Sunday 24 May 2015

'भूमि अधिग्रहण कानून' जो तमाशा बन गया ?

सड़क, बिजली, पानी, उद्योग, रेल, हवाई अड्डों, निर्यात जोन, बाँध और न जाने किन किन नामों से जिन्होने 67 वर्षों तक किसानों से कौड़ियों के मूल्य मे उनकी उपजाऊ जमीनें छीनी। जिन्होने किसान को बेरोजगार ही नहीं बल्कि भिखारी बना दिया। जिन नेताओं की कई पीढ़ियां इस भूमि अधिग्रहण के साये मे तर गईं, फटेहाल घूमने वाले अरबपति - खरबपति बन गये। दिल्ली, गुड़गांव, फरीदाबाद, नोयडा, ग्रोटर नोयडा, नवी मुंबई, लवासा ही नहीं देश के प्रत्येक भाग की अधिग्रहीत जमीनें जिस लूट की गवाह हैं। कुल मिलाकर यदि कहें तो भूमि अधिग्रहण की आड़ में 67 वर्षों तक कपड़े को भिगोकर इतना निचोड़ा गया कि अब वह एक भी ऐंठन बरदास्त करने की स्थिति में नहीं है, जरा सा घुमाते ही कपड़ा फटने लगता है।


सत्ता से दूर फेंके गये, हाशिये पर अपनी बिसात बिछाये बैठे राजनैतिक दल, जिन्होने अब तक इसी कानून के सहारे मौका मिलते ही अपनी गिद्ध चोंच से किसान को नोचने का कोई मौका नहीं चूका। विदेशी चन्दे पर मौज उड़ाने वाले NGO के वह नेता, जो यह सोचकर विदेशी धुन पर नाचने मे व्यस्त हैं कि उनकी तो मजे में कटी है, कट जायेगी। बस कुछ आन्दोलन चलाने, कुछ लोगों को भड़काने की विदेशी नौकरी ही तो करनी है। जिसके लिये विदेशी आका आवश्यकता से कहीं अधिक धन मुहैय्या करा रहे हैं। इन सभी श्रेणियों के लोग भूमि अधिग्रहण जैसे महत्वपूर्ण, उपयोगी और आवश्यक कानून को छाती पीट पीट कर तमाशा बनाने की सफल स्थिति में पँहुचते नजर आ रहे हैं।

हवाई घोड़े पर सवार वर्तमान सरकार भी इन परिस्थितियों को बनाने की कम दोषी नहीं है। 67 वर्षों बाद आज देश के जो हालात हैं, एक या दो वर्षों मे उसमे कोई खास अन्तर नहीं पड़ने वाला है। अतः आवश्यकता इस बात की थी कि पहले छोटी छोटी लोक लुभावन योजनायें बनाकर देश की जनता का विश्वास जीता जाये। दिल्ली मे सभी कुॉछ मुफ्त देने वाले वादों का असर नहीं देखा क्या ? एक बार 2014 के चुनावों मे छुटभैय्ये नेता के रूप मे तब्दील नेताओं की दुकानें ठप्प पड़ जाती, जन सामान्य का विश्वास पक्का हो जाता, फिर विकास के ऊबड़ खाबड़ रास्तों पर भी गाड़ी सरपट दौड़ाई जा सकती थी। आज नेताओं का यही वर्ग गरीबों, किसानों को भड़काने में कामयाब होता दिख रहा है। यह वर्ग इसलिये नहीं कामयाब हो रहा कि गरीब, किसान को इन नेताओं पर, इनके कथन पर विश्वास है। गरीब और किसान तो अपने विगत 67 वर्षों के अनुभव के आधार पर भड़क रहे हैं। जिसमे उन्हे हमेशा धोखा ही मिला है। सरकार के पास इस वर्ग को समझाने के लिये कुछ ठोस नहीं है, बयानबाजी के अतिरिक्त। सिर्फ बयानबाजी से यह वर्ग समझने, बहलने को तैयार नहीं है। क्योंकि इसी तरह समझाकर, मौखिक सान्त्वनायें, बयान दे देकर लगातार उसे लूटा गया। वह भी नेता थे, तुम भी नेता हो, बिना कुछ देखे अनुभव लिये तुम पर विश्वास कैसे कर लें।

बेशक नया भूमि अधिग्रहण कानून पुराने सभी कानूनों से कहीं अधिक अच्छा और किसानों के हितों का पोषक है। परन्तु दूध के जले को छाछ पीना है, फूंक फूंक कर ही पियेगा और फिर यह सिद्ध हो चुका है कि नेताओं के लिये देशहित राजनीतिक रोटियां सेंकने से बड़ा नहीं है। कानून की बात करें तो देश का कौन सा कानून है जिसकी चार लाईनें पढ़कर 36 अर्थ न निकाले जा सकते हों, इस कानून के विषय मे भी यही किया जा रहा है। सभी अपने लिये अनुकूल व्याख्या कर रहे हैं। आप चिल्लाते रहिये सही अर्थ वह नहीं, यह है। गरीब, किसान तो अपने अब तक के अनुभव की कसौटी पर घिस कर ही परखेगा। दुर्भाग्य से इतने वर्षों मे कसौटी इस तरह की बन चुकी है कि उस पर 99.9% शुद्ध सोना भी घिसकर देखा जाये तो पीतल ही बतायेगी।

अतः सभी को भेड़िया आया, भेड़िया आया चिल्लाने दें। गांव वालों को बार बार लाठी डंडे लेकर पहाड़ी पर दौड़ने दें। प्रयासरत रहें कि सभी बार बार भेड़िया आया चिल्लाने को मजबूर हों। यकीन रखें  वह दिन दूर नहीं जब गांव वाले इन चिल्लाने वालों पर ही बरस पड़ेंगे, विजय तुम्हारी ही है बस कुछ कदम दूर है।

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