Friday 11 November 2016

आम आदमी को रूला दिया सरकार ने।

सरकार का 500-1000₹ के नोट बन्द करने का निर्णय कितना भी देश हित में हो, इसने आम आदमी को रूला दिया है। आम आदमी को रूलाने का पूरा श्रेय उन लोगों को जाता है, जिन पर इस योजना के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी थी। आने वाले दिनों में आम आदमी की परेशानियां बढ़ने की पूरी सम्भावना है।

500-1000₹ के पुराने नोट बन्द करने के बाद सरकार ने पुराने नोटों को बदलने की व्यवस्था तो की, परन्तु नकद व्यवहार में 86% अधिकार जमा चुके 500-1000₹ के नोटों के चलन के समय ही 100-50₹ के नोट रोजमर्रा के नकद व्यवहार को सम्भाल नहीं पा रहे थे। ऐसे में 500-1000₹ के नोट बन्द कर पूरी नकद अर्थव्यवस्था का भार 50-100₹ के नोटों पर डाल दो चार दिन में हालत सामान्य करने की सलाह किस विद्वान के दिमाग की उपज है, बात समझ से परे है। 

इन स्थितियों में जहां होना यह चाहिये था कि 500 व 2000₹ के नये नोट एक साथ बाजार में उतारे जाते, सिर्फ 2000₹ का नोट बाजार में उतार कर सरकारने जन सामान्य से बहुत मंहगा मजाक किया है। आज ग्राहक 2000₹ का नया नोट हाथ में लेकर बाजार में अपनी 50-100 रूपये की जरूरतें पूरी करने के लिये धक्के खाने को बाध्य है। पहले. 1000₹ के नोट के ही 100₹ के फुटकर मिलने में परेशानी होती थी। अब 2000₹ के नोट के छुट्टे पाने के लिये ग्राहक हलाकान हो रहा है। सरकार के पास यदि 500₹ के नोट की तैयारी नहीं थी तो निर्णय लागू करने के लिये थोड़ा रूका जा सकता था।

शीघ्र से शीघ्र हालात सामान्य करने के लिये सरकार पर्याप्त संख्या में 500₹ के नये नोट जारी कर, उनका उचित अनुपात में बैंको द्वारा वितरण कराये। बैंको को 100₹ के नोट भी बड़ी संख्या में वितरण के लिये दे।

500 - 1000 के पुराने नोट बन्द, कैशलैस इकनामी की तरफ कदम

500-1000₹ के पुराने नोट बन्द होते ही, एक बात जोर शोर से प्रचारित हुई। सरकार बड़े नोटों का अर्थव्यवस्था में प्रचलन बन्द कर छोटे नोटों को ही अब रखेगी। धीरे धीरे स्पष्ट हुआ कि सरकार पुराने 500-1000₹ के नोट तो रद्द कर रही है, पर साथ में 500-2000₹ के नोट अभी तथा 1000₹ का नोट बाद में ला रही है। इसके कारण अपने रोजमर्रा के खर्चों से जूझते लोगों के बीच भ्रम फैला, जब 500-1000₹ के नोट बन्द ही नहीं हो रहे हैं, फिर यह उपक्रम क्यों ? इससे नोट बन्दी के कारण कोमा में गये विपक्षी नेताओं को आक्सीजन मिली। उन्होने लोगों के भ्रम का फायदा उठाते हुये, जनता की परेशानियों का हवाला देते हुये, जनता के कन्धे पर बन्दूक रख मोदी पर गोले दागने शुरू कर दिये। भ्रम में होने के बावजूद जनता को समझ नहीं आ रहा था, पर अहसास हो रहा था कि उसके लिये कुछ अच्छा हुआ है। नेताओं के एक स्वर में विलाप से वह समझ गया कि गहरी चोट कहां लगी है। उसने कहना शुरू कर दिया कि तकलीफ हम झेल लेंगे, कदम अच्छा है।

अर्थव्यवस्था में सिर्फ छोटे नोट रखने की बात करने वाले, पहले यह समझ लें 13,069 बिलियन रूपयों वाली अर्थव्यवस्था का आकार बहुत बड़ा है, इसमें 86% मूल्य के 500-1000₹ के नोटों का चलन इस  बात का स्पष्ट संकेत है कि बड़े नोटों के बिना यह नहीं चलने वाली। उस पर भी इसमें प्रतिवर्ष 17% के नकली नोट बढ़ते जा रहे हैं। इसमें से बैंको के पास सिर्फ 620 बिलियन रूपयों की ही मुद्रा है। बाकी बची 12449 बिलियन रूपयों की मुद्रा कुछ चलन में है, बाकी लोगों की तिजोरी, गद्दों में दबी पड़ी है। जिसे बाहर निकालने का एक ही रास्ता था, उसका अन्तिम संस्कार कर दिया जाये, जो मोदी ने कर दिया। इतनी बड़ी नकद अर्थव्यवस्था का सुचारू संचालन बड़े नोटों के बिना सम्भव ही नहीं है। इसी कारण 500, 2000 और आगे 1000₹ का नोट सरकार को लाना पड़ रहा है। अब पुराने 500-1000₹ के नोट बन्द करने से इस विशालकाय नकद अर्थव्यवस्था के आकार में बड़ी कटौती करना सरकार के लिये सम्भव होगा। क्योंकि पुराने 500-1000₹ के नोटों को बैंकों के फिल्टर से निकालने की प्रक्रिया में इन नोटों का बहुत बड़ा हिस्सा बाहर होने वाला है। राजनेताओं की चिल्ल पों का यही मुख्य कारण है। एक अनुमान के अनुसार यदि सरकार नकद मुद्रा के संचार पर सही नियन्त्रण रखने में सक्षम रहती है तो देश की 13069 बिलियन रूपयों की नकद अर्थव्यवस्था, 9-10 हजार बिलियन रूपयों तक सिकुड़ सकती है। यदि देश में 500-1000 रुपये के नोटों के प्रचलन को समाप्त करना है तो इस नकद  के आकार को 4-5 हजार बिलियन रूपयों तक सीमित करना पड़ेगा। जिन देशों में 100-50 के नोट ही सबसे बड़े नोट के रूप में प्रचलित हैं। वहां की स्थितियां इसी प्रकार की हैं। इंग्लैण्ड की नकद अर्थव्यवस्था 60 बिलियन पौण्ड की है, जबकि अमेरिका की मात्र 1200 बिलियन डालर की ।

भारत में नकद नोटों के प्रचलन में कटौती करने का एक ही रास्ता है। कैश लैस इकनामी की तरफ बढ़ना, जिससे इतनी बड़ी नकद मुद्रा के रख रखाव खर्च में बड़ी कटौती के साथ ही भ्रष्टाचार और काले धन पर लगाम कसने में भी बहुत बड़ी मदद मिलेगी। इसी कैश लैस इकनामी का जिक्र मोदी दो माह पूर्व अपनी "मन की बात" में कर रहे थे, जिसमें आर्थिक लेन देन के व्यवहार में नकद मुद्रा की आवश्यकता ही न पड़े। यह काम क्रेडिट/डेबिट कार्ड, चेक, ई ट्रान्सफर आदि विभिन्न तकनीकों द्वारा सम्भव है, उसे अपनाने की आवश्यकता है। हम अभी इससे बहुत दूर हैं, हमारा 90% लेन देन नकद मुद्रा से ही होता है। यही मुख्य वजह है कि सिर्फ 2 नोट वह भी 500-1000₹ के बन्द करने पर दो दिन में ही बड़ी संख्या में लोग अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिये जूझते दिखाई पड़ने लगे । वरना हफ्ते दस दिनों तक इसका प्रभाव पता ही नहीं चलता।

पूरी दुनिया कैशलैस अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ रही है। कुछ बहुत आगे निकल चुके हैं तो कुछ बहुत पीछे हैं, पर सभी प्रयास कर रहे हैं कि कैशलैस अर्थव्यवस्था को अधिकतम स्तर तक अपनाया जा सके।वर्तमान में विश्व के पांच देशों की अर्थव्यवस्था को कैशलैस अर्थव्यवस्था कहा जा सकता है। स्वीडन जहां नकद लेन देन का चलन मात्र 2%है, कनाडा जहां यह 10% तथा दक्षिण कोरिया में 20% है। अफ्रीका के सोमालीलैन्ड व केन्या की गिनती भी विश्व के कैशलैस अर्थव्यवस्था वाले देशों में है। आस्ट्रेलिया, सिंगापुर, हांगकांग, इंग्लैण्ड, अमेरिका तथा नाइजीरिया भी इस दिशा में प्रयत्नशील हैं।

500-1000₹ के पुराने नोट बन्द किये जाने के बाद हम भी इस दिशा में तेजी से बढ़ सकते हैं। परन्तु इसके लिये सरकार के उचित नियन्त्रण व प्रयास की जरूरत है। देश में कोई नई तकनीक आई नहीं कि व्यवसायिक संस्थान ग्राहकों को लूटना शुरू कर देते हैं। ग्राहकों को लूटने की दौड़ में सहकारी और सरकारी संस्थान भी बराबर के सहभागी रहते हैं। सभी जानते हैं कैशलैस अर्थव्यवहारों में व्यवसायिक संस्थानों के कैश के रख रखाव खर्च में बड़ी कमी आती है। अत: कैशलैस व्यवहार के माध्यमों का उपयोग करने वाले ग्राहकों को अतिरिक्त लाभ देकर प्रोत्साहित करना चाहिये, न कि रेल, पैट्रोल पम्प, ज्वैलरों व अन्य व्यवसायियों की तरह अतिरिक्त पैसा वसूल कर उसे हतोत्साहित करे।

Wednesday 9 November 2016

500 व 1000₹ के नोट बन्द, काले धन व आतंकवाद पर जबरदस्त प्रहार

2 माह पूर्व जब प्रधानमन्त्री मोदी "मन की बात" में कैश लैस इकनामी का जिक्र कर रहे थे, डेबिट/क्रेडिट कार्ड प्रयोग को बढ़ावा देने के लिये, उन्हे कुछ छूट देने के विचार की बात कर रहे थे। दूर दूर तक भी कोई यह नहीं सोच रहा था कि मोदी मन ही मन में देश में काले धन की उत्पत्ति के श्रोत प्रचलित नकद मुद्रा के विशालकाय कोष को फिल्टर करने की ठान चुके हैं, योजना बना चुके हैं। वैसे भी पिछले 60 वर्षों में हम सरकारी योजनाओं को शोर मचाने वाले भोंपू मान, उन पर ध्यान न देने के अभ्यस्त हो चुके हैं। इसीलिये हम किसी भी सरकारी योजना की घोषणा को गम्भीरता से नहीं लेते और यदि हम कुछ गम्भीरता दिखाना भी चाहें, देश के विपक्षी दल उन योजनाओं की इतनी चीरफाड़ कर डालते हैं कि मामले टांय टांय फिस्स् वाले ही नजर आते हैं। देश के विपक्षी अब भी चेत जायें, कुछ रचनात्मक सोचना शुरू करें। वरना उनके कालबाह्य होने में अधिक समय नहीं है।

8 तारीख को शाम 8 बजे राष्ट्र के नाम सन्देश द्वारा मध्य रात्रि से 500 व 1000₹ के नोट रद्द करने का निर्णय प्रधानमन्त्री ने यक ब यक नहीं लिया। इससे पीछे विभिन्न योजनाओं की पूरी श्रंखला है, तैयारी है, जिसे देश की विपक्षी राजनीति ने कभी समझने का प्रयास ही नहीं किया। इस विषय में मोदी सरकार गम्भीर है, सावधानी व दृढ़ निश्चय के साथ एक एक कदम लक्ष्य की तरफ बढ़ाती जा रही है। याद कीजिये 2015 में जब "जनधन योजना" में शून्य बैलेन्स से बैंकों में बचत खाते खुलवाये जा रहे थे। 10 करोड़ लोगों को बैंक से जोड़ने के इतने बड़े काम को अनदेखा कर दिया। आज कोई यह नहीं कह सकता कि उसका बैंक में खाता नहीं है, जिसमें वह अपने 500-1000 के पुराने नोट कोे बदलने के लिये. जमा करे। 1₹ प्रतिमाह अपने बैंक खाते से कटा कर, 12₹ प्रतिवर्ष दे 2 लाख के प्रधानमन्त्री सुरक्षा बीमा को भी हम भूल चुके हैं, यहां तक कि 291₹ प्रतिमाह उसी बैंक खा में कटवा कर 1000 व 5000₹ प्रतिमाह की अटल पेन्सन योजना भी हमें याद नहीं। विपक्षियों ने इन सभी कल्याणकारी योजनाओं को प्रयत्न कर कर भुलवाया, जबकि यह सभी योजनायें कालाधन व भ्रष्टाचार मुक्त अर्थव्यवस्था की स्थापना की प्रारम्भिक तैयारियां थी।

मोदी सरकार का सुधार कार्यक्रम यहीं नहीं रूका, विदेशी बैंकों में कालाधन जमा कराने वालों के लिये. सख्त नियम, अघोषित आय की घोषणा करने वाली योजना, बेनामी सम्पत्ति सम्बन्धित कानून और अब  500 व 1000₹ के नोट रद्द, सभी कुछ सुव्यवस्थित क्रमबद्ध तरीके से चल रहा है। यह निर्णय सतही तौर पर नहीं लिये जा रहे हैं। मोदी सरकार की देश में मुद्रा के चलन पर पैनी नजर है, नकद राशि का यह चलन ही भ्रष्टाचार और काले धन का जनक है। मोदी सरकार अब तक इस सम्बन्ध में विशेषज्ञों की अनेको समितियां बना चुका है। उनके द्वारा दी गई रिपोर्टों का गम्भीर अध्ययन कर चुका है। अभी पिछले सप्ताह ही अवकाश प्राप्त न्यायधीशों की एक समिति की रिपोर्ट आई है। जिसमें नकद खरीद की अधिकतम सीमा 3 लाख रुपये करने तथा नकद राशि रखने की अधिकतम सीमा 15 लाख ₹ निर्धारित करने की संतुस्ति है। अतः 500 व 1000₹ के नोट बन्द होने के बाद मोदी सरकार कुछ और निर्णय भी ले तो आश्चर्य नहीं, तय है भ्रष्टाचार व कालेधन मुक्त अर्थव्यवस्था की दिशा में बढ़ते जाना। 

देश में प्रचलित कुल मुद्रा का 86% 500 व 1000₹ के नोटों की शक्ल में है। कुल प्रचलित मुद्रा के 86% भाग को फिल्टर करना बहुत बड़ा काम है, जो सरकार की बड़ी पूर्व तैयारी के बिना सम्भव न हो पाता। विचार करें पुराने नोटों के बदले नये नोट बैंक से ही मिलेंगे अर्थात देश में प्रचलित सभी नोट मुद्रा का 86% बैंक में जमा होंगे, आप पुराने नोट बैंक में तय समय सीमा में जमा कराइये, वहां से नये नोट प्राप्त करिये। 2016 मार्च तक यह स्पष्ट हो जायेगा कि देश में प्रभावी मुद्रा कितनी है। कई लोग इस बात को लेकर भ्रमित हैं कि जब 500व 1000₹ के नोट रद्द ही करने थे, तो दोबारा 500 व 2000₹ के नये नोट जारी करने की क्या आवश्यकता थी। सीधी सी बात है, देश में सभी नोटों व सिक्कों को मिलाकर कुल 13069₹. की मुद्रा प्रचलन में है, जिसमें से 620 बिलियन मात्र ही बैंकों के पास है। मुद्रा के इतने बड़े बोझ को छोटे नोट नहीं उठा सकते, विशेषकर तब तक जब तक कि अधिकतर लेन देन कैश लैस न हों (क्रेडिट/डेबिट कार्ड, चेक, ई ट्रान्सफर आदि) सरकार इसी तैयारी में है। सरकार का यह कदम बहुत बड़ा व निर्णायक है, आलोचक यह तैयारी भी रखें कि सरकार अन्य कदम भी उठा सकती है।

कैशलैस अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ते इस कदम का देश पर पड़ने वाला प्रभाव अभी देखना है। वैसे वर्तमान में विश्व की अनेको सरकारें विभिन्न कारणों से इस दिशा में बढ़ रही हैं। यहां तक कि छोटे छोटे देश जैस़े सोमालीलैन्ड, केन्या, दक्षिणी कोरिया, नाइजीरिया आदि भी इसमें अत्यधिक रूचि ले रहे हैं, स्वीडन, आस्ट्रेलिया व इंग्लैण्ड आदि भी प्रयास में हैं, Cashless Economy पर हम अगले. Blog में विस्तार से चर्चा करेंगे।

Monday 24 October 2016

GST पर चर्चा में वही नदारद जिसे टैक्स देना है


देश में वस्तु एवं सेवा कर ( GST ) पर जबरदस्त चर्चा छिड़ी हुई है। कहा जा रहा है कि सभी प्रभावित पक्ष इस गहन मन्थन में लगे हुये हैं, सिर्फ उसको छोड़कर जिसे अपनी जेब से इस कर को चुकाना है। वह पक्ष जिससे यह टैक्स वसूला जायेगा। उसे चर्चा में सम्मिलित करना कोई महत्वपूर्ण भी नहीं समझता, यह भी जरूरत नहीं समझी जाती कि उससे पूछ तो लिया जाये कि भाई तुम कितना भार वहन कर पाने में सक्षम हो। जो भी पक्ष इ्स चर्चा में सम्मिलित हैं या इसे अन्तिम रूप देने की कोशिश कर रहे है परजीवी (Parasites) हैं। उनमे से कोई भी 1 नये पैसे के बराबर भी कर का भार वहन करने वाला नहीं है, न सरकारें, न उद्योगपति और न ही व्यापारी। हमारी सरकारों के न जाने कब अक्ल आयेगी या वह कब समझेंगे कि जिनके सहारे उनकी वित्तीय व्यवस्थायें चल रही हैं, जो इस मामले में सबसे महत्वपूर्ण पक्ष हैं। उनकी भी राय ले ली जाये, उनसे भी पूछ लिया जाये। हम यहां ग्राहकों के प्रतिनिधि बनने की दुकान चला रहे, उन इक्के दुक्के स्वनामधन्य लोगों की बात नहीं कर रहे, जन संगठनों की बात कर रहे हैं। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत सरकार के इस रूख की घोर निन्दा करती है।

विद्वानों द्वारा कर निर्धारण करने की नीतियों से सम्बन्धित विचार आज ठीक उसी तरह अर्थशास्त्र की पुस्तकों मे दफन हो चुके हैं, जिस प्रकार अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों को पढ़ाये जाने वाले, वस्तु का विक्रय मूल्य निर्धारित करने में उसके उत्पादन मूूल्य की भूमिका से सम्बन्धित विचार। समाज की आर्थिक विषमता दूर या कम करने की भूमिका से अब कर निर्धारणकर्ता बहुत दूर जा चुके हैं। कर सरलीकरण या कर सुधार के नाम पर आसान तरीकों से अधिक से अधिक धन उगाही ही उनका एकमेव उद्देश्य बन चुकी है। इस सम्बन्ध में विभिन्न स्तरों पर किये जाने वाले दुष्प्रचार का आलम यह है कि जो व्यक्ति सरकार को एक पैसा टैक्स नहीं देता, उसे कर द्वारा पैसा देकर सरकार चलाने वाला माना जा रहा है। जिसके पैसे से सरकार चल रही है, उसे अधिक निचोड़ा जा रहा है। मजे की बात यह कि अपने पैसे से सरकार चलाने वाले भी नहीं जानते कि सरकार उनके पैसे से चल रही हैं, वह भी यही समझते हैं कि सरकार उनके नहीं किसी दूसरे (धनाड्यों) के पैसे से चल रही है। यह हकीकत है कि सरकार देश की 85% गरीबी रेखा के नीचे, ऊपर रहने वालों, निम्न मध्यम वर्ग तथा मध्यम वर्गीय लोगों के पैसे से चल रही है। यह मै नहीं कह रहा आंकडे कह रहे हैं। आप किसी भी वर्ष के कर एकत्र करने से सम्बन्धित आंकडे देख लीजिये। स्मरण रहे कि व्यक्तिगत आय कर के अतिरिक्त वसूल किये जाने वाले सभी कर अन्तत: ग्राहक को ही अपनी जेब से चुकाने पड़ते हैं।

सरकारों का प्रयास हमेशा कर की आय बढ़ाने का रहता है। कभी किसी तो कभी किसी बहाने से, परन्तु चिन्ता की बात यह है कि कर का सबसे अधिक बोझ ग्राहकों के उसी वर्ग पर डाला जाता है, जिसे इस बोझ से सबसे अधिक संरक्षण देने की जरूरत होती है। ग्राहक, कर के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण बात जान लें कि जिन वस्तुओं का ऊला ढाल अधिक होता है। उन पर लगने वाले कम कर के कम प्रतिशत से भी राजस्व का बहुत बड़ा हिस्सा आता हैं। परन्तु यह गरीब वर्ग पर ही सर्वाधिक बोझ डालता है। सरकार कर ढ़ांचे में जब भी कोई बदलाव लाती है, उसका मूल लक्ष्य कर से आने वाले राजस्व को बढ़ाना होता है। यद्यपि यह बदलाव गरीब ग्राहकों को राहत देने के नाम पर लाये जाते हैं, परन्तु हर बार उन पर ही अतिरिक्त बोझ लाद दिया जाता है। इसी अनुभव के कारण जब पूरा देश GST पर कशीदे पढ़ने में व्यस्त था। ग्राहक पंचायत स्थिति का अवलोकन कर रही थी, उसे मालूम था जो कुछ भी कहा जा रहा है, वास्तविक स्थिति उससे बहुत अधिक भिन्न होगी। अब इसी बात को ले लीजिये, समान 18% कर की बात चल रही थी, पहली बैठक जो पूरी सफल भीा नहीं रही, उसमे कर के चार स्तरों 6%, 12%, 18% तथा 26% की बात की जाने लगी। सरकार के मुख्य दावे कि पूरे देश में किसी भी वस्तु के कर की एक दर होने के कारण, एक जैसी कीमत होगी, भी खटाई मे जाती नजर आ रही है। क्योंकि GST लागू होने पर बाकी सभी कर समाप्त  करने की बात कहने वालों के सुर अभी से बदलने लगे हैं। अभी भी सही वक्त नहीं आया है GST पर टिप्पणी करने का, स्थिति थोड़ी स्पष्ट होने दीजिये। फिर भी हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि GST लागू होने पर उसके वह प्रभाव आपको दूर दूर तक ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगे, जिनके ढोल इसे प्रचारित करने के लिये पीटे गये जैसे GST लागू होने पर ग्राहकों को वस्तुयें सस्ती मिलने लगेंगी। समर्थन लेने के लिये जिन्हे लालच दिया गया, उन्हे तो चर्चा में दूर दूर तक भी जगह नहीं दी जा रही है। सरकार बिना विलम्ब ग्राहक क्षेत्र में कार्य करने वाले जन संगठनों को भी चर्चा के लिये आमन्त्रित करे।

वर्तमान सरकार दीनदयाल उपाध्याय के आदर्शों को लेकर चल रही है। दीनदयाल जी का यह शताब्दी वर्ष चल रहा है। अत: सरकार को पंक्ति के अन्तिम सिरे पर बैठे व्यक्ति का विचार करना चाहिये। यह विचार अनुदान के माध्यम से करना बेमानी है। यह सही स्वरूप में कर सुधार के माध्यम से ही लागू हो सकता है। अत: सरकारों को टैक्स सुधार के उन अध्यायों को फिर से खोलने की आवश्यकता है। जिनमें अमीरों पर अधिक कर तथा गरीबों पर कम कर लगाने की बात कही गई है। आज विश्व के अनेको अर्थशशास्त्री इस बात पर पुनः जोर देने लगे हैं। विश्व की बढ़ती आर्थिक असमानता की स्थिति. में सरकारों द्वारा यह मार्ग अपनाने की आवश्यकता है। यह मार्ग अप्रत्यक्ष कर (Indirect Tax) की गली से होकर निश्चित रूप से नहीं गुजरता।

Thursday 15 September 2016

कब तक दाना मांझी बहरीन के शाह या कैमरे के लैन्सों की बाट जोहेंगे

सामाजिकता कितनी उथली होती जा रही है। हमारा सामाजिक सरोकार कितना सीमित होता जा रहा है। यह असंवेदनशीलता की पराकाष्ठ नहीं तो क्या है। आज भी देश में कितने दाना मांझी व्यवस्था, गरीबी, तिरस्कार तथा असंवेदनशीलता की लाश अपने कन्धों पर उठाये घूम रहे होंगे, इस इन्तजार में कि कोई कैमरा उनके जीवन के इन मर्मस्पर्शी क्षणों को पकड़े और एक रोमांचक कहानी के रूप मे देश के सामने ले आये। बाजारवाद ने हमारे रहन सहन के साथ साथ हमारा नजरिया भी बदल दिया है। जीवन की संवेदनाओं, मार्मिकताओं, आर्थिक विषमताओं से भरी समसयाओं का निदान हमनें चयनित स्वरूप में कुछ रूपये फेंकने मे तलाश लिया है। किसी भी कोण द्रष्टिकोण से देखें, क्या यह इस समस्या का अंशमात्र भी निदान है।

Oxfem का सर्वेक्षण कहता है, दुनिया के आधे लोगों के बराबर सम्पत्ति विश्व के मात्र 66 लोगों के पास है। देश के 10% सबसे धनी लोग देश की 74% सम्पत्ति पर कब्जा जमाये बैठे हैं। सरकारें कभी यह टैक्स तो कभी वह टैक्स का खेल खेल कर, ग्राहकों के बहुमत को उम्मीदों का झुनझुना थमा रही हैं। बेचारा ग्राहक न्यूनतम जीवनावश्यक वस्तुओं तक अपने हाथों की पँहुच बनाने के लिये, अपने इतने से स्वप्न के साकार होने की उम्मीद मे, अन्तहीन प्रतीक्षा मे अटका हुआ है। विश्व मे समाज के बीच आर्थिक अन्तर की खाई, निरन्तर अपनी गहराई बढाने मे द्रुतगति से व्यस्त है। सन्तोष हो सकता था, यदि ग्राहकों के बहुमत की जद मे न्यूनतम जीवनावश्यक आवश्यकताओं की आपूर्ति होती, परन्तु वह तो कल भी उनकी पंहुच से बहुत दूर थी और आज भी उनके लिये मृग मारीचिका ही है।

हमारे पुरखे आर्थिक विषमता के इस विष से तबाह हो चुके हैं। हमारी स्थिति तो उनसे कहीं बदतर है और हमारी आने वाली नस्लें अपने माथे पर कुछ इसी तरह की इबारत लिखवाकर ही पैदा हो रही हैं। क्या हमारी पीढ़ियां यह आर्थिक अभावों से लबरेज जीवन जीने के लिये अभिशप्त हैं या फिर स्थितियों मे बदलाव सम्भव है। यह बदलाव क्या गाहे बगाहे दोचार प्रचारित लोगों को चन्द सिक्के फेंक कर प्राप्त करना संभव है। दाना मांझी की वास्तविक जख्म "आज मेरे पास पैसा आ रहा है, कल इसके अभाव में मेरी पत्नी मरते समय अपनी तीन बेटियों में से सिर्फ दो को ही देख पाई, क्योंकि मै उन्हे घर पर छोड़ बड़ी बेटी के साथ पत्नी का इलाज कराने शहर आया था, तेरह किलोमीटर तक उसके शव को उठाकर पैदल चला" पैसों की यह चादर ढ़क पायेगी।

क्या देश मे अब कोई दाना मांझी नहीं होगा या यह सब कुछ समय का मात्र भावनात्मक खेल है। इससे नहीं चलने वाला है। गरीब, इन्सान और लुप्त होती मानवता के लिये हमें इस जैसी समस्याओं की बुनियाद को टटोलना होगा, उसे बदलना होगा।

वह कौन सी व्यवस्थायें हैं, जिन्होने इस क्रम को इतना मंहगा बना दिया कि दाना मांझी अपनी पत्नी को ईलाज के लिये शहर के सरकारी अस्पताल अपनी तीनो बेटियों के साथ ले जा सके। उसकी मृत्यु होने पर उसका शव अपने गांव घर लाकर उसका संस्कार कर सके। यह सब दिनचर्यायें इतनी मंहगी बनाकर इन्हे दाना मांझियों की पंहुच से दूर करने का जिम्मेदार कौन है, यह समाज, सरकार या अर्थव्यवस्था। आखिरकार यह विलासिता की क्रियायें तो नहीं, जीवन की अनिवार्य क्रियायें हैं, जिन तक दाना मांझियों की पंहुच बननी चाहिये।

किसी की भी सहज प्रतिक्रिया होगी। दाना मांझियों को इन क्रियाओं को सहज रूप से पूरा करने के लिये, अपेक्षित धन कमाना चाहिये, कौन उसको यह धन कमाने के अवसर देगा और यदि उसे धन कमाने के अवसर न दिये गये तो फिर उसकी व्यवस्था क्या होगी, वर्तमान जैसी ? या वह और उसके जैसे लोग जीना ही छोड़ दें। असंख्य प्रश्न हैं जिनके उत्तर समाज, सरकार तथा अर्थव्यवस्था को देने हैं। पं दीनदयाल उपाध्याय भी इन्ही प्रश्नों के उत्तर ढूंढने की बात अपने एकात्म अर्थचिन्तन मे किया करते थे।

सामाजिक संवेदना आज कितनी भी क्षीण हो चुकी हो, पर मरी नहीं है। यह चेतना पूरे विश्व में कभी न कभी किसी न किसी रूप में प्रस्फुटित होती रही है, होती रहेगी। नहीं तो कई हजार मील दूर बैठे बहरीन के शाह को यह न करना पड़ता। परन्तु आज आवश्यकता इन आर्थिक प्रश्नों के स्थायी हल प्राप्त करने की है। कब तक दाना मांझी बहरीन के शाह या कैमरे के लैन्सों की बाट जोहेंगे, वह भी सब कुछ लुटने के बाद।

Friday 9 September 2016

रेल किराये में दाम बढ़ाने वाली नीति का क्या औचित्य

शुक्रवार का दिन देश में फिल्म उद्योग के नाम है। लगभग सभी नई फिल्में इसी दिन सिनेमाघरों में दर्शकों के लिये लगाई जाती हैं। आप इतिहास जांच लीजिये, यह दिन इसी काम के नाम है। हमारे कर्मठ रेल मन्त्री सुरेश प्रभु जी शुक्रवार के दिन पर इस एकाधिकार से खुश नहीं हैं। अतः उन्होने 9 सितम्बर शुक्रवार को रेल किराये में एक नई तेजी से किराया बढ़ने वाली नीति का आगाज किया है। अब रेल यात्री भी शेयर बाजार में लगे सटोरियों की तरह पल क्षण किराये की तख्ती निहारता, यह चढ़ा - वह बढ़ा चिल्लाया करेगा। दोनों ही भाग्यवादी होंगे, परन्तु रेल यात्री और सटोरिये के भाग्य में इतना अन्तर अवश्य होगा कि सटोरिये को कभी कभी दाम लुढ़कने की उम्मीद तो रहेगी और दाम लुढ़केंगे भी, पर रेल यात्री बुखार नापने वाले थर्मामीटर की तरह सिर्फ पारे को चढ़ते हुये ही देखेगा। तापमान कितना भी कम हो जाये उसका उससे कोई सरोकार नहीं रहेगा। रेल मन्त्रालय द्वारा फिलहाल तीन ट्रेनों राजधानी, दूरन्तो व शताब्दी के यात्री किरायों को तय करने के लिये कुछ इसी तरह की दाम तेजी से बढ़ने वाली (Surge Pricing Policy) अपनाई जा रही है।

दाम तेजी से बढ़ने वाली इस Surge Pricing को Dynamic Pricing सक्रिय मूल्यनीति भी कहा जाता है। इसमें वस्तु की मांग बढ़ने के साथ उसके दाम भी बढ़ते जाते हैं। सरल उदाहरण से इस बात को समझते हैं। श्रीनगर में कर्फ्यू लगा है, इन स्थितियों में दूध की मांग तो है, परन्तु आपूर्ति नहीं है। अतः 40 रूपये लीटर बिकने वाला दूध, दूधवाला पहले 60 फिर 80 उसके बाद 100 और फिर अधिक और अधिक दामों पर बेच रहा है, जैसे जैसे कर्फ्यू की मियाद बढ़ती जायेगी, दूध के दाम भी बढ़ते जायेंगे। मै यह उदाहरण देना नहीं चाहता था, परन्तु ग्राहकों को समझाने के लिये इससे सरल कोई दूसरा उदाहरण मेरे पास नहीं था। रेल सरकार ने टिकट के दामों के बढ़ने के मामलेे में उच्चतम सीमा निर्धारित कर, मिर्च का धुआं उड़ाकर, आंसू पोछने के लिये रूमाल जरूर थमाया है कि किराया अधिकतम डेढ़ गुना ही होगा।


साधारणतया इस प्रकार की मूल्य नीति उपभोग को हतोत्साहित करने के लिये की जाती है। लन्दन शहर में सड़कों पर  बहुत अधिक यातायात की समस्या थी। जिसके कारण वहां के जनजीवन की गुणवत्ता प्रभावित हो रही थी। अतः लन्दन की सड़कों पर यातायात को हतोत्साहित करने के लिये London Congestion charges नाम का शुल्क वर्ष 2003 से लगाया जाने लगा। अब जो भी लन्दन में अपना वाहन लेकर जायेगा, उसे निर्धारित शुल्क देना पड़ेगा। इस कदम से लन्दन की सड़कों पर यातायात 10% कम हो गया। परन्तु वहां भी इस बात का ध्यान रखा गया कि साधारण लोग इस शुल्क से प्रभावित न हों, अतः शनिवार, रविवार तथा त्योहारों को इस शुल्क से मुक्त रखा गया। हम नहीं जानते रेल मन्त्री के मन में भी यदि इसी तरह का कोई विचार हो।

इस मूल्य पद्धति का व्यवसायिक स्वरूप में कोई विशेष लाभ नहीं होता, सिवाय इस बात के कि इसमें व्यर्थ जाने वाली क्षमता का भी उपयोग हो जाता है या व्यक्ति विशेष को कुछ अतिरिक्त इनसेन्टिव मिल जाती है। अब रेल मन्त्री को इन ट्रेनों का उपयोग करने से लोगों को हतोत्साहित करना है या किसी को इन्सेन्टिव देना है यह तो वह जानें। अपने देश में यह मूल्य प्रणाली कुछ एअर लाईनों तथा रेडिओ टैक्सी सेवा में लागू है, लेकिन ओपन एन्डेड है, जिसका अर्थ है कि ग्राहक को सामान्य किराये से कम पर भी यात्रा करने का अवसर उपलब्ध हो जाता है। आप सुनते होंगे कि किसी को हवाई यात्रा का टिकट 1.5 या 2 हजार में ही मिल गया। टैक्सी सेवा में भी व्यस्त समय में सर्ज प्राइसिंग के कारण मांग अधिक होने के कारण किराया बढ़ता है, परन्तु जैसे जैसे दूसरे ड्राइवर भी आन लाईन होते जाते हैं, किराये में कमी आने लगती है। यानी किराया अधिक होने पर यदि ग्राहक ने थोड़ी देर इन्तजार कर लिया तो किराया कम होने की पूरी सम्भावना रहती है। मतलब यह कि गाड़ी दोनो दिशाओं में दौड़ती है। पर हमारे रेलमन्त्री तो गाड़ी एक ही दिशा में दौड़ा रहे हैं।

रेल विभाग के कार्यकलाप सेवाक्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं। सेवा उद्योग की मूल भावना ही इसके विपरीत है। पैसे वालों को मदद करना, उस गरीब व्यक्ति को इससे वंचित करना, जिसे इसकी जरूरत है। विशेष रूप से तब जब उसे चलाने वाली संस्था सरकारी हो, सरकार व्यक्ति विशेष या समूह विशेष में अन्तर नहीं कर सकती। आर्थिक आधार पर तो बिल्कुल नहीं। सभी नागरिकों को समान स्वरूप की सेवायें उपलब्ध करवाना उसका कर्तव्य है। उसके लिये आदर्श स्थित पहले आओ, पहले पाओ वाली ही है। हम मोदी सरकार से आदर्श स्थिति की अवहेलना की अपेक्षा नहीं कर सकते। अतएव तीन ट्रेनों में ही सही वर्तमान रेल यात्री किराया बढ़ने वाली प्रणाली को रद्द कर पूर्ववत व्यवस्था ही लागू की जाये।

Thursday 8 September 2016

उत्पादन और खपत से परे भी बहुत कुछ है अर्थव्यवस्था में

प्रधानमंत्री मोदी का आई बी एन पत्रकार राहुल जोशी द्वारा देश की अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में साक्षात्कार तथा समाचार चैनलों पर जानकारों द्वारा उसकी चीरफाड़ मुख्य रूप से जो विषय खड़े करती है। उनमें देश की वर्तमान स्थिति पर विवाद हो सकता है, परन्तु अर्थशास्त्रियों का मानना है कि पहले की तुलना में यह पटरी पर आ रही है। सरकार समर्थक उदाहरण के लिये 7% जीडीपी का सहारा लेते हैं तो आलोचक 2014 आधार वर्ष किये जाने की बात कर, पुराने आधार पर इसे 5% के आसपास ही बताते हैं। देश में औद्योगिक उत्पादन के आँकड़े भी विशेष उत्साहवर्धक नहीं हैं। औद्योगिक उत्पादन की 70% क्षमता का ही उपयोग हो रहा है। महँगाई के अतिरिक्त देश की दूसरी बड़ी समस्या बेरोजगारी की है। जिसकी दर पिछले वर्ष 9 की तुलना में 10 पार कर गई है। यह स्थिति चिन्ताजनक है। यद्यपि चर्चा में मोदी सरकार द्वारा मुद्रा बैंक, स्किल इंडिया तथा स्टार्टअप योजनायें भी चर्चा में हैं, जिनके परिणाम अभी सामने आने हैं।


अर्थशशास्त्री जो अर्थव्यवस्था के विकास के लिये हर मर्ज की दवा जीडीपी मानते थे। अब कम से कम कहने लगे हैं कि जीडीपी बढ़ने से रोजगार नहीं बढ़ता, रोजगार में वृद्धि चाहिये तो खपत को बढ़ाना पड़ेगा, तभी औद्योगिक उत्पादन शतप्रतिशत होगा, एफडीआई निवेश के अवसर पैदा होंगे, नये उद्योग लगेंगे, जिससे रोजगार बढेगा। परन्तु यह सत्य. नहीं, यथार्थ से परे है। एड्म के अधिक से अधिक उत्पादन के सिद्धान्त को आर्थिक सम्पन्नता का आधार मानने वाले, अक्सर यह बात भूल जाते हैं कि इस सिद्धान्त में अन्य बहुत से अवयव तथा उनकी निर्धारित भूमिका अनिवार्य है, जिसके बिना यह समीकरण सही उत्तर खोजने में नाकाम ही सिद्ध होगी। लगभग पूरे विश्व में यही चल रहा है। अर्थशशास्त्री दबावों के चलते या फिर विशिष्ट प्रयोजन से पूरी बात नहीं बोलते, सही बात नहीं बोलते। अतएव विश्व में आर्थिक समीकरणें तो बहुत स्थापित की जाती हैं, परन्तु वह स्थितियों को सन्तुलित करने में नाकाम रहती है।

रोजगार वृद्धि के लिये अर्थशास्त्रियों के खपत बढ़ाने वाले सुझाव को ही ले लीजिये। खपत बढ़ने का सीधा सम्बन्ध ग्राहक की क्रय क्षमता पर निर्भर है। अतः पहले बात ग्राहक की क्रय क्षमता बढ़ाने की  जानी चाहिये, जिसके सम्बन्ध में कोई अर्थशशास्त्री बात नहीं करना चाहता। विश्व के अर्थशास्त्रियों में कभी ग्राहकों की स्थाई स्वरूप की क्रय क्षमता बढ़ाने के तरीकों पर विचार करते सुना है। जबकि अर्थव्यवस्था के स्वस्थ, विकसित होने का मजबूत, स्थाई आधार ही यह है। अस्थाई आधारों के बारे में जरूर सुना होगा, कि वस्तुयें किश्तों में उपलब्ध करा दो, बैंक से आसान शर्तों पर कर्ज दिलवा दो या फिर सातवां वेतन आयोग लागू कर कुछ लोगों के हाथों तक अतिरिक्त पैसा पंहुचा दो, ताकि यह अतिरिक्त पैसा बाजार में उत्पादनों की खपत बढ़ा सके, इस मांग के सहारे नये उद्योग लगा कर रोजगार पैदा किये जा सकें। सब तरफ इन्ही अस्थाई सममाधानों के सहारे गाड़ी खींचने का प्रयास हो रहा है, नतीजतन परिणाम वही ढाक के तीन पात? कल भी यही समस्या थी, आज भी है और कल भी रहने वाली है। यहां अधिक लिख पाना सम्भव नहीं, विषय पर विस्तारित चर्चा मैने अपनी पुस्तक "अर्थव्यवस्थाओं से बोझिल ग्राहक, ग्राहक अर्थनीति" नाम की अपनी पुस्तक में की है, जो प्रकाशन में है।

ग्राहक की क्रय क्षमता मुख्यरूप से तीन बातों से सर्वाधिक प्रभावित होती है -
1. रोजगार के सीमित व कम अवसर -
पहला व महत्वपूर्ण प्रश्न है, ग्राहक की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये, उसकी जेब में पैसा कहां से आयेगा। 
अ. उत्पादन कर उसकी बिक्री से
ब. धन, सम्पत्ति से प्राप्त किराये से
स. श्रम को बेचने से
यदि सरकारें इन तीनों व्यवस्थाओं से ग्राहक की जेब में उसकी आवश्यकतायें पूरी करने के लिये. जरूरी धन की व्यवस्था कर सकती हैं, तो ठीक अन्यथा किसी पर्यायी व्यवस्था का विचार करना होगा।

2. मुद्रास्फीति
सरल शब्दों में मुद्रास्फीति मंहगाई है। आप को आज कोई वस्तु जिन दामों मे बाजार में मिल रही है, कल उसके दाम बढ़ जाते हैं। रिजर्व बैंक अपनी मौद्रिक नीति की समीक्षा प्रत्येक तिमाही कर इसे नियन्त्रित करने का प्रयास करता है। अनुभव यह आया है कि रिजर्व बैंक जो भी सहूलियतें देता है, उसे बैंक तथा उद्योगपति हजम कर जाते हैं। ग्राहक को मरने के लिये छोड़ दिया जाता है। रिजर्व बैंक के नये गवर्नर उर्जित पटेल यह सुनिश्चित करें कि लाभ नीचे ग्राहक तक पंहुचे।

3. अवास्तविक मूल्य (Unrealistic Pricing)
यहां बहुत बड़ा गोलमाल है। इस पर ध्यान दिये बिना सर्वकल्याणकारी अर्थव्यवस्था की कल्पना ही बेमानी है।

इन तीनों ही क्षेत्रों में समुचित अवसर तलाश करने, उन्हें विकसित करने तथा गम्भीरता से लागू करने की आवश्यकता है। न तो यह आसान है, न ही दो चार वर्षों के अन्तराल मे पूरा होने वाला, परन्तु इस मार्ग का पर्याय नहीं।


उत्पादन और खपत से परे भी बहुत कुछ है अर्थव्यवस्था में

प्रधानमंत्री मोदी का आई बी एन पत्रकार राहुल जोशी द्वारा देश की अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में साक्षात्कार तथा समाचार चैनलों पर जानकारों द्वारा उसकी चीरफाड़ मुख्य रूप से जो विषय खड़े करती है। उनमें देश की वर्तमान स्थिति पर विवाद हो सकता है, परन्तु अर्थशास्त्रियों का मानना है कि पहले की तुलना में यह पटरी पर आ रही है। सरकार समर्थक उदाहरण के लिये 7% जीडीपी का सहारा लेते हैं तो आलोचक 2014 आधार वर्ष किये जाने की बात कर, पुराने आधार पर इसे 5% के आसपास ही बताते हैं। देश में औद्योगिक उत्पादन के आँकड़े भी विशेष उत्साहवर्धक नहीं हैं। औद्योगिक उत्पादन की 70% क्षमता का ही उपयोग हो रहा है। महँगाई के अतिरिक्त देश की दूसरी बड़ी समस्या बेरोजगारी की है। जिसकी दर पिछले वर्ष 9 की तुलना में 10 पार कर गई है। यह स्थिति चिन्ताजनक है। यद्यपि चर्चा में मोदी सरकार द्वारा मुद्रा बैंक, स्किल इंडिया तथा स्टार्टअप योजनायें भी चर्चा में हैं, जिनके परिणाम अभी सामने आने हैं।


अर्थशशास्त्री जो अर्थव्यवस्था के विकास के लिये हर मर्ज की दवा जीडीपी मानते थे। अब कम से कम कहने लगे हैं कि जीडीपी बढ़ने से रोजगार नहीं बढ़ता, रोजगार में वृद्धि चाहिये तो खपत को बढ़ाना पड़ेगा, तभी औद्योगिक उत्पादन शतप्रतिशत होगा, एफडीआई निवेश के अवसर पैदा होंगे, नये उद्योग लगेंगे, जिससे रोजगार बढेगा। परन्तु यह सत्य. नहीं, यथार्थ से परे है। एड्म के अधिक से अधिक उत्पादन के सिद्धान्त को आर्थिक सम्पन्नता का आधार मानने वाले, अक्सर यह बात भूल जाते हैं कि इस सिद्धान्त में अन्य बहुत से अवयव तथा उनकी निर्धारित भूमिका अनिवार्य है, जिसके बिना यह समीकरण सही उत्तर खोजने में नाकाम ही सिद्ध होगी। लगभग पूरे विश्व में यही चल रहा है। अर्थशशास्त्री दबावों के चलते या फिर विशिष्ट प्रयोजन से पूरी बात नहीं बोलते, सही बात नहीं बोलते। अतएव विश्व में आर्थिक समीकरणें तो बहुत स्थापित की जाती हैं, परन्तु वह स्थितियों को सन्तुलित करने में नाकाम रहती है।

रोजगार वृद्धि के लिये अर्थशास्त्रियों के खपत बढ़ाने वाले सुझाव को ही ले लीजिये। खपत बढ़ने का सीधा सम्बन्ध ग्राहक की क्रय क्षमता पर निर्भर है। अतः पहले बात ग्राहक की क्रय क्षमता बढ़ाने की  जानी चाहिये, जिसके सम्बन्ध में कोई अर्थशशास्त्री बात नहीं करना चाहता। विश्व के अर्थशास्त्रियों में कभी ग्राहकों की स्थाई स्वरूप की क्रय क्षमता बढ़ाने के तरीकों पर विचार करते सुना है। जबकि अर्थव्यवस्था के स्वस्थ, विकसित होने का मजबूत, स्थाई आधार ही यह है। अस्थाई आधारों के बारे में जरूर सुना होगा, कि वस्तुयें किश्तों में उपलब्ध करा दो, बैंक से आसान शर्तों पर कर्ज दिलवा दो या फिर सातवां वेतन आयोग लागू कर कुछ लोगों के हाथों तक अतिरिक्त पैसा पंहुचा दो, ताकि यह अतिरिक्त पैसा बाजार में उत्पादनों की खपत बढ़ा सके, इस मांग के सहारे नये उद्योग लगा कर रोजगार पैदा किये जा सकें। सब तरफ इन्ही अस्थाई सममाधानों के सहारे गाड़ी खींचने का प्रयास हो रहा है, नतीजतन परिणाम वही ढाक के तीन पात? कल भी यही समस्या थी, आज भी है और कल भी रहने वाली है। यहां अधिक लिख पाना सम्भव नहीं, विषय पर विस्तारित चर्चा मैने अपनी पुस्तक "अर्थव्यवस्थाओं से बोझिल ग्राहक, ग्राहक अर्थनीति" नाम की अपनी पुस्तक में की है, जो प्रकाशन में है।

ग्राहक की क्रय क्षमता मुख्यरूप से तीन बातों से सर्वाधिक प्रभावित होती है -
1. रोजगार के सीमित व कम अवसर -
पहला व महत्वपूर्ण प्रश्न है, ग्राहक की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये, उसकी जेब में पैसा कहां से आयेगा। 
अ. उत्पादन कर उसकी बिक्री से
ब. धन, सम्पत्ति से प्राप्त किराये से
स. श्रम को बेचने से
यदि सरकारें इन तीनों व्यवस्थाओं से ग्राहक की जेब में उसकी आवश्यकतायें पूरी करने के लिये. जरूरी धन की व्यवस्था कर सकती हैं, तो ठीक अन्यथा किसी पर्यायी व्यवस्था का विचार करना होगा।

2. मुद्रास्फीति
सरल शब्दों में मुद्रास्फीति मंहगाई है। आप को आज कोई वस्तु जिन दामों मे बाजार में मिल रही है, कल उसके दाम बढ़ जाते हैं। रिजर्व बैंक अपनी मौद्रिक नीति की समीक्षा प्रत्येक तिमाही कर इसे नियन्त्रित करने का प्रयास करता है। अनुभव यह आया है कि रिजर्व बैंक जो भी सहूलियतें देता है, उसे बैंक तथा उद्योगपति हजम कर जाते हैं। ग्राहक को मरने के लिये छोड़ दिया जाता है। रिजर्व बैंक के नये गवर्नर उर्जित पटेल यह सुनिश्चित करें कि लाभ नीचे ग्राहक तक पंहुचे।

3. अवास्तविक मूल्य (Unrealistic Pricing)
यहां बहुत बड़ा गोलमाल है। इस पर ध्यान दिये बिना सर्वकल्याणकारी अर्थव्यवस्था की कल्पना ही बेमानी है।

इन तीनों ही क्षेत्रों में समुचित अवसर तलाश करने, उन्हें विकसित करने तथा गम्भीरता से लागू करने की आवश्यकता है। न तो यह आसान है, न ही दो चार वर्षों के अन्तराल मे पूरा होने वाला, परन्तु इस मार्ग का पर्याय नहीं।


Thursday 25 August 2016

गडकरी जी !! यह कैसा संशोधन

9 अगस्त 2016 को परिवहन मन्त्री नितिन गडकरी ने लोकसभा में मोटर वाहन बिल 2016 प्रस्तुत किया। सम्भवतः मोटर कानून बनने के बाद यह सबसे बड़ा संशोधन विधेयक है। जिसमें अनेकों नवीन धाराओं को जोड़ा गया है। कहा यह गया है कि देश में सडक पर बढती मौतों और बेलगाम मोटर वाहनों को नियन्त्रित करने के लिये यह संशोधन विधेयक लाया गया है। बात ठीक भी है, बढती वाहन संख्या, नई तकनीक, बेहतर सड़कें, बढ़ती स्पीड और बेलगाम मोटर चालकों पर लगाम कसने की जरूरत भी थी। परन्तु यह क्या, सिर्फ अधिक अर्थदंड देने से स्थितियां सुधर जायेंगी। मोटर वाहन व्यवस्था में क्या आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत नहीं थी। लोगों को बचपन से सड़क सम्बन्धित व्यवहार सिखाने से लेकर, लाईसेन्स, रजिस्ट्रेशन और पुलिस प्रक्रिया तक। मै नितिन गडकरी अध्यनशील व्यक्तित्व है, मै उनको व्यक्तिगत स्तर पर जानता हूं। अतः कुछ बातें पच नहीं रही।

सड़क पर वाहन सम्बन्धित अपराधों के दंड मे जबरदस्त बढोत्तरी की गई है। अब दंड 500रू से शुरू होकर 10,000रू तक होगा। अपराध के लिये दंड तो ठीक है, परन्तु देश के पुलिस प्रशासन की जो स्थिति है, उसमे अभी तो यह वसूली योजना ही अधिक लगती है जब तक दूसरे पक्ष की भी ओवरहालिंग न की जाये। नया नियमन लागू करने से पहले, इ्स स्थिति को स्पष्ट करना ग्राहकों और सरकार दोनो के हित मे होगा।

हिट एन्ड रन से सम्बन्धित संशोधन (धारा 161) स्वागत योग्य है, जिसमें मृत्यु की स्थिति में अनुदान 25000रू से बढ़ाकर 2 लाख तथा गम्भीर घायल अवस्था में 12500 रू से बढ़ाकर 500000 रू कर दिया गया है। इससे निश्चित तौर पर प्रभावितों को मदद मिलेगी।

मोटर कानून मे नेक आदमियों से सम्बन्धित नवीन धारा 134A जोड़ना भी सराहनीय कदम है। अब किसी को भी सड़क पर दुर्घटना मे घायल व्यक्ति की मदद कर उसे अस्पताल पंहुचाने से गुरेज नहीं होगा, क्योंकि ऐसे व्यक्ति पर किसी भी प्रकार की दीवानी या फौजदारी कार्यवाही नहीं की जा सकेगी।

गोल्डन आवर (महत्वपूर्ण समय) से सम्बन्धित नई धारा 12A भी स्वगत योग्य कदम है, जिसके लिये सरकार नियमन बाद मे करेगी। यह धारा दुर्घटना के बाद तुरन्त ईलाज के सम्बन्ध मे है, ताकि प्रभावित की जान बचाई जा सके। यह सच है कि दुर्घटना मे घायल की जान बचाने के लिये, पहला घंटा बहुत अधिक महत्वपूर्ण होता है। परन्तु फिर भी इसमें एक बड़ी कमी है, जो इस धारा के उद्देश्य को ही निरस्त कर देती है। गोल्डन आवर घायल होने के बाद से एक घंटे का समय माना गया है। दुर्घटना शहर मे भी किसी अस्पताल के पास हो सकती है, शहर से बाहर सुनसान स्थान पर भी, जहां से घायल को वाहन से निकालने, अन्य वाहन की व्यवस्था करने तथा अस्पताल पंहुचने मे अधिक समय लगना सम्भव है। अतः गोल्डन आवर का प्रारम्भ घायल का प्राथमिक उपचार शुरू करने से प्रारम्भ होना चाहिये। इस धारा मे संशोधन किया जाना चाहिये। प्राथमिक उपचार के लिये घायल को पर्याप्त समय मिलना चाहिये।

वाहन बीमा से सम्बन्धित धारा 164(1) मे संशोधन ग्राहकों पर बहुत बड़ा अन्याय है। इस संशोधन को निरस्त कर पहले की तरह ही रखा जाना चाहिये। इस तरह के संशोधन जब भी लाये जाते हैं शक का वातावरण पैदा करते हैं। बीमा कम्पनियां व्यापार ही नहीं कर रही हैं, बल्कि अच्छा खासा लाभ कमा रही हैं व अपना प्रीमियम रिस्क के आधार पर ही ग्राहकों से वसूल रही हैं, फिर ग्राहकों की कीमत पर उन्हे संरक्षण देने की क्या जरूरत आ पड़ी। ग्राहक और बीमा कम्पनियों के बीच सरकार क्यों आ रही है, वह भी बीमा कम्पनियों के पक्ष में। नये संशोधन के अनुसार दुर्घटना की स्थिति में बीमा कम्पनियां मृत्यु की स्थिति में अधिकतम 10 लाख तथा गम्भीर घायल अवस्था में 5 लाख रुपये ही क्षतिपूर्ति देंगी। यदि क्षतिपूर्ति की रकम अधिक निर्धारित होती है तो वाहन के मालिक को शेष रकम का भुगतान करना होगा। इस धारा के बाद वाहन बीमा का क्या अर्थ रह जायेगा। बीमा कम्पनियां मलाई काटेंगी। मृत्यु या गम्भीर चोट की स्थिति मे इस सीमित रकम का क्या अर्थ है। कानून मे इस संशोधन का विरोध होना चाहिये। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत परिवहन मन्त्री व सरकार से मांग करती है कि इस संशोधन को निरस्त कर पूर्ववत किया जाये, जिसके अनुसार दुर्घटना की स्थिति मे बीमा कम्पनियों पर ही पूरे भुगतान की जिम्मेदारी है।

Monday 25 July 2016

सिद्धू प्रकरण की जड़ों मे अकाली राजनीति

नवजोत सिंह सिद्धू का राज्यसभा की सदस्यता से जिस दिन स्तीफा आया था, उसी दिन से इसके बारे मे तरह तरह के कयास लगाये जा रहे थे। उनके भाजपा से अलग होने के सम्बन्ध मे कुछ इशारा उनकी विधायक पत्नी ने दिया तो था, परन्तु वह लोगों को स्पष्ट कयास लगाने के लिये पर्याप्त नहीं था। आज सिद्धू ने इस सम्बन्ध मे पत्रकार वार्ता मे कुछ बताया, कुछ नहीं बताया। भाजपा मे अपने को दरकिनार करने और पंजाब से अलग रहने की शर्त पर राज्य सभा की सदस्यता दिये जाने के मामले का उल्लेेख  सतही तौर पर शायद सही घटनाक्रम को उघेडने मे सफल न रहा हो, परन्तु यह उन लोगों को इशारा दे गया जो पंजाब की राजनीतिक गतिविधियों पर लम्बे समय से पैनी नजर रख रहे हैं। पंजाब मे भाजपा के प्रभावी चेहरों पर नजर डालें तो किसी को भी अटपटा लगेगा कि अपने जबरदस्त प्रभावी चेहरे को कोई राजनीतिक दल कैसे किनारे लगा सकता है। परन्तु राजनीति मे हाजमा बहुत दुरूस्त रखना पड़ता है। कभी दो कदम आगे तो कभी चार कदम पीछे हटना पड़ता है। सिद्धू प्रकरण भी भाजपा की चार कदम पीछे हटने की मजबूरी है, जिसके लि्ये शायद सिद्धू को मानसिक रूप से तैयार नहीं किया जा सका या फिर सिद्धू ने उस स्थिति को अपनाने से इन्कार कर दिया जो संगठन के हितचिन्तक कार्यकर्ता अपनाकर खुद को गुमनामी के अन्धेरे मे धकेलने के लिये तैयार हो जाते हैं।

वस्तुस्थिति जानने के लिये पंजाब, वहां की राजनीति, विभिन्न राजनीतिक दलों की स्थितियों का विश्लेषण जरूरी है। पंजाब मे मुख्य राजनीतिक पैठ दो दलों की है, कांग्रेस और अकाली। दोनो की पकड़ इतनी मजबूत है कि बसपा के जनक कांशीराम पंजाब के होने के बावजूद वहां पैर तक न जमा सके। राष्ट्रीय दल के रूप मे आगे बढ़ती भाजपा के लिये जरूरी था कि वह उन तमाम प्रदेशों मे क्षेत्रीय दलों के सहयोग से अपने पैर जमाये। देश के अनेको प्रान्तों मे भाजपा की यह यात्रायें और उसके परिणाम सामने हैं। पंजाब मे भाजपा ने अपने पैर जमाने के लिये अकाली दल का हाथ थामा। अकाली भी कांग्रेस को टक्कर देने के लिये सहारे की तलाश मे थे, अत: उन्होने भाजपा का हाथ पकड़ लिया। परन्तु अकाली भाजपा के साथ चलते हुये इस बारे मे अत्यधिक सचेत हैं कि भाजपा की पंजाब मे तााकत निर्धारित सीमा से आगे न बढ़े। वह बराबर आशंकित था कि भाजपा पंजाब मे कहीं इतनी ताकतवर न हो जाये कि उसे ढकेलकर आगे बढ़ जाये। अतः अकाली भाजपा की आन्तरिक गतिविधियों पर भी पूरी नजर रखते हैं और उन्हे अपने अनुरूप ढालने के लिये भाजपा की आन्तरिक गतिविधियों मे भी हस्तक्षेप करते रहते हैं। अकाली इस विषय मे कितने सेंसिटिव हैं, इस बात का अन्दाज इसी से लग जाता है कि आर एस एस का सिखों के बीच कार्य करने वाला एक संगठन सिख संगत है। सिख संगत ने पंजाब मे भी और बाहर भी सिखों के बीच बहुत काम किया है। पंजाब मे सिख संगत का काम जैसे ही बढ़ा, सिख संगत के कार्यकर्ता गांव तक पंहुचने लगे, अकालियों ने विवाद खड़े करने शुरू कर दिये। अकालियों के लिये तब तक तो ठीक है, जब तक भाजपा को पंजाब मे दमदार नेता न मिले। भाजपा को दमदार नेता मिलते ही उसका हाजमा हिलने लगता है। सिद्धू के रूप मे भाजपा को पंजाब  मे दमदार लीडर मिला, जिसके सहारे पंजाब मे भाजपा अपने दम पर गाड़ी खींचने की हिम्मत दिखा सकती थी। यही स्थिति अकालियों को मंजूर नहीं थी।

भाजपा मे सिद्धू प्रकरण की मुख्य शुरूवात 2014 लोकसभा चुनाव से हुई। पूरे देश मे मोदी लहर चल रही थी, एनडीए के बहुमत मे आने के पूरे आसार थे। भाजपा अपने सहयोगियों के साथ फूंक फूंक कर कदम रख रही थी। किसी भी तरह का जोखिम लेने को तैयार नहीं थी। यहां तक कि उसने उ.प्र. और बिहार मे कई ऐसे दलों के साथ भी उन शर्तों पर समझौते किये, जिन पर सामान्य परिस्थितियों मे शायद वह कभी तैयार न होती। यही अवसर अकालियों को आपरेशन सिद्धू के लिये सबसे उपयुक्त लगा। समझौते के दबाव मे आपरेशन हो गया, सिद्धू जो पंजाब मे भाजपा के प्रचार की मुख्य धुरी होता, प्रचार से ही बाहर था। पार्टी और सिद्धू के बीच खटास पड़ चुकी थी, यही अकाली चाहते थे। केन्द्र मे सरकार बनने के बाद भाजपा डेमेज कन्ट्रोल मे लगी, सिद्धू को मनाने के प्रयास हुये और समझौता हो भी गया, सिद्धू को राज्यसभा मे भेजकर सांसद की कमी पूरी की गई। परन्तु अकालियों को सिद्धू मंजूर नहीं था जो आगे चलकर उनके लिये चुनौती बन सके। राज्यसभा मे सिद्धू को पंजाब से भेजने के लिये अकालियों के समर्थन की भी जरूरत रही और फिर बने खेल को बिगाड़ने का काम शुरू हो गया, नतीजा सामने है।

सिद्धू प्रकरण की जड़ों मे अकाली राजनीति

नवजोत सिंह सिद्धू का राज्यसभा की सदस्यता से जिस दिन स्तीफा आया था, उसी दिन से इसके बारे मे तरह तरह के कयास लगाये जा रहे थे। उनके भाजपा से अलग होने के सम्बन्ध मे कुछ इशारा उनकी विधायक पत्नी ने दिया तो था, परन्तु वह लोगों को स्पष्ट कयास लगाने के लिये पर्याप्त नहीं था। आज सिद्धू ने इस सम्बन्ध मे पत्रकार वार्ता मे कुछ बताया, कुछ नहीं बताया। भाजपा मे अपने को दरकिनार करने और पंजाब से अलग रहने की शर्त पर राज्य सभा की सदस्यता दिये जाने के मामले का उल्लेेख  सतही तौर पर शायद सही घटनाक्रम को उघेडने मे सफल न रहा हो, परन्तु यह उन लोगों को इशारा दे गया जो पंजाब की राजनीतिक गतिविधियों पर लम्बे समय से पैनी नजर रख रहे हैं। पंजाब मे भाजपा के प्रभावी चेहरों पर नजर डालें तो किसी को भी अटपटा लगेगा कि अपने जबरदस्त प्रभावी चेहरे को कोई राजनीतिक दल कैसे किनारे लगा सकता है। परन्तु राजनीति मे हाजमा बहुत दुरूस्त रखना पड़ता है। कभी दो कदम आगे तो कभी चार कदम पीछे हटना पड़ता है। सिद्धू प्रकरण भी भाजपा की चार कदम पीछे हटने की मजबूरी है, जिसके लि्ये शायद सिद्धू को मानसिक रूप से तैयार नहीं किया जा सका या फिर सिद्धू ने उस स्थिति को अपनाने से इन्कार कर दिया जो संगठन के हितचिन्तक कार्यकर्ता अपनाकर खुद को गुमनामी के अन्धेरे मे धकेलने के लिये तैयार हो जाते हैं।

वस्तुस्थिति जानने के लिये पंजाब, वहां की राजनीति, विभिन्न राजनीतिक दलों की स्थितियों का विश्लेषण जरूरी है। पंजाब मे मुख्य राजनीतिक पैठ दो दलों की है, कांग्रेस और अकाली। दोनो की पकड़ इतनी मजबूत है कि बसपा के जनक कांशीराम पंजाब के होने के बावजूद वहां पैर तक न जमा सके। राष्ट्रीय दल के रूप मे आगे बढ़ती भाजपा के लिये जरूरी था कि वह उन तमाम प्रदेशों मे क्षेत्रीय दलों के सहयोग से अपने पैर जमाये। देश के अनेको प्रान्तों मे भाजपा की यह यात्रायें और उसके परिणाम सामने हैं। पंजाब मे भाजपा ने अपने पैर जमाने के लिये अकाली दल का हाथ थामा। अकाली भी कांग्रेस को टक्कर देने के लिये सहारे की तलाश मे थे, अत: उन्होने भाजपा का हाथ पकड़ लिया। परन्तु अकाली भाजपा के साथ चलते हुये इस बारे मे अत्यधिक सचेत हैं कि भाजपा की पंजाब मे तााकत निर्धारित सीमा से आगे न बढ़े। वह बराबर आशंकित था कि भाजपा पंजाब मे कहीं इतनी ताकतवर न हो जाये कि उसे ढकेलकर आगे बढ़ जाये। अतः अकाली भाजपा की आन्तरिक गतिविधियों पर भी पूरी नजर रखते हैं और उन्हे अपने अनुरूप ढालने के लिये भाजपा की आन्तरिक गतिविधियों मे भी हस्तक्षेप करते रहते हैं। अकाली इस विषय मे कितने सेंसिटिव हैं, इस बात का अन्दाज इसी से लग जाता है कि आर एस एस का सिखों के बीच कार्य करने वाला एक संगठन सिख संगत है। सिख संगत ने पंजाब मे भी और बाहर भी सिखों के बीच बहुत काम किया है। पंजाब मे सिख संगत का काम जैसे ही बढ़ा, सिख संगत के कार्यकर्ता गांव तक पंहुचने लगे, अकालियों ने विवाद खड़े करने शुरू कर दिये। अकालियों के लिये तब तक तो ठीक है, जब तक भाजपा को पंजाब मे दमदार नेता न मिले। भाजपा को दमदार नेता मिलते ही उसका हाजमा हिलने लगता है। सिद्धू के रूप मे भाजपा को पंजाब  मे दमदार लीडर मिला, जिसके सहारे पंजाब मे भाजपा अपने दम पर गाड़ी खींचने की हिम्मत दिखा सकती थी। यही स्थिति अकालियों को मंजूर नहीं थी।

भाजपा मे सिद्धू प्रकरण की मुख्य शुरूवात 2014 लोकसभा चुनाव से हुई। पूरे देश मे मोदी लहर चल रही थी, एनडीए के बहुमत मे आने के पूरे आसार थे। भाजपा अपने सहयोगियों के साथ फूंक फूंक कर कदम रख रही थी। किसी भी तरह का जोखिम लेने को तैयार नहीं थी। यहां तक कि उसने उ.प्र. और बिहार मे कई ऐसे दलों के साथ भी उन शर्तों पर समझौते किये, जिन पर सामान्य परिस्थितियों मे शायद वह कभी तैयार न होती। यही अवसर अकालियों को आपरेशन सिद्धू के लिये सबसे उपयुक्त लगा। समझौते के दबाव मे आपरेशन हो गया, सिद्धू जो पंजाब मे भाजपा के प्रचार की मुख्य धुरी होता, प्रचार से ही बाहर था। पार्टी और सिद्धू के बीच खटास पड़ चुकी थी, यही अकाली चाहते थे। केन्द्र मे सरकार बनने के बाद भाजपा डेमेज कन्ट्रोल मे लगी, सिद्धू को मनाने के प्रयास हुये और समझौता हो भी गया, सिद्धू को राज्यसभा मे भेजकर सांसद की कमी पूरी की गई। परन्तु अकालियों को सिद्धू मंजूर नहीं था जो आगे चलकर उनके लिये चुनौती बन सके। राज्यसभा मे सिद्धू को पंजाब से भेजने के लिये अकालियों के समर्थन की भी जरूरत रही और फिर बने खेल को बिगाड़ने का काम शुरू हो गया, नतीजा सामने है।

सिद्धू प्रकरण की जड़ों मे अकाली राजनीति

नवजोत सिंह सिद्धू का राज्यसभा की सदस्यता से जिस दिन स्तीफा आया था, उसी दिन से इसके बारे मे तरह तरह के कयास लगाये जा रहे थे। उनके भाजपा से अलग होने के सम्बन्ध मे कुछ इशारा उनकी विधायक पत्नी ने दिया तो था, परन्तु वह लोगों को स्पष्ट कयास लगाने के लिये पर्याप्त नहीं था। आज सिद्धू ने इस सम्बन्ध मे पत्रकार वार्ता मे कुछ बताया, कुछ नहीं बताया। भाजपा मे अपने को दरकिनार करने और पंजाब से अलग रहने की शर्त पर राज्य सभा की सदस्यता दिये जाने के मामले का उल्लेेख  सतही तौर पर शायद सही घटनाक्रम को उघेडने मे सफल न रहा हो, परन्तु यह उन लोगों को इशारा दे गया जो पंजाब की राजनीतिक गतिविधियों पर लम्बे समय से पैनी नजर रख रहे हैं। पंजाब मे भाजपा के प्रभावी चेहरों पर नजर डालें तो किसी को भी अटपटा लगेगा कि अपने जबरदस्त प्रभावी चेहरे को कोई राजनीतिक दल कैसे किनारे लगा सकता है। परन्तु राजनीति मे हाजमा बहुत दुरूस्त रखना पड़ता है। कभी दो कदम आगे तो कभी चार कदम पीछे हटना पड़ता है। सिद्धू प्रकरण भी भाजपा की चार कदम पीछे हटने की मजबूरी है, जिसके लि्ये शायद सिद्धू को मानसिक रूप से तैयार नहीं किया जा सका या फिर सिद्धू ने उस स्थिति को अपनाने से इन्कार कर दिया जो संगठन के हितचिन्तक कार्यकर्ता अपनाकर खुद को गुमनामी के अन्धेरे मे धकेलने के लिये तैयार हो जाते हैं।

वस्तुस्थिति जानने के लिये पंजाब, वहां की राजनीति, विभिन्न राजनीतिक दलों की स्थितियों का विश्लेषण जरूरी है। पंजाब मे मुख्य राजनीतिक पैठ दो दलों की है, कांग्रेस और अकाली। दोनो की पकड़ इतनी मजबूत है कि बसपा के जनक कांशीराम पंजाब के होने के बावजूद वहां पैर तक न जमा सके। राष्ट्रीय दल के रूप मे आगे बढ़ती भाजपा के लिये जरूरी था कि वह उन तमाम प्रदेशों मे क्षेत्रीय दलों के सहयोग से अपने पैर जमाये। देश के अनेको प्रान्तों मे भाजपा की यह यात्रायें और उसके परिणाम सामने हैं। पंजाब मे भाजपा ने अपने पैर जमाने के लिये अकाली दल का हाथ थामा। अकाली भी कांग्रेस को टक्कर देने के लिये सहारे की तलाश मे थे, अत: उन्होने भाजपा का हाथ पकड़ लिया। परन्तु अकाली भाजपा के साथ चलते हुये इस बारे मे अत्यधिक सचेत हैं कि भाजपा की पंजाब मे तााकत निर्धारित सीमा से आगे न बढ़े। वह बराबर आशंकित था कि भाजपा पंजाब मे कहीं इतनी ताकतवर न हो जाये कि उसे ढकेलकर आगे बढ़ जाये। अतः अकाली भाजपा की आन्तरिक गतिविधियों पर भी पूरी नजर रखते हैं और उन्हे अपने अनुरूप ढालने के लिये भाजपा की आन्तरिक गतिविधियों मे भी हस्तक्षेप करते रहते हैं। अकाली इस विषय मे कितने सेंसिटिव हैं, इस बात का अन्दाज इसी से लग जाता है कि आर एस एस का सिखों के बीच कार्य करने वाला एक संगठन सिख संगत है। सिख संगत ने पंजाब मे भी और बाहर भी सिखों के बीच बहुत काम किया है। पंजाब मे सिख संगत का काम जैसे ही बढ़ा, सिख संगत के कार्यकर्ता गांव तक पंहुचने लगे, अकालियों ने विवाद खड़े करने शुरू कर दिये। अकालियों के लिये तब तक तो ठीक है, जब तक भाजपा को पंजाब मे दमदार नेता न मिले। भाजपा को दमदार नेता मिलते ही उसका हाजमा हिलने लगता है। सिद्धू के रूप मे भाजपा को पंजाब  मे दमदार लीडर मिला, जिसके सहारे पंजाब मे भाजपा अपने दम पर गाड़ी खींचने की हिम्मत दिखा सकती थी। यही स्थिति अकालियों को मंजूर नहीं थी।

भाजपा मे सिद्धू प्रकरण की मुख्य शुरूवात 2014 लोकसभा चुनाव से हुई। पूरे देश मे मोदी लहर चल रही थी, एनडीए के बहुमत मे आने के पूरे आसार थे। भाजपा अपने सहयोगियों के साथ फूंक फूंक कर कदम रख रही थी। किसी भी तरह का जोखिम लेने को तैयार नहीं थी। यहां तक कि उसने उ.प्र. और बिहार मे कई ऐसे दलों के साथ भी उन शर्तों पर समझौते किये, जिन पर सामान्य परिस्थितियों मे शायद वह कभी तैयार न होती। यही अवसर अकालियों को आपरेशन सिद्धू के लिये सबसे उपयुक्त लगा। समझौते के दबाव मे आपरेशन हो गया, सिद्धू जो पंजाब मे भाजपा के प्रचार की मुख्य धुरी होता, प्रचार से ही बाहर था। पार्टी और सिद्धू के बीच खटास पड़ चुकी थी, यही अकाली चाहते थे। केन्द्र मे सरकार बनने के बाद भाजपा डेमेज कन्ट्रोल मे लगी, सिद्धू को मनाने के प्रयास हुये और समझौता हो भी गया, सिद्धू को राज्यसभा मे भेजकर सांसद की कमी पूरी की गई। परन्तु अकालियों को सिद्धू मंजूर नहीं था जो आगे चलकर उनके लिये चुनौती बन सके। राज्यसभा मे सिद्धू को पंजाब से भेजने के लिये अकालियों के समर्थन की भी जरूरत रही और फिर बने खेल को बिगाड़ने का काम शुरू हो गया, नतीजा सामने है।

Wednesday 20 July 2016

राज्य सभा मे कश्मीर पर गुलाम नबी आजाद

सुन रहे हैं कश्मीर पर राज्य सभा मे गुलाम नबी के वक्तव्य का वीडियो वायरल हो रहा है। उन्होने यह कहा, वह कहा, पता नहीं क्या कहा। मैने भी कई बार गुलाम नबी का वीडियो सुना, मेरा बेबाक विश्लेषण ।

वाह खूब कहा गुलाम नबी ने, क्या खूब समझा आपने। बड़ी चालाकी से आग को सुलगता छोड़ने का काम किया है। कितने बेहतरीन हालात थे कश्मीर मे गुलाम नबी के जमाने मे, पूरी दुनिया जानती है। जब कश्ममीरी पंडित अपना घरबार छोड़ कर भागे तब हालात बेहतर थे। आपने इतने बेहतरीन हालात बनाये कि पंडित घर वापसी सोच भी नहीं सके। आपने बिल्कुल सही कहा जो आपने कश्मीर मे किया बी जे पी 50 सालों मे भी नहीं कर सकती। कैसे कर सकती है, आपने ही समस्या खडी की, आपने ही उसे खाद पानी दिया। आप सोते रहे कश्मीर मे विदेशों से आतंकवाद की जड़ें जमाने के लिये पैसा आता रहा। आपने कश्मीर मे वह करिश्मा किया कि पहले आतंकवादी बाहररी मुल्कों से आते थे। अब वहीं पैदा होने लगे हैं। गुलाम नबी ने फिर यह सिद्ध कर दिया कि कश्मीर की समस्या उनकी तुष्टीकरण की नीति और समुदाय विशेष के वोट बैंक को साधने की कोशिशों का परिणाम है। आज भी वह इसी काम मे लगे हैं। कश्मीर के ताजा महौल मे सेना ने कारगिल युद्ध के. समय से अधिक जवान खोेये हैं। गुलाम नबी के मुंह से उनके लिये एक शब्द भी नहीं फूटा।

 आपका दर्द समझ भी आता है और आपके शब्दों मे भी छलका है। कश्मीर मे इतना बेहतरीन माहौल बनाने, वहां के मुख्यमन्त्री रहने के बावजूद भी आप दशकों से लोकसभा चुनाव लड़ने के लिये, देश के दूसरे सूबों की तरफ ही भागते हैं। यहां तक कि 2014 का लोकसभा चुनाव भी आप कश्मीर से लड़ने की हिम्मत नहीं दिखा पाये। दूसरी तरफ बीजेपी कश्मीर मे सरकार बनाने की स्थिति मे आ गई। कहीं यह न हो कि आने वाले समय मे आपकी पार्टी वहां नेस्तनाबूद हो जाये और बीजेपी जम जाये।इसी झल्लाहट मे आपने यह तक कह डाला कि आने वाले 200 वर्षों तक वहां बीजेपी स्वीकार्य नहीं होगी। यह कहने के पीछे आपके जेहन मे यही चल रहा था न कि वहां एक सम्प्रदाय विशेष ने छल, बल और पाकिस्तानी मदद से आतंकवाद के सहारे जब आपको भगा दिया तो किसी दूसरे को वह भी बीजेपी जैसी पार्टी को कैसे आने देगा।

गुलाम नबी जी आप वरिष्ठ राजनीतिज्ञ हैं। आपकी जद कश्मीर ही नहीं पूरा हिन्दुस्तान है। जिसने आपको उन दिनों सर माथे पर बैठाया, जब चुनाव लड़ना तो दूर, आप मे कश्मीर मे घुसने की हिम्मत भी नहीं थी। आपके ऊपर पूरे हिन्दुस्तान का कर्ज है और वैसे भी अब आपका राजनीतिक सफर मंजिल पर पंहुच रहा है। कम से कम अब तो सच बोलने की हिम्मत दिखाइये। अब तो देश, सेना और कश्मीर घाटी छोड़ जम्मू कश्मीर के शेष भाग के लोगों की भावनाओं के अनुरूप आचरण करने की हिम्मत दिखाइये। यह न करके आप बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं। आप सक्रिय राजनीति के हाशिये की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं। आपका वर्तमान आचरण आपको गुमनामी के अन्धेरे की तरफ धकेल रहा है। याद कीजिये शेरे कश्मीर, फारूक अब्दुल्ला और अभी मरहूम हुये मुफ्ती साहब को, कुछ पर खाक चढ़ चुकी है, कुछ पर चढ़ती जा रही है। वैसे भी इनमे से किसी को वह राष्ट्रीय पहचान नहीं मिली, जो आपको हासिल है। अत: अब तो सच बोलने की हिम्मत दिखाइये, यह हमारी सलाह है, आगे आपकी मर्जी।

Thursday 30 June 2016

सरकारी कर्मचारियों की वेतनवृद्धि सर्वहारा के लिये घातक

अर्थव्यवस्था मे अतिरिक्त पैसा उसके विकास को गति देने मे सहायक होता है। आंकडे यही बताते हैं कि यदि यह अतिरिक्त पैसा ग्राहकों  के हाथों मे दिया जाये। ग्राहक इस पैसे को बाजार मे खर्च करता है जिससे बाजार मे मांग बढती है, यह मांग अतिरिक्त उत्पादन के संसाधन विकसित करने और उद्योग लगाने, उद्योग नवीन रोजगार पैदा करने मे सहायक होते हैं। यह आधुनिक अर्थशास्त्र का नियम है। जीडीपी वृद्धि के लिये छटपटाती मोदी सरकार के लिये ऐसे किसी अवसर को न चूकना  उसकी मजबूरी है। हम केन्द्र सरकार के कर्मचारियों को सातवें वेतन आयोग लागू करना इसी द्रष्टि से देखते हैं। टैक्स वृद्धि और मंहगाई से हलाकान ग्राहकों पर इस 1 करोड 2 लाख करोड़ के अतिरिक्त बोझ का घातक असर निश्चित है। केन्द्र सरकार के लगभग 1 करोड़ कर्मचारी हैं, इनमे यदि राज्य सरकारों के कर्मचारियों की संख्या भी मिला ली जाये, क्योंकि उन्हे भी इसीप्रकार की वेतन वृद्धि देनी पडेगी तो संख्या लगभग 5 करोड हो जाती है। सरकारों द्वारा की गई वेतन वृद्धि के कारण बाजार मे मुद्रा का प्रचलन बढेगा, जिसके कारण जन्म लेने वाली मुद्रास्फीर्ति पूरी आबादी पर अपना प्रभाव छोडेगी। पहले से मंहगाई से जूझने वाले ग्राहक को निश्चित रूप से इससे धक्का लगेगा।

सरकारी कर्मचारी के हाथ मे आने वाला पैसा बाजार मे आये, इसी उम्मीद मे लगे हाथ शॉप एण्ड इस्टेब्लिस्मेन्ट कानून बदलकर बाजारों को 24 x 7 घन्टे खोलने की अनुमति दे दी गई है। ग्राहकों के प्रतिनिधि के नाते हम इस कदम का स्वागत करते हैं। परन्तु इससे सम्बन्धित दुनिया के आंकडे देखने पर नहीं लगता कि इससे वह कुछ हासिल हो पायेगा जो प्रचारित कर यह कदम उठाया जा रहा है। बमुश्किल दुनिया के उंगली पर गिने जा सकने वाले शहरों मे ही यह व्यवस्था लागू हो पाई है। रोजगार मे मामूली वृद्धि ही होगी, जबकि व्यापार को इसका लाभ मिलेगा। पहले ही निजी कारखानों मे काम के 8 घन्टे कबके 12 घन्टे बन चुके हैं।

सरकार के इस कदम के साथ ही ग्राहकों को अतिरिक्त टैक्स का भार झेलने के लिये तैयार रहना चाहिये। वर्ष 2016 के 18 लाख करोड़ रूपयों के बजट को देखने से ही यह स्पष्ट हो जाता है। इस बजट मे सरकार की सभी श्रोतों से आय 12 लाख 21. हजार 818 करोड़ रुपये थी, जबकि गैर योजना खर्च 13 लाख 12 हजार 200 करोड़ रुपये यानी आमदनी से 90,372 करोड़ रुपये अधिक, अब इस अतिरिक्त 1 लाख 2 हजार करोड़ रुपये की व्यवस्था का रास्ता ग्राहकों की जेब से ही होकर गुजरने वाला है। वैसे जेटली जी को GST पास होने की उम्मीद से सर्विस टैक्स 15.5 से 18%. हो जाने की भी उम्मीद भी होगी।

मोदी को पंक्ति के अन्तिम छोर पर बैठे जिस व्यक्ति की सर्वाधिक चिन्ता है, उसी के लिये यह कदम सर्वाधिक कष्टदायी हैं। सरकार अार्थिक मामलों में कमोबेश वही कदम उठा रही है, जिनके फलों के स्वाद विश्व के कई देश चख चुके हैं। जो असफल सिद्ध हो चुके हैं। सर्वहारा को आर्थिक सक्षम बनाने तथा आर्थिक असमानता को दूर करने के मार्ग अलग और लीक से हटकर हैं। शायद उनमे भी जोखिम हो, जिसे उठाने को सरकार अभी तैयार न हो, हम उस समय का इन्तजार करेंगे।

Thursday 16 June 2016

कैराना : Ground Zero

आज उत्तर प्रदेश के शामली जिले की कैराना तहसील पूरे देश मे चर्चा मे है। कहा यह गया कि कैराना मे मुस्लिम बहुल आबादी मे गुण्डागर्दी से परेशान क्षेत्र के हिन्दू अ्ल्पसंख्यक अपना घर, व्यापार, खेती बेचकर पलायन करने लगे। देश मे जब तब सेकुलर, असहिष्णुता की बयार जब तब बहती है। अत: यह लॉबी भी ताल ठोक कर मैदान मे उतर पड़ी। यह लोग भी मानते हैं कि कुछ लोगों ने कैराना छोड़ा, पर अपने बेहतर भविष्य के लिये। वर्तमान मे दोनो आमने सामने हैं। अपने अपने तर्कों को लेकर। हम सभी बातों का सिलसिलेवार बेबाकी से विश्लेषण करेंगे। परन्तु पहले कैराना और उसके आसपास के क्षेत्र की भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक परिस्थितियों को समझ लेते हैं।

कैराना उत्तर प्रदेश की उत्तर पश्चिमी सीमा पर यमुना नदी के किनारे हरियाणा के पानीपत की सीमा से लगा है। पहले कैराना मुजफ्फरनगर जिले की तहसील हुआ करता था। वर्ष 2011 मे मायावती द्वारा शामली को जिला बनाने के बाद कैराना शामली की तहसील बन गया। सिर्फ 1998 और 2013 मे ही यहां से बीजेपी सांसद ने जीत हासिल की। 2011 जनगणना के मुताबिक़ कैराना तहसील की की जनसंख्या एक लाख 77 हजार 121 है. कैराना नगर पालिका की आबादी करीब 89 हजार है. कैराना नगर पालिका परिषद के इलाक़े में 81% मुस्लिम, 18% हिंदू और अन्य धर्मों को मानने वाले लोग 1% हैं. यूपी में साक्षरता दर 68% है लेकिन कैराना में 47% लोग ही साक्षर हैं। कैराना पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से 80 किमि, मेरठ से 72 किमि, मुजफ्फरनगर से 53 किमि, बिजनौर से किमि की दूरी पर है। यह सभी जिले अत्यधिक संवेदनशील जिले हैं। इन सभी जिलों मे वह खाद पानी पर्याप्त मात्रा मे उपलब्ध है, जो दो समुदायों के बीच सौहार्द बिगाड़ने की भूमिका निभाता है। इसपर यदि प्रशासन और कानून व्यवस्था ढीली ढाली हो तो सोने मे सोहागा। अखिलेश राज मे शासन प्रशासन की चुस्ती का अंदाज कुछ दिन पहले मथुरा मे घटित जवाहरबाग कांड से मालुम पड़ जाता है। पिछले दो-तीन वर्षों मे इन सभी स्थानों पर दंगे हो चुके हैं। यह सब हम राज्य सरकार तथा उन सेकुलर लोगों की याददाश्त ताजा करने के लिये बता रहे हैं, जिन्हे हिन्दुओं पर हुये किसी भी अत्याचार को नकारने तथा उसे जल्दी से भूलने की बीमारी है। यह भी विचित्र संयोग है कि हम जिन जिन घटनाक्रमों का जिक्र कर रहे हैं। सभी के तमगे उत्तर प्रदेश की समाजवादी अखिलेश सरकार के नाम हैं। 

सेकुलर दोस्तों और राजनीतिक दलों को सहारनपुर के कांग्रेस नेता इमरान मसूद का 2014 चुनावों मे दिया भाषण भी सुनने और गौर करने योग्य है। जिसमे वह हिन्दुओं और मोदी की स्तुति कर रहा है। सितम्बर 2013 मे मुजफ्फरनगर के कावल से हिन्दू -मुस्लिम दंगे की शुरूवात हुई, जिसने मुजफ्फरनगर और शामली जिले को अपनी चपेट मे ले लिया था, मई 2014 मे मेरठ दंगे की आग मे झुलसा, मुरादाबाद की कांठ तहसील मे जुलाई 2014 मे दंगे की चिंगारी फूटी, जुलाई 2014 मे ही सहारनपुर ने भी दंगे की आंच झेली। यह सब घटनाक्रम यह समझने के लिये पर्याप्त हैं कि कैराना से 50 से 80 कि मी की दूरी पर उस क्षेत्र का साम्प्रदायिक माहौल क्या और कैसा है। वहां पिछले 2-3 वर्षों से चल क्या रहा था। इस माहौल मे कभी भी पलायन शुरू होने की सम्भावना से इन्कार स्वार्थी तत्व ही करेंगे, आज भी कर रहे हैं। 

अब कैराना की वर्तमान घटनाओं पर आते हैं। इस क्षेत्र के स्थानीय अखबारों मे कैराना मे हिन्दुओं के डर और पलायन की छुटपुट खबरें कुछ समय से छप रही थी। एक समाचार चैनल का ध्यान इन खबरों पर गया और उसने स्टोरी करने का विचार किया। जब चैनल का संवाददाता स्टोरी कवर करने के लिये ग्राउन्ड जीरो पर पँहुचा, वहां का जो माहौल उसने देखा, उसके हाथों के तोते उड़ गये। इस तरह कैराना का जिन्न बन्द बोतल के बाहर आया। इस जिन्न ने देश की सेकुलर जमात और राज्य सरकार को बेचैन कर दिया। पलायन का सच नंगी आँखों से चुपचाप देखा महसूस किया जाता है। वह जो इसे टीवी इन्टरव्यू या गवाह की शक्ल मे देखना चाहते हैं, सिर्फ एक वर्ग को वोट के लालच मे सन्तुष्ट करने के लिये नौटंकी कर रहे हैं। आज वहां जो हालात हैं, उनको कैमरे या किसी प्रशासनिक अधिकारी को बताने मे अच्छे अच्छों की पैन्ट गीली हो जाती है। वह भी उन अधिकारियों को जिनके पक्षपाती रवैये के कारण यह स्थितियां बनी हैं। कैराना के सांसद द्वारा कैराना से पलायन करने वाले 346 तथा कांधला से पलायन करने वाले 63 लोगों की सूची पर उंगली उठाना बुनियादी रूप से गलत है। इस लिस्ट के 100-150 नाम गलत होने का सवाल उठाने वाले शेष 196 सही नामों पर खामोश रहकर, जवाबदेही से बचने का षडयन्त्र रचने मे लगे हैं। 

देश और समाज के सामने झूठी छाती पीट पीट कर शोर मचाने वाले इस वर्ग विशेष के रूदाली रूदन को देश ने हैदराबाद मे रोहित वैमूला की आत्महत्या के समय सुना, देखा और समझा। जहां रोहित का करीबी दोस्त इनसे छिटककर हकीकत बयान करता दिखा। दादरी मे अखलाक की मौत के समय देखा, जहां बाद मे मथुरा लैब की रिपोर्ट आने पर इन्हे अपने शब्दों को वापस निगलना पड़ा। जेएनयू मे देशद्रोही नारे लगाने वालों का पक्ष लेकर बंगाल चुनाव मे उतर अपनी ऐसी तैसी कराने तथा वीडियो क्लिपें सही साबित होने पर बेशर्मों की खिलखिलाते देखा और अब एक बार यह वर्ग फिर कैराना की घटनाओं को झुठलाने की कोशिश मे है। इस वर्ग के साथ किस प्रकार का व्यवहार करना है, यह निर्णय देश और समाज को करना है।

Wednesday 15 June 2016

वैश्विक शोषण से मुक्ति का एकमेव उपाय हिन्दू अर्थचिन्तन - पं दीनदयाल उपाध्याय

जब हम ब्रिटिश उपनिवेश थे, तभी देश मे इस बात का जोर शोर से प्रचार किया गया कि ज्ञान के मामले मे हमारा देश अत्यधिक पिछड़ा हुआ है। अंग्रेजों के साथ इस बात को खाद पानी देने मे उन लोगों का भी कम हाथ नहीं था, जिन्होने विदेशों मे शिक्षाा प्राप्त की थी। यह भारतीय अंग्रेजों की जीवन शैली से इतना अधिक प्रभावित थे कि इन्होने न तो भारतीय संस्कृति को जानने समझने की चेष्टा की, न ही इनमे कभी भारतीय   ग्रन्थो के विश्लेषण की क्षमता आई। दुर्भाग्य यह रहा कि १९४७ के बाद देश का नेतृत्व इसी वर्ग के हाथों मे चला गया। पाश्चात्य की अंधभक्ति से ओतप्रोत यह वर्ग देश को उसी राह पर ले गया जिस पर पश्चिमी देश कदम बढ़ा रहे थे। आज इन लोगों तथा इनके आदर्शों की सामाजिक व मानव विषयी अज्ञानता का परिणाम भारत ही नहीं, पूरा विश्व भुगत रहा है। आगे चलकर जैसे जैसे पश्चिमी विद्वानों का परिचय भारतीय दर्शन से होता गया, सभी भारतीय दर्शन के विचारों से सहमत दिखे। आर्थिक क्षेेत्र भी इसका अपवाद नहीं है, पश्चिमी विद्वानों के भारतीय दर्शन समर्थित कोटेशनों  से साहित्य पटा पड़ा है। पं दीनदयाल उपाध्याय भी इसी विचार दर्शन के संवाहक थे। यद्यपि दीनदयाल जी के जाने के बहुत समय बाद इस विषय पर एक सम्पूर्ण पुस्तक डा म ग बोकरे की Hindu Economics वर्ष 1993 मे आई। विसंगति देखिये डा बोकरे को अपने विषय से भारतीय अर्थशास्त्रियों को परिचित कराने से कहीं सरल पश्चिमी अर्थशशास्त्रियों को परिचित कराना लगा। जब डा बोकरे ने कनाडा तथा अमेरिका के प्रसिद्ध अर्थशशास्त्री जे के गालब्रेथ को हिन्दू इकनॉमिक्स से अवगत कराया, उन्होने न सिर्फ इन विचारों की सराहना की, यह भी कहा कि पश्चिमी अर्थशशास्त्रियों को प्राचीन भारत की आर्थिक व्यवस्थाओं को भी जानना समझना चाहिये।

परम पूज्यनीय गुरू जी ने प्रारम्भ मे तथा बाद मे दीनदयाल जी ने हिन्दू तत्वज्ञान के इन्ही आधारों को विकसित किया। श्री गुरू जी तथा दीनदयाल जी के विचारों मे इतनी समानता है, कि यही लगता है दीनदयाल जी श्री गुरू जी के विचारों को आगे बढ़ा रहे हैं। दोनो महानायकों की इस एकीकृत विचार सृष्टि के सम्बन्ध मे श्री दत्तोपन्त ठेंगड़ी जी एक स्थान पर अपनी पुस्तक "प्रस्तावना" मे लिखते हैं - कालीकट का अधिवेशन समाप्त हुआ था। जनसंघ के कुछ नेताओं के साथ पंडित जी बंगलोर से डोडाबल्लारपुर पँहुचे थे। वहां संघ का शिविर लगा था और स्वयं श्री गुरू जी शिविर मे उपस्थित थे। सायंकाल श्री गुरू जी का बौद्धिक वर्ग होना था। किन्तु उससे पूर्व चायपान के समय श्री गुरू जी ने कहा. " अब दीनदयाल जी बोलेंगे।" इस पर सब चकित रह गये। एक ने कहा " शिविर मे सब लोग आपके मार्ग दर्शन के लिये एकत्र हैं।" श्री गुरू जी ने कहा, "नहीं भाई! दीनदयाल जी ही बोलेंगे।" इस पर किसी ने कहा, "वह तो जनसंघ के अध्यक्ष हैं।" इस पर श्री गुरू जी ने तुरन्त कहा,"नहीं. दीनदयाल जी संघस्वयंसेवक हैं, वह स्वयंसेवक के नाते बोलेंगे, जनसंघ के अध्यक्ष के नाते नहीं ।" और श्री गुरू जी की उपस्थिति मे पंडित जी का ही बौद्धिक हुआ। श्री गुरू जी तथा दीनदयाल जी के सम्बन्ध मे जो कुछ भी पढ़ा जाना, कभी कहीं कुछ अन्तर, दो विचार लगे हीे नहीं । पंडित जी द्वारा लिखी अर्थ क्षेेत्र की पुस्तक "भारतीय अर्थनीति विकास की एक दिशा" हो या फिर उनके विचारों पर लिखे गये "विचार दर्शन"। अर्थक्षेेत्र मे पंडित जी  श्री गुरू जी द्वारा 1973 के ठाणे शिविर मे बताये. बिन्दुओं को विस्तारित करते दिखे। मानव जाति के कल्याण के लिये इससे बेहतर कोई अन्य मार्ग है भी  नहीं । श्री गुरू जी द्वारा बताये अर्थक्षेेत्र के यह बिन्दु भौगोलिक, सामाजिक मर्यादाओं से परे जीवन का शाश्वत सत्य हैं। जो अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत तथा अन्य अर्थक्षेेत्र के संगठनों के लिये वेद वाक्य हैं -

1.  प्रत्येक नागरिक को जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति मिलनी चाहिये।

2. समाज की सेवा करने के उद्देश्य से ईश्वर का बनाया भौतिक धन, नैतिक तरीकों से         अर्जित करना चाहिये। उसमे से अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये न्यूनतम लेना चाहिये ताकि आप स्वयं को समाज की सेवा करने की स्थिति मेे बनाकर रख सकें, अपने उपयोग के लिये उससे अधिक धन का उपयोग समाज के धन की चोरी माना जायेगा।

3. हम समाज के न्यासी मात्र हैं, हम समाज की सच्ची सेवा तभी कर पायेंगे, जब हम सही अथों मे समाज के न्यासी बन सकें।

4. व्यक्तिगत सम्पत्ति की सीमा निर्धारित की जानी चाहिये, अपने लाभ के लिये किसी को दूसरे के शोषण का अधिकार नहीं होना चाहिये।

5. जिस देश समाज मे लाखों लोग भूख से मर रहे हों, विलासिता तथा आडम्बरपूर्ण खर्च करना पाप है। सभी प्रकार के उपभोगों पर युक्ति संगत प्रतिबन्ध लगने चाहिये। उपभोगवाद तथा हिन्दू संस्कृति की आत्मा मे कोई सम्बन्ध नहीं ।

6. हमारा ध्येय अधिकतम उत्पादन, समान वितरण होना चाहिये। राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाना हमारा त्वरित ध्येय होना चाहिये।

7. बेरोजगारी और अर्धरोजगारी की समस्या से युद्धस्तर पर निपटना चाहिये।

8. औद्योगीकरण आवश्यक होने पर भी पश्चिमी देशों की तरफ देखकर इसका अन्धानुकरण नहीं किया जाना चाहिये। प्रकृति का शोषण नहीं दोहन हो। हमारी द्रष्टि से पर्यावरण, प्राकृतिक सन्तुलन तथा भावी पीढ़ियों की आवश्यकतायें कभी ओझल नहीं हहोनी चाहिये । शिक्षाा, पर्यावरण, अर्थशास्त्र तथा नीतिशास्त्र का सम्पूर्ण विचार होना चाहिये।

9. हमे प्रचंड पूजी वाले उद्योगों की अपेक्षाा श्रमोन्मुखी परियोजनाओं पर अधिक बल देना चाहिये।

10. हमारे तकनीकज्ञों को पारम्परिक उत्पादन तकनीक मे सुधार लाने वाले तन्त्रज्ञाान को विकसित करना चाहिये, इस बात का ध्यान रहे कि इन सुधारों से श्रमिकों की बेरोजगारी न बढ़े। उपलब्ध व्यवस्थापकीय या तकनीकी कौशल बरबाद न हो। वर्तमान उत्पादन साधन पूंजी के प्रभाव से पूर्ण मुक्त हों। इसके लिये उत्पादन के केन्द्र कारखाने न होकर, ऊर्जा की सहायता से गृहउद्योगों की मौलिक तकनीक का विकसित स्वरूप हो।

11. उत्पादकता तथा रोजगार वृद्धि का नियमित आकलन हो।

12. श्रम भी उद्योग की पूंजी है। श्रमिकों के श्रम का मूल्यांकन कम्पनी के अंश (share) के रूप मे किया जाना चाहिये। श्रम को पूंजी मानकर श्रमिकों को अंशधारक के रूप मे प्रोन्नत कर श्रमिकों का स्तर उठाना चाहिये ।

13. ग्राहक हित तथा देश का आर्थिक हित समतुल्य है। सभी औद्योगिक सम्बन्धों मे तीसरा पक्ष सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। सामूहिक सौदेबाजी का वर्तमान पश्चिमी स्वरूप इसके अनुरूप नहीं है। इसे किसी अन्य सम्बोधन जैसे राष्ट्रीय वचनबद्धता से जोड़ा जाना चाहिये। मालिक तथा कर्मचारी दोनो. की वचनबद्धता राष्ट्र के प्रति हो।

14. श्रम का अतिरिक्त मूल्य राष्ट्र को समर्पित किया जाना चाहिये।

15. हम औद्योगिक स्वामित्व के सम्बन्ध मे किसी कठोर नीति के समर्थक नहीं हैं, सभी प्रकार के स्वरूपों जैसे निजी उद्योग, राज्य के उद्योग, स्वयं रोजगार, संयुक्त स्वामित्व, राज्य व निजी स्वामित्व तथा लोकतान्त्रिक ढ़ांचे वाले आदि आदि। प्रत्येक उद्योग के स्वामित्व का निर्धारण उसके चरित्र तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था मे योगदान के अनुरूप तय किया जाना चाहिये।
16. हम आर्थिक, सामाजिक नीति का कोई भी स्वरूप विकसित करने के लिये स्वतन्त्र हैं, अनिवार्य यह. है कि वह नीति धर्म के मूलचरित्र के अनुरूप हो।

17. सामाजिक ढ़ांचे मे परिवर्तन का तब तक कोई उपयोग नहीं, जब तक प्रत्येक नागरिक के विचारों को उपयुक्त दिशा न दी जाये। व्यवस्था का अच्छा या बुरा संचालन उसे संचालित करने वाले व्यक्तियों पर निर्भर करता है।

18. व्यक्तिगत तथा सामाजिक सम्बन्धों के बारे मे हमारा द्रष्टिकोण संघर्षात्मक नहीं, सहिष्णु हो। उसका भाव हो कि सभी प्राणियों मे एक ही तत्व विद्यमान है। सामूहिक, सामाजिक व्यक्तित्व का व्यक्ति जीवित प्रतिबिम्ब है।

19. किसी भी राष्ट्र के सामाजिक, आर्थिक क्रम के वास्तविक ढा़ंचे को गढ़ने के लिये उसका संस्कारित होना आवश्यक है।

पंडित जी मौलिक चिन्तक थे। उन्हे मालूम था कि कल्याणकारी अर्थव्यवस़्था का यही मार्ग है। इन तत्वों की सरल तथा विस्तृत व्याख्या अपने साहित्य तथा सम्बोधनों मे की है। कल तक यह तत्व विश्व के लिये जितने आवश्यक थे, आज विश्व को इनकी कहीं अधिक आवश्यकता है। वर्तमान मे हम जिस मार्ग पर चल रहे हैं, वह असमानता की दिशा मे ले जाता है और हम इस मार्ग पर काफी दूर निकल चुके हैं। आज वैश्विक अर्थक्षेेत्र असमानता की इस घुटन को झेलने के लिये बाध्य है। विकास का लक्ष्य्य लेकर गढ़ी गई अर्थ क्षेेत्र की तमाम परिभाषायें आज पथभ्रष्ट हो मुट्ठी भर लोगों के हित संरक्षण मे लगी हैं। संरक्षण का यह दायरा भी धीरे धीरे संकुचित होता जा रहा है। बड़ी बात यह कि इस घुटन से मुक्ति के प्रयास मे जो भी, जहां भी हाथ पैर मार रहा है। वह मुक्त होने के स्थान पर और अधिक जकड़ता जा रहा है। आज विश्व के सामने पं दीनदयाल जी द्वारा बताये मार्ग के अतिरिक्त कोई पर्याय नहीं।

Monday 13 June 2016

देश मे जाति और धर्म के ढ़ोंग की राजनीति

सभी राजनीतिक दल जाति और धर्म आधारित राजनीति करते हैं। इसमे कोई विवाद नहीं। सभी ने इसी आधार पर अपने अपने वोट बैंक पकड़ रखे हैं। वह जो भी कहते करते हैं, इसी वोट बैंक को ध्यान मे रखकर। उन्हे न तो समाज टूटने से कुछ लेना देना है, न देश टूटने से कोई मतलब। बस अपनी राजनीति चलनी चाहिये । अतः सुबह शाम ये नेता सिर्फ और सिर्फ अपनी जुगत बैठाने मे लगे रहते हैं।

भारत मे लोकतन्त्र सिर्फ कहने के लिये रही है, वैसे भी शिक्षा के अभाव मे लोकतन्त्र गुन्डों का अड्डा बनकर रह जाता है, जो आजकल बना हुआ है। दोनो मुख्य धर्मों हिन्दू व मुसलमान की इस लोकतान्त्रिक व्यवस्था मे महत्वपूर्ण भूमिका है। हिन्दू बहुसंख्य है, यह जिस ओर झुकेगा सत्ता उधर ही जाय़ेगी। परन्तु जो हमेशा और सिर्फ हिन्दू की बात करेगा मुसलमान उसके विरोध मे चले जायेंगे। वैसे भी 1947 मे धर्म के आधार पर बटवारा होने के बाद जो मुसलमान यहां रूक गये थे, उन्हे बहलाना,डराना आसान था। अतः सभी राजनीतिक दलों को मुसलमानों को चलाने, बहलाने की राह एकमुस्त बहुत से वोटों के लिये आसान लगी। सब इसी मे लग गये और लगे हैं। परन्तु मुसलमान वोट जीत वह भी सत्ता वाली दिलाने मे नाकाफी थे। इसके लिये आवश्यक था कि कुछ हिन्दुओं के वोट भी हासिल किये जायें। हिन्दू वोट हासिल करने के लिये हिन्दुओं को अलग अलग जाति मे बांटना  जरूरी था। बांटना भी गया। 1947 के पहले हिन्दुओं मे इतने जाति समूह नजर नहीं आते थे, जितने आज हैं। इसे योजनाबद्ध तरीके से किया गया। जिसके कारण जीत की समीकरणें को बैठाने के लिये राजनीतिक दलों की गणना मात्र दो बातें पर आ टिकी। मुसलमानों के वोट हासिल करना तथा हिन्दुओं को जातिगत आधार पर बांटना कर कुछ जातियों का प्रबन्धन करना। यह राह आसान है, यही वजह है कि देश मे मुसलमान समुदाय के साथ घटित छोटी से छोटी घटना पर सभी राजनीतिक दल मुखर हो उठते हैं, नहीं हिन्दुओं के साथ घटित बड़ी से बड़ी घटना से कन्नी काटने के प्रयास मे रहते हैं। क्योंकि उनकी समीकरण तो मुसलमान और हिन्दुओं को जातियों मे बांटकर एक समूह तक मर्यादित है। सभी राजनीतिक दल यही कर रहे हैं। आजकल तो यह करने के लिये देश की अस्मिता, प्रतिष्ठा को दांव पर लगाने मे भी हिचक नहीं रह गई है ।

अपने देश मे इसकी शुरूवात आजादी के बाद से ही हो गई थी। जब तक देश की राजनीति विकसित हो पाती नेहरू समझ गये थे कि लम्बे समय तक देश पर शासन करने के लिए, वोट बैंक बनाना जरूरी है। अतः नेहरू ने जिन्ना तथा मुसलमानों का जबरदस्त विरोध कर पाकिस्तान बनवाने के बाद भी, आजादी की लड़ाई मे कांग्रेस मे साथ रहे कुछ राष्ट्रवादी मुसलमानों को पकड़कर, जो पाकिस्तान नहीं गये थे, मुसलमानों पर वोटों के लिये पकड़ बनाई। दूसरी तरफ हिन्दुओं को दलितों, पिछड़ों मे बांटा तथा उनके हितैषी बनने का ढोंग रचकर उनके गले मे आरक्षण का मेडल लटकाया। डा बाबा साहब आंबेडकर नेहरू की इन चालबाजियों को समझते थे।  वह जानते थे कि दलितों को यदि देश की मुख्य धारा मे लाना है तो क्या करना है। यही वजह है कि नेहरू ने बाबा साहब का विरोध कर उन्हे कभी चुनावों जीतने नहीं दिया। क्योंकि बाबा साहब के आगे बढने का अर्थ था दलितों का नेहरू व कांग्रेस के हाथों से फिसलना। नेहरू यह भी जानते थे कि यदि मुसलमानों और दलितों को अपने साथ रखना है तो उनके शिक्षित नहीं होने देना है। क्योंकि यदि यह वर्ग शिक्षित हो गये तो इनको बेवकूफ बनायेंगे रखना सम्भव नहीं रहेगा। अतः नेहरू और कांग्रेस ने इन वर्गों को रेवड़ियां तो बांटा परन्तु शिक्षा से दूर रखा। इन वर्गों के लिये अपनी इन्ही नीतियों के सहारे कांग्रेस ने देश पर इतने लम्बे समय तक शासन किया। जैसे जैसे यह वर्ग शिक्षित होते गये, इनका मोह भंग होता गया। यह कांग्रेस से छिटकते गये।

कांग्रेस से मुसलमानों और दलितों के छिटकने के बाद, बहुत से राजनीतिक दल इन्हे लपकने के लिये आगे बढे। जिसके लिये उन्होने अपनी बांसुरी पर सिर्फ इन्ही की खुशामद मे गीत गाने शुरू कर दिये। इन लोगों ने हिन्दुओं के अन्य वर्गों को पूरी तरह अनदेखा कर, उन्हे संभालने की जिम्मेदारी अपने स्थानीय और छुटभैये नेताओं को दे दी। यही वजह है देश मे हिन्दुओं से सम्बन्धित बड़ी से बड़ी घटना घटित होने पर भी, राजनीतिक दलों की खामोशी दिखाई पड़ती है। परन्तु इन सभी राजनीतिक दलों के देशव्यापी आधार के अभाव मे यह दल क्षेत्रीय दलों की भूमिका मे सिमट गये। देश मे आज यही स्थिति है।

अपने सीमित प्रभाव, कार्यकर्ताओं तथा संसाधनों के साथ साथ आसान जिताऊ समीकरणों के कारण, भाजपा के अतिरिक्त सभी राजनीतिक दल मुसलमान + दलित/यादव/राजपूत/ब्राह्मण आदि आदि समीकरणों बनाने मे उलझे हुये हैं। विशेष रूप से मुसलमान + दलित समीकरण मे, यही वजह है चाहे वह दादरी के अखलाक की घटना हो, हैदराबाद मे रोहित वैमूला की आत्महत्या हो, जे एन यू मे देशद्रोही प्रदर्शन हो लगभग सभी राजनीतिक दल जोर शोर से विलाप करने लगते हैं । परन्तु मालदा, कैराना की घटनाओं पर इनको सांप सूंघ जाता है।

इस राजनीतिक उथल पुथल के बीच देश तथा समाज किस दिशा मे बढ़ रहा है किसी से छिपा नहीं है। इस देश के नागरिक चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, आपस मे बंटकर राजनीतिक दलों के लिये सिर्फ एक कोमोडिटी बनकर रहना चाहते हैं या आपस मे एक होकर विकास के रास्ते पर बढ़ने, दुनिया मे देश का नाम चमकाने के लिये इन राजनीतिक दलों का देश व समाज हित मे शुद्धीकरण करना चाहते हैं ।

Saturday 11 June 2016

स्विट्जरलैंड के लोगों ने मुफ्त वेतन क्यों ठुकराया

स्विट्जरलैंड अपने वयस्क बेरोजगार नागरिकों को 2500 स्विस फ्रेक लगभग 1लाख 73 हजार तथा 18 वर्ष से कम उम्र वालों को 625 स्विस फ्रेक लगभग 43 हजार प्रतिमाह का वेतन देना चाहता था। इसके लिये वहां की सरकार ने लोगों से राय मांगी, 5 जून को वोटिंग हुई और इस प्रस्ताव के विरोध मे 77 प्रतिशत वोट पड़े, नतीजतन प्रस्ताव फेल हो गया। बस फिर क्या था, देश मे तरह तरह की प्रतिक्रियायें शुरू हो गई। किसी ने इसके वहां के लोगों की खुद्दारी से तोला, किसी ने वहां के मेहनतकशों की बल्लैया ली और अपने देश के लोगों को निखट्टू, कामचोर तथा मुफ्तखोर के विशेषणों से विभूषित कर दिया। चुनावों मे मुफ्तखोरी का वादा करने वालों के हाथों बिकने की लानत मलानत दे डाली।

यह आर्थिक प्रश्न हैं। इनके उत्तर सीधे और सरल नहीं होते।अपने गर्भ मे यह बहुत से प्रश्न छिपाये रहते हैं। इसका विश्लेषण उस तरह तो बिल्कुल नहीं किया जा सकता जैसे किया गया। इस विश्लेषण मे विश्लेषक भी गलत नहीं, उन्होने दिल्ली, तमिलनाडु, उडीसा तथा उत्तर प्रदेश मे लोगों को मुफ्त चुनावी वादों के पीछे अपने अरमान चमकाने के लिये भागते देखा और तुलना कर दी। देश के बहुसंख्य लोगों के चेहरे पर मुफ्तखोरी का लेबल चिपका दिया। मै देश के जनसाधारण की उस मानसिकता का पक्षधर नहीं जो भ्रष्ट राजनीतिज्ञों, अधिकारियों तथा व्यापारियों के हाथों स्वयं को लुटते देखने के बाद, भागते भूत की लंगोटी पकड़ना चाहता है। एक और कहावत है - भूखे भजन न होई गोपाला। ऋगवेग मे भी कहा गया है - बुभुक्षित: किम् न करोति पापम्! अर्थात भूख से पीडित व्यक्ति कुछ करे, वह पाप नहीं होता। सामाजिक मूल्यों के पतन को भी इन स्थितियों मे समाज की मान्यता मिलने लगती है। इसीलिये पंडित दीनदयाल उपाध्याय अर्थायाम यानी अर्थ के अभाव तथा अर्थ के प्रभाव से मुक्त अर्थव्यवस्था का समर्थन करते थे। मेरे इन तर्कों से आधुनिक अर्थशास्त्र का अभ्यास करने वाले तथा सेकुलर जमात के लोग चिल्लाने लगेंगे कि यहां भी हिन्दू विचार घुसेड़ रहा है । छोड़िये हम आज चलने वाले अर्थशास्त्र के आधार पर ही स्विट्जरलैंड तथा अपने देश के लोगों की मानसिकता को परख लेते हैं। वैसे एक बात तय है, नागरिक किसी भी देश के हों, निम्न तथा मध्यम आय वर्ग के लोग ही देश तथा समाज के निर्माण मे सर्वाधिक योगदान करते हैं। अपने परिवार की खुशियों की कीमत पर भी।

अर्थशास्त्र मे एक "उपयोगिता ह्रास" का सिद्धान्त है। जिसमे बताया जाता है कि किसी वस्तुओं की उपयोगिता उसके मिल जाने पर धीरे धीरे कम होती जाती है, जैसे कोई व्यक्ति बहुत भूखा है। उसे खाने के लिये एक रोटी मिल जाये, तो उस रोटी की उपयोगिता भूखे के लिये अधिकतम होगी। भूखे को जैसे जैसे अतिरिक्त रोटी. मिलती जायेगी, इन अतिरिक्त रोटियों की उपयोगिता उसी भूखे व्यक्ति के लिये क्रमश: कम होती जायेगी तथा एक बिन्दु पर वह शून्य हो जायेगी । अतः इस प्रश्न का उत्तर भारत तथा स्विट्जरलैंड, साथ ही वहां के लोगों की आर्थिक स्थितियों की समीक्षा किये बिना बेमानी है। कम से कम स्वस्थ एवं निष्पक्ष विवेचना की यही मांग है ।

वर्ष 2014 मे विश्व हैं द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार स्विट्जरलैंड 84,720 डालर प्रति व्यक्ति आय के साथ विश्व मे 8वें नम्बर पर है और हमारे देश की प्रति व्यक्ति आय मात्र 1570 डालर है, स्विट्जरलैंड से लगभग 55 गुना कम। हम 213 देशों की सूची मे 180वें स्थान पर हैं। यद्यपि मै राष्ट्रीय आय के इन औसत आंकड़ों से सहमति नहीं रखता, क्योंकि अधिकतम और निम्नतम मे तफावत बहुत अधिक है। अपने देश मे पिछले दिनों उत्तर प्रदेश मे भूख से तीन मौतें भी हुई हैं, 1570 डालर की आय के बावजूद । इसे आप विचित्र विसंगति मानेंगे या नहीं । आय मे तफावत स्विट्जरलैंड मे भी कुछ कम नहीं है, स्विट्जरलैंड के फेडरल स्टेटिक्स विभाग द्वारा जारी आंकड़ों के हिसाब से वर्ष 2013 मे 50% अधिकतम आय वाले व्यक्तियों ने राजस्व का 80% आय के रूप मे प्राप्त किया। जबकि बाकी बचे 50% लोग राजस्व का मात्र 20% ही घर ले जा पाये।

परन्तु इससे आगे जो हुआ वह विचार करने योग्य है। वहां की सरकार ने 50% अधिकतम कमाई करने वालों की कुछ आय को निम्न आय वाले घटकों को स्थानान्तरित कर तथा आर्थिक रूप से कमजोर घटक को कुछ सामाजिक सुरक्षा लाभ उपलब्ध करवा कर, इस अन्तर को कम किया। जिसके बाद उच्च आय घटक की आय घटकर 70% रह गई तथा निम्न घटक की आय बढ़कर 30% हो गई। यही नहीं अाय असमानता कम करने के इस प्रयास मे सरकार द्वारा सबसे कम आय वाले 10% वर्ग की आय को 54 गुना बढ़ाया गया तथा इसके बाद वाले घटकों की आय को 4 गुना बढ़ाकर आय के अन्तर को 4.9 गुना सीमित किया गया।

अब अपने देश की भी बात कर लेते हैं, गरीबों की मदद तो छोड़िये, उनसे वसूल किये गये अप्रत्यक्ष कर मे से वर्ष 2005-06 से 2013-14 तक कार्पोरेट घरानों को 36.5 लाख करोड़ रुपये कर्ज माफी के रूप मे दे दिये गये। यानी जो कुछ स्विट्जरलैंड मे हुआ ठीक उसका उल्टा। वहां अमीरों से पैसा लेकर गरीबों को दिया जा रहा है और यहां गरीबों से लेकर अमीरों को। सरकार, राजनेताओं, नौकरशाह, अमीर सब इसी काम मे लगे हैं। गरीब मध्यम वर्ग को लूटने के नये नये तरीके ईजाद करने मे लगे हैं। इन हालातों मे यदि गरीब कहीं मुफ्त मिलने वाले माल को लपक लेना चाहता है तो हाय तोबा क्यों? मै यह नहीं रहता कि यह रवायत सही है। सच बात तो यह है कि हम गहरी खाई की तरफ बढ़ते जा रहे हैं, परन्तु गलत तो सभी हैं, ठीक भी सभी को करना पड़ेगा। उत्कृष्ट प्रबन्धन तो यही कहता है कि छोटे मोटे गढ्ढों को छोड़कर बड़े तथा गहरे गढ्ढों पर पहले ध्यान दो। यकीन मानिये भारत के लोग त्याग करने मे, वह भी देश समाज के लिये, विश्व मे सबसे आगे हैं। 
(पं दीनदयाल विचार दर्शन, एकात्म अर्थनीति, Corporate Karza Mafi - P S Sainath, World Bank Data Table,Atlas Method, Inequality in Switzerland by Le News 1.2.16)

Thursday 9 June 2016

धनुर्धर बैठा रहा युद्ध हार गये।

२ जनवरी २०१६ को यह ब्लाग लिखा गया था, तब और अब की स्थितियों मे अन्तर आया है। राष्ट्रीय स्तर पर भी और अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर भी। असम मे सरकार बनाकर, बहंगाल मे स्थिति मजबूत कर तथा केरल मे घुसपैठ ने भाजपा को निश्चय ही दिल्ली और बिहार की हार से उबारा है। मोदी की अर्न्तराष्ट्रीय छवि भी मजबूत हुई है। परन्तु यह सब बिहार और उत्तर प्रदेश के वोटरों के लिये बेमानी है (बिहार चुनावों के सम्बन्ध मे लिखे मेरे ब्लाग दि २३ जून २०१५ के अनुसार जातिगत समीकरणें ही हावी रही)। उत्तर प्रदेश मे भी स्थितियां भिन्न नहीं होंगी। दलगत समीकरणें भी बदलेंगी। मै अपने पुराने ब्लाग को यहां उद्धृत कर रहा हूं, जो स्थितियों की समीक्षाा मे सहायक होगा। 



(दिल्ली, बिहार के चुनावों मे भाजपा ने अपने सभी शस्त्रों को परखे बगैर ही हार मान ली। भाजपा के पास अर्जुन के गाण्डीव की शक्ति थी, परन्तु न जाने क्यों गांडीव पर प्रत्यंचा चढे बिना ही युद्ध के शंखनाद के साथ अस्त भी हो गया और युद्ध विद्या का एक कुशल धनुर्धर पराक्रम दिखाये बगैर अपने शिविर मे लौट गया, दूसरे सेनानियों की तरह पराजय का दंश झेलने, वह भी बिना एक शब्द बोले, बिना उफ किये, एक संगठित सिपाही की तरह। हम यहां भाजपा के पूर्व संगठन मन्त्री संजय जोशी की बात कर रहे हैं।

संगठन मे एक नहीं अनेक योद्धाओं की आवश्यकता पडती है। मोदी, अमित शाह और संगठन के अन्य नेताओं की क्षमताओं पर प्रश्न चिन्ह लगाना गलत है। सभी अपनी अपनी विधाओं मे पारंगत होते हैं। शायद दिल्ली और बिहार को जिन विधाओं मे पारंगत सेनानी की आवश्यकता थी, वह संजय के पास हो। संजय जोशी के संगठन मन्त्री का कार्यकाल आज भी लोगों को भूला नहीं है। निर्वसित जीवन जीते हुये संगठन मे अपनी छाप बनाये रखना, अनुशासनबद्ध सैनिक की तरह होंठ बन्द किये हुये संगठन साधना करने वाले कार्यकर्ता बहुत भाग्य से मिलते हैं। अत: उनकी क्षमताओं का संगठन हित मे देश और संगठन के लिये उपयोग किया जाना चाहिये।

आसाम, उत्तर प्रदेश तथा कर्नाटक चुनाव सामने हैं। भाजपा संगठन मे नवीन प्राण संचार करने की आवश्यकता है। वैसे भी वरिष्ठ होते अनेको कार्यकर्ताओं द्वारा रिक्त किये जाने वाले स्थानों के लिये वरिष्ठ अनुभवी कार्यकर्ताओं की संगठन मे बहुत कमी है।

देश की राजनीति जिस प्रकार के बवंडर का स्वरुप लेती जा रही है। उससे निपटने के लिये भाजपा पूरी तरह सुसज्ज नहीं है। इन परिस्थितियों मे संजय जोशी जैसे कुशल संगठनकर्ता को देश, समाज और दीनदयाल जी के संकल्पों की हित रक्षा मे अनिवार्य हो जाता है। सभी इस पर गम्भीरता से विचार करें, यही प्रार्थना।)पुरानी ब्लाग ।

२०१४ के लोकसभा चुनावों और राज्य के चुनावों के  अन्तर के साथ, प्रदेश स्तर पर भाजपा मे सक्षम नेतृत्व का अभाव ही राजनाथ को प्रदेश नेतृत्व की बागडोर सौंपने की अटकलों को जन्म दे रहा है। याद रहे बिहार मे भी नाम चीन नेताओं की कमी नहीं थी, परन्तु सभी के किलो भरभरा कर ढह गये, वह भी चारा चोरी के मामले मे सजायाफ्ता नेतृत्व से। इसीप्रकार उतर प्रदेश के वर्तमान हालात चाहे जो हों, चुनावी गणित बैठाने प्रदेश के चुनावों को जीतने के लिये नीचे के स्तर पर मजबूत संगठनात्मक पकड़ की जबरदस्त आवश्यकता है, जिसका अभी अभाव है। राष्ट्रीय संगठन मन्त्री रामलाल जी की उत्तर प्रदेश मे संगठन पर पकड़ है, परन्तु इन परिस्थितियों मे संजय जोशी की उपेक्षाा मंहगी साबित हो सकती है। 

Wednesday 4 May 2016

विश्व की अर्थव्यवस़्था किस करवट बैठने जा रही है।

पिछले दो वर्षों मे विश्व के आर्थिक क्षितिज पर दो बड़ी घटनायें हुई हैं, जिन्होने विश्व के राजनीतिज्ञों, अर्थशास्त्रियों, उद्योगपतियों तथा व्यापारियों को हतप्रभ कर दिया है। यह तो तय है कि यह घटनाक्रम विश्व की तमाम अर्थव्यवस्थाओं पर दूरगामी परिणाम डालने वाला है परन्तु सभी सांस रोके निष्कर्ष निकालने के प्रयास मे हैं।

पिछले दिनोंं की पहली बड़ी घटना बहुत तीव्र गति से विकास की सरपट सीढ़िय़ां चढ़ने वाली चीन की अर्थव्यवस़्था का मन्दी का शिकार होना, इस घटना ने विश्व को दातों तले उंगली दबाने को मजबूर कर दिया। लोग अभी भी चीन के मन्दी से उबरने के इन्तजार मे हैं। अपने देश मे उद्योगपतियों, अर्थशास्त्रियों ने हमेशा सरकार का रूख अपने पक्ष मे करने के लिये चीन का नाम ले लेकर डराया है। सरकार भी हमेशा चीन का हौव्वा खड़ा करती रही है। आज सभी खामोश बैठे हैं, उस भूत के सामने आने के इन्तजार मे जो बहुत पहले अपने आने की आहट दे चुका है। चीन ही नहीं पूरी दुनिया की अर्थव्यवस़्था इससे प्रभावित होने वाली है। विशेष रूप से वह देश जो अपने विकास की राह ढूंढते समय इन तथ्यों को अनदेखा करेंगे। चीन की इस गिरावट का विश्लेषण करने का प्रयास करते हैं।
दशकों तक अमेरिका चीन मे उत्पादन की बाढ़ लाये हुये था। यूरोपीय देश भी इसमे सहभागी बनकर चीन मे होने वाले उत्पादन को प्रोत्साहित कर रहे थे। जिसे चीन मे श्रम की बढ़ती कीमतों, विदेशों से कच्चे माल को मंगाने और तैयार होने के बाद उसे वापस भेजने के खर्च तथा मशीनों के बढते आटोमेशन खर्च ने चीन की उत्पादन व्यवस्था के गणित को बुरी तरह गड़बड़ा दिया है। अभी इस गिरावट मे रोबोटों के बढते उपयोग का प्रभाव पड़ना बाकी है। यह नहीं कि चीन को रोबोट तकनीक के विकसित होने की जानकारी नहीं है। उसकी योजना श्रमिकों को रोबोट से बदलने के कार्य मे विश्व के शीर्ष पर रहने की है। चीन का गुआन्गडोंग प्रान्त विश्व का पहला श्रमशून्य क्षेत्र बन रहा है, जहां 1000 रोबोट 2000 श्रमिकों का कार्य करेंगे। चीन को इस प्रयोग मे श्रम के बढ़ते मूल्य के कारण उत्पन्न समस्या का समाधान नजर आ रहा है।

फॉक्सकान वर्ष 2011 मे ही घोषणा की थी कि वह अपने 1 मिलियन श्रमिकों को कम कर उनका कार्य रोबोटों से करायेगी। परन्तु यह हो नहीं पाया क्योंकि रोबोट श्रमिकों के साथ मिलकर संवेदनशील सर्किटबोर्ड की रचना बनाने मे सफल नहीं हो सके। परन्तु नये मॉडल के रोबोट ABBs Yumi तथा रिथिन्क रोबोट Sawyer यह कार्य करने मे सक्षम हैं। इन मॉडलों के रोबोट सुई मे धागा डालने जैसे काम करने मे भी सक्षम हैं। इनकी कीमत भी कार की कीमत जितनी है।

अभी चीन की समस्या यह है कि उसके रोबोट पश्चिमी देशों के रोबोटों के समान उत्पादक नहीं हैं। फिर भी वह 24x7 सभी काम करते हैं। वह अपनी यूनियन भी नहीं बनायेंगे, उनकी लागत भी उनको चलाने वाली ऊर्जा की लागत के बराबर ही आती है। परन्तु फिर भी उत्पादन और माल लाने ले जाने मे लगने वाले लम्बे समय तथा खर्च के कारण अब यह उपयोगी नहीं रह गया कि कच्चे माल को समुद्रोंं के पार सिर्फ असेम्बल करने भेजा जाये और असेम्बल होने के बाद उसको वापस मंगाया जाये। वस्तुओं का उत्पादन अब स्थानीय उद्योग का स्वरूप लेता जा रहा है।

यद्यपि पश्चिमी कम्पनियों को रोबोटों द्वारा आने वाली कठिनाईयों को समझने, स्वचलित उद्योगों की स्थापना करने, श्रमिकों को दक्ष करने तथा चीन जैसी वितरण प्रणाली की  श्रंखला बनाने समझने में वर्षों लग जायेंगे, परन्तु इन सभी समस्यायों के हल कठिन नहीं हैं। वर्तमान मे उत्पादन तन्त्र के पश्चिम प्रवेश की गति बहुत धीमी है, आने वाले 5 - 7 वर्षों मे इन घटनाओं की बाढ़ आने वाली है।

विश्व की दूसरी बड़ी घटना तेलों के दामों के धड़ाम होने की है। लगभग पूरी दुनिया यह सोच रही है कि कीमतों मे कमी मांग और पूर्ति के आधार पर हुई है। कीमतें पुनः उछाल मारेंगी। इसी तरह चीन की अर्थव्यवस़्था भी पुनः पटरी पर आयेगी। स्टेनफोर्ड रिसर्च इन्सटीट्यूट, अमेरिका के विवेक वाधवा का कहना है कि लोग विश्वभर मे होने वाले भूराजनीतिक परिवर्तन से अनभिज्ञ हैं। हमें चीन की अर्थव्यवस़्था के उभरने की चिन्ता छोड़, उसके और गिरने से डरना चाहिये। तेल की कीमतों का तथ्य भी यही हैं कि आने वाले 4 - 5 सालों तक थोड़ा अधिक ऊपर नीचे देखते हुये यह उद्योग डायनासोर की राह का अनुसरण करने जा रहा है। इन सबके कारण आने वाले समय मे जल्दी ही विश्व के आर्थिक सन्तुलन मे बदलाव आयेगा।

विश्व मे होने वाले तकनीक परिवर्तन को देखते हुये विवेक की बात युक्ति संगत लगती है। LED बल्ब, गर्म व ठंडा करने की बेहतर व्यवस्थायें, कम्प्यूटरीकृत सॉफ्टवेयर के आटोमोबाइल उद्योग मे प्रयोग के कारण पिछले दशक से बढ़ती ईंधन क्षमतायें और सबसे अधिक धक्का देने वाली (Fracking) फ्रेकिंग तकनीक ( इस तकनीक से पानी से तेल व प्राकृतिक गैस निकालते हैं।) अमेरिका इस तकनीक का विश्व मे नेतृत्व करने वाला देश है। साथ ही अन्य नवीन तकनीकों तथा तकनीक ज्ञान से भूमि से अधिक से अधिक हाइड्रोकार्बन निकालने के प्रयास। यद्यपि अभी इस सम्बन्ध मे पर्यावरण से जुडी कुछ चिन्तायें हैं। बहुत अधिक सम्भावना है कि आने वाले वर्षो मे यह विषय विश्व व्यापार संगठन मे भी आये। परन्तु इसके कारण तेल व गैस का उत्पादन बढ़ा है। इसके कारण पुराने कोयले से चलने वाले  बिजली संयन्त्रों को ग्रहण लगा है। साथ ही इसने अमेरिका की विदेशी तेल पर निर्भरता को बहुत कम कर दिया है।

विश्व की वर्तमान अर्थव्यवस्था को दूसरा बड़ा झटका स्वच्छ ऊर्जा से मिलने वाला है। सौर व पवन ऊर्जा का प्रभाव निरन्तर बढ़ता जा रहा है। प्रति दो वर्षों के अन्तराल मे सौर ऊर्जा संयन्त्र अपनी क्षमता दुगनी कर रहे हैं। फोटोवोलेटिक सैलों की कीमत वर्तमान मे 20% पर आ टिकी है। सरकारें अनुदान के बिना ही बाजार कीमत पर सौर ऊर्जा संयन्त्र लगा रही हैं। यह कीमत भी वर्ष 2022 तक आधी रह जानी है। आज भी  घरों मे लगने वाले सौर ऊर्जा संयन्त्रों  की कीमत 4 वर्षों मे ही वसूल हो जाती है। वर्ष 2030 तक सौर ऊर्जा वर्तमान की ऊर्जा आवश्यकता को शत प्रतिशत पूरा करने मे सक्षम होगी। वर्ष 2035 तक इसकी स्थिति मोबाइल फोन जैसी हो जायेगी ।

आज इन बातों को मानना कठिन है, क्योंकि अभी सौर ऊर्जा से दुनिया की मात्र 1% से भी कम आवश्यकता पूरी हो पाती है। परन्तु हमे यह समझ लेना चाहिये कि इस तरह की तकनीकें (Exponential) एक्सपोनेन्सियल गति अर्थात चार घातांकी गति से बढ़ती हैं। प्रति दो वर्षों मे वह अपना फैलाव दुगना कर लेती हैं तथा उनकी कीमतें कम होती हैं। कैलीफोर्निया अभी अपनी आवश्यकता की 5% बिजली का उत्पादन सौर ऊर्जा से कर रहा है। हम यह थाह नहीं लगा सकते कि कुछ समय तक कुछ और गुना उत्पादन बढने पर क्या होने वाला है। संकेत स्पष्ट है जीवाष्म (Fossils) ईंधन उद्योग बहुत जल्दी लुप्त हो जायेगा।

Exponential चार घातांकी तकनीकें धोखा देने वाली होती हैं। क्योंकि शुरू मे यह धीमी गति से आगे बढ़़ती हैं, फिर 1% का 2, 2 का 4, 4 का 8 तथा 8 का 16 होने मे समय नहीं लगता। भविष्यवेत्ता रे कर्जवेल का मानना है - "जब चार घातांकी (Exponential) तकनीक 1% पर होती है, आप उसके 100 तक पँहुचने का आधा सफर तय कर चुके होते हैं।" सौर ऊर्जा आज उसी मुकाम पर है।

फ्रेकिंग (Fracking) की चार घातांकी प्रगति तथा शनः शनः ईंधन क्षमता की वृद्धि का अध्ययन करने वाले को वर्षो पूर्व यह आभास हो जाता, वह अनुमान लगा सकता था कि वर्ष 2015 मे तेल की कीमतों मे अप्रत्यशित गिरावट आयेगी। यह आश्चर्यजनक नहीं है कि मांग और पूर्ति के छोटे अन्तर के कारण विश्व मे तेल की कीमतें धराशायी हो जायें, बाजार इसी तरह काम करता है। जब मन्दी आती है तो शेयर और वायदा बाजार धड़ाम हो जाते हैं। 

इन सब के साथ ही दूसरी तकनीक क्रान्ति "डिजिटल उत्पादन "भी दरवाजा खटखटाने लगी है।

पारम्परिक उत्पादन मे आरी, लेथ मशीन, मिलिंग मशीन तथा ड्रिल आदि पारम्परिक ऊर्जा से चलने वाली मशीनों का उपयोग कर पुर्जों का उत्पादन किया जाता है। इसमे एक तरह अतिरिक्त पदार्थ को हटाकर इच्छित आकार प्राप्त किया जाता है। डिजिटल उत्पादन मे पदार्थ को क्रमबद्ध गलाकर 3D माडल के अाधार पर इच्छित आकार प्राप्त किया जायेगा। इसमे पदार्थ को हटाने के स्थान पर जोड़ा जाता है। 3D प्रिन्टर धातु के पाउडर, प्लास्टिक के टुकड़ों तथा दूसरे पदार्थों का उपयोग कर इनका उत्पादन करेंगे। यह तकनीक बहुत कुछ उसी तरह कार्य करेगी जिस तरह टोनर लेजर प्रिन्टरों मे करते हैं। 3D प्रिन्टर भौतिक उपकरण, चिकित्सकीय आरोपण, गहने तथा वस्त्र आदि की संरचना भी करने लगेंगे। अभी यह धीमा, जटिल तथा अव्यवस्थित दिखाई देता है, जिस तरह पहली पीढ़ी के प्रिन्टर दिखते थे। लेकिन यह सब बदलेगा।

वर्ष 2020 तक हमारे घरों मे बेहतर व सस्ते प्रिन्टरों के पंहुचने की उम्मीद है। इनसे खिलौने व घरों मे अन्य काम मे आने वाले सामानों को बनाया जा सकेगा। व्यापारी गहन कलात्मक तथा उन वस्तुओं के  लघु पैमाने पर उत्पादन के लिये 3D प्रिन्टरों का उपयोग करेंगे, जिनमे बहुत अधिक श्रम लगता है । अगले दशक तक 3D प्रिन्टरों से बिल्डिंगें तथा इलेक्ट्रानिक सामान भी बनने लगेंगे। इनकी गति भी उतनी ही तेज होगी जितनी आज के लेजर प्रिन्टरों की है। अब हमे आश्चर्य नहीं होना चाहिये यदि वर्ष 2030 तक रोबोट हड़ताल पर जाकर यह मांग करने लगें कि 3D प्रिन्टरों को बन्द करो, यह हमारा रोजगार छीन रहे हैं।

इन भूराजनीतिक परिवर्तनों के परिणाम अद्भुत तथा चिन्ताजनक होने वाले हैं। यह तकनीक युग होगा। कल्पना कीजिये यह घटित होने के बाद विश्व के विभिन्न देशों की स्थितियां क्या होंगी, अमेरिका अपनी खोज दोबारा कर रहा होगा जैसा प्रत्येक 30 - 40 वर्षों के अन्तराल पर करता है। रूस और चीन अपनी आबादी का ध्यान भटकाने के लिये आन्तरिक झगड़ों मे उलझेंगे। वेन्जुएला जैसे तेल उत्पादक देशों का दिवाला निकल जायेगा। मध्य पूर्व असन्तुलन की आग मे झुलसेगा। 

भारत के विकास कार्यक्रमों का भी इसी छाया मे मूल्यांकन किया जाना चाहिये। वह देश ही जो अपनी जनसंख्य़ा को शिक्षित करने पर बेहतर निवेश कर रहे हैं, मजबूत अर्थव्यवस्थायें बनकर उभरेंगे। जो लोकतान्त्रिक व्यवस्थायें इस परिवर्तन से कदम मिला सकेंगी उन्हे लाभ मिलेगा। क्योंकि वह अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ इस प्रयास मे होंगी कि तकनीक से होने वाले विकास का अधिक से अधिक लाभ कैसे लिया जा सकेगा।