों में संघ की भूमिका निर्धारित करने के लिए संघ ने नवंबर 1929 में संघ की एक बैठक नागपुर में की थी। तीन दिन तक चली इस बैठक में तय किया गया कि संघ कांग्रेस द्वारा घोषित आंदोलनों का पूरी तरह बिना शर्त समर्थन करेगा। 1930 के मध्य तक संघ की 52 शाखाएं बन चुकी थी। संघ के स्वयंसेवक भी सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय हो गए।

14 जुलाई 1930 को आंदोलन में भाग लेने के लिए नागपुर से डा हेडगेवार के नेतृत्व में  एक जत्था पुसद रवाना किया गया। डा हेडगेवार के साथ अप्पा जी जोशी, बाला साहेब ढवले, दादा राव परमार्थ, विट्ठल राव देव, भैय्या जी कुंबलवार, आर्वी के अंबाडे, चांदा के पालेवार आदि प्रमुख थे। सत्याग्रह के पहले चरण की शुरुआत पुसद में एम एस अणे ने की, परंतु इसे अपेक्षित सफलता नहीं मिली। यह देखकर आंदोलन के लिए बनाई गई वार काउंसिल ने 21, जुलाई को यवतमाल में डा हेडगेवार के नेतृत्व में सत्याग्रह करने की घोषणा की, वार काउंसिल ने संघ के नेताओं से अलग अलग टुकड़ियों का नेतृत्व करने के लिए कहा।

21 जुलाई को सुबह 6 बजे स्वयंसेवकों ने नागपुर के मैदान से ध्वज वंदन कर सत्याग्रह प्रारंभ किया, सत्याग्रहियों को काटन मार्केट जाना था। वहां सत्याग्रह करना था। सत्याग्रह स्थल पर पुलिस के साथ वन विभाग के अधिकारी भी उपस्थित थे। डा हेडगेवार ने जैसे ही जंगल कानून तोड़ा, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

21, जुलाई की शाम डा हेडगेवार पर मुकदमा चला, न्यायाधीश भरूचे ने उनको 9 माह सश्रम कारावास तथा 379 के अंतर्गत तीन माह सश्रम कारावास की सजा सुनाई। दोनों सजायें एक साथ चलनी थी। डा हेडगेवार को ट्रेन से अकोला ले जाया गया, मार्ग में हर जगह उनका स्वागत किया गया। दारव्हा में तो कांग्रेस के नेताओं ने दाऊ के नेतृत्व में प्लेटफार्म पर सभा कर डाली, पुलिस ने भीड़ देखते हुए डा हेडगेवार को मंच पर जाने की अनुमति दे दी। डा हेडगेवार 14 फरवरी 1931 को अकोला जेल से छूटे।

उधर कांग्रेस ने आंदोलन के चलते नवंबर 1930 में लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन में भाग नहीं लिया। परंतु कांग्रेस सितंबर 1931 में होने वाले गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए तैयार हो गई। जिसके लिए वायसराय लॉर्ड इरविन उन सभी राजनीतिक कैदियों को छोड़ने के लिए तैयार हो गए जिन पर हिंसा के आरोप नहीं थे। बदले में कांग्रेस भी सविनय अवज्ञा आन्दोलन स्थगित करने के लिए तैयार हो गई। आंदोलन स्थगित कर दिया गया।

मार्च 1931 में कराची सम्मेलन में कांग्रेस ने गांधी जी को द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए अधिकृत किया। गांधी जी ने सितंबर 1931 में हुए सम्मेलन में भाग लिया परंतु कोई नतीजा नहीं निकला, सम्मेलन असफल हो गया। भारत लौट कर गांधी जी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन पुनः शुरू किया। अंग्रेजों ने गांधी जी और कांग्रेस के अन्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया।

आंदोलन चलता रहा और 1934 में वापस ले लिया गया।



अंग्रेजों भारत छोड़ो आन्दोलन

सबसे पहले उस समय की देश और वैश्विक परिस्थितियों को समझ लेते हैं। क्योंकि इस आंदोलन की घोषणा में इन परिस्थितियों के प्रभाव से उपजा घटनाक्रम अत्यधिक महत्वपूर्ण है।

1 सितंबर 1939 को द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ हुआ। ब्रिटेन युद्ध में भारत से सहयोग चाहता था, परन्तु कांग्रेस ब्रिटिशों से सहयोग के बदले आजादी देने की मांग कर रही थी। इसी बात को लेकर वायसराय लिनलिथगो ने 52 प्रतिनिधियों को बैठक करके लिए बुलाया। इस बैठक में गांधी जी, नेहरू और जिन्ना आदि नेता भी सम्मिलित थे। वायसराय ने कांग्रेस की किसी बात को नहीं माना और बैठक बेनतीजा रही।

सन् 1940 के मध्य तक ब्रिटेन बुरी तरह युद्ध हार रहा था। जर्मनी की सेनायें हारेंगे, बेल्जियम, डेनमार्क, नार्वे और फ्रांस को जीत चुकी थी। उधर जापान भी जर्मनी की सेनाओं की मदद के लिए आगे आ रहा था।

अंग्रेजों की इस संकट की घड़ी में देश के क्रांतिकारी योजनाएं बनाकर । उन्हें मदद करने के लिए कांग्रेस आगे आईं। 7 जुलाई 1940 को कांग्रेस कार्यसमिति ने पूना बैठक में प्रस्ताव पारित कर अंग्रेजों को सहयोग देना शुरू कर दिया। स्मरण रहे इस सहयोग के बदले कांग्रेस ने अंग्रेजों से जो रियायतें मांगी, उन्हें देने से अंग्रेजों ने मना कर दिया। इस सहयोग के विषय में गांधी जी ने कहा - "हम ब्रिटेन के विनाश की कीमत पर देश की स्वतंत्रता नहीं चाहते। " नेहरू बोले - "ब्रिटेन की कठिनाईयों में भारत का सौभाग्य नहीं है।"

7 सितंबर 1941 को जापान के युद्ध में सम्मिलित होने से अंग्रेजों की परिस्थिति और विकट हो चुकी थी। जर्मनी रूस की तरफ बढ़ रहा था। अंग्रेजों को मुसीबत में देख कांग्रेस ने दिसंबर के अंत में बारडोली में कार्यसमिति की बैठक बुलाकर, अंग्रेजों के विरुद्ध सभी आंदोलनों को स्थगित कर, अंग्रेजों का साथ देने का निर्णय लिया। यह झूठ की पराकाष्ठा है कि वही कांग्रेसी निर्लज्जता से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर अंग्रेजों से मिले होने के आरोप लगाते हैं।

इसी बीच वैश्विक परिस्थितियों और अंग्रेजों की स्थिति देख, उस समय जापान में रह रहे प्रसिद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस ने 18 मार्च 1942 को भारतीय नेताओं  का सम्मेलन बुलाकर भारतीय स्वतंत्रता लीग और आजाद हिन्द फौज बनाने की घोषणा कर दी। इसके बाद रासबिहारी बोस की ही अध्यक्षता में 14 से 23 जून तक बैंकाक में जापान से बर्मा तक के देशों में बसे भारतीयों का एक सम्मेलन बुलाया गया। जिसमें भारतीय बड़ी संख्या में शामिल हुए और आजाद हिन्द फौज में 50,000 सैनिक भर्ती हो गए। जापान से आजाद हिन्द फौज को भारत की सेना के रूप में मान्यता देने को कहा गया।

इन वैश्विक परिस्थितियों के बीच 27 अप्रैल 1942 को कांग्रेस की इलाहाबाद में हुई कार्यसमिति की बैठक में विचार किया गया कि अंग्रेजों को अब भारत से चले जाना चाहिए। इसी के बाद 14 जुलाई को वर्धा में हुई कांग्रेस कार्यसमिति में अंग्रेजों भारत छोड़ो प्रस्ताव पास कर लिया गया। कांग्रेस नेताओं ने आंदोलन का निर्णय तो ले लिया परंतु न जाने क्यों पूर्व के आंदोलनों की विफलता से सबक लेते हुए उसकी कोई तैयारी नहीं की, न ही देश भर के नेताओं को आंदोलन के कार्यक्रमों और रुपरेखा की कोई जानकारी दी गई।

इसका पूरा खामियाजा कांग्रेस के द्वारा आयोजित इस तीसरे आंदोलन को भुगतना पड़ा। 8 अगस्त 1942 को बम्बई के गोवालिया टैंक में हो रहे कांग्रेस के वार्षिक सम्मेलन में इस प्रस्ताव को पारित कर दिया।

अंग्रेजों ने पहले दिन ही कांग्रेस के पूरे नेतृत्व को गिरफ्तार कर लिया। पूर्व तैयारी, रूपरेखा और कार्यक्रम के अभाव में पहले दिन से ही आंदोलन नेतृत्व विहीन हो गया। जहां पर जिसको जो ठीक लगा, उसी रूप में उसने आंदोलन को आगे बढ़ाया। समुचित दिशा निर्देश, कार्यक्रम और संपर्क के अभाव में देशी रियासतों के राजाओं, सरकारी कर्मचारियों, सेना, पुलिस के उच्च अधिकारियों तक आंदोलन से संबंधित जानकारी ही नहीं पंहुची।

देश के अन्य राजनीतिक संगठनों को जानकारी न दिये जाने के कारण भारतीय साम्यवादी दल व मुस्लिम लीग ने आंदोलन का खुलकर विरोध किया। इसके साथ ही अकाली दल, हिन्दू महासभा, समाज का उच्च वर्ग, दलित वर्ग कांग्रेस के पूर्व आंदोलनों से सबक लेते हुए आगे नहीं आये।

प्रारंभ से ही नेतृत्व विहीन हो जाने के कारण आंदोलन गांधी जी के अहिंसा के सिध्दांतों से हटकर हिंसात्मक हो गया।

(संवैधानिक विकास एवं स्वाधीनता संघर्ष, सुभाष कश्यप, पृष्ठ 185)
(Nehru speech in Lahore on 25 July 1945)
(पट्टाभि सीतारमैया, कांग्रेस का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ 531 से 533 तक)

Monday 8 February 2021

शहीद की परिभाषा बदलने पर तुली प्रियंका गांधी वाड्रा

 मेरे विचार में बेअंत सिंह और सतवंत सिंह शहीद नहीं थे, जिन्होंने 31 अक्टूबर 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर गोलियां चलाई थी, हालांकि एक वर्ग उसी दिन से उन्हें शहीद का दर्जा दे रहा है। मेरी दृष्टि में तेन्मोझी राजरत्नम उर्फ धनु भी शहीद नहीं थी, जो पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समीप मानव बम बनकर फटी थी। जबकि उसको भी एक वर्ग शहीद मानता है। यह दोनों ही अपराधी थे, पूरा देश इनको अपराधी के रूप में ही पहचानता है, शहीद के रूप में देश में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की पहचान है। लेकिन मोदी विरोध, इनकी पोती और पुत्री प्रियंका गांधी वाड्रा पर इस कदर हावी है कि वह देश में शहीद की परिभाषा को ही बदलने में जुट गई हैं। प्रियंका की शहीद की परिभाषा में बेअंत सिंह और धनु एकदम फिट बैठते हैं।

  




देश शहीद का दर्जा उस व्यक्ति को देता है, जो देश की संवैधानिक व्यवस्थाओं को बचाने में अपने प्राणों का उत्सर्जन कर देता है, उसे नहीं जो संवैधानिक व्यवस्थाओं को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए आक्रमण करता है और जान गंवा बैठता है। लेकिन प्रियंका गांधी आजकल शहीद की इस परिभाषा को बदलने में जी जान से जुट गई हैं। परंतु यह बात न प्रियंका को समझ आयेगी और न ही उनके पिछलग्गुओं को, जो सत्ता छिनने से इस कदर बौखलाये हुये हैं कि किसी भी कीमत पर मोदी विरोध ही उनका एकमात्र लक्ष्य है।


दिल्ली के आईटीओ पर 26 जनवरी के दिन, अंधाधुंध ट्रैक्टर भगाकर पुलिस बैरीकेड को तोड़ने और फिर ट्रैक्टर पलट जाने के कारण जान से हाथ धो बैठने वाले रामपुर के नवरीत सिंह की अंतिम अरदास में अपने कारवें के साथ शामिल ही नहीं हुई, बल्कि उसे शहीद भी घोषित कर आई। जबकि नवरीत प्रतिबंधित क्षेत्र में ट्रैक्टर घुसाने, खतरनाक तरीके से उसे चलाने, जबरदस्ती बैरिकेड तोड़ने और वहां पर ड्यूटी दे रहे पुलिस कर्मियों को जान से मारने का प्रयास करने जैसे अपराधों का दोषी है। 


दुश्मन से देश को आजाद कराने की लड़ाई में जान गंवाने वालों को शहीद का सम्मान देने की प्रथा इस देश में अवश्य रही है, अंग्रेजों की गुलामी से देश स्वतंत्र कराने की लड़ाई में जान गंवाने वालों को देश शहीद का दर्जा देता रहा है। प्रियंका गांधी वाड्रा को देश को बताना चाहिए कि उनके और कांग्रेस के अनुसार किसे शहीद का दर्ज़ा दिया जाना चाहिए। जो देश के संविधान कानून को धता बताने के कार्य करता हुआ जान दे या फिर वह जो देश के संविधान की रक्षा करते हुए अपने प्राणों को न्योछावर कर दे। नवरीत को शहीद बताने की कहीं यह तो वजह नहीं है कि प्रियंका मोदी सरकार को दुश्मन देश की सरकार मानती हैं और नवरीत ने उसके खिलाफ लड़ते हुए जान दी है।


Wednesday 27 January 2021

विपक्ष और किसान नेताओं का प्लान फेल, लम्बे नपने की बारी

 26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर विपक्षी राजनीतिक दलों से सांठगांठ कर, ट्रेक्टर परेड निकाल सरकार को घेरने का, किसान नेताओं का प्लान फेल हो गया है। अब यह किसान नेता लम्बे नपेंगे? राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर पिछले 60 दिन से चल रहे किसानों का प्रदर्शन और विज्ञान भवन में सरकार के साथ की जाने वाली वार्ता की आड़ में तथाकथित किसान नेताओं द्वारा गणतंत्र दिवस पर दिल्ली को बंधक बनाने की योजना, मोदी विरोधी राजनीतिक दलों के साथ सांठगांठ कर बनाई गई थी। उनका सोचना था कि इस तरह की अव्यवस्था फैलाने पर पुलिस के साथ मुठभेड़ में कम से कम 1000 किसान मरेंगे, उसके बाद वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हाय तौबा मचाकर, हत्याओं का ठीकरा सरकार के सिर फोड़, अपने राजनीतिक स्वार्थों को साधेंगे। जाने अनजाने राकेश टिकैत के मुंह से एक पत्रकार से बात करते हुए, यह बात निकल भी गई थी कि सरकार की योजना किसानों पर लाठी गोली चलाने की है, जिसमें 1000 तक किसान मर सकते हैं।



इस देश के बेचारे किसान का दुर्भाग्य यही है कि कभी भी उसकी न्यायोचित मांगें सही तरीके से उठाई ही नहीं जाती, उसकी बदहाली का उपयोग विपक्षी राजनीतिक दल तथा उनके पिट्ठू किसान नेता अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए उसे आंदोलन करने के लिए भड़काने में करते हैं। इस बार भी यही हो रहा था, किसान को उसकी फसल का लाभकारी मूल्य मिले, इसके लिए आवश्यक कृषि सुधारों को चिन्हित कर लागू किए जाने के स्थान पर किसान नेता कानून - कानून की शतरंजी चालें खेल रहे थे, किसान और सरकार को अपनी चालों में उलझाकर, गणतंत्र दिवस के दिन देश में अनहोनी घटित करने की तैयारी में लगे थे।


किसान नेता जानते थे कि गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में ट्रैक्टर परेड निकाल कर उन्हें क्या करना है। जाने अनजाने उनके मुंह से सच्ची बात निकल भी जाती थी। राकेश टिकैत ने पत्रकारों से कहा भी था, हम ट्रैक्टर परेड लालकिले से निकालकर इंडिया गेट तक ले जायेंगे। लालकिले और इंडिया गेट पर पंहुचना उनकी ट्रैक्टर परेड का लक्ष्य था। दिल्ली के गाजीपुर बार्डर से चल कुछे किसान लालकिले पर पहुंचे और कुछ किसान आईटीओ पर इंडिया गेट जाने के लिए अंत तक जोर लगाते रहे।


किसान नेता ऊपरी दिखावा करते हुए, गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या तक दिल्ली पुलिस की सभी शर्तों को मानने और कानून व्यवस्था बनाए रखने का ऊपर से नाटक करते रहे। परन्तु उनके मन में जो कपट था, वह गणतंत्र दिवस की सुबह से ही बाहर आने लगा, ट्रैक्टर परेड निकालने का तय समय दिन में 12 बजे का था, लेकिन ट्रैक्टर सुबह 9 बजे के लगभग ही कूच करने लगे और वह भी तयशुदा मार्ग से अलग दिशा में ? किसान नेताओं को मालूम था कि दिन में क्या होने वाला है, इसीलिए वह पुलिस के साथ तय शर्तों में से एक, ट्रैक्टर परेड में सबसे आगे रहकर परेड का मार्गदर्शन करने के स्थान पर वहां से नदारद हो गये और दिनभर नजर नहीं आये।


ट्रैक्टर परेड को दिल्ली में जहां जाना था, वहां गयी, उसे जो करना था, उसने किया, इसको पूरी दुनिया ने देखा। किसान नेताओं का सोचना था,  ट्रैक्टर परेड को दिल्ली में जो काम करने के लिए भेजा गया है, उसके बाद दिन में दिल्ली की सड़कों पर जो मार-काट मचने वाली है, उससे, उन्हें और विपक्षी राजनीतिक दलों को पूरी दुनिया में सरकार पर जबरदस्त कीचड़ उछालने का मौका मिल जायेगा और इस हाहाकार में उनकी कुटिल चालों की तरफ किसी का भी ध्यान नहीं जायेगा।


सरकार और दिल्ली पुलिस किसान नेताओं की इन चालों से अनजान नहीं थी, वह पूरे घटनाक्रम को अच्छी तरह समझ रही थी। सरकार और दिल्ली पुलिस बार बार ट्रैक्टर परेड में अनहोनी घटने व हिंसा होने की बात कह रही थी, जिसे किसान नेता लगातार कुटिलता से मना कर रहे थे। सरकार और दिल्ली पुलिस यदि चाहती तो ट्रैक्टर परेड को निकालने की इजाजत देने से मना कर सकती थी। परंतु इससे किसान नेताओं को सहानुभूति मिलती और किसान नेताओं की कुटिलता देश के सामने नहीं आती। 


अतएव सरकार और दिल्ली पुलिस ने इस बात को अच्छी तरह समझते हुए भी कि दिल्ली की सड़कों पर किसान नेताओं की क्या करने की  योजना है, उन्हें ट्रैक्टर परेड निकालने की इजाजत थमा दी। वह भी लिखित में शर्तों के साथ, उनसे शर्तों का पालन करने के आश्वासन भी ले लिये, अब यही लिखित प्रमाण इन किसान नेताओं की मुश्कें कसने के काम आयेंगे। लिखित में ट्रैक्टर परेड निकालने की इजाजत का कागज पाकर किसान नेता खुश थे कि उनके हाथ ट्रैक्टर परेड निकालने की इजाजत का सबूत आ गया है। अब सरकार और दिल्ली पुलिस उन पर लांछन नहीं लगा सकेगी। योगेन्द्र यादव ने मीडिया से कहा भी था, पहली बार पुलिस ने ट्रैक्टर परेड निकालने की इजाजत लिखित में दी है, इसके पूर्व तो वह मौखिक ही कह दिया करते थे। अब सुरक्षा की जिम्मेदारी दिल्ली पुलिस की है।


विपक्षी राजनीतिक दल और किसान नेता खुश थे कि सरकार को घुटनों पर लाने की उनकी योजना सफल हो गई है। इधर सरकार और दिल्ली पुलिस ने अपनी पूरी रणनीति बदल ली, अब वह किसान नेताओं के दिल में छिपी गंदगी को देश के सामने बेनकाब करने की योजना बनाने में जुट गई। 

उनकी योजना के चार मुख्य भाग थे -

1. किसान नेताओं द्वारा अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए देश के गौरव और अस्मिता को तार तार करने से भी नहीं चूकना।

2. किसान आन्दोलन के खालिस्तान और अर्बन नक्सलियों से संबंध होना।

3. किसानों की आक्रामकता और हिंसा चार की भावना देश के सामने लाना।

4. किसानों की आक्रामक शक्ति को सड़क पर खड़े अवरोधों में ही बर्बाद करवाना।

5. किसानों से सीधे भिड़ने से बचना, कम से कम बल प्रयोग करना।


सरकार अपनी नीति में पूरी तरह सफल रही, इसका पूरा श्रेय दिल्ली पुलिस और अन्य सुरक्षा बलों को है। देश ने पूरी दिल्ली में किसानों के द्वारा किया जाने वाला उग्र प्रदर्शन, पुलिस पर जानलेवा हमला करना देखा। इन किसानों का नेतृत्व करने वाले किसान नेताओं का बिल में छिपना भी देखा। वहीं सरकार और पुलिस का कठिन समय में भी, धैर्य और सहिष्णुता बनाते रखना देखा। सरकार और दिल्ली पुलिस उन सभी घटनाओं को टालने में सफल रही, जिनकी योजना विपक्षी राजनीतिक दलों और किसान नेताओं ने बनाई थी।


यदि सरकार और दिल्ली पुलिस मजबूत व प्रोफेशनल न होती, तो कल की घटनाओं के बाद दिल्ली में लाशों के ढेर लगे होते। आज जो देश किसान नेताओं और विपक्षी दलों को पानी पी पीकर कोस रहा है, वह किसानों के प्रति सहानुभूति और संवेदनाएं दिखा रहा होता। सरकार और दिल्ली पुलिस यह सफाई दे रहे होते कि किसानों ने ट्रैक्टर परेड की तय शर्तों को नहीं माना, दिल्ली की सड़कों पर हिंसा करने लगे। लेकिन सरकार और दिल्ली पुलिस की यह बातें नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती, उनको कोई नहीं सुनता।



Sunday 24 January 2021

बोया पेड़ बबूल का .... किसान आन्दोलन?

 किसानों को हर बार की तरह इस बार भी राजनीतिक दलों ने अपने स्वार्थ के लिए चने के झाड़ (पेड़) पर चढ़ा दिया। किसान अपने पैरों के नीचे की जमीन का जायजा लिए बिना चने के झाड़ पर चढ़ भी गये, नतीजतन न आगे रास्ता है और न पीछे गली। किसान खेत में बीज की बुआई किये बिना लहलहाती फसल की आस लगाए बैठे हैं। यह फसल कैसे आयेगी, इसकी उन्हें कल्पना भी नहीं है। राजनीतिक दलों की बात छोड़िए, उन्होंने किसानों को‌ दशकों से लॉलीपॉप थमाने के अलावा किया भी क्या है। इस बार भी राजनीतिक दल किसानों को बरगला कर उस अंधी खाई में धकेलने में कामयाब हो गए, जिसका कोई ओर-छोर ही नहीं है।



किसानों का जमाने से शोषण होता आ रहा है, यह निर्विवादित सत्य है। उन्हें उनकी फसल का लाभकारी मूल्य मिले, यह भी प्रत्येक दृष्टि से उचित और न्यायोचित है। लेकिन दुर्भाग्य से राजनीतिक दलों ने किसानों को बरगला कर, जिन मांगों के साथ आंदोलन छेड़ने के लिए आगे कर दिया, वह किसानों के शोषण के खिलाफ लड़ने का सही मैदान ही नहीं है, फिर सही नतीजे की उम्मीद कैसे की जा सकती है। आज देश के लगभग सभी मंचों पर किसान आंदोलन से संबंधित अनर्गल बहस छिड़ी हुई है, जो बेमानी है।


इस किसान आन्दोलन का नतीजा भी सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक दलों की स्वार्थ सिद्धि तक मर्यादित रहने वाला है। किसान यह गलतफहमी अवश्य पाले हुए हैं कि उनके शक्ति प्रदर्शन से सार्थक नतीजे निकलेंगे, लेकिन यह भ्रमजाल में के अलावा कुछ भी नहीं है। क्योंकि किसानों की दोनों मांगें - कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020', कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत अश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक, 2020' तथा आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक, 2020' को निरस्त करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि उत्पादों की खरीद अनिवार्य करने संबंधी कानून बनाने की मांगें, आर्थिक, बाजार व्यवस्था, विपणन और प्रशासनिक दृष्टि से न तो तर्क संगत है और न ही व्यवहारिक। देश की वर्तमान स्थिति में इसे लागू करना लगभग असम्भव है, यह देश की अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने वाले आत्मघाती कदम होगा। जिसे कोई भी देश या सरकार किसी भी तरह स्वीकार नहीं करेगी।


किसानों की मांगों का सार है कि उन्हें फसलों का लाभकारी मूल्य मिले। मांग पूरी तरह न्यायोचित है, फिर भी वर्तमान व्यवस्था में इस मांग को पूरा करना, किसी भी सरकार के लिए एक लम्बी प्रक्रिया से गुजरे बिना संभव ही नहीं है। आजादी के बाद से लगातार की गई कृषि क्षेत्र की उपेक्षा के कारण, इस क्षेत्र का पिछड़ापन इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है। हालांकि बीच बीच में कुछ सरकारों ने कृषि उत्पादन को बढ़ाने के प्रयास किये, इसमें वह सफल भी रहे, परंतु कभी भी सरकारों ने कृषि को देश की आवश्यकता के अनुरूप ढालने, उसे उचित विपणन व्यवस्था और लाभकारी मूल्य देने वाला व्यवसाय बनाने के लिए, न तो कभी कदम उठाए और न ही पर्याप्त व्यवस्था करने का प्रयास किया। जिसके कारण कृषि क्षेत्र बहुत पिछड़ गया। 


अतः कृषि उपज पर लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए सबसे पहले कृषि क्षेत्र में व्यापक सुधार कर, उसे व्यवसायिक स्वरूप में ढालने की आवश्यकता है। देश में कृषि उपजों को उनकी खपत के अनुरूप आकार देने की जरूरत है। देश में खपत के अनुरूप कृषि उत्पादन, उसके विपणन की पर्याप्त और समुचित व्यवस्था , बाजार में मांग और पूर्ति का संतुलन ही स्थायी रूप से कृ‌षि उत्पादनों को लाभकारी मूल्य दिलाने की दिशा में ले जाने वाला मार्ग है। जिसके लिए किसानों की बुनियादी मांग कृषि आयोग जैसी संस्था की स्थापना होनी चाहिए, कृषि क्षेत्र को बाजारोन्मुखी बनाने वाली उसकी कार्यविधि तथा नियमन तय करवाने में किसान संगठनों की सक्रिय भूमिका होनी चाहिए। ताकि देश में कृषि उत्पादों के लिए पर्याप्त बाजार उपलब्ध हों और बाजारों की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा कृषि उपजों को लाभकारी मूल्य दिलाने में सहायक हो सके।


अर्थशास्त्र की दृष्टि से मांग और पूर्ति के आधार पर बाजार द्वारा किसी वस्तु का मूल्य निर्धारित किए जाने की प्रक्रिया के स्थान पर उस वस्तु को न्यूनतम मूल्य पर खरीद के लिए क्रेता को बाध्य किया जाने वाला कदम, आत्मघाती एवं अर्थव्यवस्था को नष्ट करने वाला होता है। इसके बाद भी देश की राजनीति इस विषय को जोर शोर से चर्चा में लाने में सफल रही है। यदि अर्थक्षेत्र में इस तरह के घटनाक्रम के लिए कोई स्थान होता तो याद कीजिए, मनमोहन सिंह सरकार के समय देश में चीन के सामान के बढ़ते आयात के कारण, देश के अनेकों उद्योगों पर गंभीर संकट छा गया था। इन उद्योगों के लागत मूल्य की तुलना में चीन का सामान सस्ता होने के कारण, इनके उत्पादों की मांग समाप्त हो गई थी। यह उद्योग बंद हो रहे थे। उस समय यदि यह उद्योग भी मांग करते कि सरकार कानून बना कर, उनके द्वारा बनाई वस्तुओं को न्यूनतम मूल्य पर खरीदना अनिवार्य रूप से बाध्यकारी करें? ताकि उन उद्योगों को बंद होने से बचाया जा सके, तो क्या होता?


वास्तव में अर्थव्यवस्था में इस तरह हस्तक्षेप करना सरकार का कार्य नहीं है। सरकार अर्थव्यवस्था के कमजोर घटकों को मजबूती देने के लिए नियमन और आर्थिक सहायता तो दे सकती है, परंतु आर्थिक लेन-देन में कानून बनाकर सीधे सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकती। सरकार की जिम्मेदारी इस प्रकार की व्यवस्था बनाना है जिससे किसानों और उद्योगों को बाजार में उनके उत्पादन का लाभकारी मूल्य प्राप्त करने में सहायता मिले। इस कार्य को सरकार विभिन्न प्रतिबंधों, आर्थिक अनुदानों, नियमनों तथा व्यवस्थाओं को बनाकर करती है। सरकार के इन कदमों को उसके द्वारा उस क्षेत्र में किये जाने वाले सुधार कहा जाता है। किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए सरकार के पास कृषि क्षेत्र में सुधारों के अतिरिक्त कोई दूसरा रास्ता नहीं है। सरकार तीनों कृषि कानून भी कृषि क्षेत्र में सुधारों की प्रक्रिया के अंतर्गत लाई है। किसानों को इन कानूनों को अपने लिए अधिक उपयोगी बनाने दृष्टि से चर्चा करनी चाहिए थी। कृषि क्षेत्र में व्यापक सुधारों को जल्द से जल्द लागू करवाने की मांग करनी चाहिए थी। लेकिन राजनीतिक दलों ने उन्हें रास्ते से भटकाकर हवा-हवाई में उलझाकर उस खाई में धकेल दिया है, जिसका उनकी फसलों के लाभकारी मूल्य मिलने से कोई लेना-देना ही नहीं है।

Saturday 23 January 2021

हिन्दुओं के सजग होते ही बिगड़ने लगे, धर्म और राजनीति के रिश्ते

 देश के अधिकतर बुद्धिजीवी आजकल धर्म, राजनीति और उनके आपसी रिश्तों के कारण बिगड़ते माहौल की दुहाई देने में लग गए हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि उनकी आलोचना के केन्द्र में हिन्दू धर्म ही है। यह लोग दाना पानी लेकर इसी बात को सिद्ध करने में लगे हैं कि देश के माहौल को बिगाड़ने के लिए, पिछले लगभग 600 वर्षों से आक्रमण का शिकार हिन्दू धर्म ही है।

चित्र सौजन्य : medium.com

मजे की बात तो यह है कि अपने तर्कों को सिद्ध करने के लिए यह लोग जिन उद्धरणों और घटनाक्रम का सहारा लेते हैं, उनका ईमानदारी से विश्लेषण करने पर उनके तर्क स्पष्ट रूप से खोखले नजर आते हैं। विशेष यह कि आज यह लोग जो आरोप हिन्दू धर्म पर लगा रहे हैं, उन्हीं आक्रमणों को पिछले कई शतकों से झेलने वाले हिन्दू धर्म और उसकी आवाज उठाने वालों में ही उन्हें सभी दोष नजर आते हैं। जबकि उनसे अधिक कट्टरता अपनाकर वातावरण को दूषित करने वाले अन्य धर्म उन्हें मासूम और सौहार्दप्रिय लगते हैं। वास्तव में इस वर्ग को हिन्दुओं द्वारा प्रतिक्रिया व्यक्त करना करने लगा है।


धर्म का राजनीति में प्रवेश तो ग्यारहवीं सदी में हो गया था, जब श्रावस्ती के हिन्दू राजा सुहेल देव राय को युद्ध में हराने के लिए महमूद गजनवी के सेनापति सैयद सालार मसूद ने गौ वंश का उपयोग किया था। इन लोगों को तो कालांतर में मुस्लिम लीग द्वारा धर्म का राजनीति में उपयोग कर देश का विभाजन भी नहीं दिखा। विशुद्ध धार्मिक आधार पर देश विभाजन के बाद देश में सभी धर्मों को समान अधिकार और सुविधायें प्रदान करने के स्थान पर अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक शब्दों का उपयोग और उनके अलग-अलग मापदंड तो शायद राजनीति को धर्म से अछूता रखने के ईमानदार प्रयास थे। जिन पर इन विशिष्ट लोगों के मुंह कभी नहीं खुले।


देश में धर्म की समीकरणों के आधार पर राजनीति करने वाले अनेकों राजनेता और राजनीतिक दलों के क्रिया कलापों से इस वर्ग को कभी कष्ट नहीं हुआ। इन्हें तो राजनीति में धर्म की समीकरणें तभी नजर आई, जब अपनी दिन-प्रतिदिन की दुर्दशा से चिंतित होकर हिन्दुओं ने भी अन्य धर्मों की राह पर चलते हुए, देश की राजनीति पर अपनी पकड़ मजबूत करनी शुरू कर दी, तभी इनको समझ आया, धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत दो तरीके से चलता है। या तो राज्य सभी धर्मों से समान दूरी बनाए रखे। या सभी धर्मों से समान प्रेम बनाए रखे। आज की सत्ता यह दोनों काम नहीं कर रही है बल्कि बहुसंख्यक समाज के धर्म से ज्यादा निकटता दिखा कर यह साबित करना चाह रही है कि अल्पसंख्यकों का धर्म दोयम दर्जे का है और राज्य बहुसंख्यक समाज के धर्म से दूरी नहीं बना सकता। सारा प्रयोजन इसी सिद्धांत को स्थापित करने के लिए हो रहा है।


अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए धन एकत्र करने के प्रयास में भी यह वर्ग अपनी उसी मानसिकता का आत्मदर्शन करना चाहता था, लिहाजा उसने उस पर धर्म और राजनीति के बिगड़ते रिश्तों का मुलम्मा चढ़ा दिया। विडंबना यह कि इन्हें कुछ वर्षों पूर्व धर्म की व्याख्या करने वाले, मात्र कुछ सौ वर्षों पूर्व जन्मे धर्मों के व्याख्याकारों की बात तो अपने कथन के पक्ष में उपयोगी लगी, परंतु हजारों वर्षों पूर्व लिखी और हिन्दू धर्म समर्थकों की बात हमेशा की तरह अविश्वसनीय ही लगी। जिसमें कहा गया है -


धारणाद्धर्ममित्याहु: धर्मो धारयते प्रजा: । यस्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चय: ।।

धर्म शब्द की उत्त्पत्ति धारणा शब्दसे हुई है। धर्म प्रजा या समाज को अंर्तविष्ट कर रखता है। अतः जो व्यक्ति को संयुक्त रूप से समाविष्ट कर सके, वह निश्चय ही धर्म है।


धर्म लोगों को एक साथ लयबद्ध करता है जोड़ता है। यह उन्हें दिखाई नहीं देता, अपने तर्क को पुष्ट करने के लिए वह यहूदी धर्म के उस लेखक को उद्धृत करते हैं, जिन्हें धर्म के कारण ही नेस्तनाबूद कर दिया गया और जो आज भी धर्म के आधार पर अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्षरत हैं। स्वाभाविक तौर पर उस लेखक की व्याख्या में धर्म के विश्लेषण में दमन की वह विभीषिका ही सामने आयेगी, जिसे उसके पूर्वजों ने झेला है। उसकी वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हिन्दू धर्म के समर्थकों से तुलना, अनुचित ही नहीं अक्षम्य है।


इजरायल के यहूदी युवा इतिहासकार युआल नोवा हरारी का अपनी पुस्तक ` ट्वेंटी वन लेशन्स फार ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी’ के एक अध्याय में मानना है,  कि इक्कीसवीं सदी के इस वैज्ञानिक युग में धर्म की भूमिका सीमित हो गई है। ` इस सदी में धर्म बारिश नहीं कराता, वह लोगों की बीमारियों का इलाज नहीं कराता, वह बम नहीं बनाता पर वह यह निर्धारित करने में आगे आता है कि `हम’ कौन हैं और `वे’ कौन हैं। वह यह भी तय करता है कि हम किसका इलाज करें और किस पर बम गिराएं।


देश के हिन्दू धर्म को इस विश्लेषण के आईने में देखना कितना सही और उपयुक्त है, इसका निर्णय आप स्वयं करें। सत्ता से कब्जा हटाते और किसी किसी अन्य विचार वाले की पकड़ मजबूत होते ही देश के बहुसंख्यक धर्म को इस प्रकार अतिश्योक्तिपूर्ण तरीके से लांक्षित करने का प्रयोग और प्रयास वर्ग विशेष के द्वारा किया जा रहा है, जो निश्चित ही निंदनीय है।


ईमानदार प्रयास वह होगा, यदि धर्म के आधार पर स्वतंत्रता पूर्व से देश में चलने वाली राजनीति का विश्लेषण, धर्म के राजनीति में हस्तक्षेप और उसके कारण बहुसंख्यकों के द्वारा झेले गये घावों को ध्यान में रखकर किया जाये। धर्म निरपेक्षता शब्द की हिन्दू विरोधी परिभाषा को भूल, उसके यथार्थवादी मर्म को ध्यान में रखते हुए, उसकी व्याख्या की जाये। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व और बाद में घटित उस इतिहास की हकीकतों को कुरेदा जाये, उन तथ्यों पर गम्भीरता से विचार किया जाये, जिनके कारण बहुसंख्यक हिन्दू समाज, अत्यल्प समय में ही कथित सांप्रदायिक हिन्दुत्ववादी शक्तियों के बहकावे में आकर, एकजुट हुआ ही नहीं, निरंतर उसी मार्ग पर बढ़ता चला जा रहा है।

Thursday 21 January 2021

वैचारिक नहीं, अस्तित्व की लड़ाई में जुटी है देश की राजनीति

आजादी के बाद देश का मिजाज बदलना कब शुरू हुआ, कहना कठिन है, परन्तु मिजाज बदल चुका है, यह साफ साफ दिखाई दे रहा है। यह नहीं कि इससे पहले देश का मिजाज कभी बदला ही नहीं, पहले भी एक दो बार बदला, लेकिन जूड़ी के बुखार की तरह, तपा तो खूब, लेकिन जल्दी ही शांत होकर, पतली गली से निकल लिया। जिसके कारण 67 वर्ष से राजनीति का अभेद्य दुर्ग खड़ा करने वालों को और उनके सिपहसालारों को कभी खुल कर सामने आने और खेलने का मौका नहीं मिला। सत्ता से बाहर होने के बाद या तो बदला मिजाज खुद-ब-खुद जुकाम की तरह बह जाता था या फिर पैरासिटामोल की हल्की खुराक दिये जाने पर ही बैठ जाता था। लिहाजा कभी ज्यादा तकलीफ़ हुई नहीं, विशेषज्ञ डाक्टर से इलाज कराना पड़ा नहीं, गाड़ी आराम से आगे खिसकती चली गई। 




आजादी के बाद से ही देश में अपने प्रभुत्व का ताना बुनने वाले और उनके सिपहसालार कभी इस बात को सोच-समझ ही नहीं पाये कि समय परिवर्तनशील है। रात कितनी ही लम्बी क्यों न हो, सुबह होनी ही है। लिहाजा वर्ष 2014 में देश के मिजाज में जब बदलाव आया, तो उन्होंने यह मान लिया कि यह भी देश के मिजाज में पहले हुये बदलावों की तरह का एक बुलबुला है, खुद ब खुद फूट जायेगा, अतः उन्होंने कुछ करने की जहमत नहीं उठाई। परन्तु वर्ष 2019 में एक बार फिर देश के मिजाज ने, उसी वर्ष 2014 वाले बदलाव पर दोबारा मुहर लगा दी। देश की आजादी के बाद देश के मिजाज में बदलाव, पहली बार, कुछ ठोस आकार ले रहा था, जिससे देश पर अपना स्थाई कब्जा मानने वाले हिलने लगे। उनको लोकतंत्र, संविधान, संवैधानिक व्यवस्थाएं , मतदाता की इच्छा सर्वोपरि जैसी अब तक की जाने वाली व्याख्यायें खोखली लगने लगी थी। उन्हें संसद जैसी कानून बनाने वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था में, तानाशाही राजनीति की पोषक नजर आने लगी थी। 

अब देश के मिजाज में बदलाव गंभीर रुख अख्तियार कर चुका था। गढ़ पर कब्जा करने वाले और कब्जा खोने वाले, दोनों के चेहरों पर गम्भीरता की रेखाएं उभर चुकी थी। कब्जा खोने वालों की चिंता, कब्जा करने वालों के पैर जमाने न देने और कब्जा करने वालों की भरपूर कोशिश अपने पैर अधिक मजबूती से जमाने की होने लगी। देश की सत्ता पर काबिज हुए लोग भी स्पष्ट रूप से समझ चुके थे कि देश का मिजाज बदल को रहा है और इस बदलाव को स्थायित्व देने के लिए उन्हें तेजी से आगे बढ़ना होगा, देश के जनमानस को परिवर्तन का साक्षात्कार करवाना होगा। बस फिर क्या था, उन्होंने तेजी से 72 सालों से लंबित देश के महत्वपूर्ण निर्णय लेने, उन्हें लागू करवाने की राह पर तेजी से कदम बढ़ाने शुरू कर दिए। जिनमें पाकिस्तान द्वारा चलाई जाने वाली आतंकी गतिविधियों पर आक्रामक रूख, देश में घुसपैठियों से निपटने के लिए CAA - NRC कानून, मुस्लिमों में तीन तलाक़ प्रथा, जम्मू कश्मीर से धारा 35A, 370 का निरस्तीकरण, देश के गरीबों के लिए विभिन्न योजनाएं और आजादी के बाद से ही लंबित कृषि सुधारों को लागू करने के लिए तेजी से आगे बढ़े। 

इस अप्रत्याशित आक्रमण से देश की सत्ता पर से अधिपत्य खोने वाला पक्ष और उसके सिपहसालारों में खलबली मच गई। उनके सामने भी आक्रामकता दिखाने के अतिरिक्त अन्य मार्ग न था। अतः वह उसी पर आगे बढ़ चले। आज देश का पत्रकार, बुद्धिजीवी, मीडिया, टीवी चैनल, राजनेता स्पष्ट रूप से दो धड़ों में बंट चुके हैं, यह बंटवारा किसी बौद्धिक या तार्किक आधार पर नहीं, सिर्फ और सिर्फ व्यक्तिगत पसंद और नापसंद के आधार पर है। 

इसका कारण और मूल समझने के लिए देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रारंभिक युग में जाना होगा, जब महात्मा गांधी के द्वारा कांग्रेस भंग करने की सलाह दिये जाने के बावजूद, कांग्रेस के प्रभावशाली नेता, सत्ता में अपनी स्थाई पैठ बनाने के उद्देश्य से देश का स्पष्ट विभाजन होने के बाद भी उसके आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अस्तित्व को तोड़ने मरोड़ने में लगे हुए थे। दूसरी तरफ इसका लाभ उठाते हुए, मुस्लिम लीगियों का वह खेमा, जो देश विभाजन के बाद पाकिस्तान नहीं जा सका था, एकमुश्त वामपंथियों से मिलकर देश के विभाजन पूर्व परिस्थितियों के बचे खुचे बीजों का संरक्षण करने में लग गया था। 

देश को इस चक्रव्यूह से निकलने और हकीकत समझने में लम्बा वक्त लग गया। इस अवधि में इन तत्वों के संरक्षण और आशीर्वाद से देश में एक सामांतर व्यवस्था बन गई। अब जब देश इस चक्रव्यूह को तोड़ नई व्यवस्था की तरफ निकल पड़ा है, सत्ता को स्थाई रूप से हाथों से फिसलते देख, यह वर्ग बेचैन हो उठा है। इसने व्यवस्था विरोध में युद्ध छेड़ दिया है। इनके पास न तो आधार है, न तर्क हैं और न ही समर्थन है। फिर भी अस्तित्व का प्रश्न है, अतः इन तत्वों का पुरजोर विरोध के साथ लड़ना तय है। अतः देश को धारा 370 वह 35A, तीन तलाक़, रोहिंग्या घुसपैठियों, CAA - NRC और अब किसान आन्दोलन जैसे अनेक आन्दोलन आगे भी देखने को मिलते रहेंगे, जिनमें समस्या का समाधान वैचारिक, तार्किक या वैज्ञानिक आधार पर नहीं, देश में अव्यवस्था फैलाने के आधार पर तय किया जायेगा।

Saturday 16 January 2021

आर्थिक बदलाव की दस्तक है, किसान आन्दोलन

 किसान आन्दोलन की पतंग को मीडिया 50% सफलता बताकर चाहे जितनी तान ले, यह बात दोनों पक्ष अच्छी तरह जानते हैं कि वास्तविकता के धरातल को दोनों ने छुआ भी नहीं है। बस उस गली से नजरें चुराकर निकलने में लगे हैं। अतः किसान आन्दोलन के हल होने का मार्ग दूर दूर तक नहीं है।


अपने देश में समस्या कोई भी हो, उसे सामाजिक व भावनात्मक दृष्टि से देखने और उसका समाधान ढूंढने की आदत है, जबकि वैज्ञानिक, गणनात्मक और आर्थिक पक्षों के लिए भावनात्मक एवं सामाजिक पक्ष अर्थहीन हुआ करते हैं। किसान समस्या के संदर्भ में भी यही चल रहा है। समस्या के लगभग सभी विश्लेषण इसी दृष्टिकोण पर आधारित हैं। किसान को अन्नदाता और न जाने किन किन विश्लेषणों से विभूषित कर समस्या के मूल पक्ष को पूरी तरह अनदेखा किया जा रहा है।


विडम्बना यह है कि या तों दोनों ही पक्ष समस्या के मूल से अपरिचित हैं, या फिर उससे हमेशा की तरह आंख चुराकर निकलना चाहते हैं। समस्या का मूल अर्थशास्त्र के कुछ बुनियादी सवालों पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है और यह अर्थशास्त्र के प्रचलित वैश्विक सिद्धांतों को चुनौती देने वाला हैं। विश्व में प्रचलित मूल्य नीति एवं मूल्य सूत्र की परिपाटियों पर प्रश्न चिन्ह लगा रहा है। जिसकी तरफ कोई देखना नहीं चाहता या उससे जानबूझकर आंख चुरा रहा है।


समस्या के मूल में अर्थशास्त्र में औद्योगिक एवं कृषि उत्पादों के लागत मूल्य की गणनाकी शुरुआत हो गई में अपनाई जाने वाली भिन्न भिन्न पद्धतियां हैं। उत्पादन के लागत मूल्य की गणना करने में कृषि और औद्योगिक उत्पादों के बीच का यह भेद किसी भी तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। संभवतः इसी कारण इस पक्ष को अंधेरे में रखने का वर्ग विशेष के लिए लाभकारी स्वार्थी प्रयास चल रहा है। न जाने क्यों, स्वामीनाथन आयोग समस्या के इस  पक्ष की चर्चा कर गया, जिसके कारण आर्थिक जगत में भूचाल लाने वाली मांग की शुरूआत हो गई, किसान संगठन अब वही मांग कर रहे हैं।


किसानों की फसलों के MSP मूल्य पर बिक्री की गारंटी देने वाला कानून, विश्व के आर्थिक क्षेत्र में अफरातफरी मचाने के साथ ही प्रचलित अर्थशास्त्र की चूलें हिलाने वाला होगा। बाजार व्यवस्था में "मांग और पूर्ति" एवं अर्थशास्त्र के अनेकों प्रचलित सिद्धांतों की आड़ लेकर शोषणकारी व्यवस्था को संरक्षण देने वालों के लिए विनाशकारी होगा। अनियंत्रित मूल्यों एवं लाभ कमाने पर लगाम कसकर, बाजार में सभी उत्पादों के बिक्री मूल्यों को निर्धारित करने के लिए मूल्य सूत्र प्रतिपादित करने की दिशा में बढ़ा हुआ कदम होगा।


यह निश्चित जानिए कि किसान आन्दोलन के नाम पर वर्तमान अर्थशास्त्र के थैले से MSP नाम की जो छुपी हुई बिल्ली निकली है, वह वस्तुओं के उत्पादन मूल्य एवं बिक्री मूल्य के बीच चलने वाली जबरदस्त तफावत और शोषणकारी अर्थनीतियों के विरुद्ध घोषित युद्ध का शंखनाद है, जिसमें फिलहाल कहा जा सकता है कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ किसान सम्मिलित हैं लेकिन इस चिंगारी को अब भड़कने से रोक पाना कठिन होगा। 


इसका हल किसानों की कुछ मांगों को मान लेने या न मानने से मिलने वाला नहीं है। इसका एकमेव हल कृषि एवं औद्योगिक उत्पादों के उत्पादन मूल्य की गणना में सामंजस्य लाकर, दोनों ही उत्पादों के बिक्री मूल्य का निर्धारण करने के लिए मूल्य सूत्र की स्थापना की दिशा में आगे बढ़ कर ही मिलेगा।