Wednesday 24 September 2014

हर खेत को पानी, हर हाथ को काम

 हर खेत को पानी, हर हाथ को काम, पंडित दीनदयाल जी का यह वाक्य आज भी भारत की अर्थव्यवस्था की मुख्य कुंजी बना हुआ है। यह वाक्य आज भी देश को समृद्ध बनाने का मन्त्र है, विशेष बात तो यह है कि अपने देश में इस मन्त्र को अपनाने के सम्पूर्ण साधन सामग्री के साथ ही परिस्थितियाँ भी मौजूद हैं। आवश्यकता बस इच्छाशक्ति की है जिसका आज़ादी के बाद से ही इस देश में अभाव रहा है। यदि हम एक दो अपवादों को छोड़ दें तो हमारे देश के नेतृत्व को प्रारम्भ से ही अपने लोगों से अधिक भरोसा पश्चिमी देशों के लोगों पर रहा है। पश्चिम के अर्थशास्त्र से प्रभावित हमारे देश का नेतृत्व यह भी भूल गया कि देश की राजनीतिक स्वतन्त्रता  बनाये  रखने के लिए कम से कम खाद्यान्नों के मामले में देश का आत्मनिर्भर होना बहुत जरुरी है। दीनदयाल जी देश की भौगोलिक ,सामाजिक विविधता के साथ ही विशाल जनसँख्या को ध्यान में रखते हुए, उसके अनुरूप ही उचित मार्ग चुनने के पक्षधर थे।

देश की विशाल जनसंख्या को देखते हुए उसे खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर बनाते हुए विकास के मार्ग की दिशा ही 'हर खेत को पानी, हर हाथ को काम' के रास्ते वाली है। जिसका सीधा अर्थ है देश में पर्याप्त खाद्यान्नों का उत्पादन तथा प्रत्येक ग्राहक के हाथ में क्रय शक्ति का नियोजन। पश्चिम के अर्थशास्त्री भी इसी बात को मानते हैं कि अर्थव्यवस्था की प्रगति के लिए अधिक से अधिक ग्राहकों के हाथ में अधिक से अधिक क्रय शक्ति का होना जरुरी है। क्योंकि जब ग्राहकों के हाथ में क्रयशक्ति होगी तभी वह बाजार में अपनी आवश्यकता के उत्पादनों की मांग करेगा।  बाज़ारों में मांग आने से उद्योगों को अधिक से अधिक उत्पादन करने की आवश्यकता होगी। जिससे देश की कुल आय भी बढ़ेगी और देश के लोगों को रोजगार भी मिलेगा। दीनदयाल जी कृषि के विका पर जोर इसीलिए देते थे क्योंकि वह ज़मींन से जुड़े थे तथा जानते थे कि देश में पूंजी का अभाव है और खेती ही एकमात्र उपाय है जिससे देश में आसानी से पूंजी का निर्माण हो सकता है। यही नहीं भारत जैसे कृषि प्रधान देश में खेती उत्पादन पर निर्भरता पूंजी निर्माण का सबसे सरल और सटीक उपाय है।  इसके साथ ही खेती देश के एक बहुत बड़े वर्ग को रोजगार देने में भी सक्षम है।

देश में उस समय के नेतृत्व को देशी से अधिक विदेशी पर विश्वास था या फिर वह देश के विषय में अधिक जनता ही नहीं था। अतः उसने देश के विकास के लिए जो आर्थिक और राजनीतिक मार्ग चुना वह खेती से दूर बड़े उद्योगों तथा बड़ी पूंजी निवेश वाला था, पंडित जी इस मार्ग के पक्षधर नहीं थे। देश को शीघ्र ही अहसास हो गया कि यह सही मार्ग नहीं था पर तब तक देर हो चुकी थी। हम भूल गए कि हमें अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता की रक्षा की सामर्थ्य शीघ्र से शीघ्र हासिल करनी है जिसकी कीमत हमे 1962 के चीन युद्ध में पराजय झेलकर चुकानी पड़ी। हम अपनी लचर अर्थव्यस्था के चलते हर बात यहाँ तक रोटी के लिए भी विदेशों का मुँह ताकने को लाचार थे। फिर युद्ध लड़ना तो दूर की बात थी। खेती को दुर्लक्ष्य करने के कारण खाद्यान्नों की कमी को पूरा करने के लिए हमें अमेरिका से पी एल 480 जैसे अनुबन्धों को करना पड़ा। हम भिखारी बन चुके थे, दुनिया के आगे झुकना और उनकी बात मानना हमारी नियति बन चुकी थी,  इसका अहसास हमें 1966 की पाकिस्तान लड़ाई के समय हुआ। जब अमेरिका ने पाकिस्तान के कहने पर हमें पी एल 480 के तहत अनाज देने से मना कर दिया , अनाज देने की शर्त रखी की हम पाकिस्तान के साथ युद्ध तुरंत बंद करें, और पाकिस्तान का पूरा जीता हुआ भाग उसे बिना शर्त वापस कर दें। हमें अपने नेतृत्व की गलत नीतियों के कारण यह अपमान का घूंट पीना पड़ा। इसी कारण उस समय लालबहादुर शास्त्री ने देश की जनता से साप्ताहिक उपवास करने की प्रार्थना की थी तथा 'जय जवान, जय किसान' का नारा दिया था।

पंडित दीनदयाल जी का स्पष्ट चिंतन था "हमारी योजनाओं का प्रथम लक्ष्य होना चाहिए अपनी राजनितिक स्वतन्त्रता की रक्षा का सामर्थ्य उत्पन्न करना। दूसरे हमने अपने लिए प्रजातंत्रीय ढांचा चुना है।  यदि आर्थिक समृद्धि का कोई भी कार्यकृम हमारी प्रजातंत्रीय पद्धति के मार्ग में बाधक होता है तो वह हमें स्वीकार नहीं होगा।  तीसरे हमारे जीवन के कुछ सांस्कृतिक मूल्य हैं जो हमारे लिए तो राष्ट्रीय जीवन के कारण परिणाम और सूचक हैं तथा विश्व के लिए भी अत्यंत उपादेय हैं।  विश्व को इस संस्कृति का ज्ञान कराना हमारा राष्ट्रीय जीवनोद्देश्य हो सकता है।  इस संस्कृति को गंवाकर यदि हमने अर्थ कमाया भी तो वह निरर्थक और अनिष्टकारी होगा। "  दुर्भाग्य की बात है कि हमने अपनी गलतियों से सबक लेने के स्थान पर उसी मार्ग पर आगे बढ़ना और उसमें उलझना अधिक श्रेयष्कर समझा।  जिसके परिणाम आज देश भोग रहा है। दीनदयाल जी के विचार आज देश ही नहीं पूरे विश्व के लिए सार्थक बन चुके हैं। आज भारत ही नहीं पूरे विश्व के सामने हर हाथ को काम देने का प्रश्न चुनौती बनकर खड़ा है। जिसका कोई हल किसी को नहीं सूझ रहा है। पश्चिम के अर्थशास्त्रियों के सिद्धांतों के अनुरूप विकास का मार्ग खोजते खोजते विश्व की अर्थव्यवस्था आज अन्धे मोड़ पर पहुँच चुकी है।  इस परिस्थिति को पंडित दीनदयाल जी ने 50 वर्ष पूर्व ही भांप लिया था। समाज के अंतिम व्यक्ति तक आवश्यक सुविधाएँ पहुँचाने के लिए इस मार्ग के अलावा कोई पर्याय नहीं हैं।