Wednesday 27 January 2021

विपक्ष और किसान नेताओं का प्लान फेल, लम्बे नपने की बारी

 26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर विपक्षी राजनीतिक दलों से सांठगांठ कर, ट्रेक्टर परेड निकाल सरकार को घेरने का, किसान नेताओं का प्लान फेल हो गया है। अब यह किसान नेता लम्बे नपेंगे? राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर पिछले 60 दिन से चल रहे किसानों का प्रदर्शन और विज्ञान भवन में सरकार के साथ की जाने वाली वार्ता की आड़ में तथाकथित किसान नेताओं द्वारा गणतंत्र दिवस पर दिल्ली को बंधक बनाने की योजना, मोदी विरोधी राजनीतिक दलों के साथ सांठगांठ कर बनाई गई थी। उनका सोचना था कि इस तरह की अव्यवस्था फैलाने पर पुलिस के साथ मुठभेड़ में कम से कम 1000 किसान मरेंगे, उसके बाद वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हाय तौबा मचाकर, हत्याओं का ठीकरा सरकार के सिर फोड़, अपने राजनीतिक स्वार्थों को साधेंगे। जाने अनजाने राकेश टिकैत के मुंह से एक पत्रकार से बात करते हुए, यह बात निकल भी गई थी कि सरकार की योजना किसानों पर लाठी गोली चलाने की है, जिसमें 1000 तक किसान मर सकते हैं।



इस देश के बेचारे किसान का दुर्भाग्य यही है कि कभी भी उसकी न्यायोचित मांगें सही तरीके से उठाई ही नहीं जाती, उसकी बदहाली का उपयोग विपक्षी राजनीतिक दल तथा उनके पिट्ठू किसान नेता अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए उसे आंदोलन करने के लिए भड़काने में करते हैं। इस बार भी यही हो रहा था, किसान को उसकी फसल का लाभकारी मूल्य मिले, इसके लिए आवश्यक कृषि सुधारों को चिन्हित कर लागू किए जाने के स्थान पर किसान नेता कानून - कानून की शतरंजी चालें खेल रहे थे, किसान और सरकार को अपनी चालों में उलझाकर, गणतंत्र दिवस के दिन देश में अनहोनी घटित करने की तैयारी में लगे थे।


किसान नेता जानते थे कि गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में ट्रैक्टर परेड निकाल कर उन्हें क्या करना है। जाने अनजाने उनके मुंह से सच्ची बात निकल भी जाती थी। राकेश टिकैत ने पत्रकारों से कहा भी था, हम ट्रैक्टर परेड लालकिले से निकालकर इंडिया गेट तक ले जायेंगे। लालकिले और इंडिया गेट पर पंहुचना उनकी ट्रैक्टर परेड का लक्ष्य था। दिल्ली के गाजीपुर बार्डर से चल कुछे किसान लालकिले पर पहुंचे और कुछ किसान आईटीओ पर इंडिया गेट जाने के लिए अंत तक जोर लगाते रहे।


किसान नेता ऊपरी दिखावा करते हुए, गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या तक दिल्ली पुलिस की सभी शर्तों को मानने और कानून व्यवस्था बनाए रखने का ऊपर से नाटक करते रहे। परन्तु उनके मन में जो कपट था, वह गणतंत्र दिवस की सुबह से ही बाहर आने लगा, ट्रैक्टर परेड निकालने का तय समय दिन में 12 बजे का था, लेकिन ट्रैक्टर सुबह 9 बजे के लगभग ही कूच करने लगे और वह भी तयशुदा मार्ग से अलग दिशा में ? किसान नेताओं को मालूम था कि दिन में क्या होने वाला है, इसीलिए वह पुलिस के साथ तय शर्तों में से एक, ट्रैक्टर परेड में सबसे आगे रहकर परेड का मार्गदर्शन करने के स्थान पर वहां से नदारद हो गये और दिनभर नजर नहीं आये।


ट्रैक्टर परेड को दिल्ली में जहां जाना था, वहां गयी, उसे जो करना था, उसने किया, इसको पूरी दुनिया ने देखा। किसान नेताओं का सोचना था,  ट्रैक्टर परेड को दिल्ली में जो काम करने के लिए भेजा गया है, उसके बाद दिन में दिल्ली की सड़कों पर जो मार-काट मचने वाली है, उससे, उन्हें और विपक्षी राजनीतिक दलों को पूरी दुनिया में सरकार पर जबरदस्त कीचड़ उछालने का मौका मिल जायेगा और इस हाहाकार में उनकी कुटिल चालों की तरफ किसी का भी ध्यान नहीं जायेगा।


सरकार और दिल्ली पुलिस किसान नेताओं की इन चालों से अनजान नहीं थी, वह पूरे घटनाक्रम को अच्छी तरह समझ रही थी। सरकार और दिल्ली पुलिस बार बार ट्रैक्टर परेड में अनहोनी घटने व हिंसा होने की बात कह रही थी, जिसे किसान नेता लगातार कुटिलता से मना कर रहे थे। सरकार और दिल्ली पुलिस यदि चाहती तो ट्रैक्टर परेड को निकालने की इजाजत देने से मना कर सकती थी। परंतु इससे किसान नेताओं को सहानुभूति मिलती और किसान नेताओं की कुटिलता देश के सामने नहीं आती। 


अतएव सरकार और दिल्ली पुलिस ने इस बात को अच्छी तरह समझते हुए भी कि दिल्ली की सड़कों पर किसान नेताओं की क्या करने की  योजना है, उन्हें ट्रैक्टर परेड निकालने की इजाजत थमा दी। वह भी लिखित में शर्तों के साथ, उनसे शर्तों का पालन करने के आश्वासन भी ले लिये, अब यही लिखित प्रमाण इन किसान नेताओं की मुश्कें कसने के काम आयेंगे। लिखित में ट्रैक्टर परेड निकालने की इजाजत का कागज पाकर किसान नेता खुश थे कि उनके हाथ ट्रैक्टर परेड निकालने की इजाजत का सबूत आ गया है। अब सरकार और दिल्ली पुलिस उन पर लांछन नहीं लगा सकेगी। योगेन्द्र यादव ने मीडिया से कहा भी था, पहली बार पुलिस ने ट्रैक्टर परेड निकालने की इजाजत लिखित में दी है, इसके पूर्व तो वह मौखिक ही कह दिया करते थे। अब सुरक्षा की जिम्मेदारी दिल्ली पुलिस की है।


विपक्षी राजनीतिक दल और किसान नेता खुश थे कि सरकार को घुटनों पर लाने की उनकी योजना सफल हो गई है। इधर सरकार और दिल्ली पुलिस ने अपनी पूरी रणनीति बदल ली, अब वह किसान नेताओं के दिल में छिपी गंदगी को देश के सामने बेनकाब करने की योजना बनाने में जुट गई। 

उनकी योजना के चार मुख्य भाग थे -

1. किसान नेताओं द्वारा अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए देश के गौरव और अस्मिता को तार तार करने से भी नहीं चूकना।

2. किसान आन्दोलन के खालिस्तान और अर्बन नक्सलियों से संबंध होना।

3. किसानों की आक्रामकता और हिंसा चार की भावना देश के सामने लाना।

4. किसानों की आक्रामक शक्ति को सड़क पर खड़े अवरोधों में ही बर्बाद करवाना।

5. किसानों से सीधे भिड़ने से बचना, कम से कम बल प्रयोग करना।


सरकार अपनी नीति में पूरी तरह सफल रही, इसका पूरा श्रेय दिल्ली पुलिस और अन्य सुरक्षा बलों को है। देश ने पूरी दिल्ली में किसानों के द्वारा किया जाने वाला उग्र प्रदर्शन, पुलिस पर जानलेवा हमला करना देखा। इन किसानों का नेतृत्व करने वाले किसान नेताओं का बिल में छिपना भी देखा। वहीं सरकार और पुलिस का कठिन समय में भी, धैर्य और सहिष्णुता बनाते रखना देखा। सरकार और दिल्ली पुलिस उन सभी घटनाओं को टालने में सफल रही, जिनकी योजना विपक्षी राजनीतिक दलों और किसान नेताओं ने बनाई थी।


यदि सरकार और दिल्ली पुलिस मजबूत व प्रोफेशनल न होती, तो कल की घटनाओं के बाद दिल्ली में लाशों के ढेर लगे होते। आज जो देश किसान नेताओं और विपक्षी दलों को पानी पी पीकर कोस रहा है, वह किसानों के प्रति सहानुभूति और संवेदनाएं दिखा रहा होता। सरकार और दिल्ली पुलिस यह सफाई दे रहे होते कि किसानों ने ट्रैक्टर परेड की तय शर्तों को नहीं माना, दिल्ली की सड़कों पर हिंसा करने लगे। लेकिन सरकार और दिल्ली पुलिस की यह बातें नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती, उनको कोई नहीं सुनता।



Sunday 24 January 2021

बोया पेड़ बबूल का .... किसान आन्दोलन?

 किसानों को हर बार की तरह इस बार भी राजनीतिक दलों ने अपने स्वार्थ के लिए चने के झाड़ (पेड़) पर चढ़ा दिया। किसान अपने पैरों के नीचे की जमीन का जायजा लिए बिना चने के झाड़ पर चढ़ भी गये, नतीजतन न आगे रास्ता है और न पीछे गली। किसान खेत में बीज की बुआई किये बिना लहलहाती फसल की आस लगाए बैठे हैं। यह फसल कैसे आयेगी, इसकी उन्हें कल्पना भी नहीं है। राजनीतिक दलों की बात छोड़िए, उन्होंने किसानों को‌ दशकों से लॉलीपॉप थमाने के अलावा किया भी क्या है। इस बार भी राजनीतिक दल किसानों को बरगला कर उस अंधी खाई में धकेलने में कामयाब हो गए, जिसका कोई ओर-छोर ही नहीं है।



किसानों का जमाने से शोषण होता आ रहा है, यह निर्विवादित सत्य है। उन्हें उनकी फसल का लाभकारी मूल्य मिले, यह भी प्रत्येक दृष्टि से उचित और न्यायोचित है। लेकिन दुर्भाग्य से राजनीतिक दलों ने किसानों को बरगला कर, जिन मांगों के साथ आंदोलन छेड़ने के लिए आगे कर दिया, वह किसानों के शोषण के खिलाफ लड़ने का सही मैदान ही नहीं है, फिर सही नतीजे की उम्मीद कैसे की जा सकती है। आज देश के लगभग सभी मंचों पर किसान आंदोलन से संबंधित अनर्गल बहस छिड़ी हुई है, जो बेमानी है।


इस किसान आन्दोलन का नतीजा भी सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक दलों की स्वार्थ सिद्धि तक मर्यादित रहने वाला है। किसान यह गलतफहमी अवश्य पाले हुए हैं कि उनके शक्ति प्रदर्शन से सार्थक नतीजे निकलेंगे, लेकिन यह भ्रमजाल में के अलावा कुछ भी नहीं है। क्योंकि किसानों की दोनों मांगें - कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020', कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत अश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक, 2020' तथा आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक, 2020' को निरस्त करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि उत्पादों की खरीद अनिवार्य करने संबंधी कानून बनाने की मांगें, आर्थिक, बाजार व्यवस्था, विपणन और प्रशासनिक दृष्टि से न तो तर्क संगत है और न ही व्यवहारिक। देश की वर्तमान स्थिति में इसे लागू करना लगभग असम्भव है, यह देश की अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने वाले आत्मघाती कदम होगा। जिसे कोई भी देश या सरकार किसी भी तरह स्वीकार नहीं करेगी।


किसानों की मांगों का सार है कि उन्हें फसलों का लाभकारी मूल्य मिले। मांग पूरी तरह न्यायोचित है, फिर भी वर्तमान व्यवस्था में इस मांग को पूरा करना, किसी भी सरकार के लिए एक लम्बी प्रक्रिया से गुजरे बिना संभव ही नहीं है। आजादी के बाद से लगातार की गई कृषि क्षेत्र की उपेक्षा के कारण, इस क्षेत्र का पिछड़ापन इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है। हालांकि बीच बीच में कुछ सरकारों ने कृषि उत्पादन को बढ़ाने के प्रयास किये, इसमें वह सफल भी रहे, परंतु कभी भी सरकारों ने कृषि को देश की आवश्यकता के अनुरूप ढालने, उसे उचित विपणन व्यवस्था और लाभकारी मूल्य देने वाला व्यवसाय बनाने के लिए, न तो कभी कदम उठाए और न ही पर्याप्त व्यवस्था करने का प्रयास किया। जिसके कारण कृषि क्षेत्र बहुत पिछड़ गया। 


अतः कृषि उपज पर लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए सबसे पहले कृषि क्षेत्र में व्यापक सुधार कर, उसे व्यवसायिक स्वरूप में ढालने की आवश्यकता है। देश में कृषि उपजों को उनकी खपत के अनुरूप आकार देने की जरूरत है। देश में खपत के अनुरूप कृषि उत्पादन, उसके विपणन की पर्याप्त और समुचित व्यवस्था , बाजार में मांग और पूर्ति का संतुलन ही स्थायी रूप से कृ‌षि उत्पादनों को लाभकारी मूल्य दिलाने की दिशा में ले जाने वाला मार्ग है। जिसके लिए किसानों की बुनियादी मांग कृषि आयोग जैसी संस्था की स्थापना होनी चाहिए, कृषि क्षेत्र को बाजारोन्मुखी बनाने वाली उसकी कार्यविधि तथा नियमन तय करवाने में किसान संगठनों की सक्रिय भूमिका होनी चाहिए। ताकि देश में कृषि उत्पादों के लिए पर्याप्त बाजार उपलब्ध हों और बाजारों की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा कृषि उपजों को लाभकारी मूल्य दिलाने में सहायक हो सके।


अर्थशास्त्र की दृष्टि से मांग और पूर्ति के आधार पर बाजार द्वारा किसी वस्तु का मूल्य निर्धारित किए जाने की प्रक्रिया के स्थान पर उस वस्तु को न्यूनतम मूल्य पर खरीद के लिए क्रेता को बाध्य किया जाने वाला कदम, आत्मघाती एवं अर्थव्यवस्था को नष्ट करने वाला होता है। इसके बाद भी देश की राजनीति इस विषय को जोर शोर से चर्चा में लाने में सफल रही है। यदि अर्थक्षेत्र में इस तरह के घटनाक्रम के लिए कोई स्थान होता तो याद कीजिए, मनमोहन सिंह सरकार के समय देश में चीन के सामान के बढ़ते आयात के कारण, देश के अनेकों उद्योगों पर गंभीर संकट छा गया था। इन उद्योगों के लागत मूल्य की तुलना में चीन का सामान सस्ता होने के कारण, इनके उत्पादों की मांग समाप्त हो गई थी। यह उद्योग बंद हो रहे थे। उस समय यदि यह उद्योग भी मांग करते कि सरकार कानून बना कर, उनके द्वारा बनाई वस्तुओं को न्यूनतम मूल्य पर खरीदना अनिवार्य रूप से बाध्यकारी करें? ताकि उन उद्योगों को बंद होने से बचाया जा सके, तो क्या होता?


वास्तव में अर्थव्यवस्था में इस तरह हस्तक्षेप करना सरकार का कार्य नहीं है। सरकार अर्थव्यवस्था के कमजोर घटकों को मजबूती देने के लिए नियमन और आर्थिक सहायता तो दे सकती है, परंतु आर्थिक लेन-देन में कानून बनाकर सीधे सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकती। सरकार की जिम्मेदारी इस प्रकार की व्यवस्था बनाना है जिससे किसानों और उद्योगों को बाजार में उनके उत्पादन का लाभकारी मूल्य प्राप्त करने में सहायता मिले। इस कार्य को सरकार विभिन्न प्रतिबंधों, आर्थिक अनुदानों, नियमनों तथा व्यवस्थाओं को बनाकर करती है। सरकार के इन कदमों को उसके द्वारा उस क्षेत्र में किये जाने वाले सुधार कहा जाता है। किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए सरकार के पास कृषि क्षेत्र में सुधारों के अतिरिक्त कोई दूसरा रास्ता नहीं है। सरकार तीनों कृषि कानून भी कृषि क्षेत्र में सुधारों की प्रक्रिया के अंतर्गत लाई है। किसानों को इन कानूनों को अपने लिए अधिक उपयोगी बनाने दृष्टि से चर्चा करनी चाहिए थी। कृषि क्षेत्र में व्यापक सुधारों को जल्द से जल्द लागू करवाने की मांग करनी चाहिए थी। लेकिन राजनीतिक दलों ने उन्हें रास्ते से भटकाकर हवा-हवाई में उलझाकर उस खाई में धकेल दिया है, जिसका उनकी फसलों के लाभकारी मूल्य मिलने से कोई लेना-देना ही नहीं है।

Saturday 23 January 2021

हिन्दुओं के सजग होते ही बिगड़ने लगे, धर्म और राजनीति के रिश्ते

 देश के अधिकतर बुद्धिजीवी आजकल धर्म, राजनीति और उनके आपसी रिश्तों के कारण बिगड़ते माहौल की दुहाई देने में लग गए हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि उनकी आलोचना के केन्द्र में हिन्दू धर्म ही है। यह लोग दाना पानी लेकर इसी बात को सिद्ध करने में लगे हैं कि देश के माहौल को बिगाड़ने के लिए, पिछले लगभग 600 वर्षों से आक्रमण का शिकार हिन्दू धर्म ही है।

चित्र सौजन्य : medium.com

मजे की बात तो यह है कि अपने तर्कों को सिद्ध करने के लिए यह लोग जिन उद्धरणों और घटनाक्रम का सहारा लेते हैं, उनका ईमानदारी से विश्लेषण करने पर उनके तर्क स्पष्ट रूप से खोखले नजर आते हैं। विशेष यह कि आज यह लोग जो आरोप हिन्दू धर्म पर लगा रहे हैं, उन्हीं आक्रमणों को पिछले कई शतकों से झेलने वाले हिन्दू धर्म और उसकी आवाज उठाने वालों में ही उन्हें सभी दोष नजर आते हैं। जबकि उनसे अधिक कट्टरता अपनाकर वातावरण को दूषित करने वाले अन्य धर्म उन्हें मासूम और सौहार्दप्रिय लगते हैं। वास्तव में इस वर्ग को हिन्दुओं द्वारा प्रतिक्रिया व्यक्त करना करने लगा है।


धर्म का राजनीति में प्रवेश तो ग्यारहवीं सदी में हो गया था, जब श्रावस्ती के हिन्दू राजा सुहेल देव राय को युद्ध में हराने के लिए महमूद गजनवी के सेनापति सैयद सालार मसूद ने गौ वंश का उपयोग किया था। इन लोगों को तो कालांतर में मुस्लिम लीग द्वारा धर्म का राजनीति में उपयोग कर देश का विभाजन भी नहीं दिखा। विशुद्ध धार्मिक आधार पर देश विभाजन के बाद देश में सभी धर्मों को समान अधिकार और सुविधायें प्रदान करने के स्थान पर अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक शब्दों का उपयोग और उनके अलग-अलग मापदंड तो शायद राजनीति को धर्म से अछूता रखने के ईमानदार प्रयास थे। जिन पर इन विशिष्ट लोगों के मुंह कभी नहीं खुले।


देश में धर्म की समीकरणों के आधार पर राजनीति करने वाले अनेकों राजनेता और राजनीतिक दलों के क्रिया कलापों से इस वर्ग को कभी कष्ट नहीं हुआ। इन्हें तो राजनीति में धर्म की समीकरणें तभी नजर आई, जब अपनी दिन-प्रतिदिन की दुर्दशा से चिंतित होकर हिन्दुओं ने भी अन्य धर्मों की राह पर चलते हुए, देश की राजनीति पर अपनी पकड़ मजबूत करनी शुरू कर दी, तभी इनको समझ आया, धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत दो तरीके से चलता है। या तो राज्य सभी धर्मों से समान दूरी बनाए रखे। या सभी धर्मों से समान प्रेम बनाए रखे। आज की सत्ता यह दोनों काम नहीं कर रही है बल्कि बहुसंख्यक समाज के धर्म से ज्यादा निकटता दिखा कर यह साबित करना चाह रही है कि अल्पसंख्यकों का धर्म दोयम दर्जे का है और राज्य बहुसंख्यक समाज के धर्म से दूरी नहीं बना सकता। सारा प्रयोजन इसी सिद्धांत को स्थापित करने के लिए हो रहा है।


अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए धन एकत्र करने के प्रयास में भी यह वर्ग अपनी उसी मानसिकता का आत्मदर्शन करना चाहता था, लिहाजा उसने उस पर धर्म और राजनीति के बिगड़ते रिश्तों का मुलम्मा चढ़ा दिया। विडंबना यह कि इन्हें कुछ वर्षों पूर्व धर्म की व्याख्या करने वाले, मात्र कुछ सौ वर्षों पूर्व जन्मे धर्मों के व्याख्याकारों की बात तो अपने कथन के पक्ष में उपयोगी लगी, परंतु हजारों वर्षों पूर्व लिखी और हिन्दू धर्म समर्थकों की बात हमेशा की तरह अविश्वसनीय ही लगी। जिसमें कहा गया है -


धारणाद्धर्ममित्याहु: धर्मो धारयते प्रजा: । यस्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चय: ।।

धर्म शब्द की उत्त्पत्ति धारणा शब्दसे हुई है। धर्म प्रजा या समाज को अंर्तविष्ट कर रखता है। अतः जो व्यक्ति को संयुक्त रूप से समाविष्ट कर सके, वह निश्चय ही धर्म है।


धर्म लोगों को एक साथ लयबद्ध करता है जोड़ता है। यह उन्हें दिखाई नहीं देता, अपने तर्क को पुष्ट करने के लिए वह यहूदी धर्म के उस लेखक को उद्धृत करते हैं, जिन्हें धर्म के कारण ही नेस्तनाबूद कर दिया गया और जो आज भी धर्म के आधार पर अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्षरत हैं। स्वाभाविक तौर पर उस लेखक की व्याख्या में धर्म के विश्लेषण में दमन की वह विभीषिका ही सामने आयेगी, जिसे उसके पूर्वजों ने झेला है। उसकी वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हिन्दू धर्म के समर्थकों से तुलना, अनुचित ही नहीं अक्षम्य है।


इजरायल के यहूदी युवा इतिहासकार युआल नोवा हरारी का अपनी पुस्तक ` ट्वेंटी वन लेशन्स फार ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी’ के एक अध्याय में मानना है,  कि इक्कीसवीं सदी के इस वैज्ञानिक युग में धर्म की भूमिका सीमित हो गई है। ` इस सदी में धर्म बारिश नहीं कराता, वह लोगों की बीमारियों का इलाज नहीं कराता, वह बम नहीं बनाता पर वह यह निर्धारित करने में आगे आता है कि `हम’ कौन हैं और `वे’ कौन हैं। वह यह भी तय करता है कि हम किसका इलाज करें और किस पर बम गिराएं।


देश के हिन्दू धर्म को इस विश्लेषण के आईने में देखना कितना सही और उपयुक्त है, इसका निर्णय आप स्वयं करें। सत्ता से कब्जा हटाते और किसी किसी अन्य विचार वाले की पकड़ मजबूत होते ही देश के बहुसंख्यक धर्म को इस प्रकार अतिश्योक्तिपूर्ण तरीके से लांक्षित करने का प्रयोग और प्रयास वर्ग विशेष के द्वारा किया जा रहा है, जो निश्चित ही निंदनीय है।


ईमानदार प्रयास वह होगा, यदि धर्म के आधार पर स्वतंत्रता पूर्व से देश में चलने वाली राजनीति का विश्लेषण, धर्म के राजनीति में हस्तक्षेप और उसके कारण बहुसंख्यकों के द्वारा झेले गये घावों को ध्यान में रखकर किया जाये। धर्म निरपेक्षता शब्द की हिन्दू विरोधी परिभाषा को भूल, उसके यथार्थवादी मर्म को ध्यान में रखते हुए, उसकी व्याख्या की जाये। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व और बाद में घटित उस इतिहास की हकीकतों को कुरेदा जाये, उन तथ्यों पर गम्भीरता से विचार किया जाये, जिनके कारण बहुसंख्यक हिन्दू समाज, अत्यल्प समय में ही कथित सांप्रदायिक हिन्दुत्ववादी शक्तियों के बहकावे में आकर, एकजुट हुआ ही नहीं, निरंतर उसी मार्ग पर बढ़ता चला जा रहा है।

Thursday 21 January 2021

वैचारिक नहीं, अस्तित्व की लड़ाई में जुटी है देश की राजनीति

आजादी के बाद देश का मिजाज बदलना कब शुरू हुआ, कहना कठिन है, परन्तु मिजाज बदल चुका है, यह साफ साफ दिखाई दे रहा है। यह नहीं कि इससे पहले देश का मिजाज कभी बदला ही नहीं, पहले भी एक दो बार बदला, लेकिन जूड़ी के बुखार की तरह, तपा तो खूब, लेकिन जल्दी ही शांत होकर, पतली गली से निकल लिया। जिसके कारण 67 वर्ष से राजनीति का अभेद्य दुर्ग खड़ा करने वालों को और उनके सिपहसालारों को कभी खुल कर सामने आने और खेलने का मौका नहीं मिला। सत्ता से बाहर होने के बाद या तो बदला मिजाज खुद-ब-खुद जुकाम की तरह बह जाता था या फिर पैरासिटामोल की हल्की खुराक दिये जाने पर ही बैठ जाता था। लिहाजा कभी ज्यादा तकलीफ़ हुई नहीं, विशेषज्ञ डाक्टर से इलाज कराना पड़ा नहीं, गाड़ी आराम से आगे खिसकती चली गई। 




आजादी के बाद से ही देश में अपने प्रभुत्व का ताना बुनने वाले और उनके सिपहसालार कभी इस बात को सोच-समझ ही नहीं पाये कि समय परिवर्तनशील है। रात कितनी ही लम्बी क्यों न हो, सुबह होनी ही है। लिहाजा वर्ष 2014 में देश के मिजाज में जब बदलाव आया, तो उन्होंने यह मान लिया कि यह भी देश के मिजाज में पहले हुये बदलावों की तरह का एक बुलबुला है, खुद ब खुद फूट जायेगा, अतः उन्होंने कुछ करने की जहमत नहीं उठाई। परन्तु वर्ष 2019 में एक बार फिर देश के मिजाज ने, उसी वर्ष 2014 वाले बदलाव पर दोबारा मुहर लगा दी। देश की आजादी के बाद देश के मिजाज में बदलाव, पहली बार, कुछ ठोस आकार ले रहा था, जिससे देश पर अपना स्थाई कब्जा मानने वाले हिलने लगे। उनको लोकतंत्र, संविधान, संवैधानिक व्यवस्थाएं , मतदाता की इच्छा सर्वोपरि जैसी अब तक की जाने वाली व्याख्यायें खोखली लगने लगी थी। उन्हें संसद जैसी कानून बनाने वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था में, तानाशाही राजनीति की पोषक नजर आने लगी थी। 

अब देश के मिजाज में बदलाव गंभीर रुख अख्तियार कर चुका था। गढ़ पर कब्जा करने वाले और कब्जा खोने वाले, दोनों के चेहरों पर गम्भीरता की रेखाएं उभर चुकी थी। कब्जा खोने वालों की चिंता, कब्जा करने वालों के पैर जमाने न देने और कब्जा करने वालों की भरपूर कोशिश अपने पैर अधिक मजबूती से जमाने की होने लगी। देश की सत्ता पर काबिज हुए लोग भी स्पष्ट रूप से समझ चुके थे कि देश का मिजाज बदल को रहा है और इस बदलाव को स्थायित्व देने के लिए उन्हें तेजी से आगे बढ़ना होगा, देश के जनमानस को परिवर्तन का साक्षात्कार करवाना होगा। बस फिर क्या था, उन्होंने तेजी से 72 सालों से लंबित देश के महत्वपूर्ण निर्णय लेने, उन्हें लागू करवाने की राह पर तेजी से कदम बढ़ाने शुरू कर दिए। जिनमें पाकिस्तान द्वारा चलाई जाने वाली आतंकी गतिविधियों पर आक्रामक रूख, देश में घुसपैठियों से निपटने के लिए CAA - NRC कानून, मुस्लिमों में तीन तलाक़ प्रथा, जम्मू कश्मीर से धारा 35A, 370 का निरस्तीकरण, देश के गरीबों के लिए विभिन्न योजनाएं और आजादी के बाद से ही लंबित कृषि सुधारों को लागू करने के लिए तेजी से आगे बढ़े। 

इस अप्रत्याशित आक्रमण से देश की सत्ता पर से अधिपत्य खोने वाला पक्ष और उसके सिपहसालारों में खलबली मच गई। उनके सामने भी आक्रामकता दिखाने के अतिरिक्त अन्य मार्ग न था। अतः वह उसी पर आगे बढ़ चले। आज देश का पत्रकार, बुद्धिजीवी, मीडिया, टीवी चैनल, राजनेता स्पष्ट रूप से दो धड़ों में बंट चुके हैं, यह बंटवारा किसी बौद्धिक या तार्किक आधार पर नहीं, सिर्फ और सिर्फ व्यक्तिगत पसंद और नापसंद के आधार पर है। 

इसका कारण और मूल समझने के लिए देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रारंभिक युग में जाना होगा, जब महात्मा गांधी के द्वारा कांग्रेस भंग करने की सलाह दिये जाने के बावजूद, कांग्रेस के प्रभावशाली नेता, सत्ता में अपनी स्थाई पैठ बनाने के उद्देश्य से देश का स्पष्ट विभाजन होने के बाद भी उसके आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अस्तित्व को तोड़ने मरोड़ने में लगे हुए थे। दूसरी तरफ इसका लाभ उठाते हुए, मुस्लिम लीगियों का वह खेमा, जो देश विभाजन के बाद पाकिस्तान नहीं जा सका था, एकमुश्त वामपंथियों से मिलकर देश के विभाजन पूर्व परिस्थितियों के बचे खुचे बीजों का संरक्षण करने में लग गया था। 

देश को इस चक्रव्यूह से निकलने और हकीकत समझने में लम्बा वक्त लग गया। इस अवधि में इन तत्वों के संरक्षण और आशीर्वाद से देश में एक सामांतर व्यवस्था बन गई। अब जब देश इस चक्रव्यूह को तोड़ नई व्यवस्था की तरफ निकल पड़ा है, सत्ता को स्थाई रूप से हाथों से फिसलते देख, यह वर्ग बेचैन हो उठा है। इसने व्यवस्था विरोध में युद्ध छेड़ दिया है। इनके पास न तो आधार है, न तर्क हैं और न ही समर्थन है। फिर भी अस्तित्व का प्रश्न है, अतः इन तत्वों का पुरजोर विरोध के साथ लड़ना तय है। अतः देश को धारा 370 वह 35A, तीन तलाक़, रोहिंग्या घुसपैठियों, CAA - NRC और अब किसान आन्दोलन जैसे अनेक आन्दोलन आगे भी देखने को मिलते रहेंगे, जिनमें समस्या का समाधान वैचारिक, तार्किक या वैज्ञानिक आधार पर नहीं, देश में अव्यवस्था फैलाने के आधार पर तय किया जायेगा।

Saturday 16 January 2021

आर्थिक बदलाव की दस्तक है, किसान आन्दोलन

 किसान आन्दोलन की पतंग को मीडिया 50% सफलता बताकर चाहे जितनी तान ले, यह बात दोनों पक्ष अच्छी तरह जानते हैं कि वास्तविकता के धरातल को दोनों ने छुआ भी नहीं है। बस उस गली से नजरें चुराकर निकलने में लगे हैं। अतः किसान आन्दोलन के हल होने का मार्ग दूर दूर तक नहीं है।


अपने देश में समस्या कोई भी हो, उसे सामाजिक व भावनात्मक दृष्टि से देखने और उसका समाधान ढूंढने की आदत है, जबकि वैज्ञानिक, गणनात्मक और आर्थिक पक्षों के लिए भावनात्मक एवं सामाजिक पक्ष अर्थहीन हुआ करते हैं। किसान समस्या के संदर्भ में भी यही चल रहा है। समस्या के लगभग सभी विश्लेषण इसी दृष्टिकोण पर आधारित हैं। किसान को अन्नदाता और न जाने किन किन विश्लेषणों से विभूषित कर समस्या के मूल पक्ष को पूरी तरह अनदेखा किया जा रहा है।


विडम्बना यह है कि या तों दोनों ही पक्ष समस्या के मूल से अपरिचित हैं, या फिर उससे हमेशा की तरह आंख चुराकर निकलना चाहते हैं। समस्या का मूल अर्थशास्त्र के कुछ बुनियादी सवालों पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है और यह अर्थशास्त्र के प्रचलित वैश्विक सिद्धांतों को चुनौती देने वाला हैं। विश्व में प्रचलित मूल्य नीति एवं मूल्य सूत्र की परिपाटियों पर प्रश्न चिन्ह लगा रहा है। जिसकी तरफ कोई देखना नहीं चाहता या उससे जानबूझकर आंख चुरा रहा है।


समस्या के मूल में अर्थशास्त्र में औद्योगिक एवं कृषि उत्पादों के लागत मूल्य की गणनाकी शुरुआत हो गई में अपनाई जाने वाली भिन्न भिन्न पद्धतियां हैं। उत्पादन के लागत मूल्य की गणना करने में कृषि और औद्योगिक उत्पादों के बीच का यह भेद किसी भी तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। संभवतः इसी कारण इस पक्ष को अंधेरे में रखने का वर्ग विशेष के लिए लाभकारी स्वार्थी प्रयास चल रहा है। न जाने क्यों, स्वामीनाथन आयोग समस्या के इस  पक्ष की चर्चा कर गया, जिसके कारण आर्थिक जगत में भूचाल लाने वाली मांग की शुरूआत हो गई, किसान संगठन अब वही मांग कर रहे हैं।


किसानों की फसलों के MSP मूल्य पर बिक्री की गारंटी देने वाला कानून, विश्व के आर्थिक क्षेत्र में अफरातफरी मचाने के साथ ही प्रचलित अर्थशास्त्र की चूलें हिलाने वाला होगा। बाजार व्यवस्था में "मांग और पूर्ति" एवं अर्थशास्त्र के अनेकों प्रचलित सिद्धांतों की आड़ लेकर शोषणकारी व्यवस्था को संरक्षण देने वालों के लिए विनाशकारी होगा। अनियंत्रित मूल्यों एवं लाभ कमाने पर लगाम कसकर, बाजार में सभी उत्पादों के बिक्री मूल्यों को निर्धारित करने के लिए मूल्य सूत्र प्रतिपादित करने की दिशा में बढ़ा हुआ कदम होगा।


यह निश्चित जानिए कि किसान आन्दोलन के नाम पर वर्तमान अर्थशास्त्र के थैले से MSP नाम की जो छुपी हुई बिल्ली निकली है, वह वस्तुओं के उत्पादन मूल्य एवं बिक्री मूल्य के बीच चलने वाली जबरदस्त तफावत और शोषणकारी अर्थनीतियों के विरुद्ध घोषित युद्ध का शंखनाद है, जिसमें फिलहाल कहा जा सकता है कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ किसान सम्मिलित हैं लेकिन इस चिंगारी को अब भड़कने से रोक पाना कठिन होगा। 


इसका हल किसानों की कुछ मांगों को मान लेने या न मानने से मिलने वाला नहीं है। इसका एकमेव हल कृषि एवं औद्योगिक उत्पादों के उत्पादन मूल्य की गणना में सामंजस्य लाकर, दोनों ही उत्पादों के बिक्री मूल्य का निर्धारण करने के लिए मूल्य सूत्र की स्थापना की दिशा में आगे बढ़ कर ही मिलेगा।