Wednesday 4 May 2016

विश्व की अर्थव्यवस़्था किस करवट बैठने जा रही है।

पिछले दो वर्षों मे विश्व के आर्थिक क्षितिज पर दो बड़ी घटनायें हुई हैं, जिन्होने विश्व के राजनीतिज्ञों, अर्थशास्त्रियों, उद्योगपतियों तथा व्यापारियों को हतप्रभ कर दिया है। यह तो तय है कि यह घटनाक्रम विश्व की तमाम अर्थव्यवस्थाओं पर दूरगामी परिणाम डालने वाला है परन्तु सभी सांस रोके निष्कर्ष निकालने के प्रयास मे हैं।

पिछले दिनोंं की पहली बड़ी घटना बहुत तीव्र गति से विकास की सरपट सीढ़िय़ां चढ़ने वाली चीन की अर्थव्यवस़्था का मन्दी का शिकार होना, इस घटना ने विश्व को दातों तले उंगली दबाने को मजबूर कर दिया। लोग अभी भी चीन के मन्दी से उबरने के इन्तजार मे हैं। अपने देश मे उद्योगपतियों, अर्थशास्त्रियों ने हमेशा सरकार का रूख अपने पक्ष मे करने के लिये चीन का नाम ले लेकर डराया है। सरकार भी हमेशा चीन का हौव्वा खड़ा करती रही है। आज सभी खामोश बैठे हैं, उस भूत के सामने आने के इन्तजार मे जो बहुत पहले अपने आने की आहट दे चुका है। चीन ही नहीं पूरी दुनिया की अर्थव्यवस़्था इससे प्रभावित होने वाली है। विशेष रूप से वह देश जो अपने विकास की राह ढूंढते समय इन तथ्यों को अनदेखा करेंगे। चीन की इस गिरावट का विश्लेषण करने का प्रयास करते हैं।
दशकों तक अमेरिका चीन मे उत्पादन की बाढ़ लाये हुये था। यूरोपीय देश भी इसमे सहभागी बनकर चीन मे होने वाले उत्पादन को प्रोत्साहित कर रहे थे। जिसे चीन मे श्रम की बढ़ती कीमतों, विदेशों से कच्चे माल को मंगाने और तैयार होने के बाद उसे वापस भेजने के खर्च तथा मशीनों के बढते आटोमेशन खर्च ने चीन की उत्पादन व्यवस्था के गणित को बुरी तरह गड़बड़ा दिया है। अभी इस गिरावट मे रोबोटों के बढते उपयोग का प्रभाव पड़ना बाकी है। यह नहीं कि चीन को रोबोट तकनीक के विकसित होने की जानकारी नहीं है। उसकी योजना श्रमिकों को रोबोट से बदलने के कार्य मे विश्व के शीर्ष पर रहने की है। चीन का गुआन्गडोंग प्रान्त विश्व का पहला श्रमशून्य क्षेत्र बन रहा है, जहां 1000 रोबोट 2000 श्रमिकों का कार्य करेंगे। चीन को इस प्रयोग मे श्रम के बढ़ते मूल्य के कारण उत्पन्न समस्या का समाधान नजर आ रहा है।

फॉक्सकान वर्ष 2011 मे ही घोषणा की थी कि वह अपने 1 मिलियन श्रमिकों को कम कर उनका कार्य रोबोटों से करायेगी। परन्तु यह हो नहीं पाया क्योंकि रोबोट श्रमिकों के साथ मिलकर संवेदनशील सर्किटबोर्ड की रचना बनाने मे सफल नहीं हो सके। परन्तु नये मॉडल के रोबोट ABBs Yumi तथा रिथिन्क रोबोट Sawyer यह कार्य करने मे सक्षम हैं। इन मॉडलों के रोबोट सुई मे धागा डालने जैसे काम करने मे भी सक्षम हैं। इनकी कीमत भी कार की कीमत जितनी है।

अभी चीन की समस्या यह है कि उसके रोबोट पश्चिमी देशों के रोबोटों के समान उत्पादक नहीं हैं। फिर भी वह 24x7 सभी काम करते हैं। वह अपनी यूनियन भी नहीं बनायेंगे, उनकी लागत भी उनको चलाने वाली ऊर्जा की लागत के बराबर ही आती है। परन्तु फिर भी उत्पादन और माल लाने ले जाने मे लगने वाले लम्बे समय तथा खर्च के कारण अब यह उपयोगी नहीं रह गया कि कच्चे माल को समुद्रोंं के पार सिर्फ असेम्बल करने भेजा जाये और असेम्बल होने के बाद उसको वापस मंगाया जाये। वस्तुओं का उत्पादन अब स्थानीय उद्योग का स्वरूप लेता जा रहा है।

यद्यपि पश्चिमी कम्पनियों को रोबोटों द्वारा आने वाली कठिनाईयों को समझने, स्वचलित उद्योगों की स्थापना करने, श्रमिकों को दक्ष करने तथा चीन जैसी वितरण प्रणाली की  श्रंखला बनाने समझने में वर्षों लग जायेंगे, परन्तु इन सभी समस्यायों के हल कठिन नहीं हैं। वर्तमान मे उत्पादन तन्त्र के पश्चिम प्रवेश की गति बहुत धीमी है, आने वाले 5 - 7 वर्षों मे इन घटनाओं की बाढ़ आने वाली है।

विश्व की दूसरी बड़ी घटना तेलों के दामों के धड़ाम होने की है। लगभग पूरी दुनिया यह सोच रही है कि कीमतों मे कमी मांग और पूर्ति के आधार पर हुई है। कीमतें पुनः उछाल मारेंगी। इसी तरह चीन की अर्थव्यवस़्था भी पुनः पटरी पर आयेगी। स्टेनफोर्ड रिसर्च इन्सटीट्यूट, अमेरिका के विवेक वाधवा का कहना है कि लोग विश्वभर मे होने वाले भूराजनीतिक परिवर्तन से अनभिज्ञ हैं। हमें चीन की अर्थव्यवस़्था के उभरने की चिन्ता छोड़, उसके और गिरने से डरना चाहिये। तेल की कीमतों का तथ्य भी यही हैं कि आने वाले 4 - 5 सालों तक थोड़ा अधिक ऊपर नीचे देखते हुये यह उद्योग डायनासोर की राह का अनुसरण करने जा रहा है। इन सबके कारण आने वाले समय मे जल्दी ही विश्व के आर्थिक सन्तुलन मे बदलाव आयेगा।

विश्व मे होने वाले तकनीक परिवर्तन को देखते हुये विवेक की बात युक्ति संगत लगती है। LED बल्ब, गर्म व ठंडा करने की बेहतर व्यवस्थायें, कम्प्यूटरीकृत सॉफ्टवेयर के आटोमोबाइल उद्योग मे प्रयोग के कारण पिछले दशक से बढ़ती ईंधन क्षमतायें और सबसे अधिक धक्का देने वाली (Fracking) फ्रेकिंग तकनीक ( इस तकनीक से पानी से तेल व प्राकृतिक गैस निकालते हैं।) अमेरिका इस तकनीक का विश्व मे नेतृत्व करने वाला देश है। साथ ही अन्य नवीन तकनीकों तथा तकनीक ज्ञान से भूमि से अधिक से अधिक हाइड्रोकार्बन निकालने के प्रयास। यद्यपि अभी इस सम्बन्ध मे पर्यावरण से जुडी कुछ चिन्तायें हैं। बहुत अधिक सम्भावना है कि आने वाले वर्षो मे यह विषय विश्व व्यापार संगठन मे भी आये। परन्तु इसके कारण तेल व गैस का उत्पादन बढ़ा है। इसके कारण पुराने कोयले से चलने वाले  बिजली संयन्त्रों को ग्रहण लगा है। साथ ही इसने अमेरिका की विदेशी तेल पर निर्भरता को बहुत कम कर दिया है।

विश्व की वर्तमान अर्थव्यवस्था को दूसरा बड़ा झटका स्वच्छ ऊर्जा से मिलने वाला है। सौर व पवन ऊर्जा का प्रभाव निरन्तर बढ़ता जा रहा है। प्रति दो वर्षों के अन्तराल मे सौर ऊर्जा संयन्त्र अपनी क्षमता दुगनी कर रहे हैं। फोटोवोलेटिक सैलों की कीमत वर्तमान मे 20% पर आ टिकी है। सरकारें अनुदान के बिना ही बाजार कीमत पर सौर ऊर्जा संयन्त्र लगा रही हैं। यह कीमत भी वर्ष 2022 तक आधी रह जानी है। आज भी  घरों मे लगने वाले सौर ऊर्जा संयन्त्रों  की कीमत 4 वर्षों मे ही वसूल हो जाती है। वर्ष 2030 तक सौर ऊर्जा वर्तमान की ऊर्जा आवश्यकता को शत प्रतिशत पूरा करने मे सक्षम होगी। वर्ष 2035 तक इसकी स्थिति मोबाइल फोन जैसी हो जायेगी ।

आज इन बातों को मानना कठिन है, क्योंकि अभी सौर ऊर्जा से दुनिया की मात्र 1% से भी कम आवश्यकता पूरी हो पाती है। परन्तु हमे यह समझ लेना चाहिये कि इस तरह की तकनीकें (Exponential) एक्सपोनेन्सियल गति अर्थात चार घातांकी गति से बढ़ती हैं। प्रति दो वर्षों मे वह अपना फैलाव दुगना कर लेती हैं तथा उनकी कीमतें कम होती हैं। कैलीफोर्निया अभी अपनी आवश्यकता की 5% बिजली का उत्पादन सौर ऊर्जा से कर रहा है। हम यह थाह नहीं लगा सकते कि कुछ समय तक कुछ और गुना उत्पादन बढने पर क्या होने वाला है। संकेत स्पष्ट है जीवाष्म (Fossils) ईंधन उद्योग बहुत जल्दी लुप्त हो जायेगा।

Exponential चार घातांकी तकनीकें धोखा देने वाली होती हैं। क्योंकि शुरू मे यह धीमी गति से आगे बढ़़ती हैं, फिर 1% का 2, 2 का 4, 4 का 8 तथा 8 का 16 होने मे समय नहीं लगता। भविष्यवेत्ता रे कर्जवेल का मानना है - "जब चार घातांकी (Exponential) तकनीक 1% पर होती है, आप उसके 100 तक पँहुचने का आधा सफर तय कर चुके होते हैं।" सौर ऊर्जा आज उसी मुकाम पर है।

फ्रेकिंग (Fracking) की चार घातांकी प्रगति तथा शनः शनः ईंधन क्षमता की वृद्धि का अध्ययन करने वाले को वर्षो पूर्व यह आभास हो जाता, वह अनुमान लगा सकता था कि वर्ष 2015 मे तेल की कीमतों मे अप्रत्यशित गिरावट आयेगी। यह आश्चर्यजनक नहीं है कि मांग और पूर्ति के छोटे अन्तर के कारण विश्व मे तेल की कीमतें धराशायी हो जायें, बाजार इसी तरह काम करता है। जब मन्दी आती है तो शेयर और वायदा बाजार धड़ाम हो जाते हैं। 

इन सब के साथ ही दूसरी तकनीक क्रान्ति "डिजिटल उत्पादन "भी दरवाजा खटखटाने लगी है।

पारम्परिक उत्पादन मे आरी, लेथ मशीन, मिलिंग मशीन तथा ड्रिल आदि पारम्परिक ऊर्जा से चलने वाली मशीनों का उपयोग कर पुर्जों का उत्पादन किया जाता है। इसमे एक तरह अतिरिक्त पदार्थ को हटाकर इच्छित आकार प्राप्त किया जाता है। डिजिटल उत्पादन मे पदार्थ को क्रमबद्ध गलाकर 3D माडल के अाधार पर इच्छित आकार प्राप्त किया जायेगा। इसमे पदार्थ को हटाने के स्थान पर जोड़ा जाता है। 3D प्रिन्टर धातु के पाउडर, प्लास्टिक के टुकड़ों तथा दूसरे पदार्थों का उपयोग कर इनका उत्पादन करेंगे। यह तकनीक बहुत कुछ उसी तरह कार्य करेगी जिस तरह टोनर लेजर प्रिन्टरों मे करते हैं। 3D प्रिन्टर भौतिक उपकरण, चिकित्सकीय आरोपण, गहने तथा वस्त्र आदि की संरचना भी करने लगेंगे। अभी यह धीमा, जटिल तथा अव्यवस्थित दिखाई देता है, जिस तरह पहली पीढ़ी के प्रिन्टर दिखते थे। लेकिन यह सब बदलेगा।

वर्ष 2020 तक हमारे घरों मे बेहतर व सस्ते प्रिन्टरों के पंहुचने की उम्मीद है। इनसे खिलौने व घरों मे अन्य काम मे आने वाले सामानों को बनाया जा सकेगा। व्यापारी गहन कलात्मक तथा उन वस्तुओं के  लघु पैमाने पर उत्पादन के लिये 3D प्रिन्टरों का उपयोग करेंगे, जिनमे बहुत अधिक श्रम लगता है । अगले दशक तक 3D प्रिन्टरों से बिल्डिंगें तथा इलेक्ट्रानिक सामान भी बनने लगेंगे। इनकी गति भी उतनी ही तेज होगी जितनी आज के लेजर प्रिन्टरों की है। अब हमे आश्चर्य नहीं होना चाहिये यदि वर्ष 2030 तक रोबोट हड़ताल पर जाकर यह मांग करने लगें कि 3D प्रिन्टरों को बन्द करो, यह हमारा रोजगार छीन रहे हैं।

इन भूराजनीतिक परिवर्तनों के परिणाम अद्भुत तथा चिन्ताजनक होने वाले हैं। यह तकनीक युग होगा। कल्पना कीजिये यह घटित होने के बाद विश्व के विभिन्न देशों की स्थितियां क्या होंगी, अमेरिका अपनी खोज दोबारा कर रहा होगा जैसा प्रत्येक 30 - 40 वर्षों के अन्तराल पर करता है। रूस और चीन अपनी आबादी का ध्यान भटकाने के लिये आन्तरिक झगड़ों मे उलझेंगे। वेन्जुएला जैसे तेल उत्पादक देशों का दिवाला निकल जायेगा। मध्य पूर्व असन्तुलन की आग मे झुलसेगा। 

भारत के विकास कार्यक्रमों का भी इसी छाया मे मूल्यांकन किया जाना चाहिये। वह देश ही जो अपनी जनसंख्य़ा को शिक्षित करने पर बेहतर निवेश कर रहे हैं, मजबूत अर्थव्यवस्थायें बनकर उभरेंगे। जो लोकतान्त्रिक व्यवस्थायें इस परिवर्तन से कदम मिला सकेंगी उन्हे लाभ मिलेगा। क्योंकि वह अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ इस प्रयास मे होंगी कि तकनीक से होने वाले विकास का अधिक से अधिक लाभ कैसे लिया जा सकेगा।

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