Tuesday 26 May 2015

भारतीय दर्शन के सामने घुटने टेकता पाश्चात्य विचार


आज पाश्चात्य विचार को श्रेष्ठ बताने और भारतीय विचार को बिना जाने समझे पुरोगामी बताने की होड़ चल पड़ी है। मुख्यतः इसलिये क्योंकि पाश्चात्य विचार मे इस वर्ग को इहलौकिक प्रगति और सुखप्राप्ति अधिक नजर आती है, वही इस वर्ग की धारणा यह है कि भारतीय विचार सिर्फ  परलौकिक सुख और समृद्धि की अधिक बात करता है जबकि वास्तविकता इससे भिन्न है।
                                    यतोअभ्युदयनिः श्रेयससिद्ध स धर्मः।

हमारी भौतिकता की व्याख्या धर्म का पूरा विचार करके चलती है। इस श्लोक का यही अर्थ है। 'जिससे इस जीवन और परलोक मे उन्नति प्राप्त हो वही धर्म है'। इसी क्रम मे महर्षि चाण्क्य ने कहा है -
                                     सुखस्य मूलम धर्मः। धर्मस्यमूलमर्थः।

अर्थात सुख धर्ममूलक है तो धर्म अर्थमूलक। अर्थ के बिना धर्म नहीं टिकता। अर्थ या जीवन से संबन्धित किसी भी विषय का चिन्तन करते समय भारतीय मनीषी एकांगी विचार न करते हुये सम्पूर्ण ब्रह्मांड का ध्यान कर तदनुरूप विचार करते थे। पंडत दीनदयाल जी के चिन्तन मे भी यही झलक है।

पंडित जी भारतीय परिवेश पर पड़ते और बढ़ते पश्चिमी विचार को उचित नहीं मानते थे। क्योंकि उन्नीसवीं सदी की औद्योगिक क्रान्ति की छाया मे पनपा पश्चिमी विचार जीवन को भी यन्त्रों की भांति खंड खंड कर देखने समझने का अभ्यस्त हो चला था। जीवन के किसी भी आयाम पर विचार करते समय वहां के चिन्तकों को यह भान नहीं रहता था कि उस आयाम के आसपास के परिवेश मे उससे इतर अन्यअनेक संरचनायें हैं, जो उस आयाम से सम्बद्ध प्रत्येक गतिविधि को प्रभावित करती है। अतः उस आयाम का सटीक विचार आसपास मौजूद संरचनाओं और उनके उस आयाम पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान मे रखे बिना नहीं किया जा सकता। अतः इन सभी घटकों को ध्यान मे रखकर ही आर्थिक विकास की संकल्पना, संरचना की जानी चाहिये। इस प्रकार किया गया विचार मानव को प्रगति पथ पर अग्रसरित करने के साथ साथ सम्पूर्ण विश्व एवं सृष्टि के लिये हितकारी तथा चिरंतन काल तक स्थायित्व वाला होगा।

भारतीय विचार के इस महत्व को अन्य अनेक पश्चिमी विचारक भी समझ चुके थे। पंडित जी, जे स्टु मिल का उद्धरण लिखते हैं - "संभवतः कोई भी व्यवहारिक प्रश्न ऐसा नहीं होता जिसका निर्णय आर्थिक सीमाओं के अन्दर ही दिया जा सके। अनेक आर्थिक प्रश्नों के महत्वपूर्ण राजनीतिक एवं नैतिक पहलू होते हैं जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।" दीनदयाल जी का स्पष्ट मत था, पश्चिमी अर्थशास्त्र अपने मे परिपूर्ण नहीं है।एक बिन्दु तक पँहुचते पँहुचते उसमें भटकाव आने लगता है। जीवन के प्रश्न सुलझाने की उसकी क्षमता चुकती दिखाई देती है। दीनदयाल जी पाश्चात्य अर्थशास्त्र की मान्यताओं के बारे मे एक स्थान पर लिखते हैं -

१. इसमे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था मुख्यतः वैयक्तिक है जिसका अलग से कोई सामाजिक पहलू नहीं है।
२. इसमे व्यक्तियों की निर्बाध और असीम प्रतिस्पर्धा ही सामाजिक जीवन की स्वाभाविक एवं सुरक्षापूर्ण नियामक है।
३. इसमे राजकीय एवं प्रथा द्वारा लागू नियमन सभी स्वाभाविक स्वतन्त्रता का अतिक्रमण करते हैं ।

समय के साथ पश्चिमी चिन्तकों विचारकों की दिशा बदली है। पश्चिमी विचारों के देश व समाज पर पड़ने वाले प्रभावों के अनुभवों से वह ऊब चुके हैं। आज पश्चिम के अनेको विचारक वहां की एकाकी खंडित सोच से अलग हटकर दीनदयाल जी के "एकात्म मानववाद" चिन्तन का परोक्ष समर्थन करते दिखाई दे रहे हैं। पश्चिमी अर्थशास्त्रियों को नवीन ढंग से सोचने के लिये प्रेरित करने वाले Nash Equilibrium के जनक जॉन नैस। दुर्भाग्य से 82 वर्षीय गणित के नोबल पुरस्कार विजेता जॉन की कुछ दिन पूर्व ही अमेरिका में एक सड़क हादसे मे मृत्यु हुई है। उनका विचार भी दीनदयाल जी से प्रभावित है जिसके अनुसार जब दो प्रतिस्पर्धी किसी एक विषय पर अलग अलग बैठकर विचार करते हैं तो उनके हित उनके विचारों का अतिक्रमण करते हैं, आवश्यकता अनुसार वह अपनी स्थितियाों मे भी परिवर्तिन करते हैं । नैस के अनुसार यह विचार सामाजिक व सामूहिक हितों के प्रतिकूल होते हैं, उन्हें नुकसान पँहुचाने वाले होते हैं । Nash Equilibrium के इस सिद्धान्त को एक उदाहरण के द्वारा आसानी से समझा जा सकता है।

पुलिस ने हत्या के सन्देह मे दो आरोपियों को पकड़ा। परिस्थितियां इस प्रकार की थी कि यदि दोनो आरोपी कबूल न करें तो दोनो को छोड़ना पड़े। दोनो कबूल कर लें तो दोनो को सजा मिले। दोनो को अलग अलग कोठरी मे बन्द कर दिया गया। अब यदि कोई एक आरोपी कबूल कर लेता है तो उसे गवाह माफी बनाकर दूसरे को सजा दी जा सकती है। दोनो अलग अलग बैठकर यह विचार करते हैं कि यदि दूसरे ने कबूल कर लिया तो वह बच जायेगा परन्तु मै फंस जाऊंगा। यदि मै कबूल करता हूं तो मेरे बचने के अवसर अधिक हैं। दोनो सिर्फ अपने हित के विषय मे सोचते हैं, दूसरे के नहीं। दोनो को ही दूसरों के हित से अपना हित ऊपर नजर आता है। अतः दोनो ही अपने आप को बचाने के लिये गुनाह कबूल कर लेते हैं और दोनो फंस जाते हैं। सामाजिक हितों के मामलों मे भी पूरे विश्व मे यही कुछ हो रहा है।

जान नैस का यह विचार भारतीय चिन्तन से प्रभावित है। परम पूज्यनीय गुरू जी ने न जाने कब कहा था - मै नहीं, तू ही। पंडित दीनदयाल जी ने सम्पूर्ण सृष्टि के साथ तादात्म स्थापित कर आगे बढ़ने को सुखी जीवन का आधार बताते हुये "एकात्म मानववाद दर्शन" विश्व के सामने रखा था।

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