Tuesday 23 June 2015

गजब ढाने वाले हैं बिहार चुनाव

बिहार राज्य के आने वाले चुनाव अपने मे बहुत कुछ समेटे हुये हैं। देश, राजनीतिक पंड़ित और राजनीतिक दल अपने अपने ढंग की समीकरणों के आधार पर चाहे जो विश्लेषण करते दिखाई दे रहे हों, वास्तविकता मे उन्हे भी इन्तजार है कि देश मे आने वाले वर्षों मे राजनीति का ऊँट किस करवट बैठने वाला है यह बिहार चुनावों से 


वर्षों से साम्प्रदायिकता का ठप्पा लगाकर भाजपा को हाशिये पर लाने के प्रयास मे लगे तथाकथित अवसरवादी धर्मनिरपेक्ष दल 2014 चुनावों मे खुद हाशिये पर पँहुचकर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने को बेचैन हैं। अब तक देश में भाजपा को साम्प्रदायिक दल बता कर अलग थलग रखने की रणनीति असफल हो चुकी है। उन्हे लगा था कि अपनी चाल मे वह सफल हैं, परन्तु 2014 चुनावों ने न सिर्फ उनकी धारणा गलत सिद्ध की बल्कि उन्ही के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया। जाति, धर्म के आधार पर ध्रुवीक्रत हुये बिहार की धरती तय करने वाली है कि आने वाले समय मे धर्मनिरपेक्षता की चादर तार तार होने वाली है या फिर 2014 चुनावों मे भाजपा पर से हट चुका साम्प्रदायिक दल का लेबल फिर चिपकने वाला है। अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने वाले तमाम राजनीतिक दल इसी जोड़ तोड़ मे बेचैन हैं।


मोदी को हाशिये पर रखने की अपनी तमाम चालों के बावजूद मात खाये नीतीश, चारा घोटाला की सजा पाकर सक्रिय राजनीति से दूर फेंके गये लालू, सक्षम नेतृत्व के अभाव मे सिमटती जा रही कांग्रेस, अपनी बचीखुची सांसों को सहेजकर पूरे दमखम से मैदान मे उतरने वाले हैं। यही नहीं आगे अपने कुनबे के भविष्य से आशंकित मुलायम, चौटाला और देवगौड़ा भी हवा का रूख भांपकर इनके साथ आकर जमीन पर अपनी लाठियां पटक रहे हैं। लोहिया-जयप्रकाश के समाजवाद से छिटके समाजवादियों के लिये बिहार चुनाव उनके अस्तित्व की लड़ाई है। इन सब की ताकत है जाति, धर्म में बंटी बिहार की राजनीति, सभी दलों के अपने अपने वोट बैंक। दिल्ली चुनाव मे हुये वोटों के ध्रुवीकरण के नतीजों से इन्हे बल मिला है। इनका सोचना है कि वही नीति अपना कर यह भाजपा को मात दे सकते हैं।

भाजपा के लिये बिहार चुनाव उस राजसूय यज्ञ की तरह है, जो संकेत हो सकता है कि देश का मतदाता तथाकथित धर्मनिरपेक्षों की नीयत जान चुका है। क्रियाशीलता और बयानबाजी मे अन्तर करना मतदाता ने सीख लिया है।परन्तु भाजपा को चुनाव उपयुक्त रणनीति, शक्ति और शिद्दत से लड़ना होगा। भाजपा की शक्ति है बिहार से आने वाले उसके दर्जन भर कद्दावर नेता। पिछड़े अतिपिछड़े वोट बैंक पर पकड़ बनाने के लिये पासवान और मांझी का साथ। परन्तु बिहार चुनाव के लिये इतना पर्याप्त नहीं होगा। बिहार मे नेताओं की खेमेबाजी उसकी जीत मे पलीता लगा सकती है।

यह तय है, बिहार चुनाव न तो  2014 के लोकसभा चुनावों की पुनरावृत्ति होने वाला है, न ही पूर्व के राज्य चुनावों की तरह। इस बार बिल्कुल नये अन्दाज मे, नई समीकरणों के साथ, नई व्यूहरचना लिये दोनो पक्ष सामने हैं। विपक्ष जहां चिल्ला चिल्ला कर केन्द्र मे 1 साल पुरानी मोदी सरकार की विफलतायें गिना रहा है, ताकि वह बिहार की जमीन पर मोदी को घेर सके, वहीं 2014 चुनावों तक जद(यू) के साथ सत्ता मे रही भाजपा नीतीश सरकार के खिलाफ क्या बम फोड़ती है, देखना है। इन्ही बातों के चलते बिहार की राजनीति का पारा चढने लगा है, इस बार यह कहां तक चढ़ने वाला है देश जानने को उत्सुक है।

ही तय होने वाला हैं। पिछली विधान सभा मे विभिन्न दलों की स्थितियों के आधार पर इन चुनावों का विश्लेषण बेमानी है, क्योंकि इसबार सभी कुछ बदला हुआ है। राजनीति मे हमेशा 2 + 2 चार नहीं होते, अतः जद(यू) की 110 सीटों, राजद की 24 सीटों, भा ज प की 86 सीटों से बहुत अलग तस्वीर बनने वाली है।

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