Thursday 8 September 2016

उत्पादन और खपत से परे भी बहुत कुछ है अर्थव्यवस्था में

प्रधानमंत्री मोदी का आई बी एन पत्रकार राहुल जोशी द्वारा देश की अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में साक्षात्कार तथा समाचार चैनलों पर जानकारों द्वारा उसकी चीरफाड़ मुख्य रूप से जो विषय खड़े करती है। उनमें देश की वर्तमान स्थिति पर विवाद हो सकता है, परन्तु अर्थशास्त्रियों का मानना है कि पहले की तुलना में यह पटरी पर आ रही है। सरकार समर्थक उदाहरण के लिये 7% जीडीपी का सहारा लेते हैं तो आलोचक 2014 आधार वर्ष किये जाने की बात कर, पुराने आधार पर इसे 5% के आसपास ही बताते हैं। देश में औद्योगिक उत्पादन के आँकड़े भी विशेष उत्साहवर्धक नहीं हैं। औद्योगिक उत्पादन की 70% क्षमता का ही उपयोग हो रहा है। महँगाई के अतिरिक्त देश की दूसरी बड़ी समस्या बेरोजगारी की है। जिसकी दर पिछले वर्ष 9 की तुलना में 10 पार कर गई है। यह स्थिति चिन्ताजनक है। यद्यपि चर्चा में मोदी सरकार द्वारा मुद्रा बैंक, स्किल इंडिया तथा स्टार्टअप योजनायें भी चर्चा में हैं, जिनके परिणाम अभी सामने आने हैं।


अर्थशशास्त्री जो अर्थव्यवस्था के विकास के लिये हर मर्ज की दवा जीडीपी मानते थे। अब कम से कम कहने लगे हैं कि जीडीपी बढ़ने से रोजगार नहीं बढ़ता, रोजगार में वृद्धि चाहिये तो खपत को बढ़ाना पड़ेगा, तभी औद्योगिक उत्पादन शतप्रतिशत होगा, एफडीआई निवेश के अवसर पैदा होंगे, नये उद्योग लगेंगे, जिससे रोजगार बढेगा। परन्तु यह सत्य. नहीं, यथार्थ से परे है। एड्म के अधिक से अधिक उत्पादन के सिद्धान्त को आर्थिक सम्पन्नता का आधार मानने वाले, अक्सर यह बात भूल जाते हैं कि इस सिद्धान्त में अन्य बहुत से अवयव तथा उनकी निर्धारित भूमिका अनिवार्य है, जिसके बिना यह समीकरण सही उत्तर खोजने में नाकाम ही सिद्ध होगी। लगभग पूरे विश्व में यही चल रहा है। अर्थशशास्त्री दबावों के चलते या फिर विशिष्ट प्रयोजन से पूरी बात नहीं बोलते, सही बात नहीं बोलते। अतएव विश्व में आर्थिक समीकरणें तो बहुत स्थापित की जाती हैं, परन्तु वह स्थितियों को सन्तुलित करने में नाकाम रहती है।

रोजगार वृद्धि के लिये अर्थशास्त्रियों के खपत बढ़ाने वाले सुझाव को ही ले लीजिये। खपत बढ़ने का सीधा सम्बन्ध ग्राहक की क्रय क्षमता पर निर्भर है। अतः पहले बात ग्राहक की क्रय क्षमता बढ़ाने की  जानी चाहिये, जिसके सम्बन्ध में कोई अर्थशशास्त्री बात नहीं करना चाहता। विश्व के अर्थशास्त्रियों में कभी ग्राहकों की स्थाई स्वरूप की क्रय क्षमता बढ़ाने के तरीकों पर विचार करते सुना है। जबकि अर्थव्यवस्था के स्वस्थ, विकसित होने का मजबूत, स्थाई आधार ही यह है। अस्थाई आधारों के बारे में जरूर सुना होगा, कि वस्तुयें किश्तों में उपलब्ध करा दो, बैंक से आसान शर्तों पर कर्ज दिलवा दो या फिर सातवां वेतन आयोग लागू कर कुछ लोगों के हाथों तक अतिरिक्त पैसा पंहुचा दो, ताकि यह अतिरिक्त पैसा बाजार में उत्पादनों की खपत बढ़ा सके, इस मांग के सहारे नये उद्योग लगा कर रोजगार पैदा किये जा सकें। सब तरफ इन्ही अस्थाई सममाधानों के सहारे गाड़ी खींचने का प्रयास हो रहा है, नतीजतन परिणाम वही ढाक के तीन पात? कल भी यही समस्या थी, आज भी है और कल भी रहने वाली है। यहां अधिक लिख पाना सम्भव नहीं, विषय पर विस्तारित चर्चा मैने अपनी पुस्तक "अर्थव्यवस्थाओं से बोझिल ग्राहक, ग्राहक अर्थनीति" नाम की अपनी पुस्तक में की है, जो प्रकाशन में है।

ग्राहक की क्रय क्षमता मुख्यरूप से तीन बातों से सर्वाधिक प्रभावित होती है -
1. रोजगार के सीमित व कम अवसर -
पहला व महत्वपूर्ण प्रश्न है, ग्राहक की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये, उसकी जेब में पैसा कहां से आयेगा। 
अ. उत्पादन कर उसकी बिक्री से
ब. धन, सम्पत्ति से प्राप्त किराये से
स. श्रम को बेचने से
यदि सरकारें इन तीनों व्यवस्थाओं से ग्राहक की जेब में उसकी आवश्यकतायें पूरी करने के लिये. जरूरी धन की व्यवस्था कर सकती हैं, तो ठीक अन्यथा किसी पर्यायी व्यवस्था का विचार करना होगा।

2. मुद्रास्फीति
सरल शब्दों में मुद्रास्फीति मंहगाई है। आप को आज कोई वस्तु जिन दामों मे बाजार में मिल रही है, कल उसके दाम बढ़ जाते हैं। रिजर्व बैंक अपनी मौद्रिक नीति की समीक्षा प्रत्येक तिमाही कर इसे नियन्त्रित करने का प्रयास करता है। अनुभव यह आया है कि रिजर्व बैंक जो भी सहूलियतें देता है, उसे बैंक तथा उद्योगपति हजम कर जाते हैं। ग्राहक को मरने के लिये छोड़ दिया जाता है। रिजर्व बैंक के नये गवर्नर उर्जित पटेल यह सुनिश्चित करें कि लाभ नीचे ग्राहक तक पंहुचे।

3. अवास्तविक मूल्य (Unrealistic Pricing)
यहां बहुत बड़ा गोलमाल है। इस पर ध्यान दिये बिना सर्वकल्याणकारी अर्थव्यवस्था की कल्पना ही बेमानी है।

इन तीनों ही क्षेत्रों में समुचित अवसर तलाश करने, उन्हें विकसित करने तथा गम्भीरता से लागू करने की आवश्यकता है। न तो यह आसान है, न ही दो चार वर्षों के अन्तराल मे पूरा होने वाला, परन्तु इस मार्ग का पर्याय नहीं।


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