Friday 16 October 2015

दालें दुर्लभ वस्तुओं मे शामिल

भारतीय दलहन शोध संस्थान के अनुसार वर्ष 2030 तक देश की जनसंख्या 1.6 बिलियन पँहुच जायेगी और उसे 32 मिलियन टन दालों की आवश्यकता पडेगी। इस लक्ष्य के अनुसार देश को प्रतिवर्ष दलहन के उत्पादन मे 4.2% बढोत्तरी करने की जरूरत है। देश मे दलहन उत्पादन का अब तक का इतिहास बहुत निराशाजनक रहा है। पिछले 40 वर्षों मे दलहन का उत्पादन देश मे 1% वार्षिक से भी कम गति से बढा है। जबकि देश की जनसंख्या इससे दुगनी गति से बढी है।

दशकों से हमारे नेताओं द्वारा इस क्षेत्र की उपेक्षा ही वर्तमान हालातों की जिम्मेदार हैं। बलराम जाखड और शरद पवार जैसे कृषि मन्त्री यह योजनायें तो बनाते रहे कि हम अफ्रीका, बर्मा और उरूग्वे जैसे देशों मे दाल की खेती करवाकर वहां से दाल आयात करें। परन्तु उन्होने यह कभी नहीं सोचा कि देश का किसान दाल की खेती से क्यों भाग रहा है। उसे कैसे प्रोत्साहित किया जाये। दालों का जोत क्षेत्र कैसे बढाया जाये। दालों की प्रति हेक्टयर उपज बढे, इसके लिये क्या किया जाये। अतः हम आज जिस स्थिति मे हैं, उसके बीज हमने वर्षों पूर्व बोये थे। मजे की बात यह कि दालों का उपभोग करने वाला बडा देश होने के बावजूद हम इसके महत्व को नहीं समझे, आस्ट्रेलिया समझ गया, 1970 मे हमसे 400 ग्राम दाल के बीज लेकर गया। 10 वर्ष बाद उसका दलहन का जोत क्षेत्र था 90 लाख हेक्टयर, आज वह हमारे देश को दाल निर्यात कर रहा है। मालाबी जैसे छोटे देश भी हमे 5000 टन दाल आयात करने की स्थिति मे हैं। ।

यद्यपि दालों के लिये हमारा देश विश्व का सबसे बडा उत्पादक, उपभोक्ता व आयातक है। दुनिया की कुल दाल की खेती के एक तिहाई भाग मे हम दाल की खेती करते हैं। दुनिया के दाल उत्पादन का 20 प्रतिशत उत्पादन हमारे यहां होता है। परन्तु हम अपनी जरूरत से काफी पीछे हैं और हमने इसपर उचित ध्यान भी नहीं दिया, क्योंकि आजादी के बाद भी हमारे शासक नेता अंग्रेजों की मानसिकता मे जी रहे थे। अंग्रेज दाल का उपयोग करते नहीं हैं, इसे दूसरे दर्जे का अनाज मानते हैं। हमारे नेताओं ने भी यही किया दाल को दूसरे दर्जे का अनाज मानकर इसके विकास पर समुचित ध्यान ही नहीं दिया। गेंहू - चावल मे ही लगे रहे, देश मे दाल की कमी को आयात के सहारे पूरा करते रहे।

देश मे दाल उत्पादन की तरफ उचित ध्यान न देने के कारण किसान इस फसल की ओर आकर्षित नहीं हुये क्योंकि लम्बी अवधि की फसल होने साथ इसमे कीटों व बीमारियों का खतरा अधिक था, अच्छे बीजों की कमी भी थी, दूसरे किसान को बाजार मे दलहन की फसल के खरीदार भी नहीं मिलते थे। 2008 से सरकार ने दालों के समर्थन मूल्य की घोषणा जरूर शुरू कर दी, परन्तु सरकार द्वारा खरीद न करने के कारण किसान को व्यापारियों पर ही आश्रित रहना पडता है। इन कठिनाईयों की तरफ सरकार ने ध्यान नहीं दिया, किसान दलहन की फसलों से किनारा करते रहे। नतीजतन 1980 - 81 मे 22.46 मिलियन हेक्टयर मे 10.63 मिलियन टन के उत्पादन को 35 वर्ष बाद 2013 - 14 मे हम 19.7 मिलियन टन तक ही पँहुचा पाये। सरकार द्वारा इस ओर देर से ध्यान देने के कारण हम काफी पिछड चुके हैं। कुछ दिन पहले ही चने और तुवर की 100 दिनों मे तैयार होने वाली फसल खोजने मे हमे सफलता मिली, दक्षिण भारत के लिये JG-11 नाम की किस्म भी तैयार की गई है। परन्तु 760 किलो प्रति हेक्टयर की  पैदावार को अन्य देशों की तरह 1200 किलो प्रति हेक्टयर तक ले जाना शेष है। संक्षेप मे कहें तो दलहन उत्पादन के लिये देश मे अनुसन्धान, किसानों को प्रोत्साहन, बुआई के क्षेत्र को बढाना, पैदावार को बढाना आदि महत्वपूर्ण चुनौतियां देश की सरकार के सामने हैं।

वर्तमान बाजार को देखें तो अनियमित वर्षा ने  30% फसल बरबाद कर दी। 2013-14 मे 19.25 मिलियन टन की तुलना मे 17.3 टन दलहन का ही उत्पादन हुआ। दूसरे देशों मे भी फसल खराब हुई है, जिससे कीमतों मे 20 से 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। डालर की तुलना मे रूपये की गिरावट ने स्थिति को और बिगाडा है। यद्यपि सरकार द्वारा आयात की गई 10,000 टन तुवर, उडद दाल प्रक्रिया मे है। 5000 टन दाल और आयात की जा रही है। कठिन हालातों के बावजूद इस तरह की परिस्थितियों का अनैतिक लाभ उठाने वालों की भी कमी नहीं है। जमाखोरों द्वारा मुनाफाखोरी के लिये माल बाजार से गायब करने के चलते हालात अधिक खराब हुये हैं। सरकार को जमाखोरों पर कठोर कार्यवाही करने की जरूरत है, तभी ग्राहक को थोडी बहुत राहत मिलनी सम्भव है। वरना ग्राहक की दाल गलनी कठिन है।

Thursday 15 October 2015

सावधान रहकर ऑनलाईन मार्केटिंग का लाभ उठायें

अॉन लाईन शापिंग कम्पनियों  की आजकल बाढ आई हुई है। घर पर बैठकर फुर्सत से खरीदारी वह भी दुनिया भर के ब्रान्डों की, बाजार से सस्ते दामों पर, घर पँहुच सेवा और न जाने क्या क्या। आज के  समय मे यदि आप अॉनलाईन शॉपिंग से परिचित नहीं, अॉनलाईन शॉपिंग नहीं करते तो आप पिछडते जा रहे हैं। इस आधुनिक मार्केटिंग तकनीक का लाभ उठाने से वंचित हैं।

समय परिवर्तनशील है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मे नये नये प्रयोग हो रहे हैं। एल्विन टॉफलर की 3rd वेव थ्योरी रंग ला रही है। अब तक के निर्धारित नियम व व्यवस्थायें ध्वस्त हो रही हैं, उनके स्थान पर नवीन व्यवस्थायें जन्म ले रही हैं। नये सिद्धान्त बन रहे हैं। जिनके चिन्ह हमे अपने आसपास प्रचुरता मे दिखाई देते हैं। हम किसी भी नयी  व्यवस्था को अपनाने से सिर्फ इसलिये मना नहीं कर सकते, क्योंकि अबसे पहले की व्यवस्था अलग तरह की थी। समाज, उत्पादन तथा बाजार मे जो paradigm shift हो रहा है, हमे उससे ताल जरूर मिलानी है। यह दीगर बात है कि हम उस नवीन व्यवस्था का कितना और कैसे उपयोग करते हैं। अतः ऑनलाईन मार्केटिंग का जड़ से विरोध करना बेमानी है।

बाजार मेे ग्राहक को उत्पादन मंहगे मिलने के सम्बन्ध मे अधिकतर अर्थशास्त्रियों का अभिमत बाजार मे बडी संख्या मे बिचौलियों का होना बताया जाता था। कहा जाता था इसीकारण बाजार मे उत्पादन अपनी उत्पादन लागत से बहुत अधिक दामों पर बिकता था।अॉन लाईन कम्पनियों ने एक बात तो स्पष्ट कर दी कि इसने व्यापारी या बिचौलियों को जो ग्राहकों को 9 रु की वस्तु 90रु मे बेचकर बेहिसाब लूट रहे थे, किनारे बैठाकर, ग्राहकों को अतिरिक्त लाभ का हिस्सेदार बना  दिया। बाजार मे सम्पत्तियां अत्यधिक मंहगी होने का लाभ भी ऑनलाईन कम्पनियों को मिला। जब तक यह लाभ ग्राहक को मिलता है, इसे लेेने मे कोई हर्ज नहीं। वैसे ऑनलाईन कम्पनियों मे भी यह विचार तेजी से पनप रहा है कि जो दिखता है वह बिकता है। इसलिये ऑनलाईन कम्पनियां बडे बडे शहरों मे अपने शो रूम खोलने परभी विचार करने लगी हैं। उनका यह भी मानना है कि इस प्रकार वह अपने ग्राहकों को और बेहतर सेवायें दे सकेंगी।

अॉन लाईन कम्पनियों ने उत्पादन मूल्य और विक्रय मूल्य के विशालकाय अन्तर को देश के सामने स्पष्ट कर दिया है। वस्तुओं की कीमतों मे बाजार और अॉन लाईन कम्पनियों मे विशालकाय अन्तर इसीलिये दिखाई देता है, क्योंकि उत्पादक उत्पादन लागत से बहुत अधिक कीमत एम आर पी मे लिखते हैं। टैक्स चोरी जैसी बातें अॉन लाईन व्यवसाय मे तथ्यहीन हैं। इतनी जगह लिखापढी होती है कि टैक्स  वसूलने वाले विभागों की ये आसान पकड मे हैं। ग्राहक कानून भी इन कम्पनियों पर पूरी तरह लागू है। ग्राहक उपभोक्ता फोरम मे जा सकता है।

परन्तु प्रत्येक चमकने वाली वस्तु जिस तरह सोना नहीं होती, उसी तरह थोडी सी असावधानी ग्राहक के लिये समस्या भी खडी कर सकती है। अत: ग्राहकों को इन कम्पनियों से खरीदारी करते समय अलग तरह की सावधानियां अपनाने व सतर्क रहने की आवश्यकता है।

१. बाजार की खरीदारी की तरह इसमे भी समय लगायें। सिर्फ उत्पादन की फोटो देखकर वस्तु न खरीदें।
२. कई बार देखा गया है कि वस्तु का चित्र ब्रान्डेड कम्पनी का होता हैै, परन्तु विवरण दूसरा लिखा होता है। अत: पूरा विवरण पढने के बाद, चित्र से उसे मिलाकर सुनिश्चित होनेो के बाद ही आर्डर दें।
३. वस्तु के साथ दी जानकारी को पूरा पढें, समझें। यदि फिर भी वस्तु के विषय मे कोई शंका है तो आर्डर देने से पूर्व कम्पनी से लिखकर पूछ लें।
४. किसी ब्रान्ड की वस्तु और उसके जैसी वस्तु मे बहुत अन्तर होता है। अत: like, type या as जैसे शब्दों के चक्र मे न उलझें।
५. वस्तु के मूल्य को आर्डर देने से पूर्व स्थानीय बाजार मे सुनिश्चित कर लें। अनेको बार वस्तु उसी दाम पर या सस्ती स्थानीय बाजार मे मिल जाती है।
६. जहां तक सम्भव हो payment on delivery option का उपयोग करें।
७. वस्तु सन्तोषप्रद न होने पर शिकायत तुरन्त करें।
८. आप जिस कम्पनी को आर्डर कर रहे हैं, उसके बारे मे अच्छी तरह समझ लें। आजकल बहुत सी नकली कम्पनियां भी धोखाधडी करने के लिये सक्रिय हैं।

Wednesday 12 August 2015

सम्पूर्ण विश्व की अर्थनीति पर पुनर्विचार आवश्यक

50 वर्ष पूर्व दीनदयाल उपध्याय जी को यह अहसास हो चला था कि विश्व जिस अर्थनीति मे मानव जीवन के विकास की अपार सम्भावनायें मानकर आगे बढ़ रहा है, वह एकांगी है। उसमे सहअस्तित्व के विचार का कोई स्थान नहीं है। वह जानते थे कि यदि हमें स्थाई विकास प्राप्त करना है तो इस सहअस्तित्व को स्वीकार ही नहीं, इसका संरक्षण भी करना पडेगा। उन्हे मालूम था कि जिन भौतिक संसाधनों के भरोसे हम स्वयं को विकास की दौड़ मे शामिल रखते हैं, वह प्रकृति से प्रदत्त हैं, अतः प्रकृति व सृष्टि के अन्य तत्वों से समरूप या एकरूप हुये बिना विश्व के लिये स्थाई कल्याणकारी अर्थनीति ढूंढ पाना संभव नहीं, एकात्म मानव दर्शन का उदय इसी तत्कालीन वैश्विक परिवेष की उत्पत्ति है। परन्तु उस कालखंड मे हम अपने देश की भौगोलिक, सामाजिक व प्राकृतिक विविधताओं को दरकिनार पश्चिमी विकास चक्र के रंग मे इस कदर सराबोर थे कि हम अपने खरे सोने को मिट्टी समझने की भूल कर रहे थे। मुझे याद है एक बार मै अपने कुछ समाजवादी, साम्यवादी मित्रों के साथ चर्चा कर रहा था, वह समझने को तैयार ही नहीं थे कि यह सूत्र दर्शन अपने मे विश्व कल्याण का मन्त्र संजोये है। ठीक उनकी तरह तब देश ने भी नहीं समझा। आज जब विश्व मे जीव विज्ञान, राजनीति, भौतिक विज्ञान, अर्थ विज्ञान को देखने परखने का नजरिया बदलने लगा है, इन सभी शास्त्रों को खंड खंड न देखकर, आसपास मौजूद अन्य अवयवों के कारण पड़ने वाले प्रभावों को भी संज्ञान मे लेने की, wholestic systematic approach की बात होने लगी है, जिसके कारण आज एकात्म मानव दर्शन की सार्थकता दुनिया के सामने स्पष्ट हो रही है।

दीनदयाल जी को समय मिलता तो निश्चित रूप से वह अपनी सिध्दान्त रूप मे कही बात की व्याख्या करते। परन्तु अर्थनीति की दिशा और उसके विश्व समुदाय पर पड़ने वाले प्रभाव दीनदयाल जी समझ चुके थे।  उन्होने कहा था - "साध्य और साधन का विवेक समाप्त हो रहा है। अर्थोत्पादन जीवन का आवश्यक आधार ही नहीं सम्पूर्ण जीवन बन गया है।" पंडित जी अपनाई जाने वाली पश्चिमी नीतियों और उसके समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर चिन्तित थे। आगे उनका कहना था -  "साध्य का पता लगे बिना साधन का निश्चय कैसे हो सकता है। हमारी परम्परा और संस्कृति हमे यह बताती है कि मनुष्य केवल भौतिक आवश्यकताओं और इच्छाओं का पिण्ड नहीं, अपितु वह एक आध्यात्मिक तत्व है।" उस समय की भौतिक नीतियों मे अध्यात्मिक तत्व की अनुपस्थिति का मर्म और कालान्तर मे विश्व पर उसके सामाजिक प्रभावों को दीनदयाल जी जैसा व्यक्तित्व ही समझ सकता था। वह परिणामों से आशंकित थे। आज विश्व प्रगति के किसी भी शिखर को रौंदने मे सक्षम क्यों न हो, सामाजिकता के स्तर पर तो वह धूलधूसरित फर्श पर उखडी सांसें लेता नजर आता है। आज भी 5300 मिलियन जनसंख्या वाले विश्व मे 1000 मिलियन लोग हैं जिन्हे भरपेट भोजन नहीं मिल पाता (Lean,Hinrichsen& Markham 1990). आर्थिक विषमताओं से भरे वर्तमान प्रगतिशील विश्व मे - सर्वे भवन्तु सुखिनः कैसे कह सकेंगे, जब अपनाई जाने वाली अर्थनीति दुनिया की आधी से अधिक सम्पत्ति पर मात्र 2 प्रतिशत लोगों को काबिज करा दे और आधी दुनिया मात्र 1 प्रतिशत सम्पत्ति बांट कर उस पर गुजारा करे।

भारत की रग रग से वाकिफ गांधी जी को दरकिनार कर जब देश ने पश्चिमी अर्थनीति की तरफ कदम बढ़ाये थे, तभी स्पष्ट हो गया था कि देश प्रगति तो करेगा, परन्तु इसका दायरा सीमित होगा, देश का बहुत बड़ा वर्ग इससे वंचित रहेगा। 2012 की जनगणना के आंकड़े इस स्थिति को स्पष्ट कर रहे हैं। दीनदयाल जी जानते थे कि देश का एक प्रभावशाली वर्ग पश्चिमी व्यवस्था की तरफदारी इसलिये कर रहा है क्योंकि यह उसके हितों के अनुरूप है। पंडित जी कहते थे -  "भारत मे ऐसे लोग भी बहुत बड़ी संख्या मे हैं जिनके हित पाश्चात्य अर्थव्यवस्था और उत्पादन प्रणाली से जुड़े हैं। जिस अर्थव्यवस्था का भारत मे विकास हुआ उसने भारत और पश्चिम के औद्योगिक देशों की व्यवस्थाओं को एक दूसरे का पूरक बनाया। जिसमे भारत के हितों का संरक्षण नहीं हुआ, बल्कि उसका शोषण होता रहा है"। दीनदयाल जी जानते थे कि विश्व विकास का नाम लेकर, जिस अर्थनीति का पीछा कर रहा है, अन्ततोगत्वा वह विश्व के लिये कल्याणकारी नहीं होगी। वह अर्थनीति के साध्य और साधन दोनो की स्पष्टता को लेकर चिन्तित थे।  अर्थनीति मे नैतिक मूल्यों के अभाव व उसके कारण पड़ने वाले प्रभाव से वह चिन्तित थे , उनका कहना था - "जिस पश्चिम का अनुकरण कर हम अपने अर्थनैतिक मूल्यों की प्रतिस्थापना कर रहे हैं, वहां जीवन के इस सर्वग्राही भाव के लिये कोई स्थान नहीं है।  फलतः आज हमारे मन, वचन और कर्म मे अर्न्तविरोध उत्पन्न हो गया है"। भारतीय चिन्तन से विमुखता हमें सही मार्ग पर ले जाने की जगह भटकाव की स्थिति मे पँहुचा देगी, वह महसूस कर रहे थे - "अर्न्तचेतना और बाह्यकर्म दो विरोधी दिशाओं में खींच रहे हैं। जो कुछ भी हम करते हैं, अन्यमनस्क भाव से और जब हमे अपने प्रयास सफल होते हुये ही नहीं दिखते तो मन में विफलता, आत्मज्ञान और आत्मविश्वासहीनता का भाव उत्पन्न होता है"। अन्यमनस्क स्थिति से उबरने और उभरने के लिये विश्व को सर्वहितकारी कल्याणकारी मार्ग की आवश्यकता थी, दीनदयाल जी का एकात्म मानव दर्शन का सूत्र इसी परिप्रेक्ष्य मे है।

बिलासपुर मे प्रवास के समय एक बुजुर्ग से भेंट हुई, वह संशय  व्यक्त कर रहे थे कि दीनदयाल जी की नीतियां पुरानी पड़ चुकी हैं। वर्तमान मे कैसे लागू हो सकती हैं। वैसे वह दीनदयाल जी के भक्त थे या तो उनकी आयु अभ्यास मे बाधक थी या फिर वह हमारी परीक्षा ले रहे थे। लेकिन यह चिन्ता बहुत लोगों की हो सकती है, उन्हे जान लेना चाहिये, कोई भी सिध्दान्त सूत्र रूप मे होता है। उसे देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप अपनाना पड़ता है और फिर पंड़ित जी के एकात्म मानव दर्शन का आधार तो हजारों वर्षों की तपस्या से विकसित जीवन के मूलभूत, चिरन्तन सत्य पर आधारित भारतीय दर्शन है, जो चिरस्थाई है, कभी पुराना न पड़ने वाला, सभी के कल्याण के विचार वाला है। दीनदयाल जी ने उस समय अधिक से अधिक लोगों को रोजगार मिले, अतः साठवें दशक की परिस्थितियों के अनुरूप, गांवों मे रहने वाली देश की बहुसंख्य आबादी के विकास हेतु कृषि क्षेत्र पर अधिक ध्यान देने पर जोर दिया था। कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह था कि दुनिया मे धन का बँटवारा इस तरह हो कि अन्तिम छोर पर बैठा व्यक्ति भी विकास के फलों का स्वाद चख सके। परन्तु उस समय पश्चिमी विश्व स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ मे था और हम पश्चिम को श्रेष्ठ मानने की दौड़ मे। नतीजतन आज पूरी दुनिया उस स्थिति मे पँहुच चुकी है जिसमे दुनिया की 1 प्रतिशत आबादी एवरेस्ट की चोटी पर है और आधी से अधिक आबादी गहरी खाई मे। इन दोनों को समीप लाने का असम्भव कार्य करना है। यदि दोनो छोरों पर बैठने वालों का विश्लेषण करें तो यह तथ्य सामने आता है कि शीर्ष पर बैठा 1 प्रतिशत वर्ग उद्योग या व्यवसाय से जुड़ा है, जबकि नीचे वाली आधी आबादी खाद्यान्न पैदा करने वाली व्यवस्था अर्थात कृषि या उससे सम्बन्धित व्यवसाय से जुड़ी है। जिसका सीधा अर्थ है कि विश्व मे धन का बहाव गरीब व्यक्ति से या कृषि से उद्योग की तरफ है। जिसके कारण अधिकांश आबादी के द्वारा अर्जित किया जाने वाला धन, उनके हाथों से फिसलकर उद्योजकों के पास चला जाता है। सभी के कल्याण की बात सोचने का अर्थ है, धन के इस स्थानान्तरण को रोकना। पश्चिमी अर्थनीति के पास इसका कोई निराकरण नहीं है, परन्तु दीनदयाल जी के एकात्म मानव दर्शन की सर्व कल्याणकारी व्यवस्था मे इसकी उपाय योजना है।

उद्योजकों के पास इतना अधिक धन इसलिये जमा हो गया है, क्योंकि वर्तमान आर्थिक व्यवस्था मे अन्य लोगों के पास धन रूकने नहीं दिया गया। दुनिया के उद्योजकों ने अपने उत्पादनों को बेचने मे मुनाफा कमाने के स्थान पर मुनाफाखोरी का रास्ता अपनाया। औद्योगिक उत्पादनों के विक्रय मूल्य उत्पादन लागत के 100 से 2000 गुना तक रख कर दुनिया की अधिकतर दौलत पर अधिकार जमाने के बारे मे सोचा। विश्व के राजनीतिक नेतृत्व ने इस कार्य मे उनका साथ दिया। जिसके कारण अधिकांश आबादी को अपनी कमाई का अधिकांश भाग उनको देना पड़ा, वह अपने कमाये धन से ही वंचित होते गये। विश्व मे सर्वकल्याणकारी अर्थव्यवस्था लागू करने के लिये इसको रोकने के लिये आवश्यक कदम उठाने होंगे।सभी के कल्याण के लिये विश्व नेतृत्व को औद्योगिक उत्पादनों का विक्रय मूल्य उत्पादन लागत पर उचित मुनाफे के आधार पर तय करने के विषय मे विचार करना चाहिये। इससे अधिकांश आबादी के पास धन की उपलब्धता बढ़ेगी और वह अपना जीवन बेहतर बनाने की स्थिति मे होंगी। 

Wednesday 5 August 2015

उत्पादन मूल्य बताओ, अच्छे दिन आ जायेंगे

वस्तुओं की बढती कीमतें हमेशा राजनेताओं, अर्थशास्त्रियों और ग्राहकों के निशाने पर रहती हैं। कभी भी किसी ने भी इन बढती कीमतों के भंवरजाल को सुलझाने की कोशिश नहीं की।यह जिम्मेदारी उन्ही को दे दी, जिनसे ग्राहकों को बचाना था। नतीजा वही हुआ जो बिल्ली को दूध की पहरेदारी पर लगाने का होता है। यह विश्व मे होने वाला सबसे बड़ा आर्थिक भ्रष्टाचार है, जो सामान्य वर्ग से उसकी खून पसीने की कमाई छीने जा रहा है। 5 रूपये की वस्तु 50 रूपये मे बेचकर सरेआम आर्थिक भ्रष्टाचार कर उसे गरीबी, भुखमरी और लाचारी के दलदल मे धकेले जा रहा है ।


औद्योगिक क्रान्ति के उदय के साथ ही इससे सम्बन्धित तथाकथित प्रतिष्ठित वर्ग ने व्यूहरचना शुरू कर दी थी। दुनिया के कुल धन के अधिकांश भाग पर शीघ्र से शीघ्र आधिपत्य जमाने की, ताकि यह वर्ग धन बल के सहारे पूरी दुनिया को अपने अधिपत्य मे ले सके। यह तभी सम्भव था जब यह वर्ग शासकों, नेताओं और ग्राहकों को यह समझा सके कि दुनिया की तरक्की के लिये आर्थिक प्रगति आवश्यक है, आर्थिक प्रगति के लिये उद्योगीकरण तथा उद्योगीकरण के लिये उद्योजकों को अधिक से अधिक वित्तीय व अन्य सुविधायें। वैसे उनती बात पूरी तरह गलत भी नहीं थी। उसमे सच्चाई भी थी। किसी भी देश की उन्नति मे उसकी आर्थिक प्रगति का बहुत बड़ा योगदान होता है परन्तु आर्थिक प्रगति के लिये उद्योग के साथ साथ कृषि क्षेत्र का भी विकास आवश्यक है। दोनो में सन्तुलन होना चाहिये, तभी देश के विकास का लाभ बहुतांश लोगों को मिल पाता है। लेकिन यह बात उद्योजक वर्ग की हित साधना मे बाधक थी। क्योंकिब धन वितरण उद्योग के साथ कृषि क्षेत्र मे भी होता। अतः एक नवीन शब्द मंहगाई की कल्पना विकसित कर यह बात फैलाई गई कि यदि कृषि उत्पादों के दामों पर नियन्त्रण नहीं रखा गया तो देश मे मंहगाई बढ़ेगी, सामान्य वर्ग का जीवन दूभर होगा। अतः कृषि उत्पादों की कीमतों को सरकारी नियन्त्रण मे लाया गया। इस बात का विरोध न हो इसलिये इस नियन्त्रण को सरकारी संरक्षण का नाम देकर कृषि क्षेत्र/किसानों के हित से जोड़ दिया गया। कृषि मे पैदा होने वाली वस्तुयें उद्योगों मे कच्चे माल के रूप मे काम आती हैं। अतः उद्योजकों ने कारटेल बनाकर कृषि मे पैदा होने वाली वस्तुओं के दाम नहीं बढने दिये, कृषि उत्पादों को सस्ते दामों पर खरीदा, बाद मे किसानों के हितों की रक्षा के नाम पर कृषि उत्पादों के विक्रय मूल्य पर सरकारी नियन्त्रण लाद दिया गया। दूसरी तरफ औद्योगिक उत्पादनों के विक्रय मूल्य पर उद्योजकों का एकाधिकार कायम रहा, ताकि वह ग्राहकों से अधिक से अधिक धन वसूल सकें, जिसके कारण वर्तमान बाजार मे औद्योगिक उत्पादनों का विक्रय मूल्य उत्पादन मूल्य के 100 से लेकर 1000 गुना तक अधिक है तथा कृषि उत्पादों को बमुश्किल उनकी उत्पादन लागत मिल पाती है।

देश मे भी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग है। यह आयोग कृषि उत्पादों के लागत मूल्य का अध्यन कर, उनके समर्थन मूल्य या विक्रय मूल्यों की आयोग की मूल्यनीति के अनुसार प्रतिवर्ष घोषणा करता है। कृषि उत्पादों के विक्रय मूल्य इन्ही घोषित मूल्यों के आसपास रहते हैं, परन्तु औद्योगिक उत्पादनों के सम्बन्ध मे यह नीति नहीं अपनाई गई, उनके विक्रय मूल्यों का निर्धारण उद्योजकों  पर छोड़ कर उन्हे वस्तुओं पर मनमानी MRP लिखने की छूट दे दी गई। इसी छूट का फायदा उठाकर उद्योजक विज्ञापन, फैशन शो आदि विभिन्न हथकंडे अपनाकर अपने उत्पादनों के बदले ग्राहकों से कई गुना अधिक कीमत वसूल कर ग्राहकों को लूट रहे हैं।


अप्रैल 1999 तक देश मे औद्योगिक उत्पादनों के उत्पादन मूल्य का अध्यन करने के लिये ब्यूरो आफ इन्डस्ट्रियल कास्ट एण्ड प्राइसेज (BICP) था। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत द्वारा लगातार उत्पादन मूल्य घोषित करने का दबाव बनाने के कारण इसका टैरिफ कमीशन (TARIFF COMMISSION) मे विलय कर दिया गया तथा इसका कार्य टैक्स निर्धारित करने के उपयोग तक मर्यादित कर दिया गया। यह जानते समझते हुये भी कि उद्योजक ग्राहकों को बुरी तरह लूट रहे हैं, इस तरफ से आँख बन्द कर ली गई। पिछली दो लोकसभाओं मे चन्द्रपुर (महाराष्ट्र) से सांसद व वर्तमान मे रसायन व उर्वरक राज्य मन्त्री हंसराज अहीर ने उत्पादन मूल्य बताने से सम्बन्धित बिल निजी बिल के रूप मे रखा था। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत की मांग है कि हंसराज अहीर जी के उस बिल को वर्तमान सरकार, सरकारी बिल के रूप मे अपनाकर आवश्यक कानून बनाये।

ग्राफ के माध्यम से विषय अधिक स्पष्ट होगा। रेखा OB मूल्य निर्देशित करती है तथा रेखा OA वर्ष। CD वस्तुओं के उत्पादन मूल्य बताने वाली रेखा है। बिन्दु वाली रेखा EF कृषि वस्तुओं के विक्रय मूल्य को निर्देशित करती है, जो कभी उत्पादन मूल्य रेखा के ऊपर तो कभी उत्पादन मूल्य रेखा के नीचे, कुल मिलाकर उत्पादन मूल्य रेखा के इर्द गिर्द ही दिखाई देती है, जिसका अर्थ है कृषि उत्पादों की कीमत बाजार मे उनकी मांग व पूर्ति के आधार पर कभी उत्पादन मूल्य से कम व कभी अधिक रहती है, परन्तु यह कीमत उत्पादन मूल्य के आस पास ही रहती है । औद्योगिक उत्पादनों के विक्रय मूल्य की रेखा GH हमेशा उत्पादन मूल्य की रेखा से बहुत ऊपर लगभग लम्बवत रहती है। इसे बाजार मे MRP का सहारा भी प्राप्त है, जिसे बाजार मे इस तरह प्रचारित कर ग्राहकों को लूटा जाता है, मानो वह सरकार द्वारा निर्धारित वैधानिक मूल्य हो।


उत्पादन मूल्य घोषित करना अच्छे दिनों की आहट है। जिसका अर्थ है औद्योगिक उत्पादनों के विक्रय मूल्य को उत्पादन मूल्य आधारित बनाना। आज ग्राहकों से MRP के नाम पर अनाप शनाप कीमतें वसूल कर उन्हे लूटा जा रहा है। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत की मांग है कि MRP को रद्द कर उसके स्थान पर उत्पादन मूल्य लिखना अनिवार्य किया जाये, ताकि औद्योगिक उत्पादनों के दाम भी कृषि उत्पादों की तरह उत्पादन मूल्य के आसपास रहें। लाभ अर्जित करना उत्पादकों का अधिकार है, परन्तु लाभ उचित होना चाहिये, न कि ग्राहकों को लूटने वाला। वर्तमान बाजार मे MRP के नाम पर जबरदस्त आर्थिक भ्रष्टाचार चल रहा है। ग्राहकों को इससे राहत मिलेगी तो उसकी क्रय शक्ति बढेगी, वह अपने परिवार के लिये अधिक वस्तुयें खरीद पाने की स्थिति मे होगा। यदि ग्राहक बचत करता है तो भी यह पैसा सरकार द्वारा खुलवाये करोड़ों बैंक खातों मे जमा होकर देश के विकास मे योगदान देगा। अतः वर्तमान सरकार को चाहिये कि उत्पादन मूल्य बतायें, अच्छे दिन लायें।

Tuesday 21 July 2015

राहुल व कांग्रेस गांव प्रेम की नौटंकी कर रहे हैं

लोकसभा मे 44 सीटों पर सिमटने तथा अनेको राज्य सरकारें हाथ से निकल जाने के बाद कांग्रेस का गांव, गरीब, मजदूर और किसान प्रेम अचानक कुलांचे मारने लगा है। तभी तो राहुल कभी रेहड़ी वालों के बीच, कभी आटो वालों के बीच पँहुचकर उनके सबसे बडे हितैषी बनने की बात करते हैं, भूमि अधिग्रहण बिल पर ग्रहण लगाने के लिये किसानों के सबसे बडे मसीहा बनते हैं। गांव, किसानों की गरीबी, पिछडेपन का रोना रोते हैं। वर्तमान सरकार को सूटबूट व अदानी की सरकार बताते हैं। अफसोस है कि 67 वर्षों तक सत्ता से चिपके रहने के दौरान न तो उनके पुरखों, न ही उनको गांव व किसान की कभी याद आई। महात्मा गांधी के लाख समझाने के बाद भी नेहरू ने जिस दिन विकास के रूसी माडल अपनाया, देश मे गांव व किसानों की गरीबी व बदहाली की नींव तो उसी दिन रख दी गई थी।


भूमि अधिग्रहण बिल पर राहुल व कांग्रेस 67 सालों तक किसानों को लूटने के बाद आज जिस तरह छाती पीट रही है, उसका कच्चा चिट्ठा जॉन हापकिन्स विश्वविद्यालय के माइकल लेविन ने अपने शोध " From Punitive Accumulation to Regimes of Dispossession" भारत मे भूमिअधिग्रहण के 6 शोधपत्रों मे खोला है। मालूम हो कि 2013 क भूमिअधिग्रहण कानून कांग्रेस सरकार देश भर मे भूमिअधिग्रहण पर किसानों के भारी रोष प्रर्दशन और अदालत मे बढते मुकदमों के दबाव मे ही लाई थी। वरना् वह तो 1894 मे अंग्रेजों के बनाये कानून के आधार पर किसानो को लूटने मे मस्त थी। और तो और उसने 1984 मे इस कानून मे संशोधन कर निजी कम्पनियों के लिये भी भूमि अधिग्रहण करने की धारा जोड़ दी थी। इसी के तहत कांग्रेस सरकारों ने किसानों को जिस तरह नोचा, वही आक्रोश चारो ओर दिखाई दे रहा है।

गरीबों, किसानों का मसीहा होने का दम्भ कांग्रेस मुख्य रूप से जिन दो योजनाओं के आधार पर भरती है, वह हैं मनरेगा और सार्वजनिक वितरण प्रणाली, राहुल की सरकार मनरेगा पर 34000 करोड व सा.वि.प्र. पर 1,15,000 करोड रूपये वार्षिक खर्च किया करती थी। गरीबों, किसानों की इन दो योजनाओं पर कांग्रेस अक्सर अपनी पीठ थपथपाती है। परन्तु कांग्रेस कभी देश को यह नहीं बताती कि उन्होने सिर्फ 2006-07 से 2013-14 तक 9 वर्षों मे अपने शासन के दौरानअमीरों और उद्योगपतियों को 365 खरब या 36,50,000 करोड रूपयों की छूट दे डाली है अर्थात 107 सालों तक मनरेगा मे लगने वाली रकम 9 वर्षों मे अमीरों, उद्योगपतियों को दे डाली। इस रकम से सार्वजनिक वितरण प्रणाली को 32 वर्षों तक चलाया जा सकता था। यह कह सकते हैं कि राहुल की सरकार ने पिछले 9 वर्षों मे उद्योगपतियों को 7 करोड रूपये की प्रति घंटे या 168 करोड रूपये प्रतिदिन की छूट दी। सबब यह कि फिसल पडे तो हरिगंगा कहने वाली राहुल कांग्रेस का वास्तविक चेहरा यह है।है।                         



2006-07 से सरकार के बजट मे दिये इन आंकड़ों का और विश्लेषण करने से पहले यह बता दें कि अमीरों, उद्योगपतियों को यह छूट कार्पोरेट आयकर, उत्पादन शुल्क व आयात शुल्क पर दी जाती है। यदि उद्योगपतियों को दी जाने वाली विभिन्न छूटों को भी इसमे जोड दें तो यह आंकडा कहीं का कहीं पँहुच जायेगा। आपको आश्चर्य होगा 2013-14 मे उद्योगपतियों को 532 लाख करोड़ की छूट दी गई, जो 2012-13 मे सरकारी तेल कम्पनियों के कुल घाटे का चार गुना है, इस छूट मे 48,635 करोड की छूट हीरों, सोने जैसी वस्तुओं की खरीद पर दी गई है। साथ ही 76,116 करोड कार्पोरेट आयकर, 1,95,679 उत्पादन शुल्क व 2,60,714 करोड आयात शुल्क की माफी की गई है। 2005-06 से इस रकम को लगातार बढाया जा रहा है, 2005-06 की तुलना मे 2013-14 मे इस रकम की वृद्धि 132% है। 

हम देश के विकास मे उद्योगों के महत्व को समझते हैं, उद्योग विरोधी नही हैं, परन्तु बहुसंख्य आबादी के हितों की कीमत पर उद्योगों अमर्यादित छूट को उचित नहीं कहा जा सकता, जनगणना के अनुसार आज राहुल को देश की कुल आबादी के उसी 73 प्रतिशत हिस्से, गांवों मे रहने वाले किसान व खेतिहर मजदूरों की चिन्ता हो रही ह, जिन्हे लूटने मे उनकी सरकारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी । जिसके कारण देश मे 39,961 रू प्रतिव्यक्ति की आय की तुलना मे देश की 74.5 प्रतिशत की आय 5000 रू पर सिमट कर रह गई । वर्षों पहले कलावती के यहां एक रात रहकर आये राहुल इतने वर्षों तक गांव, किसान का दर्द नहीं समझ पाये। 

Thursday 16 July 2015

प्रकृति मे घुले कैमिकलों से माँ का दूध भी नहीं बचा शुद्ध

नेचुरल रिसोर्स डिफेन्स काउन्सिल (NRDC) के अनुसार अमेरिका मे लगभग 85000 मानव निर्मित (Man made) कैमिकल रजिस्टर्ड हैं। इन सभी कैमिकलों का उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में किया जाता है, अतः इनके अंश किसी न किसी रूप में प्रकृति के साथ मिश्रित हो रहे हैं। सभी को मानव जीवन के लिये खतरनाक कहना उचित नहीं होगा, परन्तु इनमे से बहुत से हमारे लिये कम या अधिक नुकसानदायक हैं, जो शरीर की प्रतिरोध क्षमता को प्रभावित करने के साथ विभिन्न गम्भीर रोगों का कारण बनते हैं। प्रकृति से विभिन्न माध्यमों द्वारा इनमे से अनेको कैमिकल हमारे शरीर मे पँहुच रहे हैं। मानव निर्मित कैमिकलों की इतनी अधिक संख्या पर अमेरिका मे भी न तो नियन्त्रण रखना संभव है, न ही उनका उपयुक्त, संरक्षित प्रयोग करना। यदि अन्य कैमिकलों को दुर्लक्षित भी कर दें तो विश्व मे सिर्फ खेती के लिए प्रतिवर्ष 190.4 मिलियन टन रासायनिक उर्वरक और 2.3 मिलियन टन कीटनाशक प्रकृति में मिलाये जा रहे हैं, जो हमारे शरीर मे जहर घोल कर हमारे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं।

NRDC के अनुसार कैमिकलों का अन्धाधुन्ध उपयोग वातावरण, पानी, हवा, मिट्टी, जानवरों, मछलियों व पृथ्वी पर उपलब्ध बनस्पतियों तथा जीवों को प्रदूषित कर रहा है। 1940-50 के दशक मे DDT के भारी उपयोग के कारण DDT के अंश प्रत्येक जगह बहुतायत मे पाये जाने लगे थे जिसके कारण विश्व मे काफी हो हल्ला मचा था, जिसके कारण विश्व के अनेक देशों ने ओरगेनोक्लोरीन कीटनाशकों के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाया था। आज मानव निर्मित कैमिकलों का असीमित उपयोग हमारे जीवन के लिये खतरा बन चुका है। हमारे शरीर मे हानिकारक कैमिकल हमारे भोजन व अन्यान्य माध्यमों से पँहुच कर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं। यहां तक कि गर्भ मे पलने वाले शिशु तथा माताओं द्वारा शिशुओं को पिलाया जाने वाला दूध भी इन कैमिकलों के प्रभावों से नहीं बचा है। विश्व के अनेक देशों मे किये परीक्षणों मे मां के दूध (Brest Milk) में भी कैमिकलों तथा कीटनाशकों का अंश मिला है। भारत मे भी राजस्थान विश्वविद्यालय तथा हरियाणा मे यह परीक्षण किये गये। जिनमे मां के दूध मे विभिन्न कीटनाशक, DDT, डाईआक्सीन्स PCB's (पालीक्लोरीनेटेड बाईफिनाइलस्) मिले, जो बच्चों मे कैन्सर की संभावनाओं को बढ़ाने के साथ मानसिक विकास को प्रभावित कर सकते है।




खाद्य पदार्थों मे हानिकारक कैमिकलों की उपस्थिति के विषय मे हमारे देश मे मैगी कांड के बाद थोड़ी चेतना अवश्य दिखाई दी, परन्तु यह चेतना ऊँट के मुँह मे जीरे से अधिक नहीं है। काफी शोर शराबे के बाद हमने बाजार मे बिकने वाले खाद्य पदार्थों के लिये मानक तो बना दिये। पर FSSI द्वारा निर्धारित इन मानकों पर नियन्त्रण रखने की न तो हममे इच्छा शक्ति है, न ही हमारी केन्द्र तथा राज्य सरकारों के पास इस कार्य के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचा है। प्राकृतिक प्रदूषण के कारण हमारे शरीर मे  प्रवेश करने वाले रासायनिक जहर पर नियन्त्रण तो दूर की बात है। टाईम्स आफ इन्डिया मे छपी एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले दिनों हैदराबाद मे चलने वाली कई रेस्टोरेन्ट श्रंखलाओं मे बिकने वाले पदार्थों की खाद्य विभाग ने जांच की तो पाया कि बिकन वाले खाद्यपदार्थ पदार्थ मानव उपयोग के योग्य ही नहीं हैं, बच्चों के लिये तो इनका उपयोग खतरनाक है। कई ब्रान्ड के दूध की जांच करने पर उनमे पैथोजन और ई कोली बैक्टीरिया पाया गया। सिर्फ हैदराबाद की बात नही है। देश के किसी भी छोटे बड़े शहर मे  इसी प्रकार की स्थितियां हैं। 

केन्द्रीय खाद्य प्रसंस्करण मन्त्री सिमरनजीत कौर इन हालातों मे बयान देती हैं कि खाद्य इन्सपेक्टर निर्माताओं को परेशान कर 'इन्सपेक्टर राज' लाने के प्रयास मे हैं। मन्त्री जी का बयान वास्तविकता से दूर ही नहीं हास्यास्पद भी हैं। खाद्य पदार्थों के उत्पादन से अधिक महत्वपूर्ण है, ग्राहकों के लिये उत्पादनों का सुरक्षित होना और फिर टाईम्स आफ इन्डिया की यही रिपोर्ट बताती है कि सरकारी विभागों मे इन्सपेक्टर राज लाने के लिए उचित संख्या मे फूड इन्सपेक्टर ही नहीं हैं। हैदराबाद मे मात्र 4 इन्सपेक्टर हैं, नई दिल्ली की स्थितियां भी अलग नहीं हैं। वहां सिर्फ 12 इन्सपेक्टर हैं। देशभर मे यही हालात हैं। इन हालातों मे मंत्री का बयान ग्राहकों के स्वास्थ से खिलवाड़ करने वाला है।
                                 

ग्राहकों के जीवन से सम्बन्धित यह लड़ाई  ग्राहकों को ही लड़नी पड़ेगी। यह लड़ाई दो मोर्चों पर लड़ी जानी है। बाजार मे बिकने वाले खाद्य पदार्थों मे FSSI के मानदण्डों का कड़ाई से अनुपालन। दूसरा प्रकृति से हमारे शरीर मे पँहुचने वाले हानिकारक कैमिकलों पर नियन्त्रण। विषय तथा क्षेत्र व्यापक है, पूरा विश्व ही इस समस्या से ग्रसित है अतः निराकरण के लिये सिर्फ सरकारों पर आश्रित रहने से काम नहीं चलेगा। सरकारों पर ग्राहकों को दबाव तो बनाना पड़ेगा, नहीं तो सरकारें उत्पादकों के दबाव में ग्राहक हितों से समझौता कर लेंगी, इन्ही समझौतों के कारण ही तो हमने हवा, पानी, मिट्टी, वनस्पति, पशु, जीवों में खतरनाक कैमिकलों का जहर घोला है। हमें जागरूक रहने के साथ अपने क्षेत्र के लोगों को भी जागरूक करना होगा, अपने खानपान की आदतें बदलनी होंगी, तथाकथित हाईजीन के नाम पर चमकीले आवरणों मे लिपटेसजे हुये खाद्य पदार्थों पर पारंपरिक पध्दति से उत्पादित उत्पादनों को प्राथमिकता देनी होगी। कुछ भी खाने से पहले हम क्या खा रहे हैं, कब खा रहे हैं, क्यों खा रहे हैं, कहाँ खा रहे हैं, जैसे प्रश्नों के उत्तर स्वयं से पूछने होंगे। प्रश्न हमारे जीवन का है, अतः सरकार से अधिक ग्राहकों को सजग रह कर पृथ्वी, जल व आकाश को क्रत्रिम रसायनों के जहर से मुक्त करने की आवश्यकता है। 

जनगणना मे गांव विकास से बहुत दूर!

विश्व मानचित्र पर तेजी से उभरती हुई 1.7 ट्रिलियन डालर की भारतीय अर्थव्यवस्था के बड़े बड़े दावों को कुछ दिन पहले घोषित जनगणना के आंकड़ों ने टांय टांय फिस्स् कर दिया। इन आंकड़ों के जारी होने के बाद देश मे जिस तरह की चर्चा प्रारम्भ होनी चाहिये थी, जो बहस छिड़नी चाहिये थी, नहीं छिड़ी। आंकड़ों ने स्पष्ट कर दिया 67 वर्षों तक हमारे नीति निर्धारक अपनी सामाजिक, भौगोलिक, प्राकृतिक एवं आर्थिक मर्यादाओं को भूलकर जिस पश्चमी विश्व की नकल करने मे व्यस्त थे उसने हमारी गावों मे रहने वाली 73.43 प्रतिशत जनसंख्या को विकास के हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया। इतने वर्षों तक हम भारत के अन्दर INDIA गढने मे लगे रहे। बहुत हद तक हम उसमे कामयाब भी हुए, परन्तु देश की बहुत बड़ी जनसंख्या ने उसके लिये बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। मै न तो "भारत की आत्मा गांवो में बसती है" जैसे वाक्यों का यहां उपयोग करना चाहूंगा, न ही भारत को अपने मन की आँखों से देखने वाले महात्मा गांधी, पंडित दीनदयाल उपध्याय की धारणाओं का सहारा लेना चाहूंगा। हां जनगणना की इस नवीन पध्दति के शिल्पकारों को धन्यवाद अवश्य कहना चाहूंगा, क्योंकि इससे देश की आर्थिक स्थिति का वास्तविक धरातल स्पष्ट हो गया। वरना् आज तक जनगणना हमें सिर्फ इतना बताती थी कि हम कितने करोड़ हो गये हैं।


जनगणना से स्पष्ट है कि गांवों मे रहने वाली देश की बहुसंख्य आबादी कल भी मुख्यधारा से अलग थलग थी ,आज भी अलग थलग ही है। उसके जीवनयापन के संसाधन कल भी अविकसित, अपर्याप्त थे, आज भी स्थितियां वही हैं। आंकड़ों का खेल भी अजीब है, गरीबी ,भुखमरी को ढक लेता है। शायद यही वजह है, गरीबी व गरीबों को बहलाने के लिए, हकीकत पर पर्दा डालने के लिये इसे खेला जा रहा है, देखिये - एक व्यक्ति ने 8 रोटी खाई, दूसरे ने 4 रोटी खाई, तीसरा भूखा रहा, उसे एक भी रोटी खाने को नहीं मिली। आंकड़ों के बाजीगर यही कहेंगे कि औसतन प्रतिव्यक्ति 4 रोटी खा रहा है, कहां है भूख, कहां है गरीबी। जनगणना स्पष्ट कर रही है कि गांव मे रहने वाली 74.5 प्रतिशत जनसंख्या की आय आज भी 5000 रूपये तक सीमित है, 10,000 रूपये आय तक पँहुचने वाली ग्रामीण जनसंख्या मात्र 8.3 प्रतिशत है। इन आंकड़ों की तुलना आप 2013-14 मे घोषित प्रतिव्यक्ति 39,961 रू आय से कर देखिये। विकास की गंगा किस दिशा मे बह रही है, समाज के अन्तिम छोर पर बैठा व्यक्ति आजादी के 67 वर्षों बाद भी किस जमीन पर खड़ा है, स्पष्ट हो जायेगा। गणना की प्रक्रिया थोड़ी कठिन अवश्य है परन्तु स्पष्ट है, नवीन जनगणना पद्धति की वजह से।

1950-51 में देश की GDP मे कृषि क्षेत्र की सहभागिता 51.9 प्रतिशत थी, जो आज घटकर मात्र 13.7 प्रतिशत रह गई है। तर्क दिया जा सकता है कि तब अर्थव्यवस्था उपेक्षित थी, GDP की विकास दर बमुश्किल 1 प्रतिशत हुआ करती थी, उद्योग थे ही नहीं, राष्ट्रीय उत्पादन एक मात्र कृषि पर निर्भर था, अतः GDP मे कृषि क्षेत्र की भागीदारी अधिक थी, जो औद्योगिक विकास के साथ धीरे धीरे कम होती चली गई। बात उचित लगे तो भी जनगणना के आंकड़ों से यह साफ हो रहा है कि कृषि पर आश्रित ग्रामीण भागों की घोर उपेक्षा की गई। मजदूरी पर आश्रित वहां रहने वाले 9.16 करोड़ परिवारों, 51.41 प्रतिशत जनसंख्या का इतने वर्षों तक विचार ही नहीं किया गया। सघन रोजगार वाले कृषी व उस पर आधारित छोटे छोटे उद्योगों के विकास व संरक्षण की घोर उपेक्षा की गई। यह जनगणना के आंकड़ों से स्पष्ट है। महत्मा गांधी व पंडित दीनदयाल उपध्याय जी का अर्थव्यवस्था में इन क्षेत्रों के समुचित प्रतिनिधित्व पर जोर था।

जनगणना का नवीन स्वरूप उन क्षेत्रों को चिन्हित करता है जिन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इन क्षेत्रों की उपेक्षा से न तो सबका साथ लिया जा सकता है, न ही सबका विकास किया जा सकता है। किसी भी सरकार के लिये यह चिन्ता का विषय होना चाहिये कि जिस क्षेत्र मे देश की आबादी का 73 प्रतिशत हिस्सा रहता है वहां के लोग (किसान) आत्महत्या कर रहे हैं। इस क्षेत्र के लोगों की आय कहीं अधिक होती, जीवनस्तर भी बेहतर होता यदि इन वर्षों में कृषि व उस पर आधारित छोटे उद्योगों पर समुचित ध्यान दिया गया होता। देश विकास का कौन सा रास्ता आगामी वर्षों मे अपनाये, स्मार्ट सिटी की राह मे आने वाले गांवों को विकास की किस डोर से उनके साथ जोड़ा जाये, जनगणना के आंकड़े कौन से क्षेत्रों को प्राथमिकता देने का इशारा कर रहे हैं, इन बातों पर देश में व्यापक चर्चा की आवश्यकता है।

Thursday 2 July 2015

खाद्य पदार्थ, ग्राहक और बीमारियां


लखनऊ मे एक डाक्टर परिवार मे जाना हुआ, जिसमे बहुसंख्य वयस्क सदस्य एलोपैथिक डाक्टर थे। मस्तिष्क मे कई दिनों से एक बड़े डाक्टर की सलाह घूम रही थी जिसमे उसने एक वर्ष से कुछ कम आयु के बच्चे को गाय का दूध नहीं देकर डब्बा बन्द दूध और शिशु खाद्य देने की सलाह हाईजीन को आधार बना कर दी थी। डाक्टर सामने थे, नजदीक के थे, अवसर भी था, उनसे समझना माकूल लगा, अतः प्रश्न किया। प्रश्न का उत्तर न देकर वह मुस्कराये और बताने लगे कि उनके परिवार मे खान पान की क्या व्यवस्थायें हैं। आधुनिकता और फैशन के लेबल मे ढके बहुसंख्य समाज से अलग उनका कहना था कि मै डाक्टर हूँ, जानता हूँ कि कौन से पदार्थ खाने से स्वास्थ सुरक्षित रहेगा, अतः अपने परिवार के स्वास्थ को सुरक्षित रखना मेरी प्राथमिकता है। मेरा प्रयास है कि रोजमर्रा के खानपान मे क्रत्रिम खाद्य पदार्थों से बचा जा सके। डाक्टर साहब सिर्फ आरगेनिक अर्थात बिना कैमिकल, खाद, कीटनाशक तथा प्रिजर्वेटिव वाले अनाज, सब्जियों व अन्य खाद्य पदार्थों का उपयोग परिवार मे करते थे।

                                                       कैसे बचें

पूरे विश्व के जानकार आर्गेनिक खाद्य पदार्थों के सेवन को प्राथमिकता दे रहे हैं। उससे उलट क्रत्रिम खाद्य पदार्थ (Readymade or Ready to make) हमारी दिनचर्या का अभिन्न अंग बनते जा रहे हैं। देश मे मैगी जैसा खुलासा भी हमे यह समझाने मे असमर्थ है कि हम जाने अनजाने कितनी गम्भीर बीमारियां पैदा करने वाले खाद्य पदार्थ खा चुके हैं, खाते जा रहे हैं, अपने परिवार को गम्भीर बीमारियों के मुंह मे झोंकने का खतरा मोल ले रहे हैं। तथ्य है कि कैमिकल खाद(Fertilizers) व कीटनाशक (Pesticides) की सहायता से उत्पादित खाद्यान्नों से निर्मित तमाम पैक व डब्बा बन्द खाद्य पदार्थों को बनाने में विभिन तरह के कैमिकलों तथा प्रिजर्वेटिव (Preservatives) का उपयोग किया जाता है, जो स्वास्थ के लिये खतरनाक तो हैं ही, परन्तु इनकी तय मानकों से एक ग्राम भी अधिक मात्रा दुनियाभर की गम्भीर बीमारियों को आमन्त्रण देती है। जिस देश मे धडल्ले से हार्मोन के इंजैक्शन देकर गली गली मे गाय - भैंसों से दूध निकाला जाता हो। प्रत्येक फल बाजार मे कार्बाइड व अन्य कैमिकलों से फल पकाये जाते हों, वहां न तो इन सभी खाद्य पदार्थों के लिये आवश्यक मानक निर्धारित हैं, न ही उनको जांचने परखने के लिये पर्याप्त प्रयोगशालायें व अन्य व्यवस्थायें। अत: सरकार पर आश्रित रहना बेमानी है, जो कुछ भी करना है हमें ही करना है, यह सोचने, करने की आवश्यकता है। 

हम कर क्या सकते हैं सोचने वालों को इतना जान, समझ लेना चाहिये कि यह भारत हैं, जहां की रसोई विश्व के किसी भी देश से कहीं अधिक उन्नत एवं विकसित है। इसी रसोई ने विश्व की अनेको बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को अरबों खरबों का व्यापार देने के साथ साथ दुनिया को स्वाद और स्वास्थ का सही अर्थ समझाया है। गलती सिर्फ इतनी हो गई कि हम थोड़ा रंगीन पैकिंगों, विज्ञापनों के चक्कर मे फँस गये और थोड़े आलसी बन गये, कच्चे पदार्थों से व्यंजन बनाने के काम को हम झंझट समझने लगे। बस यहीं से हम अपने परिवार के स्वास्थ के प्रति उदासीन होते चले गये। जहां होना यह चाहिये था कि विश्व हमारी विकसित रसोई से सीखता, उसे अपनाता। चतुर व्यापारियों ने भरपूर विज्ञापनबाजी से हमें बहका लिया, हाईजीन जैसे शब्दों का उपयोग कर हमारे स्वच्छ, बेहतर कच्चे माल से ताजे बने खाद्य पदार्थों को निकृष्ट बताने के साथ, अपना कैमिकल युक्त महीनों पुराना, बेहतर लाभ हेतु, हल्के दर्जे के कच्चे माल से बने खाद्य पदार्थों का हमें आदी बना दिया। प्रश्न है कि अपने परिवार के स्वास्थ व बीमारीमुक्त जीवन के लिये क्या हम थोड़ा वक्त नहीं दे सकते, थोड़ा परिश्रम नहीं कर सकते। प्रश्न है तो फिर इतनी व्यस्तता, इतनी भागदौड़, इतने संसाधनों का जखीरा किस लिये, किसके लिये। डाक्टर साहब ने इस प्रश्न का उत्तर पा लिया, आपको खोजना है।

                                       आ अब लौट चलें

यदि आरगैनिक खाद्य पदार्थों जिनमें विटामिन और आक्सीडेन्ट का स्तर अधिक होता है की उपलब्धता सम्भव नहीं, तो कम से कम इतना तो किया ही जा सकता है कि बाजार से तैयार आटा या खाद्य सामग्री न खरीदकर कच्चा माल खरीदें, घर मे उसकी सफाई-धुलाई कर खाद्य पदार्थ बनायें। अपनी रसोई को ही परिवार के उपयोग मे लिये जाने वाले विभिन्न खाद्यों का केन्द्र बनायें, जहां का प्रत्येक अवयव आपकी आंखों के सामने से गुजरेगा, जिसमें उसे महीनों तक ठीक व सुगन्धित रखने के लिये कैमिकलों का प्रयोग नहीं होगा, आपके परिवार को उन कैमिकलों से निजात मिलेगी जिनकी उपस्थिति अनावश्यक रूप से शरीर मे बीमारियों पैदा करती हैं। शिशुओं के लिये तो यह और भी जरूरी है, उनका आहार कुछ भुने हुये अनाजों का पाउडर, कुछ उबले हुये फल, सब्जियों, अनाजों का मिश्रण होता है। जिसे बनाने के तमाम तरीके हमारे देश के सभी क्षेत्रों मे प्रचुर मात्रा मे उपलब्ध हैं। 

आज आवश्यकता कैमिकलयुक्त खाद्य पदार्थों से छुटकारा पाने की है। इसलिये क्योंकि यह खाद्य आपको व आपके परिवार को गम्भीर बीमारियों की तरफ धकेल रहे हैं। आपसे सुखी व खुशीभरा परिवार छीननें को आतुर हैं।यह सब इसलिये किया जा रहा है ताकि वह आपसे धन छीनकर करोड़ों अरबों कमा सकें। अन्धाधुन्ध पैसा खर्चकर भी आपको क्या मिल रहा है यह सोचने की आवश्यकता है। विशेषकर हम जिस समाज मे रहते हैं, जहां की रसोई से निकलकर हजारों खाद्य पूरे विश्व मे गये हैं, जहां हर तरह के स्वाद और गुणवत्ता की भरमार है। बस थोड़ा सा श्रम, थोड़ा सा समय, अपने परिवार के लिये, अपनों के लिये, जिनको सुखी व रोगमुक्त जीवन देने की जिम्मेदारी आपकी है। बहुत कर ली पश्चिमी सभ्यता, आदतों व खान-पान की नकल़़.....   आ अब लौट चलें............

Tuesday 23 June 2015

गजब ढाने वाले हैं बिहार चुनाव

बिहार राज्य के आने वाले चुनाव अपने मे बहुत कुछ समेटे हुये हैं। देश, राजनीतिक पंड़ित और राजनीतिक दल अपने अपने ढंग की समीकरणों के आधार पर चाहे जो विश्लेषण करते दिखाई दे रहे हों, वास्तविकता मे उन्हे भी इन्तजार है कि देश मे आने वाले वर्षों मे राजनीति का ऊँट किस करवट बैठने वाला है यह बिहार चुनावों से 


वर्षों से साम्प्रदायिकता का ठप्पा लगाकर भाजपा को हाशिये पर लाने के प्रयास मे लगे तथाकथित अवसरवादी धर्मनिरपेक्ष दल 2014 चुनावों मे खुद हाशिये पर पँहुचकर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने को बेचैन हैं। अब तक देश में भाजपा को साम्प्रदायिक दल बता कर अलग थलग रखने की रणनीति असफल हो चुकी है। उन्हे लगा था कि अपनी चाल मे वह सफल हैं, परन्तु 2014 चुनावों ने न सिर्फ उनकी धारणा गलत सिद्ध की बल्कि उन्ही के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया। जाति, धर्म के आधार पर ध्रुवीक्रत हुये बिहार की धरती तय करने वाली है कि आने वाले समय मे धर्मनिरपेक्षता की चादर तार तार होने वाली है या फिर 2014 चुनावों मे भाजपा पर से हट चुका साम्प्रदायिक दल का लेबल फिर चिपकने वाला है। अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने वाले तमाम राजनीतिक दल इसी जोड़ तोड़ मे बेचैन हैं।


मोदी को हाशिये पर रखने की अपनी तमाम चालों के बावजूद मात खाये नीतीश, चारा घोटाला की सजा पाकर सक्रिय राजनीति से दूर फेंके गये लालू, सक्षम नेतृत्व के अभाव मे सिमटती जा रही कांग्रेस, अपनी बचीखुची सांसों को सहेजकर पूरे दमखम से मैदान मे उतरने वाले हैं। यही नहीं आगे अपने कुनबे के भविष्य से आशंकित मुलायम, चौटाला और देवगौड़ा भी हवा का रूख भांपकर इनके साथ आकर जमीन पर अपनी लाठियां पटक रहे हैं। लोहिया-जयप्रकाश के समाजवाद से छिटके समाजवादियों के लिये बिहार चुनाव उनके अस्तित्व की लड़ाई है। इन सब की ताकत है जाति, धर्म में बंटी बिहार की राजनीति, सभी दलों के अपने अपने वोट बैंक। दिल्ली चुनाव मे हुये वोटों के ध्रुवीकरण के नतीजों से इन्हे बल मिला है। इनका सोचना है कि वही नीति अपना कर यह भाजपा को मात दे सकते हैं।

भाजपा के लिये बिहार चुनाव उस राजसूय यज्ञ की तरह है, जो संकेत हो सकता है कि देश का मतदाता तथाकथित धर्मनिरपेक्षों की नीयत जान चुका है। क्रियाशीलता और बयानबाजी मे अन्तर करना मतदाता ने सीख लिया है।परन्तु भाजपा को चुनाव उपयुक्त रणनीति, शक्ति और शिद्दत से लड़ना होगा। भाजपा की शक्ति है बिहार से आने वाले उसके दर्जन भर कद्दावर नेता। पिछड़े अतिपिछड़े वोट बैंक पर पकड़ बनाने के लिये पासवान और मांझी का साथ। परन्तु बिहार चुनाव के लिये इतना पर्याप्त नहीं होगा। बिहार मे नेताओं की खेमेबाजी उसकी जीत मे पलीता लगा सकती है।

यह तय है, बिहार चुनाव न तो  2014 के लोकसभा चुनावों की पुनरावृत्ति होने वाला है, न ही पूर्व के राज्य चुनावों की तरह। इस बार बिल्कुल नये अन्दाज मे, नई समीकरणों के साथ, नई व्यूहरचना लिये दोनो पक्ष सामने हैं। विपक्ष जहां चिल्ला चिल्ला कर केन्द्र मे 1 साल पुरानी मोदी सरकार की विफलतायें गिना रहा है, ताकि वह बिहार की जमीन पर मोदी को घेर सके, वहीं 2014 चुनावों तक जद(यू) के साथ सत्ता मे रही भाजपा नीतीश सरकार के खिलाफ क्या बम फोड़ती है, देखना है। इन्ही बातों के चलते बिहार की राजनीति का पारा चढने लगा है, इस बार यह कहां तक चढ़ने वाला है देश जानने को उत्सुक है।

ही तय होने वाला हैं। पिछली विधान सभा मे विभिन्न दलों की स्थितियों के आधार पर इन चुनावों का विश्लेषण बेमानी है, क्योंकि इसबार सभी कुछ बदला हुआ है। राजनीति मे हमेशा 2 + 2 चार नहीं होते, अतः जद(यू) की 110 सीटों, राजद की 24 सीटों, भा ज प की 86 सीटों से बहुत अलग तस्वीर बनने वाली है।

Saturday 6 June 2015

राहुल के पैंतरों मे कितना दम

राहुल गांधी ने 58 दिनों की छुट्टी के बाद अपनी नई टीम के साथ जिस नये अन्दाज मे भा ज पा सरकार के विरूद्ध अभियान छेड़ा है। वह राहुल को जानने समझने वालों को चौकाने वाला है। अनेक वर्षों तक संसद मे मौन रहने वाला अचानक संसद और जनता के बीच इतना क्रियाशील कैसे हो गया। यह दीगर बात है कि वह जो मुद्दे उठा रहे हैं, जिस तरह उठा रहे हैंं। उनके सिपहसालार इन मुद्दों का जो फॉलो अप कर रहे हैं, उसका लाभ कांग्रेस को कितना मिलता है, परन्तु जो बात तय है वह यह कि शीघ्र ही राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया जाने वाला है। यद्यपि लोकसभा चुनावों मे अभी चार वर्ष का समय है, परन्तु इस बीच होने वाले विभिन्न राज्यों के चुनाव उनकी परीक्षा लेंगे।

 राहुल ने कांग्रेस की पुर्नस्थापना के लिये मोदी द्वारा किये प्रयोग को ही रणनीति बनाया है। मोदी ने जिस प्रकार गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुये, स्वयं को सोनिया के विरूद्ध सीधे मैदान मे उतार कर, दोनो के बीच प्रतिस्पर्धा पैदा कर दी। यू पी ए शासनकाल मे राज्य के मुख्यमंत्री के रूप मे केन्द्र की विभिन्न बैठकों मे भाग लेते समय, केन्द्र की योजनाओं और गुजरात की परियोजनाओं को तुलनात्मक स्वरूप मे देश के सामने रखना प्रारम्भ कर दिया, उसने ही शनः शनः मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने के साथ ही, सोनिया के प्रमुख प्रतिद्वन्दी रूप मे देश के सामने खड़ा कर दिया। राहुल कांग्रेस के मात्र 44 सांसदों के भरोसे स्वयं को मोदी के मुख्य प्रतिद्वन्दी के रूप मे स्थापित करने की रणनीति पर चल रहे हैं। इसीलिये वह मोदी को पानी पी पी कर कोसने का कोई अवसर नहीं छोड़ते, फिर चाहे महू मे बाबा साहब आंबेडकर के जन्म दिवस कार्यक्रमों को शुरू करने वाली सभा ही क्यों न हो।

राहुल की ताकत है कांग्रेस का विस्तृत नेटवर्क जो आज भी बिखरा नहीं है। साथ ही प्रत्येक कार्यकर्ता की गांधी परिवार मे आस्था, जो कांग्रेस की विभिन्न चुनावों मे इतनी बुरी स्थिति होते हुए भी हिली नहीं है। इन्ही के सहारे राहुल संसद मे और संसद के बाहर मोदी को घेरने का चक्रव्यूह रच रहे हैं। राहुल की रणनीति का मुख्य हिस्सा है मोदी सरकार को गरीब - किसान विरोधी साबित करना। मोदी सरकार के हर काम को रोकना। इसीलिये वह सूटबूट की सरकार, विदेशों मे घूमने वाले, बड़े उद्योजकों के हमदर्द जैसे वाक्य सभी जगहों पर उछाल रहे हैं। राहुल का यह प्रयोग आज बचकाना लग सकता है, परन्तु राहुल और कांग्रेस के नेता जिस प्रकार निरन्तर आक्रामकता बनाये हुये हैं, उसे देखकर लगता है कि यह मुहिम कभी भी गम्भीर रूख ले सकती है। राहुल की इन दलीलों पर भा ज पा क्या प्रतिक्रया देती है। जनता इसे किस रूप मे लेती है यह बाद की बात है, परन्तु यह सत्य है कि राहुल अपने मात्र 44 सांसदों के सहारे लोकसभा मे गतिरोध बनाने और अन्य विपक्षियों को भी सरकार के विरोध मे इकट्ठा रखने मे सफल रहे हैं। राज्य सभा मे सरकार का अल्पमत होना भी राहुल के लिये वरदान सिद्ध हो रहा है।
भा ज पा राज्यसभा मे अल्पमत होने के साथ साथ राष्ट्रीय स्तर से लेकर तालुका स्तर तक आंतरिक कलह भी जूझ है। मै साक्षी महाराज स्तर के नेताओं के बयानों को असंतोष की श्रेणी का नहीं मानता, परन्तु जोशी द्वय को गम्भीरता से लेने की आवश्यकता है। भा ज पा के रणनीतिकार इन बातों से अनजान नहीं हैं। दल की आन्तरिक व बाहरी चुनौतियों की बिसात पर गोटियां बिछाई जा रही हैं। राहुल के चक्रव्यूह के कमजोर द्वार हैं, राहुल मे राजनीतिक सूझबूझ की कमी, कांग्रेस का उन आरोपों से घिरा होना जिन्हे भाजपा पर थोप वह अपनी नैय्या पार लगाना चाहती है। लोग जानते समझते हैं कि 2G स्पैक्ट्रम और कोयला खदानें कांग्रेस सरकार गरीबों को लुटा रही थी या उद्योगपतिय़ों पर। यू पी ए शासन काल मे बैंक विजय माल्या पर क्यों मेहरबान हो रहे थे इत्यादि बहुत से प्रश्न हैं जिनके भूत राहुल को बहुत दूर तक दौड़ायेंगे और फिर मोदी की तुलना मे सोच, व्यक्तित्व, आत्मविश्वास और वाकपटुता मे राहुल दूर दूर तक नहीं बैठते।

Thursday 4 June 2015

कुछ खटकता है स्वच्छ भारत अभियान में

स्वच्छ भारत अभियान आजादी के बाद देश का सबसे उपयुक्त व महत्वपूर्ण अभियान है।पिछले अनेक वर्षों से देश के विभिन्न भागों मे जाने का अवसर मिला। पूर्व हो या पश्चिम, उत्तर हो या दक्षिण रेल बस से सफर करते समय शहर की सीमा का परिचय ही कचरे के ढेरों से होता है। आसपास यदि कोई नदी या नाला हो तो कहना ही क्या, पूरे शहर का कचरा एकत्र करने, गन्दगी बहाने का यह आर्दश स्थान होता है।

इससे पहले देश मे स्वच्छता या कचरे की समस्या पर ध्यान नही दिया गया, कहना गलत होगा। गाहे बगाहे स्थानीय स्तर पर अन्यमनस्क भाव से स्वच्छता अभियान छेड़े जाते रहे हैं। उनके परिणाम भी वैसे ही रहे जैसी गम्भीरता से उन्हे छेड़ा गया। सभी जानते समझते हैं स्वस्थ और प्रसन्न रहने के लिये सफाई से, सफाई मे रहना जरूरी है, परन्तु यह व्यवस्था घर की चारदीवारी समाप्त होते ही दम तोड़ देती है। घर की चारदीवार के बाहर जाते ही हमारी फैलाई गन्दगी सामाजिक और सरकारी समस्या के रूप मे देखी जाने लगती है।

इन सब बातों के चलते केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड के वर्ष 2009 के अध्यन के अनुसार देश मे लगभग 47मिलियन टन कचरा निकलता है अर्थात 1.3 लाख टन प्रतिदिन ।TERI के 2011 के आकलन के अनुसार इतना कचरा 2,20,000 फुटबाल मैदानों पर 9 मीटर मोटी परत जमा कर सकता है। यह तो सिर्फ ठोस कचरे की बात है। मात्र 498 प्रथम श्रेणी शहरों के सीवर 38 बिलियन लीटर Sewage प्रतिदिन उगलते हैं। जबकि देश मे सिर्फ 12 बिलियन लीटर Sewage को ही परिष्कृत करने की क्षमता है, शेष बचे 27 बिलियन लीटर के देश के नदी नालों का ही सहारा है। आप समझ लीजिये गंगा और दूसरी नदियों के शुद्धीकरण की हकीकत और देश मे पिछले 67 वर्षों से हुये प्रगति कार्यों के विषय में। इस महत्वपूर्ण विषय को यदि आज गम्भीरता से न लिया गया तो बडीं समस्या बनने में इसे समय नहीं लगने वाला।

                                                                      बड़ी रूकावट
सार्वजनिक स्थानो की सफाई कर देश को स्वच्छ करने का संकल्प लेना एक बात है, रोजमर्रा की जिन्दगी मे इसे उतारना दूसरी। जब हम किसी भी बात को अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी से जोड़ना चाहते हैं, तो अन्य अनेक व्यवहारिक कठिनाईयों से दो चार होना पड़ता है। यह कठिनाईयां लगातार हमारे संकल्प को कमजोर करने के साथ साथ व्यवहारिक पक्ष को निरूत्साहित करती हैं। अतः इस व्यवहारिक पक्ष की अड़चनो को दूर करना, इन अभियानों की प्राथमिकतायें होनी चाहिये।

घरों मे पैदा कचरे की सफाई से अधिक जरूरत इस बात की है कि यह कचरा घर से बाहर निकाले जाने पर, न तो सड़े, न फैलकर चारो तरफ गन्दगी फैलाये। सफाई अभियान मे कोई व्यक्तिगत रूप से जुड़कर सार्वजनिक स्थानो की सफाई करे भी तो अन्त मे उसके सामने एकत्र कचरे के निस्तारण की समस्या होती है। जिसे अन्ततः मजबूरी मे एक स्थान पर एकत्र कर छोड़ना पड़ता है। पुनः हवा व जानवरों द्वारा दूर तक फैलाये जाने के लिये। अतः कचरे के निस्तारण की व्यवस्था किये बिना सिर्फ सफाई समस्या का पूर्ण निराकरण नहीं ।

                                                                                   कचरा सहेजना
कचरा सहेजने की व्यवस्था किये बिना स्वच्छ भारत अभियान की गति नहीं। कचरा पैदा करने वाले सभी स्थानों पर ही उसे सहेजने की व्यवस्था आवश्यक है। कचरा पैदा होता है घर मे व व्यावसायिक स्थानों मे, इन्हे ही मुख्यरूप से कचरा सहेजने की जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी। वह भी कचरे की किस्म तथा प्रकार के आधार पर, कचरे को मोटे तौर पर दो भागों मे बांटा जा सकता है। १. Bio Degradable कचरा. २. Non Degradable कचरा। यह कचरा सूखा या गीला कैसा भी हो सकता है। बड़ी समस्या यह है कि दोनो प्रकार का कचरा मिला हुआ होता है। अतः घरों तथा व्यवसायिक स्थानों पर सफाई के बाद एकत्र दोनो प्रकार का कचरा छांट कर अलग अलग पॉलीथीन के बैगों मे भरा जाये। गीला कचरा बैगों मे न भरा जाये, पहले सुखाया जाये । कचरे के पॉलीथीन बैगों का मुंह टेप से अच्छी तरह बन्द करके घर/व्यवसायिक स्थानों से बाहर फेंका जाये। इस प्रकार फेंका कचरा न तो सार्वजनिक स्थानों को गन्दा करेगा न ही बदबू फैलायेगा और तो और इस प्रकार का बन्द कचरा एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने मे भी आसानी होगी। Bio Degradable कचरे का सीधा उपयोग ईंधन, कृषि व कच्चेमाल के रूप मे किया जा सकता है। Non Degradable कचरे को रिसायकिल कर पुनः प्रयोग मे लाया जा सकता है, इसमे अधिकतर पॉलीथीन व प्लास्टिक ही होता है।नगर पालिकायें इसका उपयोग कचरा एकत्र करने वाले पॉलीथीन बैग बनवाकर नागरिकों को मुफ्त या नाममात्र के शुल्क पर बँटवाने मे कर सकती हैं। प्रारम्भ मे यह बैग प्रायोजित भी करवाये जा सकते हैं, लोगों की आदत लगवाने के लिये।

नागरिकों मे जागरूकता लाने की आवश्यकता होगी, स्वच्छ भारत अभियान के लिये जो जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है, उसमे बस इतनी बात जोड़ने की आवश्यकता है कि कचरा सुखाकर, छांटकर, पॉलीथीन की थैली मे बन्द करके ही बाहर फेंका जाये। लोगों को स्वयं इसके लाभ दिखाई देंगे और वह उसे अपनाने लगेंगे।

                                                                         कचरा प्रबन्धन
कचरा प्रबन्धन अपने मे एक विस्तृत विषय है। कचरेे के उत्पन्न होने वाली स्थितियों से लेकर, उसे एकत्र करने, छांटने, परिवहन तथा उपयोग मे लाने तक इसका क्षेत्र है। 47 मिलियन टन कचरा एक बड़ी मात्रा है, जो अनेको शहरों के लिये समस्या बना हुआ है। विश्व मे इस क्षेत्र मे अनेको प्रयोग हुये हैं, जिनमे कृषि हेतु खाद, ईंधन, ऊर्जा के साथ ही अनेको उत्पादनों हेतु कच्चा माल प्राप्त किया जाता है। सरकार द्वारा एक बहुत ही उपयोगी कदम उठाया गया है। सिर्फ गन्दगी के कारण होने वाली बीमारियों के ईलाज पर ही देश का 8 लाख करोड़ रूपया प्रतिवर्ष खर्च हो जाता है। कृषि मे खाद के रूप में, ईंधन के रूप में , बिजली के रूप में, साथ ही कच्चे माल के रूप मे उपयोगिता अलग। निश्चित रूप से स्वच्छ भारत अभियान की योजना देश को सुन्दर बनाने के साथ अनेको रोजगारों को पैदा करने वाली है।

Tuesday 26 May 2015

भारतीय दर्शन के सामने घुटने टेकता पाश्चात्य विचार


आज पाश्चात्य विचार को श्रेष्ठ बताने और भारतीय विचार को बिना जाने समझे पुरोगामी बताने की होड़ चल पड़ी है। मुख्यतः इसलिये क्योंकि पाश्चात्य विचार मे इस वर्ग को इहलौकिक प्रगति और सुखप्राप्ति अधिक नजर आती है, वही इस वर्ग की धारणा यह है कि भारतीय विचार सिर्फ  परलौकिक सुख और समृद्धि की अधिक बात करता है जबकि वास्तविकता इससे भिन्न है।
                                    यतोअभ्युदयनिः श्रेयससिद्ध स धर्मः।

हमारी भौतिकता की व्याख्या धर्म का पूरा विचार करके चलती है। इस श्लोक का यही अर्थ है। 'जिससे इस जीवन और परलोक मे उन्नति प्राप्त हो वही धर्म है'। इसी क्रम मे महर्षि चाण्क्य ने कहा है -
                                     सुखस्य मूलम धर्मः। धर्मस्यमूलमर्थः।

अर्थात सुख धर्ममूलक है तो धर्म अर्थमूलक। अर्थ के बिना धर्म नहीं टिकता। अर्थ या जीवन से संबन्धित किसी भी विषय का चिन्तन करते समय भारतीय मनीषी एकांगी विचार न करते हुये सम्पूर्ण ब्रह्मांड का ध्यान कर तदनुरूप विचार करते थे। पंडत दीनदयाल जी के चिन्तन मे भी यही झलक है।

पंडित जी भारतीय परिवेश पर पड़ते और बढ़ते पश्चिमी विचार को उचित नहीं मानते थे। क्योंकि उन्नीसवीं सदी की औद्योगिक क्रान्ति की छाया मे पनपा पश्चिमी विचार जीवन को भी यन्त्रों की भांति खंड खंड कर देखने समझने का अभ्यस्त हो चला था। जीवन के किसी भी आयाम पर विचार करते समय वहां के चिन्तकों को यह भान नहीं रहता था कि उस आयाम के आसपास के परिवेश मे उससे इतर अन्यअनेक संरचनायें हैं, जो उस आयाम से सम्बद्ध प्रत्येक गतिविधि को प्रभावित करती है। अतः उस आयाम का सटीक विचार आसपास मौजूद संरचनाओं और उनके उस आयाम पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान मे रखे बिना नहीं किया जा सकता। अतः इन सभी घटकों को ध्यान मे रखकर ही आर्थिक विकास की संकल्पना, संरचना की जानी चाहिये। इस प्रकार किया गया विचार मानव को प्रगति पथ पर अग्रसरित करने के साथ साथ सम्पूर्ण विश्व एवं सृष्टि के लिये हितकारी तथा चिरंतन काल तक स्थायित्व वाला होगा।

भारतीय विचार के इस महत्व को अन्य अनेक पश्चिमी विचारक भी समझ चुके थे। पंडित जी, जे स्टु मिल का उद्धरण लिखते हैं - "संभवतः कोई भी व्यवहारिक प्रश्न ऐसा नहीं होता जिसका निर्णय आर्थिक सीमाओं के अन्दर ही दिया जा सके। अनेक आर्थिक प्रश्नों के महत्वपूर्ण राजनीतिक एवं नैतिक पहलू होते हैं जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।" दीनदयाल जी का स्पष्ट मत था, पश्चिमी अर्थशास्त्र अपने मे परिपूर्ण नहीं है।एक बिन्दु तक पँहुचते पँहुचते उसमें भटकाव आने लगता है। जीवन के प्रश्न सुलझाने की उसकी क्षमता चुकती दिखाई देती है। दीनदयाल जी पाश्चात्य अर्थशास्त्र की मान्यताओं के बारे मे एक स्थान पर लिखते हैं -

१. इसमे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था मुख्यतः वैयक्तिक है जिसका अलग से कोई सामाजिक पहलू नहीं है।
२. इसमे व्यक्तियों की निर्बाध और असीम प्रतिस्पर्धा ही सामाजिक जीवन की स्वाभाविक एवं सुरक्षापूर्ण नियामक है।
३. इसमे राजकीय एवं प्रथा द्वारा लागू नियमन सभी स्वाभाविक स्वतन्त्रता का अतिक्रमण करते हैं ।

समय के साथ पश्चिमी चिन्तकों विचारकों की दिशा बदली है। पश्चिमी विचारों के देश व समाज पर पड़ने वाले प्रभावों के अनुभवों से वह ऊब चुके हैं। आज पश्चिम के अनेको विचारक वहां की एकाकी खंडित सोच से अलग हटकर दीनदयाल जी के "एकात्म मानववाद" चिन्तन का परोक्ष समर्थन करते दिखाई दे रहे हैं। पश्चिमी अर्थशास्त्रियों को नवीन ढंग से सोचने के लिये प्रेरित करने वाले Nash Equilibrium के जनक जॉन नैस। दुर्भाग्य से 82 वर्षीय गणित के नोबल पुरस्कार विजेता जॉन की कुछ दिन पूर्व ही अमेरिका में एक सड़क हादसे मे मृत्यु हुई है। उनका विचार भी दीनदयाल जी से प्रभावित है जिसके अनुसार जब दो प्रतिस्पर्धी किसी एक विषय पर अलग अलग बैठकर विचार करते हैं तो उनके हित उनके विचारों का अतिक्रमण करते हैं, आवश्यकता अनुसार वह अपनी स्थितियाों मे भी परिवर्तिन करते हैं । नैस के अनुसार यह विचार सामाजिक व सामूहिक हितों के प्रतिकूल होते हैं, उन्हें नुकसान पँहुचाने वाले होते हैं । Nash Equilibrium के इस सिद्धान्त को एक उदाहरण के द्वारा आसानी से समझा जा सकता है।

पुलिस ने हत्या के सन्देह मे दो आरोपियों को पकड़ा। परिस्थितियां इस प्रकार की थी कि यदि दोनो आरोपी कबूल न करें तो दोनो को छोड़ना पड़े। दोनो कबूल कर लें तो दोनो को सजा मिले। दोनो को अलग अलग कोठरी मे बन्द कर दिया गया। अब यदि कोई एक आरोपी कबूल कर लेता है तो उसे गवाह माफी बनाकर दूसरे को सजा दी जा सकती है। दोनो अलग अलग बैठकर यह विचार करते हैं कि यदि दूसरे ने कबूल कर लिया तो वह बच जायेगा परन्तु मै फंस जाऊंगा। यदि मै कबूल करता हूं तो मेरे बचने के अवसर अधिक हैं। दोनो सिर्फ अपने हित के विषय मे सोचते हैं, दूसरे के नहीं। दोनो को ही दूसरों के हित से अपना हित ऊपर नजर आता है। अतः दोनो ही अपने आप को बचाने के लिये गुनाह कबूल कर लेते हैं और दोनो फंस जाते हैं। सामाजिक हितों के मामलों मे भी पूरे विश्व मे यही कुछ हो रहा है।

जान नैस का यह विचार भारतीय चिन्तन से प्रभावित है। परम पूज्यनीय गुरू जी ने न जाने कब कहा था - मै नहीं, तू ही। पंडित दीनदयाल जी ने सम्पूर्ण सृष्टि के साथ तादात्म स्थापित कर आगे बढ़ने को सुखी जीवन का आधार बताते हुये "एकात्म मानववाद दर्शन" विश्व के सामने रखा था।

Sunday 24 May 2015

'भूमि अधिग्रहण कानून' जो तमाशा बन गया ?

सड़क, बिजली, पानी, उद्योग, रेल, हवाई अड्डों, निर्यात जोन, बाँध और न जाने किन किन नामों से जिन्होने 67 वर्षों तक किसानों से कौड़ियों के मूल्य मे उनकी उपजाऊ जमीनें छीनी। जिन्होने किसान को बेरोजगार ही नहीं बल्कि भिखारी बना दिया। जिन नेताओं की कई पीढ़ियां इस भूमि अधिग्रहण के साये मे तर गईं, फटेहाल घूमने वाले अरबपति - खरबपति बन गये। दिल्ली, गुड़गांव, फरीदाबाद, नोयडा, ग्रोटर नोयडा, नवी मुंबई, लवासा ही नहीं देश के प्रत्येक भाग की अधिग्रहीत जमीनें जिस लूट की गवाह हैं। कुल मिलाकर यदि कहें तो भूमि अधिग्रहण की आड़ में 67 वर्षों तक कपड़े को भिगोकर इतना निचोड़ा गया कि अब वह एक भी ऐंठन बरदास्त करने की स्थिति में नहीं है, जरा सा घुमाते ही कपड़ा फटने लगता है।


सत्ता से दूर फेंके गये, हाशिये पर अपनी बिसात बिछाये बैठे राजनैतिक दल, जिन्होने अब तक इसी कानून के सहारे मौका मिलते ही अपनी गिद्ध चोंच से किसान को नोचने का कोई मौका नहीं चूका। विदेशी चन्दे पर मौज उड़ाने वाले NGO के वह नेता, जो यह सोचकर विदेशी धुन पर नाचने मे व्यस्त हैं कि उनकी तो मजे में कटी है, कट जायेगी। बस कुछ आन्दोलन चलाने, कुछ लोगों को भड़काने की विदेशी नौकरी ही तो करनी है। जिसके लिये विदेशी आका आवश्यकता से कहीं अधिक धन मुहैय्या करा रहे हैं। इन सभी श्रेणियों के लोग भूमि अधिग्रहण जैसे महत्वपूर्ण, उपयोगी और आवश्यक कानून को छाती पीट पीट कर तमाशा बनाने की सफल स्थिति में पँहुचते नजर आ रहे हैं।

हवाई घोड़े पर सवार वर्तमान सरकार भी इन परिस्थितियों को बनाने की कम दोषी नहीं है। 67 वर्षों बाद आज देश के जो हालात हैं, एक या दो वर्षों मे उसमे कोई खास अन्तर नहीं पड़ने वाला है। अतः आवश्यकता इस बात की थी कि पहले छोटी छोटी लोक लुभावन योजनायें बनाकर देश की जनता का विश्वास जीता जाये। दिल्ली मे सभी कुॉछ मुफ्त देने वाले वादों का असर नहीं देखा क्या ? एक बार 2014 के चुनावों मे छुटभैय्ये नेता के रूप मे तब्दील नेताओं की दुकानें ठप्प पड़ जाती, जन सामान्य का विश्वास पक्का हो जाता, फिर विकास के ऊबड़ खाबड़ रास्तों पर भी गाड़ी सरपट दौड़ाई जा सकती थी। आज नेताओं का यही वर्ग गरीबों, किसानों को भड़काने में कामयाब होता दिख रहा है। यह वर्ग इसलिये नहीं कामयाब हो रहा कि गरीब, किसान को इन नेताओं पर, इनके कथन पर विश्वास है। गरीब और किसान तो अपने विगत 67 वर्षों के अनुभव के आधार पर भड़क रहे हैं। जिसमे उन्हे हमेशा धोखा ही मिला है। सरकार के पास इस वर्ग को समझाने के लिये कुछ ठोस नहीं है, बयानबाजी के अतिरिक्त। सिर्फ बयानबाजी से यह वर्ग समझने, बहलने को तैयार नहीं है। क्योंकि इसी तरह समझाकर, मौखिक सान्त्वनायें, बयान दे देकर लगातार उसे लूटा गया। वह भी नेता थे, तुम भी नेता हो, बिना कुछ देखे अनुभव लिये तुम पर विश्वास कैसे कर लें।

बेशक नया भूमि अधिग्रहण कानून पुराने सभी कानूनों से कहीं अधिक अच्छा और किसानों के हितों का पोषक है। परन्तु दूध के जले को छाछ पीना है, फूंक फूंक कर ही पियेगा और फिर यह सिद्ध हो चुका है कि नेताओं के लिये देशहित राजनीतिक रोटियां सेंकने से बड़ा नहीं है। कानून की बात करें तो देश का कौन सा कानून है जिसकी चार लाईनें पढ़कर 36 अर्थ न निकाले जा सकते हों, इस कानून के विषय मे भी यही किया जा रहा है। सभी अपने लिये अनुकूल व्याख्या कर रहे हैं। आप चिल्लाते रहिये सही अर्थ वह नहीं, यह है। गरीब, किसान तो अपने अब तक के अनुभव की कसौटी पर घिस कर ही परखेगा। दुर्भाग्य से इतने वर्षों मे कसौटी इस तरह की बन चुकी है कि उस पर 99.9% शुद्ध सोना भी घिसकर देखा जाये तो पीतल ही बतायेगी।

अतः सभी को भेड़िया आया, भेड़िया आया चिल्लाने दें। गांव वालों को बार बार लाठी डंडे लेकर पहाड़ी पर दौड़ने दें। प्रयासरत रहें कि सभी बार बार भेड़िया आया चिल्लाने को मजबूर हों। यकीन रखें  वह दिन दूर नहीं जब गांव वाले इन चिल्लाने वालों पर ही बरस पड़ेंगे, विजय तुम्हारी ही है बस कुछ कदम दूर है।

Saturday 23 May 2015

बिल्डर से कैसे पायें अपनी फ्लैट बुकिंग का पैसा वापस ?

WRITTEN BY PUNE KARYKARTA VIJAY SAGAR JI
(पूना के कार्यकर्ता विजय सागर जी का लेख)


Dear Consumers,
Lot of complaints are coming to Akhil Bhartiya Grahak Panchayat for the reason of non refund of booking amount by the builder.
Pl go through the format (This is format and you have to prepare notice as per this and send it to builder and keep one copy with your self. Please not that We are not taking any legal responsibility you have to take your  own responsibility)
If any flat buyer wants his booking amount back due to his own wish or due to builders problem then following type of notice to be issued by flat buyer to the builder on his own
 ( without lawyer ). Type it and send by speed post or by register acknowledge.
   
                                     Format of  Notice
From
Name of flat buyer and his complete postal order
Date
To
Shri/Madam................
Propriter/Partner
M/s.....................
Address..............
Subject: Refund of booking amount and compensation
Dear Sir/Madam,
I have booked flat in your scheme ........... located at ............ having flat no........carpet/builtup/salabel area of ......... sqft/sq.m on .............
and the rate of flat was fixed to Rs.......... per sqft and total cinsideration was fixed as under
Flat cost :- Rs .........
Parking - Rs........
Society charges Rs ......
Legal charges Rs.......
Electricity charges Rs...
Infrastructure charges..
Club charges Rs .....
One time maintenance charges Rs ......
Other charges Rs .........
And I have paid total Rs................. As under :-
S.No.      Amount   Date             receipt no.
1.        500000    01/03/2013.      By cheque/cash
Total Rs...........
After payment you have made/not made MOU/Agreement for the said flat.
As per the virbal/writen  promises/advertise given by you the work was suppose to start by date......... and to be finished by date ........
Also as a per pre launch offer  you are suppose to start construction as per the sanctioned plan and layout by the Corporation/Collector /Town planning.
Or
you have not taken sanction of Corporation/Town planning for start of project. No plan and layout has been sanctioned by the competent authority.
Or
I am not interested to go ahead with the project for ................. reasons.
The construction has not been started or started but it is in uncompleted form since last ........ months.
Hence you are requested to refund my entire amount alongwith 18% intrest from the date of payment. Also you are liable to pay compensation of increased flat cost as i have to book flat with anither builder and the booking cost is Rs ....... per sqft I.e. increase of Rs ...... per sqft. Hence you are liable to pay me Rs........ As increased cost charges.
Hence within 15 days from receipt of this notice refund me amount as under
1. booking amount Rs..
2. 18% intrest amount on the above booking amount Rs.....
3. Escalated cost I.e. difference of flat cost Rs......... for ......... sqft as compensation
4. Refund of legal expenses Rs......
5. Mental harassment charges of Rs...........
6. Refund of cash amount paid for ........
Total Rs..............
If you fail to pay the above amount within 15 days then I will take appropriate legal action against you at your cost. Also I will file FIR as per IPC and as per MOFA  act against you
Thanking you
Yours faithfully
Name ........
SIGNATURE
Date
Copy to
The president Akhil Bhartiya Grahak Panchayat(Concerned city branch)

As per the advice given by you I am writing this notice and further you will guide me if required to take further steps.              

Thursday 21 May 2015

मैगी नूडल्स सवालों के घेरे में ?

समाचार पत्रों, न्यूज चैनलों तथा सोशल मीडिया पर कल से उत्तर प्रदेश के बाराबंकी शहर से मिले मैगी नूडल्स के पैकेट मे लैड(सीसा) तथा मोनो सोडियम ग्लूटामेट की अधिक मात्रा पाई गई है। मैगी का यह उत्पादन ग्राहकों के स्वास्थ को हानि पँहुचाने वाला है। अतः मार्च 2014 बैच के मैगी उत्पादन को बाजार से वापस बुलाने के आदेश सरकारी खाद्य विभाग द्वारा जारी कर दिये गये हैं। समाचार चौंकाने वाला है, परन्तु सिर्फ समाचार न होकर देश में ग्राहकों के स्वास्थ से खिलवाड करने वाले उत्पादकों तथा इस प्रकार के उत्पादनो से ग्राहकों को बचाने वाली सरकारी व्यवस्थाओं पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगाने वाला है। आश्चर्य इस बात का है कि अनुत्तरित इन महत्वपूर्ण प्रश्नों पर किसी का ध्यान नहीं है।

मार्च 2014 के मैगी बैच को बाजार से वापस लेने का आदेश देकर सरकारी अमला अपनी पीठ चाहे जितनी थपथपा ले, वह न तो इस घटना से उठे प्रश्नों के उत्तर देने से बच सकता है, न अपनी जिम्मेदारी से। सरकारी अमले को यह निर्णय लेने मे सवा वर्ष लग गया कि मैगी नूडल्स का इस बैच का उत्पाद ग्राहकों के लिये हानिकारक है। इतने समय में मैगी नूडल्स का यह बैच यात्रा करता हुआ उ.प्र. के छोटे से शहर बाराबंकी और न जाने देश के किन किन गांव-शहरों तक और किन किन ग्राहकों के पेट तक जा पँहुचा। आश्चर्य इस बात का भी है कि केन्द्रीय तथा अन्य राज्यों की व्यवस्थायें सोती रही, इसे पकड न सकी।सवा वर्ष बाद इस लाट की कितनी मात्रा बाजार मे शेष होगी। और फिर बाजार से यह मैगी वापस उत्पादक तक पँहुचे और नष्ट की जाये इसकी क्या व्यवस्था सरकार के पास है। क्योंकि बहुत से मामलों मे देखा गया है कि माल फैक्ट्री जाकर नये पैक मे वापस चला आता है। ग्राहक को अपने हितों की देखभाल की गारन्टी चाहिये। महत्वपूर्ण यह भी है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारत जैसे देश में ही इस तरह की गलतियां क्यों करती हैं। उनके सुरक्छा मानक कमजोर हैं या परीक्छण विधियां उपयुक्त नहीं हैं।

सबसे अधिक चिन्ता की बात यह है कि बाजार मे कौन से उत्पादन ग्राहकों के स्वास्थ से खिलवाड करने वाले हैं यह जानने समझने मे एक वर्ष से अधिक का समय लग जाता है। देश मे खाद्य पदार्थों की जांच करने वाली 4 सेन्ट्रल सरकारी प्रयोगशालायें हैं। साथ ही NABL से मान्यता प्राप्त तथा FSSAI से अधिकृत 72 निजी प्रयोगशालायें कार्यरत हैं। जिनमें खाद्य पदार्थों की जांच की जा सकती है, फिर निष्कर्ष तक पँहुचने में इतना समय कैसे लग जाता है। ग्राहकों के स्वास्थ से खिलवाड करने वाली इस देरी के लिये कौन जिम्मेदार है।

नैस्ले कम्पनी ने सरकार के इस निर्णय को विवादित बताने के साथ ही बचने की तरकीबें ढूंढनी शुरू कर दी है, उसका कहना कि वह उत्पाद मे मोनो सोडियम ग्लूटामेट प्रयोग नहीं करता, यह उत्पादन मे प्रयुक्त अन्य पदार्थों के विघटन से आ सकता है, हास्यास्पद बहाना है। जो यह सिद्ध करता है कि कम्पनी देश क़े ग्राहकों के स्वास्थ को गम्भीरता से नहीं लेती। खाद्य पदार्थों के मामले मे जितना महत्वपूर्ण यह है कि उसमें कौन कौन से घटक हैं, उतना ही महत्वपूर्ण यह है कि उन घटकों के संयोजन से कोई नवीन इस तरह का घटक तो उत्पन्न नहीं होता जो खाने वाले के लिये खतरनाक हो। विवाद के क्रम मे यह न हो कि दूषित मैगी बाजार मे बिकती रहे, ग्राहक बीमार होता रहे। कम्पनी को तुरन्त बाजार से उत्पाद हटाना चाहियेहै। कडे सार्वजनिक करने चाहिये कि कथित बैच के उत्पादन की मात्रा कितनी थी, कितना उत्पाद वापस आया, कितना ग्राहकों के पेट मे गया।

ग्राहक मन्त्रालय के लिये यह टैस्ट केस है, मन्त्रालय एक कमेटी गठित कर जांच कराये कि मैगी की जांच मे सवा वर्ष कैसे लग गया। खाद्य पदार्थों की जांच के रिजल्ट एक सप्ताह मे मिलने के लिये किस तरह के कौन से कदम उठाने की आवश्यकता है। कमेटी यह भी अध्यन कर सुझाव दे कि खाद्य पदार्थ निर्माता कम्पनियां उत्पाद बाजार मे भेजने के पूर्व कौन कौन से मानक किस तरह सुनिश्चित करें। बाजार मे इस तरह के उत्पाद चिन्हित होने की दशा मे इन उत्पादनो को बाजार से किस तरह की प्रक्रिया अपना कर हटाया जाये तथा नष्ट किया जाये। दूषित मैगी के मामले में जब तक यह तथ्य निकलकर जब तक सामने नहीं आते, कोई अर्थ नहीं। सरकार न तो सीखना ही चाहती है, न ही उसे 125 करोड़ ग्राहकों के स्वास्थ की कोई चिन्ता है। यदि सरकार ग्राहकों के हित मे कार्यरत है तो उसे तुरन्त यह कदम उठाने चाहिये।

Wednesday 20 May 2015

रोकी जा सकती थी डीजल - पैट्रोल की मूल्यवृध्दि

पैट्रोल डीजल की कीमतें मंहगाई मे विशेष भूमिका अदा करती हैं।सरकार द्वारा विगत दिनो बढाई गई पैट्रोल डीजल की कीमतों को मंहगाई की नवीन किश्त माना जा सकता है।यह तर्क कितना तर्कसंगत है कि अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की मूल्यवृध्दि देखते हुए यह कदम उठाना अनिवार्य हो गया था।सरकार सर्मथकों की यह युक्ति भी समझ से परे है कि लगातार एक वर्ष तक पैट्रोल डीजल की कीमतें कम करने के बाद यदि अर्न्तराष्ट्रीय कीमतों के दबाव मे कुछ मूल्यवृध्दि की जाती है तो इस पर चिल्ल पों मचाना गलत है।

महत्वपूर्ण है कि एक वर्ष के शासन के बाद सरकार देश में अपनी उपलब्धियां गिनाने के लिये भारत पर्व मनाने में जुटी है।इस अवसर पर क्या इस अप्रिय घटनाक्रम से बचा जा सकता था। वैसे भी ग्राहकों ने पैट्रोल डीजल के नाम पर सरकारी खजाने मे बहुत अतिरिक्त पैसा जमा किया है।पिछले एक वर्ष के कच्चे तेल के अर्न्तराष्ट्रीय बाजार और उस पर आधारित देश मे होने वाली उठापटक का यदि विश्लेषण करें तो यह बात सामने आती है कि सभी को मालूम था कि कच्चे तेल की कीमतें न तो स्थिर रहने वाली हैं, न ही सदैव नीचे खिसकने वाली हैं। अतः आगे की योजना बनाते समय पिछले एक वर्ष और वर्तमान घटनाक्रम का विश्लेषण करते हुये ही भविष्य की योजना बनानी चाहिये ।

वर्ष 2014 में कच्चे तेल की अर्न्तराष्ट्रीय कीमतें 107 डालर प्रति बैरल से लुढक कर 45 डालर प्रति बैरल आने के पीछे तेल उत्पादक देशों के घरेलू हालातों के साथ साथ अमेरिका द्वारा तेल उत्पादन में आत्मनिर्भर होने के लिये उठाये जाने वाले कदम थे।अमेरिका द्वारा तेल उत्पादन का निर्णय लेने के बाद एक तरफ जहां अरब के देशों ने अपना उत्पादन इसलिये बढा दिया क्योंकि उनकी उत्पादन लागत अमेरिकी लागत लगभग 70 डालर प्रति बैरल से काफी कम थी। परन्तु अमेरिका लगा रहा उसने अपना उत्पादन बन्द नहीं किया। दूसरी तरफ ईरान अमेरिकी तथा यूरोपीय समुदाय द्वारा प्रतिबन्ध लगाये जाने के बाद भी अपना उत्पादन पूर्ववत करता रहा।नतीजतन मांग और पूर्ति मे लम्बा अन्तराल आता चला गय, कच्चे तेल की कीमतें गिरती चली गई।

यदि आने वाले समय पर नजर डालें तो एक तरफ ईरान परमाणु निरस्त्रीकरण के समझौते पर दस्तखत कर चुका है, आने वाले कुछ माह मे ही यह लागू भी होगा, जिसके कारण उस पर लगे सभी प्रतिबन्ध हटने वाले हैं। अब तक तेल का उत्पादन कर उसने जो भण्डार बनाये हैं वह सभी बाजार मे आयेंगे। ओपेक देशों का समूह कमजोर हो चुका है, पहले यह जो तेल उत्पादन नियंत्रित कर बाजार भाव निर्धारित करने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था, आज वह समाप्त हो चुकी है, सऊदी अरब लगातार अपना उत्पादन बढा रहा है, फ्रेकिंग की तमाम आशंकाओं और अधिक लागत को पीछे छोड अमेरिका आगे निकल चुका है। रही बात यूक्रेन पर हमले के बाद रूस को प्रतिबन्धित करने की, आर्थिक रूप से कमजोर पडा रूस भी यूक्रेन पर हमले की उन स्थितियों से बाहर निकलता जा रहा है ।उधर चीन भी लगातार तेल उत्पादन बढाता जा रहा है। इन परिस्थितियों में निकट भविष्य मे कच्चे तेल की कीमतें 60 - 70 डालर के बीच ही रहने का अनुमान है। देश की सरकार के लिये आर्थिक उन्नति के रास्ते पर तेजी से बढने और मंहगाई नियन्त्रित रखने के लिये परिस्थितियां सर्वथा अनुकूल हैं।

ग्राहकों के लिये ध्यान रखने की बात यह है कि डीजल-पैट्रोल की कीमतें कच्चे तेल के भावों से तो प्रभावित होती हैं, साथ ही डालर/रूपये की विनिमय दर भी उसे प्रभावित करती है।सरकार द्वारा पैट्रोल/डीजल की कीमत बढाने के पीछे यही तर्क दिये जा रहे हैं, कच्चे तेल के दामों का 50 डालर प्रति बैरल से ऊपर जाना और रूपये की तुलना में डालर का मजबूत होना।परन्तु सरकार बडी आसानी से यह भूल गई कि उसने 2015 के बजट मे पैट्रोल/डीजल पर लगने वाले उत्पादन शुल्क को 6 रू कर दिया था। दरअसल सरकार के हाथ सोने का अण्डा देने वाली यह मुर्गी लगी है, जिसे वह सहेजना चाहती है। इसी के कारण तो सरकार अप्रैल 2014 मे 8665 करोड की तुलना में अप्रैल 2015 में 18373 करोड एक्साईज ड्यूटी वसूल कर सकी है। विशेष बात यह कि इसका 26% हिस्सा पैट्रोल/डीजल से आया है। इन सब बातों से लगता है कि देश भर मे अपनी उपलब्धियां गिनाने के भारत पर्व अवसर पर सरकार को देश के ग्राहकों को मंहगाई का यह ईन्जेक्शन देने से बचना चाहिये था।