Monday 13 June 2016

देश मे जाति और धर्म के ढ़ोंग की राजनीति

सभी राजनीतिक दल जाति और धर्म आधारित राजनीति करते हैं। इसमे कोई विवाद नहीं। सभी ने इसी आधार पर अपने अपने वोट बैंक पकड़ रखे हैं। वह जो भी कहते करते हैं, इसी वोट बैंक को ध्यान मे रखकर। उन्हे न तो समाज टूटने से कुछ लेना देना है, न देश टूटने से कोई मतलब। बस अपनी राजनीति चलनी चाहिये । अतः सुबह शाम ये नेता सिर्फ और सिर्फ अपनी जुगत बैठाने मे लगे रहते हैं।

भारत मे लोकतन्त्र सिर्फ कहने के लिये रही है, वैसे भी शिक्षा के अभाव मे लोकतन्त्र गुन्डों का अड्डा बनकर रह जाता है, जो आजकल बना हुआ है। दोनो मुख्य धर्मों हिन्दू व मुसलमान की इस लोकतान्त्रिक व्यवस्था मे महत्वपूर्ण भूमिका है। हिन्दू बहुसंख्य है, यह जिस ओर झुकेगा सत्ता उधर ही जाय़ेगी। परन्तु जो हमेशा और सिर्फ हिन्दू की बात करेगा मुसलमान उसके विरोध मे चले जायेंगे। वैसे भी 1947 मे धर्म के आधार पर बटवारा होने के बाद जो मुसलमान यहां रूक गये थे, उन्हे बहलाना,डराना आसान था। अतः सभी राजनीतिक दलों को मुसलमानों को चलाने, बहलाने की राह एकमुस्त बहुत से वोटों के लिये आसान लगी। सब इसी मे लग गये और लगे हैं। परन्तु मुसलमान वोट जीत वह भी सत्ता वाली दिलाने मे नाकाफी थे। इसके लिये आवश्यक था कि कुछ हिन्दुओं के वोट भी हासिल किये जायें। हिन्दू वोट हासिल करने के लिये हिन्दुओं को अलग अलग जाति मे बांटना  जरूरी था। बांटना भी गया। 1947 के पहले हिन्दुओं मे इतने जाति समूह नजर नहीं आते थे, जितने आज हैं। इसे योजनाबद्ध तरीके से किया गया। जिसके कारण जीत की समीकरणें को बैठाने के लिये राजनीतिक दलों की गणना मात्र दो बातें पर आ टिकी। मुसलमानों के वोट हासिल करना तथा हिन्दुओं को जातिगत आधार पर बांटना कर कुछ जातियों का प्रबन्धन करना। यह राह आसान है, यही वजह है कि देश मे मुसलमान समुदाय के साथ घटित छोटी से छोटी घटना पर सभी राजनीतिक दल मुखर हो उठते हैं, नहीं हिन्दुओं के साथ घटित बड़ी से बड़ी घटना से कन्नी काटने के प्रयास मे रहते हैं। क्योंकि उनकी समीकरण तो मुसलमान और हिन्दुओं को जातियों मे बांटकर एक समूह तक मर्यादित है। सभी राजनीतिक दल यही कर रहे हैं। आजकल तो यह करने के लिये देश की अस्मिता, प्रतिष्ठा को दांव पर लगाने मे भी हिचक नहीं रह गई है ।

अपने देश मे इसकी शुरूवात आजादी के बाद से ही हो गई थी। जब तक देश की राजनीति विकसित हो पाती नेहरू समझ गये थे कि लम्बे समय तक देश पर शासन करने के लिए, वोट बैंक बनाना जरूरी है। अतः नेहरू ने जिन्ना तथा मुसलमानों का जबरदस्त विरोध कर पाकिस्तान बनवाने के बाद भी, आजादी की लड़ाई मे कांग्रेस मे साथ रहे कुछ राष्ट्रवादी मुसलमानों को पकड़कर, जो पाकिस्तान नहीं गये थे, मुसलमानों पर वोटों के लिये पकड़ बनाई। दूसरी तरफ हिन्दुओं को दलितों, पिछड़ों मे बांटा तथा उनके हितैषी बनने का ढोंग रचकर उनके गले मे आरक्षण का मेडल लटकाया। डा बाबा साहब आंबेडकर नेहरू की इन चालबाजियों को समझते थे।  वह जानते थे कि दलितों को यदि देश की मुख्य धारा मे लाना है तो क्या करना है। यही वजह है कि नेहरू ने बाबा साहब का विरोध कर उन्हे कभी चुनावों जीतने नहीं दिया। क्योंकि बाबा साहब के आगे बढने का अर्थ था दलितों का नेहरू व कांग्रेस के हाथों से फिसलना। नेहरू यह भी जानते थे कि यदि मुसलमानों और दलितों को अपने साथ रखना है तो उनके शिक्षित नहीं होने देना है। क्योंकि यदि यह वर्ग शिक्षित हो गये तो इनको बेवकूफ बनायेंगे रखना सम्भव नहीं रहेगा। अतः नेहरू और कांग्रेस ने इन वर्गों को रेवड़ियां तो बांटा परन्तु शिक्षा से दूर रखा। इन वर्गों के लिये अपनी इन्ही नीतियों के सहारे कांग्रेस ने देश पर इतने लम्बे समय तक शासन किया। जैसे जैसे यह वर्ग शिक्षित होते गये, इनका मोह भंग होता गया। यह कांग्रेस से छिटकते गये।

कांग्रेस से मुसलमानों और दलितों के छिटकने के बाद, बहुत से राजनीतिक दल इन्हे लपकने के लिये आगे बढे। जिसके लिये उन्होने अपनी बांसुरी पर सिर्फ इन्ही की खुशामद मे गीत गाने शुरू कर दिये। इन लोगों ने हिन्दुओं के अन्य वर्गों को पूरी तरह अनदेखा कर, उन्हे संभालने की जिम्मेदारी अपने स्थानीय और छुटभैये नेताओं को दे दी। यही वजह है देश मे हिन्दुओं से सम्बन्धित बड़ी से बड़ी घटना घटित होने पर भी, राजनीतिक दलों की खामोशी दिखाई पड़ती है। परन्तु इन सभी राजनीतिक दलों के देशव्यापी आधार के अभाव मे यह दल क्षेत्रीय दलों की भूमिका मे सिमट गये। देश मे आज यही स्थिति है।

अपने सीमित प्रभाव, कार्यकर्ताओं तथा संसाधनों के साथ साथ आसान जिताऊ समीकरणों के कारण, भाजपा के अतिरिक्त सभी राजनीतिक दल मुसलमान + दलित/यादव/राजपूत/ब्राह्मण आदि आदि समीकरणों बनाने मे उलझे हुये हैं। विशेष रूप से मुसलमान + दलित समीकरण मे, यही वजह है चाहे वह दादरी के अखलाक की घटना हो, हैदराबाद मे रोहित वैमूला की आत्महत्या हो, जे एन यू मे देशद्रोही प्रदर्शन हो लगभग सभी राजनीतिक दल जोर शोर से विलाप करने लगते हैं । परन्तु मालदा, कैराना की घटनाओं पर इनको सांप सूंघ जाता है।

इस राजनीतिक उथल पुथल के बीच देश तथा समाज किस दिशा मे बढ़ रहा है किसी से छिपा नहीं है। इस देश के नागरिक चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, आपस मे बंटकर राजनीतिक दलों के लिये सिर्फ एक कोमोडिटी बनकर रहना चाहते हैं या आपस मे एक होकर विकास के रास्ते पर बढ़ने, दुनिया मे देश का नाम चमकाने के लिये इन राजनीतिक दलों का देश व समाज हित मे शुद्धीकरण करना चाहते हैं ।

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