Thursday 30 June 2016

सरकारी कर्मचारियों की वेतनवृद्धि सर्वहारा के लिये घातक

अर्थव्यवस्था मे अतिरिक्त पैसा उसके विकास को गति देने मे सहायक होता है। आंकडे यही बताते हैं कि यदि यह अतिरिक्त पैसा ग्राहकों  के हाथों मे दिया जाये। ग्राहक इस पैसे को बाजार मे खर्च करता है जिससे बाजार मे मांग बढती है, यह मांग अतिरिक्त उत्पादन के संसाधन विकसित करने और उद्योग लगाने, उद्योग नवीन रोजगार पैदा करने मे सहायक होते हैं। यह आधुनिक अर्थशास्त्र का नियम है। जीडीपी वृद्धि के लिये छटपटाती मोदी सरकार के लिये ऐसे किसी अवसर को न चूकना  उसकी मजबूरी है। हम केन्द्र सरकार के कर्मचारियों को सातवें वेतन आयोग लागू करना इसी द्रष्टि से देखते हैं। टैक्स वृद्धि और मंहगाई से हलाकान ग्राहकों पर इस 1 करोड 2 लाख करोड़ के अतिरिक्त बोझ का घातक असर निश्चित है। केन्द्र सरकार के लगभग 1 करोड़ कर्मचारी हैं, इनमे यदि राज्य सरकारों के कर्मचारियों की संख्या भी मिला ली जाये, क्योंकि उन्हे भी इसीप्रकार की वेतन वृद्धि देनी पडेगी तो संख्या लगभग 5 करोड हो जाती है। सरकारों द्वारा की गई वेतन वृद्धि के कारण बाजार मे मुद्रा का प्रचलन बढेगा, जिसके कारण जन्म लेने वाली मुद्रास्फीर्ति पूरी आबादी पर अपना प्रभाव छोडेगी। पहले से मंहगाई से जूझने वाले ग्राहक को निश्चित रूप से इससे धक्का लगेगा।

सरकारी कर्मचारी के हाथ मे आने वाला पैसा बाजार मे आये, इसी उम्मीद मे लगे हाथ शॉप एण्ड इस्टेब्लिस्मेन्ट कानून बदलकर बाजारों को 24 x 7 घन्टे खोलने की अनुमति दे दी गई है। ग्राहकों के प्रतिनिधि के नाते हम इस कदम का स्वागत करते हैं। परन्तु इससे सम्बन्धित दुनिया के आंकडे देखने पर नहीं लगता कि इससे वह कुछ हासिल हो पायेगा जो प्रचारित कर यह कदम उठाया जा रहा है। बमुश्किल दुनिया के उंगली पर गिने जा सकने वाले शहरों मे ही यह व्यवस्था लागू हो पाई है। रोजगार मे मामूली वृद्धि ही होगी, जबकि व्यापार को इसका लाभ मिलेगा। पहले ही निजी कारखानों मे काम के 8 घन्टे कबके 12 घन्टे बन चुके हैं।

सरकार के इस कदम के साथ ही ग्राहकों को अतिरिक्त टैक्स का भार झेलने के लिये तैयार रहना चाहिये। वर्ष 2016 के 18 लाख करोड़ रूपयों के बजट को देखने से ही यह स्पष्ट हो जाता है। इस बजट मे सरकार की सभी श्रोतों से आय 12 लाख 21. हजार 818 करोड़ रुपये थी, जबकि गैर योजना खर्च 13 लाख 12 हजार 200 करोड़ रुपये यानी आमदनी से 90,372 करोड़ रुपये अधिक, अब इस अतिरिक्त 1 लाख 2 हजार करोड़ रुपये की व्यवस्था का रास्ता ग्राहकों की जेब से ही होकर गुजरने वाला है। वैसे जेटली जी को GST पास होने की उम्मीद से सर्विस टैक्स 15.5 से 18%. हो जाने की भी उम्मीद भी होगी।

मोदी को पंक्ति के अन्तिम छोर पर बैठे जिस व्यक्ति की सर्वाधिक चिन्ता है, उसी के लिये यह कदम सर्वाधिक कष्टदायी हैं। सरकार अार्थिक मामलों में कमोबेश वही कदम उठा रही है, जिनके फलों के स्वाद विश्व के कई देश चख चुके हैं। जो असफल सिद्ध हो चुके हैं। सर्वहारा को आर्थिक सक्षम बनाने तथा आर्थिक असमानता को दूर करने के मार्ग अलग और लीक से हटकर हैं। शायद उनमे भी जोखिम हो, जिसे उठाने को सरकार अभी तैयार न हो, हम उस समय का इन्तजार करेंगे।

Thursday 16 June 2016

कैराना : Ground Zero

आज उत्तर प्रदेश के शामली जिले की कैराना तहसील पूरे देश मे चर्चा मे है। कहा यह गया कि कैराना मे मुस्लिम बहुल आबादी मे गुण्डागर्दी से परेशान क्षेत्र के हिन्दू अ्ल्पसंख्यक अपना घर, व्यापार, खेती बेचकर पलायन करने लगे। देश मे जब तब सेकुलर, असहिष्णुता की बयार जब तब बहती है। अत: यह लॉबी भी ताल ठोक कर मैदान मे उतर पड़ी। यह लोग भी मानते हैं कि कुछ लोगों ने कैराना छोड़ा, पर अपने बेहतर भविष्य के लिये। वर्तमान मे दोनो आमने सामने हैं। अपने अपने तर्कों को लेकर। हम सभी बातों का सिलसिलेवार बेबाकी से विश्लेषण करेंगे। परन्तु पहले कैराना और उसके आसपास के क्षेत्र की भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक परिस्थितियों को समझ लेते हैं।

कैराना उत्तर प्रदेश की उत्तर पश्चिमी सीमा पर यमुना नदी के किनारे हरियाणा के पानीपत की सीमा से लगा है। पहले कैराना मुजफ्फरनगर जिले की तहसील हुआ करता था। वर्ष 2011 मे मायावती द्वारा शामली को जिला बनाने के बाद कैराना शामली की तहसील बन गया। सिर्फ 1998 और 2013 मे ही यहां से बीजेपी सांसद ने जीत हासिल की। 2011 जनगणना के मुताबिक़ कैराना तहसील की की जनसंख्या एक लाख 77 हजार 121 है. कैराना नगर पालिका की आबादी करीब 89 हजार है. कैराना नगर पालिका परिषद के इलाक़े में 81% मुस्लिम, 18% हिंदू और अन्य धर्मों को मानने वाले लोग 1% हैं. यूपी में साक्षरता दर 68% है लेकिन कैराना में 47% लोग ही साक्षर हैं। कैराना पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से 80 किमि, मेरठ से 72 किमि, मुजफ्फरनगर से 53 किमि, बिजनौर से किमि की दूरी पर है। यह सभी जिले अत्यधिक संवेदनशील जिले हैं। इन सभी जिलों मे वह खाद पानी पर्याप्त मात्रा मे उपलब्ध है, जो दो समुदायों के बीच सौहार्द बिगाड़ने की भूमिका निभाता है। इसपर यदि प्रशासन और कानून व्यवस्था ढीली ढाली हो तो सोने मे सोहागा। अखिलेश राज मे शासन प्रशासन की चुस्ती का अंदाज कुछ दिन पहले मथुरा मे घटित जवाहरबाग कांड से मालुम पड़ जाता है। पिछले दो-तीन वर्षों मे इन सभी स्थानों पर दंगे हो चुके हैं। यह सब हम राज्य सरकार तथा उन सेकुलर लोगों की याददाश्त ताजा करने के लिये बता रहे हैं, जिन्हे हिन्दुओं पर हुये किसी भी अत्याचार को नकारने तथा उसे जल्दी से भूलने की बीमारी है। यह भी विचित्र संयोग है कि हम जिन जिन घटनाक्रमों का जिक्र कर रहे हैं। सभी के तमगे उत्तर प्रदेश की समाजवादी अखिलेश सरकार के नाम हैं। 

सेकुलर दोस्तों और राजनीतिक दलों को सहारनपुर के कांग्रेस नेता इमरान मसूद का 2014 चुनावों मे दिया भाषण भी सुनने और गौर करने योग्य है। जिसमे वह हिन्दुओं और मोदी की स्तुति कर रहा है। सितम्बर 2013 मे मुजफ्फरनगर के कावल से हिन्दू -मुस्लिम दंगे की शुरूवात हुई, जिसने मुजफ्फरनगर और शामली जिले को अपनी चपेट मे ले लिया था, मई 2014 मे मेरठ दंगे की आग मे झुलसा, मुरादाबाद की कांठ तहसील मे जुलाई 2014 मे दंगे की चिंगारी फूटी, जुलाई 2014 मे ही सहारनपुर ने भी दंगे की आंच झेली। यह सब घटनाक्रम यह समझने के लिये पर्याप्त हैं कि कैराना से 50 से 80 कि मी की दूरी पर उस क्षेत्र का साम्प्रदायिक माहौल क्या और कैसा है। वहां पिछले 2-3 वर्षों से चल क्या रहा था। इस माहौल मे कभी भी पलायन शुरू होने की सम्भावना से इन्कार स्वार्थी तत्व ही करेंगे, आज भी कर रहे हैं। 

अब कैराना की वर्तमान घटनाओं पर आते हैं। इस क्षेत्र के स्थानीय अखबारों मे कैराना मे हिन्दुओं के डर और पलायन की छुटपुट खबरें कुछ समय से छप रही थी। एक समाचार चैनल का ध्यान इन खबरों पर गया और उसने स्टोरी करने का विचार किया। जब चैनल का संवाददाता स्टोरी कवर करने के लिये ग्राउन्ड जीरो पर पँहुचा, वहां का जो माहौल उसने देखा, उसके हाथों के तोते उड़ गये। इस तरह कैराना का जिन्न बन्द बोतल के बाहर आया। इस जिन्न ने देश की सेकुलर जमात और राज्य सरकार को बेचैन कर दिया। पलायन का सच नंगी आँखों से चुपचाप देखा महसूस किया जाता है। वह जो इसे टीवी इन्टरव्यू या गवाह की शक्ल मे देखना चाहते हैं, सिर्फ एक वर्ग को वोट के लालच मे सन्तुष्ट करने के लिये नौटंकी कर रहे हैं। आज वहां जो हालात हैं, उनको कैमरे या किसी प्रशासनिक अधिकारी को बताने मे अच्छे अच्छों की पैन्ट गीली हो जाती है। वह भी उन अधिकारियों को जिनके पक्षपाती रवैये के कारण यह स्थितियां बनी हैं। कैराना के सांसद द्वारा कैराना से पलायन करने वाले 346 तथा कांधला से पलायन करने वाले 63 लोगों की सूची पर उंगली उठाना बुनियादी रूप से गलत है। इस लिस्ट के 100-150 नाम गलत होने का सवाल उठाने वाले शेष 196 सही नामों पर खामोश रहकर, जवाबदेही से बचने का षडयन्त्र रचने मे लगे हैं। 

देश और समाज के सामने झूठी छाती पीट पीट कर शोर मचाने वाले इस वर्ग विशेष के रूदाली रूदन को देश ने हैदराबाद मे रोहित वैमूला की आत्महत्या के समय सुना, देखा और समझा। जहां रोहित का करीबी दोस्त इनसे छिटककर हकीकत बयान करता दिखा। दादरी मे अखलाक की मौत के समय देखा, जहां बाद मे मथुरा लैब की रिपोर्ट आने पर इन्हे अपने शब्दों को वापस निगलना पड़ा। जेएनयू मे देशद्रोही नारे लगाने वालों का पक्ष लेकर बंगाल चुनाव मे उतर अपनी ऐसी तैसी कराने तथा वीडियो क्लिपें सही साबित होने पर बेशर्मों की खिलखिलाते देखा और अब एक बार यह वर्ग फिर कैराना की घटनाओं को झुठलाने की कोशिश मे है। इस वर्ग के साथ किस प्रकार का व्यवहार करना है, यह निर्णय देश और समाज को करना है।

Wednesday 15 June 2016

वैश्विक शोषण से मुक्ति का एकमेव उपाय हिन्दू अर्थचिन्तन - पं दीनदयाल उपाध्याय

जब हम ब्रिटिश उपनिवेश थे, तभी देश मे इस बात का जोर शोर से प्रचार किया गया कि ज्ञान के मामले मे हमारा देश अत्यधिक पिछड़ा हुआ है। अंग्रेजों के साथ इस बात को खाद पानी देने मे उन लोगों का भी कम हाथ नहीं था, जिन्होने विदेशों मे शिक्षाा प्राप्त की थी। यह भारतीय अंग्रेजों की जीवन शैली से इतना अधिक प्रभावित थे कि इन्होने न तो भारतीय संस्कृति को जानने समझने की चेष्टा की, न ही इनमे कभी भारतीय   ग्रन्थो के विश्लेषण की क्षमता आई। दुर्भाग्य यह रहा कि १९४७ के बाद देश का नेतृत्व इसी वर्ग के हाथों मे चला गया। पाश्चात्य की अंधभक्ति से ओतप्रोत यह वर्ग देश को उसी राह पर ले गया जिस पर पश्चिमी देश कदम बढ़ा रहे थे। आज इन लोगों तथा इनके आदर्शों की सामाजिक व मानव विषयी अज्ञानता का परिणाम भारत ही नहीं, पूरा विश्व भुगत रहा है। आगे चलकर जैसे जैसे पश्चिमी विद्वानों का परिचय भारतीय दर्शन से होता गया, सभी भारतीय दर्शन के विचारों से सहमत दिखे। आर्थिक क्षेेत्र भी इसका अपवाद नहीं है, पश्चिमी विद्वानों के भारतीय दर्शन समर्थित कोटेशनों  से साहित्य पटा पड़ा है। पं दीनदयाल उपाध्याय भी इसी विचार दर्शन के संवाहक थे। यद्यपि दीनदयाल जी के जाने के बहुत समय बाद इस विषय पर एक सम्पूर्ण पुस्तक डा म ग बोकरे की Hindu Economics वर्ष 1993 मे आई। विसंगति देखिये डा बोकरे को अपने विषय से भारतीय अर्थशास्त्रियों को परिचित कराने से कहीं सरल पश्चिमी अर्थशशास्त्रियों को परिचित कराना लगा। जब डा बोकरे ने कनाडा तथा अमेरिका के प्रसिद्ध अर्थशशास्त्री जे के गालब्रेथ को हिन्दू इकनॉमिक्स से अवगत कराया, उन्होने न सिर्फ इन विचारों की सराहना की, यह भी कहा कि पश्चिमी अर्थशशास्त्रियों को प्राचीन भारत की आर्थिक व्यवस्थाओं को भी जानना समझना चाहिये।

परम पूज्यनीय गुरू जी ने प्रारम्भ मे तथा बाद मे दीनदयाल जी ने हिन्दू तत्वज्ञान के इन्ही आधारों को विकसित किया। श्री गुरू जी तथा दीनदयाल जी के विचारों मे इतनी समानता है, कि यही लगता है दीनदयाल जी श्री गुरू जी के विचारों को आगे बढ़ा रहे हैं। दोनो महानायकों की इस एकीकृत विचार सृष्टि के सम्बन्ध मे श्री दत्तोपन्त ठेंगड़ी जी एक स्थान पर अपनी पुस्तक "प्रस्तावना" मे लिखते हैं - कालीकट का अधिवेशन समाप्त हुआ था। जनसंघ के कुछ नेताओं के साथ पंडित जी बंगलोर से डोडाबल्लारपुर पँहुचे थे। वहां संघ का शिविर लगा था और स्वयं श्री गुरू जी शिविर मे उपस्थित थे। सायंकाल श्री गुरू जी का बौद्धिक वर्ग होना था। किन्तु उससे पूर्व चायपान के समय श्री गुरू जी ने कहा. " अब दीनदयाल जी बोलेंगे।" इस पर सब चकित रह गये। एक ने कहा " शिविर मे सब लोग आपके मार्ग दर्शन के लिये एकत्र हैं।" श्री गुरू जी ने कहा, "नहीं भाई! दीनदयाल जी ही बोलेंगे।" इस पर किसी ने कहा, "वह तो जनसंघ के अध्यक्ष हैं।" इस पर श्री गुरू जी ने तुरन्त कहा,"नहीं. दीनदयाल जी संघस्वयंसेवक हैं, वह स्वयंसेवक के नाते बोलेंगे, जनसंघ के अध्यक्ष के नाते नहीं ।" और श्री गुरू जी की उपस्थिति मे पंडित जी का ही बौद्धिक हुआ। श्री गुरू जी तथा दीनदयाल जी के सम्बन्ध मे जो कुछ भी पढ़ा जाना, कभी कहीं कुछ अन्तर, दो विचार लगे हीे नहीं । पंडित जी द्वारा लिखी अर्थ क्षेेत्र की पुस्तक "भारतीय अर्थनीति विकास की एक दिशा" हो या फिर उनके विचारों पर लिखे गये "विचार दर्शन"। अर्थक्षेेत्र मे पंडित जी  श्री गुरू जी द्वारा 1973 के ठाणे शिविर मे बताये. बिन्दुओं को विस्तारित करते दिखे। मानव जाति के कल्याण के लिये इससे बेहतर कोई अन्य मार्ग है भी  नहीं । श्री गुरू जी द्वारा बताये अर्थक्षेेत्र के यह बिन्दु भौगोलिक, सामाजिक मर्यादाओं से परे जीवन का शाश्वत सत्य हैं। जो अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत तथा अन्य अर्थक्षेेत्र के संगठनों के लिये वेद वाक्य हैं -

1.  प्रत्येक नागरिक को जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति मिलनी चाहिये।

2. समाज की सेवा करने के उद्देश्य से ईश्वर का बनाया भौतिक धन, नैतिक तरीकों से         अर्जित करना चाहिये। उसमे से अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये न्यूनतम लेना चाहिये ताकि आप स्वयं को समाज की सेवा करने की स्थिति मेे बनाकर रख सकें, अपने उपयोग के लिये उससे अधिक धन का उपयोग समाज के धन की चोरी माना जायेगा।

3. हम समाज के न्यासी मात्र हैं, हम समाज की सच्ची सेवा तभी कर पायेंगे, जब हम सही अथों मे समाज के न्यासी बन सकें।

4. व्यक्तिगत सम्पत्ति की सीमा निर्धारित की जानी चाहिये, अपने लाभ के लिये किसी को दूसरे के शोषण का अधिकार नहीं होना चाहिये।

5. जिस देश समाज मे लाखों लोग भूख से मर रहे हों, विलासिता तथा आडम्बरपूर्ण खर्च करना पाप है। सभी प्रकार के उपभोगों पर युक्ति संगत प्रतिबन्ध लगने चाहिये। उपभोगवाद तथा हिन्दू संस्कृति की आत्मा मे कोई सम्बन्ध नहीं ।

6. हमारा ध्येय अधिकतम उत्पादन, समान वितरण होना चाहिये। राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाना हमारा त्वरित ध्येय होना चाहिये।

7. बेरोजगारी और अर्धरोजगारी की समस्या से युद्धस्तर पर निपटना चाहिये।

8. औद्योगीकरण आवश्यक होने पर भी पश्चिमी देशों की तरफ देखकर इसका अन्धानुकरण नहीं किया जाना चाहिये। प्रकृति का शोषण नहीं दोहन हो। हमारी द्रष्टि से पर्यावरण, प्राकृतिक सन्तुलन तथा भावी पीढ़ियों की आवश्यकतायें कभी ओझल नहीं हहोनी चाहिये । शिक्षाा, पर्यावरण, अर्थशास्त्र तथा नीतिशास्त्र का सम्पूर्ण विचार होना चाहिये।

9. हमे प्रचंड पूजी वाले उद्योगों की अपेक्षाा श्रमोन्मुखी परियोजनाओं पर अधिक बल देना चाहिये।

10. हमारे तकनीकज्ञों को पारम्परिक उत्पादन तकनीक मे सुधार लाने वाले तन्त्रज्ञाान को विकसित करना चाहिये, इस बात का ध्यान रहे कि इन सुधारों से श्रमिकों की बेरोजगारी न बढ़े। उपलब्ध व्यवस्थापकीय या तकनीकी कौशल बरबाद न हो। वर्तमान उत्पादन साधन पूंजी के प्रभाव से पूर्ण मुक्त हों। इसके लिये उत्पादन के केन्द्र कारखाने न होकर, ऊर्जा की सहायता से गृहउद्योगों की मौलिक तकनीक का विकसित स्वरूप हो।

11. उत्पादकता तथा रोजगार वृद्धि का नियमित आकलन हो।

12. श्रम भी उद्योग की पूंजी है। श्रमिकों के श्रम का मूल्यांकन कम्पनी के अंश (share) के रूप मे किया जाना चाहिये। श्रम को पूंजी मानकर श्रमिकों को अंशधारक के रूप मे प्रोन्नत कर श्रमिकों का स्तर उठाना चाहिये ।

13. ग्राहक हित तथा देश का आर्थिक हित समतुल्य है। सभी औद्योगिक सम्बन्धों मे तीसरा पक्ष सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। सामूहिक सौदेबाजी का वर्तमान पश्चिमी स्वरूप इसके अनुरूप नहीं है। इसे किसी अन्य सम्बोधन जैसे राष्ट्रीय वचनबद्धता से जोड़ा जाना चाहिये। मालिक तथा कर्मचारी दोनो. की वचनबद्धता राष्ट्र के प्रति हो।

14. श्रम का अतिरिक्त मूल्य राष्ट्र को समर्पित किया जाना चाहिये।

15. हम औद्योगिक स्वामित्व के सम्बन्ध मे किसी कठोर नीति के समर्थक नहीं हैं, सभी प्रकार के स्वरूपों जैसे निजी उद्योग, राज्य के उद्योग, स्वयं रोजगार, संयुक्त स्वामित्व, राज्य व निजी स्वामित्व तथा लोकतान्त्रिक ढ़ांचे वाले आदि आदि। प्रत्येक उद्योग के स्वामित्व का निर्धारण उसके चरित्र तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था मे योगदान के अनुरूप तय किया जाना चाहिये।
16. हम आर्थिक, सामाजिक नीति का कोई भी स्वरूप विकसित करने के लिये स्वतन्त्र हैं, अनिवार्य यह. है कि वह नीति धर्म के मूलचरित्र के अनुरूप हो।

17. सामाजिक ढ़ांचे मे परिवर्तन का तब तक कोई उपयोग नहीं, जब तक प्रत्येक नागरिक के विचारों को उपयुक्त दिशा न दी जाये। व्यवस्था का अच्छा या बुरा संचालन उसे संचालित करने वाले व्यक्तियों पर निर्भर करता है।

18. व्यक्तिगत तथा सामाजिक सम्बन्धों के बारे मे हमारा द्रष्टिकोण संघर्षात्मक नहीं, सहिष्णु हो। उसका भाव हो कि सभी प्राणियों मे एक ही तत्व विद्यमान है। सामूहिक, सामाजिक व्यक्तित्व का व्यक्ति जीवित प्रतिबिम्ब है।

19. किसी भी राष्ट्र के सामाजिक, आर्थिक क्रम के वास्तविक ढा़ंचे को गढ़ने के लिये उसका संस्कारित होना आवश्यक है।

पंडित जी मौलिक चिन्तक थे। उन्हे मालूम था कि कल्याणकारी अर्थव्यवस़्था का यही मार्ग है। इन तत्वों की सरल तथा विस्तृत व्याख्या अपने साहित्य तथा सम्बोधनों मे की है। कल तक यह तत्व विश्व के लिये जितने आवश्यक थे, आज विश्व को इनकी कहीं अधिक आवश्यकता है। वर्तमान मे हम जिस मार्ग पर चल रहे हैं, वह असमानता की दिशा मे ले जाता है और हम इस मार्ग पर काफी दूर निकल चुके हैं। आज वैश्विक अर्थक्षेेत्र असमानता की इस घुटन को झेलने के लिये बाध्य है। विकास का लक्ष्य्य लेकर गढ़ी गई अर्थ क्षेेत्र की तमाम परिभाषायें आज पथभ्रष्ट हो मुट्ठी भर लोगों के हित संरक्षण मे लगी हैं। संरक्षण का यह दायरा भी धीरे धीरे संकुचित होता जा रहा है। बड़ी बात यह कि इस घुटन से मुक्ति के प्रयास मे जो भी, जहां भी हाथ पैर मार रहा है। वह मुक्त होने के स्थान पर और अधिक जकड़ता जा रहा है। आज विश्व के सामने पं दीनदयाल जी द्वारा बताये मार्ग के अतिरिक्त कोई पर्याय नहीं।

Monday 13 June 2016

देश मे जाति और धर्म के ढ़ोंग की राजनीति

सभी राजनीतिक दल जाति और धर्म आधारित राजनीति करते हैं। इसमे कोई विवाद नहीं। सभी ने इसी आधार पर अपने अपने वोट बैंक पकड़ रखे हैं। वह जो भी कहते करते हैं, इसी वोट बैंक को ध्यान मे रखकर। उन्हे न तो समाज टूटने से कुछ लेना देना है, न देश टूटने से कोई मतलब। बस अपनी राजनीति चलनी चाहिये । अतः सुबह शाम ये नेता सिर्फ और सिर्फ अपनी जुगत बैठाने मे लगे रहते हैं।

भारत मे लोकतन्त्र सिर्फ कहने के लिये रही है, वैसे भी शिक्षा के अभाव मे लोकतन्त्र गुन्डों का अड्डा बनकर रह जाता है, जो आजकल बना हुआ है। दोनो मुख्य धर्मों हिन्दू व मुसलमान की इस लोकतान्त्रिक व्यवस्था मे महत्वपूर्ण भूमिका है। हिन्दू बहुसंख्य है, यह जिस ओर झुकेगा सत्ता उधर ही जाय़ेगी। परन्तु जो हमेशा और सिर्फ हिन्दू की बात करेगा मुसलमान उसके विरोध मे चले जायेंगे। वैसे भी 1947 मे धर्म के आधार पर बटवारा होने के बाद जो मुसलमान यहां रूक गये थे, उन्हे बहलाना,डराना आसान था। अतः सभी राजनीतिक दलों को मुसलमानों को चलाने, बहलाने की राह एकमुस्त बहुत से वोटों के लिये आसान लगी। सब इसी मे लग गये और लगे हैं। परन्तु मुसलमान वोट जीत वह भी सत्ता वाली दिलाने मे नाकाफी थे। इसके लिये आवश्यक था कि कुछ हिन्दुओं के वोट भी हासिल किये जायें। हिन्दू वोट हासिल करने के लिये हिन्दुओं को अलग अलग जाति मे बांटना  जरूरी था। बांटना भी गया। 1947 के पहले हिन्दुओं मे इतने जाति समूह नजर नहीं आते थे, जितने आज हैं। इसे योजनाबद्ध तरीके से किया गया। जिसके कारण जीत की समीकरणें को बैठाने के लिये राजनीतिक दलों की गणना मात्र दो बातें पर आ टिकी। मुसलमानों के वोट हासिल करना तथा हिन्दुओं को जातिगत आधार पर बांटना कर कुछ जातियों का प्रबन्धन करना। यह राह आसान है, यही वजह है कि देश मे मुसलमान समुदाय के साथ घटित छोटी से छोटी घटना पर सभी राजनीतिक दल मुखर हो उठते हैं, नहीं हिन्दुओं के साथ घटित बड़ी से बड़ी घटना से कन्नी काटने के प्रयास मे रहते हैं। क्योंकि उनकी समीकरण तो मुसलमान और हिन्दुओं को जातियों मे बांटकर एक समूह तक मर्यादित है। सभी राजनीतिक दल यही कर रहे हैं। आजकल तो यह करने के लिये देश की अस्मिता, प्रतिष्ठा को दांव पर लगाने मे भी हिचक नहीं रह गई है ।

अपने देश मे इसकी शुरूवात आजादी के बाद से ही हो गई थी। जब तक देश की राजनीति विकसित हो पाती नेहरू समझ गये थे कि लम्बे समय तक देश पर शासन करने के लिए, वोट बैंक बनाना जरूरी है। अतः नेहरू ने जिन्ना तथा मुसलमानों का जबरदस्त विरोध कर पाकिस्तान बनवाने के बाद भी, आजादी की लड़ाई मे कांग्रेस मे साथ रहे कुछ राष्ट्रवादी मुसलमानों को पकड़कर, जो पाकिस्तान नहीं गये थे, मुसलमानों पर वोटों के लिये पकड़ बनाई। दूसरी तरफ हिन्दुओं को दलितों, पिछड़ों मे बांटा तथा उनके हितैषी बनने का ढोंग रचकर उनके गले मे आरक्षण का मेडल लटकाया। डा बाबा साहब आंबेडकर नेहरू की इन चालबाजियों को समझते थे।  वह जानते थे कि दलितों को यदि देश की मुख्य धारा मे लाना है तो क्या करना है। यही वजह है कि नेहरू ने बाबा साहब का विरोध कर उन्हे कभी चुनावों जीतने नहीं दिया। क्योंकि बाबा साहब के आगे बढने का अर्थ था दलितों का नेहरू व कांग्रेस के हाथों से फिसलना। नेहरू यह भी जानते थे कि यदि मुसलमानों और दलितों को अपने साथ रखना है तो उनके शिक्षित नहीं होने देना है। क्योंकि यदि यह वर्ग शिक्षित हो गये तो इनको बेवकूफ बनायेंगे रखना सम्भव नहीं रहेगा। अतः नेहरू और कांग्रेस ने इन वर्गों को रेवड़ियां तो बांटा परन्तु शिक्षा से दूर रखा। इन वर्गों के लिये अपनी इन्ही नीतियों के सहारे कांग्रेस ने देश पर इतने लम्बे समय तक शासन किया। जैसे जैसे यह वर्ग शिक्षित होते गये, इनका मोह भंग होता गया। यह कांग्रेस से छिटकते गये।

कांग्रेस से मुसलमानों और दलितों के छिटकने के बाद, बहुत से राजनीतिक दल इन्हे लपकने के लिये आगे बढे। जिसके लिये उन्होने अपनी बांसुरी पर सिर्फ इन्ही की खुशामद मे गीत गाने शुरू कर दिये। इन लोगों ने हिन्दुओं के अन्य वर्गों को पूरी तरह अनदेखा कर, उन्हे संभालने की जिम्मेदारी अपने स्थानीय और छुटभैये नेताओं को दे दी। यही वजह है देश मे हिन्दुओं से सम्बन्धित बड़ी से बड़ी घटना घटित होने पर भी, राजनीतिक दलों की खामोशी दिखाई पड़ती है। परन्तु इन सभी राजनीतिक दलों के देशव्यापी आधार के अभाव मे यह दल क्षेत्रीय दलों की भूमिका मे सिमट गये। देश मे आज यही स्थिति है।

अपने सीमित प्रभाव, कार्यकर्ताओं तथा संसाधनों के साथ साथ आसान जिताऊ समीकरणों के कारण, भाजपा के अतिरिक्त सभी राजनीतिक दल मुसलमान + दलित/यादव/राजपूत/ब्राह्मण आदि आदि समीकरणों बनाने मे उलझे हुये हैं। विशेष रूप से मुसलमान + दलित समीकरण मे, यही वजह है चाहे वह दादरी के अखलाक की घटना हो, हैदराबाद मे रोहित वैमूला की आत्महत्या हो, जे एन यू मे देशद्रोही प्रदर्शन हो लगभग सभी राजनीतिक दल जोर शोर से विलाप करने लगते हैं । परन्तु मालदा, कैराना की घटनाओं पर इनको सांप सूंघ जाता है।

इस राजनीतिक उथल पुथल के बीच देश तथा समाज किस दिशा मे बढ़ रहा है किसी से छिपा नहीं है। इस देश के नागरिक चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, आपस मे बंटकर राजनीतिक दलों के लिये सिर्फ एक कोमोडिटी बनकर रहना चाहते हैं या आपस मे एक होकर विकास के रास्ते पर बढ़ने, दुनिया मे देश का नाम चमकाने के लिये इन राजनीतिक दलों का देश व समाज हित मे शुद्धीकरण करना चाहते हैं ।

Saturday 11 June 2016

स्विट्जरलैंड के लोगों ने मुफ्त वेतन क्यों ठुकराया

स्विट्जरलैंड अपने वयस्क बेरोजगार नागरिकों को 2500 स्विस फ्रेक लगभग 1लाख 73 हजार तथा 18 वर्ष से कम उम्र वालों को 625 स्विस फ्रेक लगभग 43 हजार प्रतिमाह का वेतन देना चाहता था। इसके लिये वहां की सरकार ने लोगों से राय मांगी, 5 जून को वोटिंग हुई और इस प्रस्ताव के विरोध मे 77 प्रतिशत वोट पड़े, नतीजतन प्रस्ताव फेल हो गया। बस फिर क्या था, देश मे तरह तरह की प्रतिक्रियायें शुरू हो गई। किसी ने इसके वहां के लोगों की खुद्दारी से तोला, किसी ने वहां के मेहनतकशों की बल्लैया ली और अपने देश के लोगों को निखट्टू, कामचोर तथा मुफ्तखोर के विशेषणों से विभूषित कर दिया। चुनावों मे मुफ्तखोरी का वादा करने वालों के हाथों बिकने की लानत मलानत दे डाली।

यह आर्थिक प्रश्न हैं। इनके उत्तर सीधे और सरल नहीं होते।अपने गर्भ मे यह बहुत से प्रश्न छिपाये रहते हैं। इसका विश्लेषण उस तरह तो बिल्कुल नहीं किया जा सकता जैसे किया गया। इस विश्लेषण मे विश्लेषक भी गलत नहीं, उन्होने दिल्ली, तमिलनाडु, उडीसा तथा उत्तर प्रदेश मे लोगों को मुफ्त चुनावी वादों के पीछे अपने अरमान चमकाने के लिये भागते देखा और तुलना कर दी। देश के बहुसंख्य लोगों के चेहरे पर मुफ्तखोरी का लेबल चिपका दिया। मै देश के जनसाधारण की उस मानसिकता का पक्षधर नहीं जो भ्रष्ट राजनीतिज्ञों, अधिकारियों तथा व्यापारियों के हाथों स्वयं को लुटते देखने के बाद, भागते भूत की लंगोटी पकड़ना चाहता है। एक और कहावत है - भूखे भजन न होई गोपाला। ऋगवेग मे भी कहा गया है - बुभुक्षित: किम् न करोति पापम्! अर्थात भूख से पीडित व्यक्ति कुछ करे, वह पाप नहीं होता। सामाजिक मूल्यों के पतन को भी इन स्थितियों मे समाज की मान्यता मिलने लगती है। इसीलिये पंडित दीनदयाल उपाध्याय अर्थायाम यानी अर्थ के अभाव तथा अर्थ के प्रभाव से मुक्त अर्थव्यवस्था का समर्थन करते थे। मेरे इन तर्कों से आधुनिक अर्थशास्त्र का अभ्यास करने वाले तथा सेकुलर जमात के लोग चिल्लाने लगेंगे कि यहां भी हिन्दू विचार घुसेड़ रहा है । छोड़िये हम आज चलने वाले अर्थशास्त्र के आधार पर ही स्विट्जरलैंड तथा अपने देश के लोगों की मानसिकता को परख लेते हैं। वैसे एक बात तय है, नागरिक किसी भी देश के हों, निम्न तथा मध्यम आय वर्ग के लोग ही देश तथा समाज के निर्माण मे सर्वाधिक योगदान करते हैं। अपने परिवार की खुशियों की कीमत पर भी।

अर्थशास्त्र मे एक "उपयोगिता ह्रास" का सिद्धान्त है। जिसमे बताया जाता है कि किसी वस्तुओं की उपयोगिता उसके मिल जाने पर धीरे धीरे कम होती जाती है, जैसे कोई व्यक्ति बहुत भूखा है। उसे खाने के लिये एक रोटी मिल जाये, तो उस रोटी की उपयोगिता भूखे के लिये अधिकतम होगी। भूखे को जैसे जैसे अतिरिक्त रोटी. मिलती जायेगी, इन अतिरिक्त रोटियों की उपयोगिता उसी भूखे व्यक्ति के लिये क्रमश: कम होती जायेगी तथा एक बिन्दु पर वह शून्य हो जायेगी । अतः इस प्रश्न का उत्तर भारत तथा स्विट्जरलैंड, साथ ही वहां के लोगों की आर्थिक स्थितियों की समीक्षा किये बिना बेमानी है। कम से कम स्वस्थ एवं निष्पक्ष विवेचना की यही मांग है ।

वर्ष 2014 मे विश्व हैं द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार स्विट्जरलैंड 84,720 डालर प्रति व्यक्ति आय के साथ विश्व मे 8वें नम्बर पर है और हमारे देश की प्रति व्यक्ति आय मात्र 1570 डालर है, स्विट्जरलैंड से लगभग 55 गुना कम। हम 213 देशों की सूची मे 180वें स्थान पर हैं। यद्यपि मै राष्ट्रीय आय के इन औसत आंकड़ों से सहमति नहीं रखता, क्योंकि अधिकतम और निम्नतम मे तफावत बहुत अधिक है। अपने देश मे पिछले दिनों उत्तर प्रदेश मे भूख से तीन मौतें भी हुई हैं, 1570 डालर की आय के बावजूद । इसे आप विचित्र विसंगति मानेंगे या नहीं । आय मे तफावत स्विट्जरलैंड मे भी कुछ कम नहीं है, स्विट्जरलैंड के फेडरल स्टेटिक्स विभाग द्वारा जारी आंकड़ों के हिसाब से वर्ष 2013 मे 50% अधिकतम आय वाले व्यक्तियों ने राजस्व का 80% आय के रूप मे प्राप्त किया। जबकि बाकी बचे 50% लोग राजस्व का मात्र 20% ही घर ले जा पाये।

परन्तु इससे आगे जो हुआ वह विचार करने योग्य है। वहां की सरकार ने 50% अधिकतम कमाई करने वालों की कुछ आय को निम्न आय वाले घटकों को स्थानान्तरित कर तथा आर्थिक रूप से कमजोर घटक को कुछ सामाजिक सुरक्षा लाभ उपलब्ध करवा कर, इस अन्तर को कम किया। जिसके बाद उच्च आय घटक की आय घटकर 70% रह गई तथा निम्न घटक की आय बढ़कर 30% हो गई। यही नहीं अाय असमानता कम करने के इस प्रयास मे सरकार द्वारा सबसे कम आय वाले 10% वर्ग की आय को 54 गुना बढ़ाया गया तथा इसके बाद वाले घटकों की आय को 4 गुना बढ़ाकर आय के अन्तर को 4.9 गुना सीमित किया गया।

अब अपने देश की भी बात कर लेते हैं, गरीबों की मदद तो छोड़िये, उनसे वसूल किये गये अप्रत्यक्ष कर मे से वर्ष 2005-06 से 2013-14 तक कार्पोरेट घरानों को 36.5 लाख करोड़ रुपये कर्ज माफी के रूप मे दे दिये गये। यानी जो कुछ स्विट्जरलैंड मे हुआ ठीक उसका उल्टा। वहां अमीरों से पैसा लेकर गरीबों को दिया जा रहा है और यहां गरीबों से लेकर अमीरों को। सरकार, राजनेताओं, नौकरशाह, अमीर सब इसी काम मे लगे हैं। गरीब मध्यम वर्ग को लूटने के नये नये तरीके ईजाद करने मे लगे हैं। इन हालातों मे यदि गरीब कहीं मुफ्त मिलने वाले माल को लपक लेना चाहता है तो हाय तोबा क्यों? मै यह नहीं रहता कि यह रवायत सही है। सच बात तो यह है कि हम गहरी खाई की तरफ बढ़ते जा रहे हैं, परन्तु गलत तो सभी हैं, ठीक भी सभी को करना पड़ेगा। उत्कृष्ट प्रबन्धन तो यही कहता है कि छोटे मोटे गढ्ढों को छोड़कर बड़े तथा गहरे गढ्ढों पर पहले ध्यान दो। यकीन मानिये भारत के लोग त्याग करने मे, वह भी देश समाज के लिये, विश्व मे सबसे आगे हैं। 
(पं दीनदयाल विचार दर्शन, एकात्म अर्थनीति, Corporate Karza Mafi - P S Sainath, World Bank Data Table,Atlas Method, Inequality in Switzerland by Le News 1.2.16)

Thursday 9 June 2016

धनुर्धर बैठा रहा युद्ध हार गये।

२ जनवरी २०१६ को यह ब्लाग लिखा गया था, तब और अब की स्थितियों मे अन्तर आया है। राष्ट्रीय स्तर पर भी और अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर भी। असम मे सरकार बनाकर, बहंगाल मे स्थिति मजबूत कर तथा केरल मे घुसपैठ ने भाजपा को निश्चय ही दिल्ली और बिहार की हार से उबारा है। मोदी की अर्न्तराष्ट्रीय छवि भी मजबूत हुई है। परन्तु यह सब बिहार और उत्तर प्रदेश के वोटरों के लिये बेमानी है (बिहार चुनावों के सम्बन्ध मे लिखे मेरे ब्लाग दि २३ जून २०१५ के अनुसार जातिगत समीकरणें ही हावी रही)। उत्तर प्रदेश मे भी स्थितियां भिन्न नहीं होंगी। दलगत समीकरणें भी बदलेंगी। मै अपने पुराने ब्लाग को यहां उद्धृत कर रहा हूं, जो स्थितियों की समीक्षाा मे सहायक होगा। 



(दिल्ली, बिहार के चुनावों मे भाजपा ने अपने सभी शस्त्रों को परखे बगैर ही हार मान ली। भाजपा के पास अर्जुन के गाण्डीव की शक्ति थी, परन्तु न जाने क्यों गांडीव पर प्रत्यंचा चढे बिना ही युद्ध के शंखनाद के साथ अस्त भी हो गया और युद्ध विद्या का एक कुशल धनुर्धर पराक्रम दिखाये बगैर अपने शिविर मे लौट गया, दूसरे सेनानियों की तरह पराजय का दंश झेलने, वह भी बिना एक शब्द बोले, बिना उफ किये, एक संगठित सिपाही की तरह। हम यहां भाजपा के पूर्व संगठन मन्त्री संजय जोशी की बात कर रहे हैं।

संगठन मे एक नहीं अनेक योद्धाओं की आवश्यकता पडती है। मोदी, अमित शाह और संगठन के अन्य नेताओं की क्षमताओं पर प्रश्न चिन्ह लगाना गलत है। सभी अपनी अपनी विधाओं मे पारंगत होते हैं। शायद दिल्ली और बिहार को जिन विधाओं मे पारंगत सेनानी की आवश्यकता थी, वह संजय के पास हो। संजय जोशी के संगठन मन्त्री का कार्यकाल आज भी लोगों को भूला नहीं है। निर्वसित जीवन जीते हुये संगठन मे अपनी छाप बनाये रखना, अनुशासनबद्ध सैनिक की तरह होंठ बन्द किये हुये संगठन साधना करने वाले कार्यकर्ता बहुत भाग्य से मिलते हैं। अत: उनकी क्षमताओं का संगठन हित मे देश और संगठन के लिये उपयोग किया जाना चाहिये।

आसाम, उत्तर प्रदेश तथा कर्नाटक चुनाव सामने हैं। भाजपा संगठन मे नवीन प्राण संचार करने की आवश्यकता है। वैसे भी वरिष्ठ होते अनेको कार्यकर्ताओं द्वारा रिक्त किये जाने वाले स्थानों के लिये वरिष्ठ अनुभवी कार्यकर्ताओं की संगठन मे बहुत कमी है।

देश की राजनीति जिस प्रकार के बवंडर का स्वरुप लेती जा रही है। उससे निपटने के लिये भाजपा पूरी तरह सुसज्ज नहीं है। इन परिस्थितियों मे संजय जोशी जैसे कुशल संगठनकर्ता को देश, समाज और दीनदयाल जी के संकल्पों की हित रक्षा मे अनिवार्य हो जाता है। सभी इस पर गम्भीरता से विचार करें, यही प्रार्थना।)पुरानी ब्लाग ।

२०१४ के लोकसभा चुनावों और राज्य के चुनावों के  अन्तर के साथ, प्रदेश स्तर पर भाजपा मे सक्षम नेतृत्व का अभाव ही राजनाथ को प्रदेश नेतृत्व की बागडोर सौंपने की अटकलों को जन्म दे रहा है। याद रहे बिहार मे भी नाम चीन नेताओं की कमी नहीं थी, परन्तु सभी के किलो भरभरा कर ढह गये, वह भी चारा चोरी के मामले मे सजायाफ्ता नेतृत्व से। इसीप्रकार उतर प्रदेश के वर्तमान हालात चाहे जो हों, चुनावी गणित बैठाने प्रदेश के चुनावों को जीतने के लिये नीचे के स्तर पर मजबूत संगठनात्मक पकड़ की जबरदस्त आवश्यकता है, जिसका अभी अभाव है। राष्ट्रीय संगठन मन्त्री रामलाल जी की उत्तर प्रदेश मे संगठन पर पकड़ है, परन्तु इन परिस्थितियों मे संजय जोशी की उपेक्षाा मंहगी साबित हो सकती है।