Sunday 23 April 2017

जैनरिक दवाओं, हृदय स्टन्ट कीमत से अलग स्थाई समाधान चाहिए?

कुछ दिन से जैनरिक दवाओं का विषय हवा में है। प्रधानमंत्री ने कुछ दिन पहले यह बात कही, मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ने उसका संज्ञान लेते हुए, सूचना जारी कर दी। पूरे देश के सोशल मीडिया को एक विषय मिल गया। चल पड़ा कट पेस्ट का मौसम जोरों पर। पक्ष - विपक्ष में प्रतिक्रियाओं का सिलसिला चल पड़ा। ग्राहक मुखर है संख्या भी अधिक है, अत: उनकी प्रतिक्रियाओं की बहुलता लाजिम है, परन्तु दूसरा पक्ष भी रह रह कर अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करवा रहा है। अभी कल. ही होटल रेस्तरां में खाना खाने पर लगने वाले सर्विस टैक्स से सम्बन्धित सूचना निकली। अब होटल रेस्तरां में सेवा शुल्क देना न देना हमारी इच्छा पर है। ग्राहकों के लिए दोनों ही अच्छे कदम हैं, इनकी सराहना की जानी चाहिए, की भी जा रही है। रही मेरी बात तो "मै कहता आंखन की देखी", अभी जाने दीजिए।


हमें जल्दी बहुत रहती है। प्रत्येक समस्या का शार्ट कट हल हमें अपेक्षित है। बात हमारे कानों तक पंहुची नहीं कि हम उसके परिणाम तक पहुंच जाते हैैं। वैसे भी ग्राहक आन्दोलन आर्थिक क्षेत्र से संबंधित होने के कारण, इतना विशद व विविधता भरा है कि प्रत्येक दूसरे कदम पर इसका रंग बदल जाता है। जो समस्या मेरे गले की हड्डी है, उससे आपका दूर दूर तक सरोकार नहीं। अत: आपके लिए वह समस्या ही नहीं। इसीलिए आप उसे देखते हुए भी अनदेखा कर देते हैं। जैनरिक दवा कौन सी अभी आवश्यकता है, हां कुछ हुआ है इस विषय में, जरूरत पड़ने पर समझ लेंगे। भारत के ही नहीं पूरे विश्व के ग्राहक आन्दोलन के सामने यह गम्भीर चुनौतियां हैं। इसी कारण पूरे विश्व में कहीं पर भी ग्राहक संगठित होकर निर्णायक शक्ति नहीं बन पाये हैं। यह बात बस किताबों के पन्नों में ही सिमटी हुई हुई है। ग्राहक ग्राहक​ग्राहक​ संगठन बस छिटपुट स्वरूप में कहीं सरकारों तो कहीं कार्पोरेट की मेहरबानी से संगठन चला रहे हैं।

पूरे विश्व को ग्राहक आन्दोलन को देखने की द्रष्टि बदलने की जरूरत है। यह तभी संभव है जब ग्राहक संगठन अपनी सतही द्रष्टि में पैनापन लायें। ग्राहक के मर्म व ग्राहक आन्दोलन के मूल को समझें। उस पर कार्य करें। वस्तुओं और सेवाओं के पीछे भागने से, बिना शक्ति अर्जित किए सरकारी मशीनरी का पुर्जा मात्र बनने से ग्राहक आन्दोलन को कुछ हासिल होने वाला नहीं। अनगिनत वस्तुयें, सेवायें, उन्हे उत्पादित संचालित करने वाले हाथ हैं। एडम स्मिथ द्वारा अधिक से अधिक धन कमाने के मन्त्र से दीक्षित किस किस पर कहां कहां नियंत्रण लगा पाओगे। अत: नजरिये और कार्य के तरीके में बदलाव लाकर मूल पर प्रहार की आवश्यकता है।

आजकल एक अन्य विषय स्कूलों द्वारा अभिभावकों को लूटने का देश भर में चल रहा है। इधर उधर से यह कानून बना दें, वह कानून बना दें आवाजें भी आ रही हैं। सुना है सीबीएसई ने सूचना भेजकर स्कूलों को ताकीद भी की है कि वह छात्रों से संबंधित कुछ भी स्कूलों में नहीं बेचेंगे। पच्चीस वर्ष पहले यह विषय लेकर महाराष्ट्र में मैने कार्य किया था। वही सब समस्यायें थी जो आज हैं। मैने उस समय उपलब्ध नियम कानून के आधार पर बड़ी लड़ाई लड़ी थी, आंशिक सफलता भी मिली थी, तत्कालीन शिक्षा मंत्री ने मेरे कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने व स्थितियां बदलने का वायदा भी किया था। मैं इस आधार पर ताल ठोक कर यह कह सकता हूं कि पच्चीस वर्ष पहले भी महाराष्ट्र सरकार के पास स्कूलों की आज की समस्याओं पर नकेल कसने के लिए पर्याप्त नियम कानून थे। सुना है महाराष्ट्र सरकार ने कोई नया कानून भी बनाया है पर समस्या वहीं की वहीं है।

जैनरिक दवाओं के सम्बन्ध में एमसीआई द्वारा जारी गाइड लाइन स्वागत योग्य कदम है। पर यहां से ग्राहक संगठनों का काम सम्पन्न नहीं शुरू होता है। अभी संघर्ष की अनेकों सीढ़ियां चढ़नी हैं। आपमें से कुछ को याद होगा। सरकार ने हृदय की शल्य क्रिया में लगने वाले शन्टों की कीमतें निर्धारित की थी। काफी समय तक तो बाजार से शन्ट गायब ही रहे। अभी भी शन्ट निर्माता अपनी लड़ाई लड़ ही रहे हैं। एक बडी कम्पनी भारत के बाजार से अपने शन्ट हटा चुकी है, दूसरी ने अपनेे शन्ट बाजार से हटाने का सरकार को नोटिस दिया है। अब बाजार के इस आचरण के चलते, कैसी भी योजनाएं बन जायें, सफल कैसे होंगी। मुझे विश्वास है यही कुछ चिकित्सा क्षेत्र में भी होगा, फिर जेनरिक दवा बनाने वाली कंपनियां भी एम आर पी बहुत अधिक लिख रही हैं। दूसरी गड़बड़ियां भी हैं।

अतएव किसी वस्तु या सेवा के अधिक दाम होने पर उसका सस्ता विकल्प ढूंढ लेना समस्या का समाधान नहीं है। ग्राहक आन्दोलन वस्तुओं को सस्ता दिलाने की बात कभी नहीं करता, यदि करे तो चलने वाला नहीं। क्योंकि वस्तु के लागत मूल्य से कुछ अधिक ग्राहक को देना ही होगा। इसीलिये ग्राहक आन्दोलन सस्ते की बात न कर, उचित वस्तु उचित दाम का आधार लेकर आगे बढ़ रहा है। आज देश में जैनरिक दवायें कम बिकती हैं, इसलिए सस्ती हैं। कल जब पूरे देश के डाक्टर इन्हे लिखेंगे, बाजार में इनकी मांग बढ़ेगी, तो कौन गारन्टी लेगा कि इनके दामों में अप्रत्याशित वृद्धि नहीं होगी। इनके उत्पादक तथा व्यापारी ग्राहकों को नहीं लूटेंगे। इसलिए मुख्य समस्या वस्तु या सेवा के मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया है। जिसका कोई माई बाप नहीं। अत: हमें अस्थाई नहीं स्थाई समाधान ढूंढकर आगे बढ़ना है।

मूल्य निर्धारण प्रक्रिया के विषय में बात करना, उसका हल ढूंढना व्यक्तिगत ग्राहक के वश की बात नहीं। इसमें बहुत ऊर्जा तथा शक्ति लगती है। एक बार यह सूत्र बन गया तो लाखों करोड़ों वस्तुओं सेवाओं के पीछे अलग अलग नहीं भागना पड़ेगा। सभी व्यवस्थित आकार स्वयंमेव ले लेंगी। "एकै साधे सब सधें" जैसे सूत्र ढूंढना उन्हें प्रचलित करना किसी भी आन्दोलन के कार्यकर्ताओं का उद्धिष्ट होना चाहिए, यही सही मार्ग है। अतएव जिस प्रकार की बातें जैनरिक दवाओं, हृदय विकार सम्बन्धित स्टन्ट या रेस्तरां के सेवा शुल्क के सम्बन्ध में सामने आई। हमें इन विषयों पर गम्भीरता व विस्तृत विचार कर स्थाई समाधान के साथ आगे आना चाहिए। यही ग्राहक संगठनों की भूमिका होनी चाहिए।