Wednesday 15 June 2016

वैश्विक शोषण से मुक्ति का एकमेव उपाय हिन्दू अर्थचिन्तन - पं दीनदयाल उपाध्याय

जब हम ब्रिटिश उपनिवेश थे, तभी देश मे इस बात का जोर शोर से प्रचार किया गया कि ज्ञान के मामले मे हमारा देश अत्यधिक पिछड़ा हुआ है। अंग्रेजों के साथ इस बात को खाद पानी देने मे उन लोगों का भी कम हाथ नहीं था, जिन्होने विदेशों मे शिक्षाा प्राप्त की थी। यह भारतीय अंग्रेजों की जीवन शैली से इतना अधिक प्रभावित थे कि इन्होने न तो भारतीय संस्कृति को जानने समझने की चेष्टा की, न ही इनमे कभी भारतीय   ग्रन्थो के विश्लेषण की क्षमता आई। दुर्भाग्य यह रहा कि १९४७ के बाद देश का नेतृत्व इसी वर्ग के हाथों मे चला गया। पाश्चात्य की अंधभक्ति से ओतप्रोत यह वर्ग देश को उसी राह पर ले गया जिस पर पश्चिमी देश कदम बढ़ा रहे थे। आज इन लोगों तथा इनके आदर्शों की सामाजिक व मानव विषयी अज्ञानता का परिणाम भारत ही नहीं, पूरा विश्व भुगत रहा है। आगे चलकर जैसे जैसे पश्चिमी विद्वानों का परिचय भारतीय दर्शन से होता गया, सभी भारतीय दर्शन के विचारों से सहमत दिखे। आर्थिक क्षेेत्र भी इसका अपवाद नहीं है, पश्चिमी विद्वानों के भारतीय दर्शन समर्थित कोटेशनों  से साहित्य पटा पड़ा है। पं दीनदयाल उपाध्याय भी इसी विचार दर्शन के संवाहक थे। यद्यपि दीनदयाल जी के जाने के बहुत समय बाद इस विषय पर एक सम्पूर्ण पुस्तक डा म ग बोकरे की Hindu Economics वर्ष 1993 मे आई। विसंगति देखिये डा बोकरे को अपने विषय से भारतीय अर्थशास्त्रियों को परिचित कराने से कहीं सरल पश्चिमी अर्थशशास्त्रियों को परिचित कराना लगा। जब डा बोकरे ने कनाडा तथा अमेरिका के प्रसिद्ध अर्थशशास्त्री जे के गालब्रेथ को हिन्दू इकनॉमिक्स से अवगत कराया, उन्होने न सिर्फ इन विचारों की सराहना की, यह भी कहा कि पश्चिमी अर्थशशास्त्रियों को प्राचीन भारत की आर्थिक व्यवस्थाओं को भी जानना समझना चाहिये।

परम पूज्यनीय गुरू जी ने प्रारम्भ मे तथा बाद मे दीनदयाल जी ने हिन्दू तत्वज्ञान के इन्ही आधारों को विकसित किया। श्री गुरू जी तथा दीनदयाल जी के विचारों मे इतनी समानता है, कि यही लगता है दीनदयाल जी श्री गुरू जी के विचारों को आगे बढ़ा रहे हैं। दोनो महानायकों की इस एकीकृत विचार सृष्टि के सम्बन्ध मे श्री दत्तोपन्त ठेंगड़ी जी एक स्थान पर अपनी पुस्तक "प्रस्तावना" मे लिखते हैं - कालीकट का अधिवेशन समाप्त हुआ था। जनसंघ के कुछ नेताओं के साथ पंडित जी बंगलोर से डोडाबल्लारपुर पँहुचे थे। वहां संघ का शिविर लगा था और स्वयं श्री गुरू जी शिविर मे उपस्थित थे। सायंकाल श्री गुरू जी का बौद्धिक वर्ग होना था। किन्तु उससे पूर्व चायपान के समय श्री गुरू जी ने कहा. " अब दीनदयाल जी बोलेंगे।" इस पर सब चकित रह गये। एक ने कहा " शिविर मे सब लोग आपके मार्ग दर्शन के लिये एकत्र हैं।" श्री गुरू जी ने कहा, "नहीं भाई! दीनदयाल जी ही बोलेंगे।" इस पर किसी ने कहा, "वह तो जनसंघ के अध्यक्ष हैं।" इस पर श्री गुरू जी ने तुरन्त कहा,"नहीं. दीनदयाल जी संघस्वयंसेवक हैं, वह स्वयंसेवक के नाते बोलेंगे, जनसंघ के अध्यक्ष के नाते नहीं ।" और श्री गुरू जी की उपस्थिति मे पंडित जी का ही बौद्धिक हुआ। श्री गुरू जी तथा दीनदयाल जी के सम्बन्ध मे जो कुछ भी पढ़ा जाना, कभी कहीं कुछ अन्तर, दो विचार लगे हीे नहीं । पंडित जी द्वारा लिखी अर्थ क्षेेत्र की पुस्तक "भारतीय अर्थनीति विकास की एक दिशा" हो या फिर उनके विचारों पर लिखे गये "विचार दर्शन"। अर्थक्षेेत्र मे पंडित जी  श्री गुरू जी द्वारा 1973 के ठाणे शिविर मे बताये. बिन्दुओं को विस्तारित करते दिखे। मानव जाति के कल्याण के लिये इससे बेहतर कोई अन्य मार्ग है भी  नहीं । श्री गुरू जी द्वारा बताये अर्थक्षेेत्र के यह बिन्दु भौगोलिक, सामाजिक मर्यादाओं से परे जीवन का शाश्वत सत्य हैं। जो अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत तथा अन्य अर्थक्षेेत्र के संगठनों के लिये वेद वाक्य हैं -

1.  प्रत्येक नागरिक को जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति मिलनी चाहिये।

2. समाज की सेवा करने के उद्देश्य से ईश्वर का बनाया भौतिक धन, नैतिक तरीकों से         अर्जित करना चाहिये। उसमे से अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये न्यूनतम लेना चाहिये ताकि आप स्वयं को समाज की सेवा करने की स्थिति मेे बनाकर रख सकें, अपने उपयोग के लिये उससे अधिक धन का उपयोग समाज के धन की चोरी माना जायेगा।

3. हम समाज के न्यासी मात्र हैं, हम समाज की सच्ची सेवा तभी कर पायेंगे, जब हम सही अथों मे समाज के न्यासी बन सकें।

4. व्यक्तिगत सम्पत्ति की सीमा निर्धारित की जानी चाहिये, अपने लाभ के लिये किसी को दूसरे के शोषण का अधिकार नहीं होना चाहिये।

5. जिस देश समाज मे लाखों लोग भूख से मर रहे हों, विलासिता तथा आडम्बरपूर्ण खर्च करना पाप है। सभी प्रकार के उपभोगों पर युक्ति संगत प्रतिबन्ध लगने चाहिये। उपभोगवाद तथा हिन्दू संस्कृति की आत्मा मे कोई सम्बन्ध नहीं ।

6. हमारा ध्येय अधिकतम उत्पादन, समान वितरण होना चाहिये। राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाना हमारा त्वरित ध्येय होना चाहिये।

7. बेरोजगारी और अर्धरोजगारी की समस्या से युद्धस्तर पर निपटना चाहिये।

8. औद्योगीकरण आवश्यक होने पर भी पश्चिमी देशों की तरफ देखकर इसका अन्धानुकरण नहीं किया जाना चाहिये। प्रकृति का शोषण नहीं दोहन हो। हमारी द्रष्टि से पर्यावरण, प्राकृतिक सन्तुलन तथा भावी पीढ़ियों की आवश्यकतायें कभी ओझल नहीं हहोनी चाहिये । शिक्षाा, पर्यावरण, अर्थशास्त्र तथा नीतिशास्त्र का सम्पूर्ण विचार होना चाहिये।

9. हमे प्रचंड पूजी वाले उद्योगों की अपेक्षाा श्रमोन्मुखी परियोजनाओं पर अधिक बल देना चाहिये।

10. हमारे तकनीकज्ञों को पारम्परिक उत्पादन तकनीक मे सुधार लाने वाले तन्त्रज्ञाान को विकसित करना चाहिये, इस बात का ध्यान रहे कि इन सुधारों से श्रमिकों की बेरोजगारी न बढ़े। उपलब्ध व्यवस्थापकीय या तकनीकी कौशल बरबाद न हो। वर्तमान उत्पादन साधन पूंजी के प्रभाव से पूर्ण मुक्त हों। इसके लिये उत्पादन के केन्द्र कारखाने न होकर, ऊर्जा की सहायता से गृहउद्योगों की मौलिक तकनीक का विकसित स्वरूप हो।

11. उत्पादकता तथा रोजगार वृद्धि का नियमित आकलन हो।

12. श्रम भी उद्योग की पूंजी है। श्रमिकों के श्रम का मूल्यांकन कम्पनी के अंश (share) के रूप मे किया जाना चाहिये। श्रम को पूंजी मानकर श्रमिकों को अंशधारक के रूप मे प्रोन्नत कर श्रमिकों का स्तर उठाना चाहिये ।

13. ग्राहक हित तथा देश का आर्थिक हित समतुल्य है। सभी औद्योगिक सम्बन्धों मे तीसरा पक्ष सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। सामूहिक सौदेबाजी का वर्तमान पश्चिमी स्वरूप इसके अनुरूप नहीं है। इसे किसी अन्य सम्बोधन जैसे राष्ट्रीय वचनबद्धता से जोड़ा जाना चाहिये। मालिक तथा कर्मचारी दोनो. की वचनबद्धता राष्ट्र के प्रति हो।

14. श्रम का अतिरिक्त मूल्य राष्ट्र को समर्पित किया जाना चाहिये।

15. हम औद्योगिक स्वामित्व के सम्बन्ध मे किसी कठोर नीति के समर्थक नहीं हैं, सभी प्रकार के स्वरूपों जैसे निजी उद्योग, राज्य के उद्योग, स्वयं रोजगार, संयुक्त स्वामित्व, राज्य व निजी स्वामित्व तथा लोकतान्त्रिक ढ़ांचे वाले आदि आदि। प्रत्येक उद्योग के स्वामित्व का निर्धारण उसके चरित्र तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था मे योगदान के अनुरूप तय किया जाना चाहिये।
16. हम आर्थिक, सामाजिक नीति का कोई भी स्वरूप विकसित करने के लिये स्वतन्त्र हैं, अनिवार्य यह. है कि वह नीति धर्म के मूलचरित्र के अनुरूप हो।

17. सामाजिक ढ़ांचे मे परिवर्तन का तब तक कोई उपयोग नहीं, जब तक प्रत्येक नागरिक के विचारों को उपयुक्त दिशा न दी जाये। व्यवस्था का अच्छा या बुरा संचालन उसे संचालित करने वाले व्यक्तियों पर निर्भर करता है।

18. व्यक्तिगत तथा सामाजिक सम्बन्धों के बारे मे हमारा द्रष्टिकोण संघर्षात्मक नहीं, सहिष्णु हो। उसका भाव हो कि सभी प्राणियों मे एक ही तत्व विद्यमान है। सामूहिक, सामाजिक व्यक्तित्व का व्यक्ति जीवित प्रतिबिम्ब है।

19. किसी भी राष्ट्र के सामाजिक, आर्थिक क्रम के वास्तविक ढा़ंचे को गढ़ने के लिये उसका संस्कारित होना आवश्यक है।

पंडित जी मौलिक चिन्तक थे। उन्हे मालूम था कि कल्याणकारी अर्थव्यवस़्था का यही मार्ग है। इन तत्वों की सरल तथा विस्तृत व्याख्या अपने साहित्य तथा सम्बोधनों मे की है। कल तक यह तत्व विश्व के लिये जितने आवश्यक थे, आज विश्व को इनकी कहीं अधिक आवश्यकता है। वर्तमान मे हम जिस मार्ग पर चल रहे हैं, वह असमानता की दिशा मे ले जाता है और हम इस मार्ग पर काफी दूर निकल चुके हैं। आज वैश्विक अर्थक्षेेत्र असमानता की इस घुटन को झेलने के लिये बाध्य है। विकास का लक्ष्य्य लेकर गढ़ी गई अर्थ क्षेेत्र की तमाम परिभाषायें आज पथभ्रष्ट हो मुट्ठी भर लोगों के हित संरक्षण मे लगी हैं। संरक्षण का यह दायरा भी धीरे धीरे संकुचित होता जा रहा है। बड़ी बात यह कि इस घुटन से मुक्ति के प्रयास मे जो भी, जहां भी हाथ पैर मार रहा है। वह मुक्त होने के स्थान पर और अधिक जकड़ता जा रहा है। आज विश्व के सामने पं दीनदयाल जी द्वारा बताये मार्ग के अतिरिक्त कोई पर्याय नहीं।

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