Thursday 15 September 2016

कब तक दाना मांझी बहरीन के शाह या कैमरे के लैन्सों की बाट जोहेंगे

सामाजिकता कितनी उथली होती जा रही है। हमारा सामाजिक सरोकार कितना सीमित होता जा रहा है। यह असंवेदनशीलता की पराकाष्ठ नहीं तो क्या है। आज भी देश में कितने दाना मांझी व्यवस्था, गरीबी, तिरस्कार तथा असंवेदनशीलता की लाश अपने कन्धों पर उठाये घूम रहे होंगे, इस इन्तजार में कि कोई कैमरा उनके जीवन के इन मर्मस्पर्शी क्षणों को पकड़े और एक रोमांचक कहानी के रूप मे देश के सामने ले आये। बाजारवाद ने हमारे रहन सहन के साथ साथ हमारा नजरिया भी बदल दिया है। जीवन की संवेदनाओं, मार्मिकताओं, आर्थिक विषमताओं से भरी समसयाओं का निदान हमनें चयनित स्वरूप में कुछ रूपये फेंकने मे तलाश लिया है। किसी भी कोण द्रष्टिकोण से देखें, क्या यह इस समस्या का अंशमात्र भी निदान है।

Oxfem का सर्वेक्षण कहता है, दुनिया के आधे लोगों के बराबर सम्पत्ति विश्व के मात्र 66 लोगों के पास है। देश के 10% सबसे धनी लोग देश की 74% सम्पत्ति पर कब्जा जमाये बैठे हैं। सरकारें कभी यह टैक्स तो कभी वह टैक्स का खेल खेल कर, ग्राहकों के बहुमत को उम्मीदों का झुनझुना थमा रही हैं। बेचारा ग्राहक न्यूनतम जीवनावश्यक वस्तुओं तक अपने हाथों की पँहुच बनाने के लिये, अपने इतने से स्वप्न के साकार होने की उम्मीद मे, अन्तहीन प्रतीक्षा मे अटका हुआ है। विश्व मे समाज के बीच आर्थिक अन्तर की खाई, निरन्तर अपनी गहराई बढाने मे द्रुतगति से व्यस्त है। सन्तोष हो सकता था, यदि ग्राहकों के बहुमत की जद मे न्यूनतम जीवनावश्यक आवश्यकताओं की आपूर्ति होती, परन्तु वह तो कल भी उनकी पंहुच से बहुत दूर थी और आज भी उनके लिये मृग मारीचिका ही है।

हमारे पुरखे आर्थिक विषमता के इस विष से तबाह हो चुके हैं। हमारी स्थिति तो उनसे कहीं बदतर है और हमारी आने वाली नस्लें अपने माथे पर कुछ इसी तरह की इबारत लिखवाकर ही पैदा हो रही हैं। क्या हमारी पीढ़ियां यह आर्थिक अभावों से लबरेज जीवन जीने के लिये अभिशप्त हैं या फिर स्थितियों मे बदलाव सम्भव है। यह बदलाव क्या गाहे बगाहे दोचार प्रचारित लोगों को चन्द सिक्के फेंक कर प्राप्त करना संभव है। दाना मांझी की वास्तविक जख्म "आज मेरे पास पैसा आ रहा है, कल इसके अभाव में मेरी पत्नी मरते समय अपनी तीन बेटियों में से सिर्फ दो को ही देख पाई, क्योंकि मै उन्हे घर पर छोड़ बड़ी बेटी के साथ पत्नी का इलाज कराने शहर आया था, तेरह किलोमीटर तक उसके शव को उठाकर पैदल चला" पैसों की यह चादर ढ़क पायेगी।

क्या देश मे अब कोई दाना मांझी नहीं होगा या यह सब कुछ समय का मात्र भावनात्मक खेल है। इससे नहीं चलने वाला है। गरीब, इन्सान और लुप्त होती मानवता के लिये हमें इस जैसी समस्याओं की बुनियाद को टटोलना होगा, उसे बदलना होगा।

वह कौन सी व्यवस्थायें हैं, जिन्होने इस क्रम को इतना मंहगा बना दिया कि दाना मांझी अपनी पत्नी को ईलाज के लिये शहर के सरकारी अस्पताल अपनी तीनो बेटियों के साथ ले जा सके। उसकी मृत्यु होने पर उसका शव अपने गांव घर लाकर उसका संस्कार कर सके। यह सब दिनचर्यायें इतनी मंहगी बनाकर इन्हे दाना मांझियों की पंहुच से दूर करने का जिम्मेदार कौन है, यह समाज, सरकार या अर्थव्यवस्था। आखिरकार यह विलासिता की क्रियायें तो नहीं, जीवन की अनिवार्य क्रियायें हैं, जिन तक दाना मांझियों की पंहुच बननी चाहिये।

किसी की भी सहज प्रतिक्रिया होगी। दाना मांझियों को इन क्रियाओं को सहज रूप से पूरा करने के लिये, अपेक्षित धन कमाना चाहिये, कौन उसको यह धन कमाने के अवसर देगा और यदि उसे धन कमाने के अवसर न दिये गये तो फिर उसकी व्यवस्था क्या होगी, वर्तमान जैसी ? या वह और उसके जैसे लोग जीना ही छोड़ दें। असंख्य प्रश्न हैं जिनके उत्तर समाज, सरकार तथा अर्थव्यवस्था को देने हैं। पं दीनदयाल उपाध्याय भी इन्ही प्रश्नों के उत्तर ढूंढने की बात अपने एकात्म अर्थचिन्तन मे किया करते थे।

सामाजिक संवेदना आज कितनी भी क्षीण हो चुकी हो, पर मरी नहीं है। यह चेतना पूरे विश्व में कभी न कभी किसी न किसी रूप में प्रस्फुटित होती रही है, होती रहेगी। नहीं तो कई हजार मील दूर बैठे बहरीन के शाह को यह न करना पड़ता। परन्तु आज आवश्यकता इन आर्थिक प्रश्नों के स्थायी हल प्राप्त करने की है। कब तक दाना मांझी बहरीन के शाह या कैमरे के लैन्सों की बाट जोहेंगे, वह भी सब कुछ लुटने के बाद।

Friday 9 September 2016

रेल किराये में दाम बढ़ाने वाली नीति का क्या औचित्य

शुक्रवार का दिन देश में फिल्म उद्योग के नाम है। लगभग सभी नई फिल्में इसी दिन सिनेमाघरों में दर्शकों के लिये लगाई जाती हैं। आप इतिहास जांच लीजिये, यह दिन इसी काम के नाम है। हमारे कर्मठ रेल मन्त्री सुरेश प्रभु जी शुक्रवार के दिन पर इस एकाधिकार से खुश नहीं हैं। अतः उन्होने 9 सितम्बर शुक्रवार को रेल किराये में एक नई तेजी से किराया बढ़ने वाली नीति का आगाज किया है। अब रेल यात्री भी शेयर बाजार में लगे सटोरियों की तरह पल क्षण किराये की तख्ती निहारता, यह चढ़ा - वह बढ़ा चिल्लाया करेगा। दोनों ही भाग्यवादी होंगे, परन्तु रेल यात्री और सटोरिये के भाग्य में इतना अन्तर अवश्य होगा कि सटोरिये को कभी कभी दाम लुढ़कने की उम्मीद तो रहेगी और दाम लुढ़केंगे भी, पर रेल यात्री बुखार नापने वाले थर्मामीटर की तरह सिर्फ पारे को चढ़ते हुये ही देखेगा। तापमान कितना भी कम हो जाये उसका उससे कोई सरोकार नहीं रहेगा। रेल मन्त्रालय द्वारा फिलहाल तीन ट्रेनों राजधानी, दूरन्तो व शताब्दी के यात्री किरायों को तय करने के लिये कुछ इसी तरह की दाम तेजी से बढ़ने वाली (Surge Pricing Policy) अपनाई जा रही है।

दाम तेजी से बढ़ने वाली इस Surge Pricing को Dynamic Pricing सक्रिय मूल्यनीति भी कहा जाता है। इसमें वस्तु की मांग बढ़ने के साथ उसके दाम भी बढ़ते जाते हैं। सरल उदाहरण से इस बात को समझते हैं। श्रीनगर में कर्फ्यू लगा है, इन स्थितियों में दूध की मांग तो है, परन्तु आपूर्ति नहीं है। अतः 40 रूपये लीटर बिकने वाला दूध, दूधवाला पहले 60 फिर 80 उसके बाद 100 और फिर अधिक और अधिक दामों पर बेच रहा है, जैसे जैसे कर्फ्यू की मियाद बढ़ती जायेगी, दूध के दाम भी बढ़ते जायेंगे। मै यह उदाहरण देना नहीं चाहता था, परन्तु ग्राहकों को समझाने के लिये इससे सरल कोई दूसरा उदाहरण मेरे पास नहीं था। रेल सरकार ने टिकट के दामों के बढ़ने के मामलेे में उच्चतम सीमा निर्धारित कर, मिर्च का धुआं उड़ाकर, आंसू पोछने के लिये रूमाल जरूर थमाया है कि किराया अधिकतम डेढ़ गुना ही होगा।


साधारणतया इस प्रकार की मूल्य नीति उपभोग को हतोत्साहित करने के लिये की जाती है। लन्दन शहर में सड़कों पर  बहुत अधिक यातायात की समस्या थी। जिसके कारण वहां के जनजीवन की गुणवत्ता प्रभावित हो रही थी। अतः लन्दन की सड़कों पर यातायात को हतोत्साहित करने के लिये London Congestion charges नाम का शुल्क वर्ष 2003 से लगाया जाने लगा। अब जो भी लन्दन में अपना वाहन लेकर जायेगा, उसे निर्धारित शुल्क देना पड़ेगा। इस कदम से लन्दन की सड़कों पर यातायात 10% कम हो गया। परन्तु वहां भी इस बात का ध्यान रखा गया कि साधारण लोग इस शुल्क से प्रभावित न हों, अतः शनिवार, रविवार तथा त्योहारों को इस शुल्क से मुक्त रखा गया। हम नहीं जानते रेल मन्त्री के मन में भी यदि इसी तरह का कोई विचार हो।

इस मूल्य पद्धति का व्यवसायिक स्वरूप में कोई विशेष लाभ नहीं होता, सिवाय इस बात के कि इसमें व्यर्थ जाने वाली क्षमता का भी उपयोग हो जाता है या व्यक्ति विशेष को कुछ अतिरिक्त इनसेन्टिव मिल जाती है। अब रेल मन्त्री को इन ट्रेनों का उपयोग करने से लोगों को हतोत्साहित करना है या किसी को इन्सेन्टिव देना है यह तो वह जानें। अपने देश में यह मूल्य प्रणाली कुछ एअर लाईनों तथा रेडिओ टैक्सी सेवा में लागू है, लेकिन ओपन एन्डेड है, जिसका अर्थ है कि ग्राहक को सामान्य किराये से कम पर भी यात्रा करने का अवसर उपलब्ध हो जाता है। आप सुनते होंगे कि किसी को हवाई यात्रा का टिकट 1.5 या 2 हजार में ही मिल गया। टैक्सी सेवा में भी व्यस्त समय में सर्ज प्राइसिंग के कारण मांग अधिक होने के कारण किराया बढ़ता है, परन्तु जैसे जैसे दूसरे ड्राइवर भी आन लाईन होते जाते हैं, किराये में कमी आने लगती है। यानी किराया अधिक होने पर यदि ग्राहक ने थोड़ी देर इन्तजार कर लिया तो किराया कम होने की पूरी सम्भावना रहती है। मतलब यह कि गाड़ी दोनो दिशाओं में दौड़ती है। पर हमारे रेलमन्त्री तो गाड़ी एक ही दिशा में दौड़ा रहे हैं।

रेल विभाग के कार्यकलाप सेवाक्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं। सेवा उद्योग की मूल भावना ही इसके विपरीत है। पैसे वालों को मदद करना, उस गरीब व्यक्ति को इससे वंचित करना, जिसे इसकी जरूरत है। विशेष रूप से तब जब उसे चलाने वाली संस्था सरकारी हो, सरकार व्यक्ति विशेष या समूह विशेष में अन्तर नहीं कर सकती। आर्थिक आधार पर तो बिल्कुल नहीं। सभी नागरिकों को समान स्वरूप की सेवायें उपलब्ध करवाना उसका कर्तव्य है। उसके लिये आदर्श स्थित पहले आओ, पहले पाओ वाली ही है। हम मोदी सरकार से आदर्श स्थिति की अवहेलना की अपेक्षा नहीं कर सकते। अतएव तीन ट्रेनों में ही सही वर्तमान रेल यात्री किराया बढ़ने वाली प्रणाली को रद्द कर पूर्ववत व्यवस्था ही लागू की जाये।

Thursday 8 September 2016

उत्पादन और खपत से परे भी बहुत कुछ है अर्थव्यवस्था में

प्रधानमंत्री मोदी का आई बी एन पत्रकार राहुल जोशी द्वारा देश की अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में साक्षात्कार तथा समाचार चैनलों पर जानकारों द्वारा उसकी चीरफाड़ मुख्य रूप से जो विषय खड़े करती है। उनमें देश की वर्तमान स्थिति पर विवाद हो सकता है, परन्तु अर्थशास्त्रियों का मानना है कि पहले की तुलना में यह पटरी पर आ रही है। सरकार समर्थक उदाहरण के लिये 7% जीडीपी का सहारा लेते हैं तो आलोचक 2014 आधार वर्ष किये जाने की बात कर, पुराने आधार पर इसे 5% के आसपास ही बताते हैं। देश में औद्योगिक उत्पादन के आँकड़े भी विशेष उत्साहवर्धक नहीं हैं। औद्योगिक उत्पादन की 70% क्षमता का ही उपयोग हो रहा है। महँगाई के अतिरिक्त देश की दूसरी बड़ी समस्या बेरोजगारी की है। जिसकी दर पिछले वर्ष 9 की तुलना में 10 पार कर गई है। यह स्थिति चिन्ताजनक है। यद्यपि चर्चा में मोदी सरकार द्वारा मुद्रा बैंक, स्किल इंडिया तथा स्टार्टअप योजनायें भी चर्चा में हैं, जिनके परिणाम अभी सामने आने हैं।


अर्थशशास्त्री जो अर्थव्यवस्था के विकास के लिये हर मर्ज की दवा जीडीपी मानते थे। अब कम से कम कहने लगे हैं कि जीडीपी बढ़ने से रोजगार नहीं बढ़ता, रोजगार में वृद्धि चाहिये तो खपत को बढ़ाना पड़ेगा, तभी औद्योगिक उत्पादन शतप्रतिशत होगा, एफडीआई निवेश के अवसर पैदा होंगे, नये उद्योग लगेंगे, जिससे रोजगार बढेगा। परन्तु यह सत्य. नहीं, यथार्थ से परे है। एड्म के अधिक से अधिक उत्पादन के सिद्धान्त को आर्थिक सम्पन्नता का आधार मानने वाले, अक्सर यह बात भूल जाते हैं कि इस सिद्धान्त में अन्य बहुत से अवयव तथा उनकी निर्धारित भूमिका अनिवार्य है, जिसके बिना यह समीकरण सही उत्तर खोजने में नाकाम ही सिद्ध होगी। लगभग पूरे विश्व में यही चल रहा है। अर्थशशास्त्री दबावों के चलते या फिर विशिष्ट प्रयोजन से पूरी बात नहीं बोलते, सही बात नहीं बोलते। अतएव विश्व में आर्थिक समीकरणें तो बहुत स्थापित की जाती हैं, परन्तु वह स्थितियों को सन्तुलित करने में नाकाम रहती है।

रोजगार वृद्धि के लिये अर्थशास्त्रियों के खपत बढ़ाने वाले सुझाव को ही ले लीजिये। खपत बढ़ने का सीधा सम्बन्ध ग्राहक की क्रय क्षमता पर निर्भर है। अतः पहले बात ग्राहक की क्रय क्षमता बढ़ाने की  जानी चाहिये, जिसके सम्बन्ध में कोई अर्थशशास्त्री बात नहीं करना चाहता। विश्व के अर्थशास्त्रियों में कभी ग्राहकों की स्थाई स्वरूप की क्रय क्षमता बढ़ाने के तरीकों पर विचार करते सुना है। जबकि अर्थव्यवस्था के स्वस्थ, विकसित होने का मजबूत, स्थाई आधार ही यह है। अस्थाई आधारों के बारे में जरूर सुना होगा, कि वस्तुयें किश्तों में उपलब्ध करा दो, बैंक से आसान शर्तों पर कर्ज दिलवा दो या फिर सातवां वेतन आयोग लागू कर कुछ लोगों के हाथों तक अतिरिक्त पैसा पंहुचा दो, ताकि यह अतिरिक्त पैसा बाजार में उत्पादनों की खपत बढ़ा सके, इस मांग के सहारे नये उद्योग लगा कर रोजगार पैदा किये जा सकें। सब तरफ इन्ही अस्थाई सममाधानों के सहारे गाड़ी खींचने का प्रयास हो रहा है, नतीजतन परिणाम वही ढाक के तीन पात? कल भी यही समस्या थी, आज भी है और कल भी रहने वाली है। यहां अधिक लिख पाना सम्भव नहीं, विषय पर विस्तारित चर्चा मैने अपनी पुस्तक "अर्थव्यवस्थाओं से बोझिल ग्राहक, ग्राहक अर्थनीति" नाम की अपनी पुस्तक में की है, जो प्रकाशन में है।

ग्राहक की क्रय क्षमता मुख्यरूप से तीन बातों से सर्वाधिक प्रभावित होती है -
1. रोजगार के सीमित व कम अवसर -
पहला व महत्वपूर्ण प्रश्न है, ग्राहक की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये, उसकी जेब में पैसा कहां से आयेगा। 
अ. उत्पादन कर उसकी बिक्री से
ब. धन, सम्पत्ति से प्राप्त किराये से
स. श्रम को बेचने से
यदि सरकारें इन तीनों व्यवस्थाओं से ग्राहक की जेब में उसकी आवश्यकतायें पूरी करने के लिये. जरूरी धन की व्यवस्था कर सकती हैं, तो ठीक अन्यथा किसी पर्यायी व्यवस्था का विचार करना होगा।

2. मुद्रास्फीति
सरल शब्दों में मुद्रास्फीति मंहगाई है। आप को आज कोई वस्तु जिन दामों मे बाजार में मिल रही है, कल उसके दाम बढ़ जाते हैं। रिजर्व बैंक अपनी मौद्रिक नीति की समीक्षा प्रत्येक तिमाही कर इसे नियन्त्रित करने का प्रयास करता है। अनुभव यह आया है कि रिजर्व बैंक जो भी सहूलियतें देता है, उसे बैंक तथा उद्योगपति हजम कर जाते हैं। ग्राहक को मरने के लिये छोड़ दिया जाता है। रिजर्व बैंक के नये गवर्नर उर्जित पटेल यह सुनिश्चित करें कि लाभ नीचे ग्राहक तक पंहुचे।

3. अवास्तविक मूल्य (Unrealistic Pricing)
यहां बहुत बड़ा गोलमाल है। इस पर ध्यान दिये बिना सर्वकल्याणकारी अर्थव्यवस्था की कल्पना ही बेमानी है।

इन तीनों ही क्षेत्रों में समुचित अवसर तलाश करने, उन्हें विकसित करने तथा गम्भीरता से लागू करने की आवश्यकता है। न तो यह आसान है, न ही दो चार वर्षों के अन्तराल मे पूरा होने वाला, परन्तु इस मार्ग का पर्याय नहीं।


उत्पादन और खपत से परे भी बहुत कुछ है अर्थव्यवस्था में

प्रधानमंत्री मोदी का आई बी एन पत्रकार राहुल जोशी द्वारा देश की अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में साक्षात्कार तथा समाचार चैनलों पर जानकारों द्वारा उसकी चीरफाड़ मुख्य रूप से जो विषय खड़े करती है। उनमें देश की वर्तमान स्थिति पर विवाद हो सकता है, परन्तु अर्थशास्त्रियों का मानना है कि पहले की तुलना में यह पटरी पर आ रही है। सरकार समर्थक उदाहरण के लिये 7% जीडीपी का सहारा लेते हैं तो आलोचक 2014 आधार वर्ष किये जाने की बात कर, पुराने आधार पर इसे 5% के आसपास ही बताते हैं। देश में औद्योगिक उत्पादन के आँकड़े भी विशेष उत्साहवर्धक नहीं हैं। औद्योगिक उत्पादन की 70% क्षमता का ही उपयोग हो रहा है। महँगाई के अतिरिक्त देश की दूसरी बड़ी समस्या बेरोजगारी की है। जिसकी दर पिछले वर्ष 9 की तुलना में 10 पार कर गई है। यह स्थिति चिन्ताजनक है। यद्यपि चर्चा में मोदी सरकार द्वारा मुद्रा बैंक, स्किल इंडिया तथा स्टार्टअप योजनायें भी चर्चा में हैं, जिनके परिणाम अभी सामने आने हैं।


अर्थशशास्त्री जो अर्थव्यवस्था के विकास के लिये हर मर्ज की दवा जीडीपी मानते थे। अब कम से कम कहने लगे हैं कि जीडीपी बढ़ने से रोजगार नहीं बढ़ता, रोजगार में वृद्धि चाहिये तो खपत को बढ़ाना पड़ेगा, तभी औद्योगिक उत्पादन शतप्रतिशत होगा, एफडीआई निवेश के अवसर पैदा होंगे, नये उद्योग लगेंगे, जिससे रोजगार बढेगा। परन्तु यह सत्य. नहीं, यथार्थ से परे है। एड्म के अधिक से अधिक उत्पादन के सिद्धान्त को आर्थिक सम्पन्नता का आधार मानने वाले, अक्सर यह बात भूल जाते हैं कि इस सिद्धान्त में अन्य बहुत से अवयव तथा उनकी निर्धारित भूमिका अनिवार्य है, जिसके बिना यह समीकरण सही उत्तर खोजने में नाकाम ही सिद्ध होगी। लगभग पूरे विश्व में यही चल रहा है। अर्थशशास्त्री दबावों के चलते या फिर विशिष्ट प्रयोजन से पूरी बात नहीं बोलते, सही बात नहीं बोलते। अतएव विश्व में आर्थिक समीकरणें तो बहुत स्थापित की जाती हैं, परन्तु वह स्थितियों को सन्तुलित करने में नाकाम रहती है।

रोजगार वृद्धि के लिये अर्थशास्त्रियों के खपत बढ़ाने वाले सुझाव को ही ले लीजिये। खपत बढ़ने का सीधा सम्बन्ध ग्राहक की क्रय क्षमता पर निर्भर है। अतः पहले बात ग्राहक की क्रय क्षमता बढ़ाने की  जानी चाहिये, जिसके सम्बन्ध में कोई अर्थशशास्त्री बात नहीं करना चाहता। विश्व के अर्थशास्त्रियों में कभी ग्राहकों की स्थाई स्वरूप की क्रय क्षमता बढ़ाने के तरीकों पर विचार करते सुना है। जबकि अर्थव्यवस्था के स्वस्थ, विकसित होने का मजबूत, स्थाई आधार ही यह है। अस्थाई आधारों के बारे में जरूर सुना होगा, कि वस्तुयें किश्तों में उपलब्ध करा दो, बैंक से आसान शर्तों पर कर्ज दिलवा दो या फिर सातवां वेतन आयोग लागू कर कुछ लोगों के हाथों तक अतिरिक्त पैसा पंहुचा दो, ताकि यह अतिरिक्त पैसा बाजार में उत्पादनों की खपत बढ़ा सके, इस मांग के सहारे नये उद्योग लगा कर रोजगार पैदा किये जा सकें। सब तरफ इन्ही अस्थाई सममाधानों के सहारे गाड़ी खींचने का प्रयास हो रहा है, नतीजतन परिणाम वही ढाक के तीन पात? कल भी यही समस्या थी, आज भी है और कल भी रहने वाली है। यहां अधिक लिख पाना सम्भव नहीं, विषय पर विस्तारित चर्चा मैने अपनी पुस्तक "अर्थव्यवस्थाओं से बोझिल ग्राहक, ग्राहक अर्थनीति" नाम की अपनी पुस्तक में की है, जो प्रकाशन में है।

ग्राहक की क्रय क्षमता मुख्यरूप से तीन बातों से सर्वाधिक प्रभावित होती है -
1. रोजगार के सीमित व कम अवसर -
पहला व महत्वपूर्ण प्रश्न है, ग्राहक की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये, उसकी जेब में पैसा कहां से आयेगा। 
अ. उत्पादन कर उसकी बिक्री से
ब. धन, सम्पत्ति से प्राप्त किराये से
स. श्रम को बेचने से
यदि सरकारें इन तीनों व्यवस्थाओं से ग्राहक की जेब में उसकी आवश्यकतायें पूरी करने के लिये. जरूरी धन की व्यवस्था कर सकती हैं, तो ठीक अन्यथा किसी पर्यायी व्यवस्था का विचार करना होगा।

2. मुद्रास्फीति
सरल शब्दों में मुद्रास्फीति मंहगाई है। आप को आज कोई वस्तु जिन दामों मे बाजार में मिल रही है, कल उसके दाम बढ़ जाते हैं। रिजर्व बैंक अपनी मौद्रिक नीति की समीक्षा प्रत्येक तिमाही कर इसे नियन्त्रित करने का प्रयास करता है। अनुभव यह आया है कि रिजर्व बैंक जो भी सहूलियतें देता है, उसे बैंक तथा उद्योगपति हजम कर जाते हैं। ग्राहक को मरने के लिये छोड़ दिया जाता है। रिजर्व बैंक के नये गवर्नर उर्जित पटेल यह सुनिश्चित करें कि लाभ नीचे ग्राहक तक पंहुचे।

3. अवास्तविक मूल्य (Unrealistic Pricing)
यहां बहुत बड़ा गोलमाल है। इस पर ध्यान दिये बिना सर्वकल्याणकारी अर्थव्यवस्था की कल्पना ही बेमानी है।

इन तीनों ही क्षेत्रों में समुचित अवसर तलाश करने, उन्हें विकसित करने तथा गम्भीरता से लागू करने की आवश्यकता है। न तो यह आसान है, न ही दो चार वर्षों के अन्तराल मे पूरा होने वाला, परन्तु इस मार्ग का पर्याय नहीं।