Thursday, 25 August 2016

गडकरी जी !! यह कैसा संशोधन

9 अगस्त 2016 को परिवहन मन्त्री नितिन गडकरी ने लोकसभा में मोटर वाहन बिल 2016 प्रस्तुत किया। सम्भवतः मोटर कानून बनने के बाद यह सबसे बड़ा संशोधन विधेयक है। जिसमें अनेकों नवीन धाराओं को जोड़ा गया है। कहा यह गया है कि देश में सडक पर बढती मौतों और बेलगाम मोटर वाहनों को नियन्त्रित करने के लिये यह संशोधन विधेयक लाया गया है। बात ठीक भी है, बढती वाहन संख्या, नई तकनीक, बेहतर सड़कें, बढ़ती स्पीड और बेलगाम मोटर चालकों पर लगाम कसने की जरूरत भी थी। परन्तु यह क्या, सिर्फ अधिक अर्थदंड देने से स्थितियां सुधर जायेंगी। मोटर वाहन व्यवस्था में क्या आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत नहीं थी। लोगों को बचपन से सड़क सम्बन्धित व्यवहार सिखाने से लेकर, लाईसेन्स, रजिस्ट्रेशन और पुलिस प्रक्रिया तक। मै नितिन गडकरी अध्यनशील व्यक्तित्व है, मै उनको व्यक्तिगत स्तर पर जानता हूं। अतः कुछ बातें पच नहीं रही।

सड़क पर वाहन सम्बन्धित अपराधों के दंड मे जबरदस्त बढोत्तरी की गई है। अब दंड 500रू से शुरू होकर 10,000रू तक होगा। अपराध के लिये दंड तो ठीक है, परन्तु देश के पुलिस प्रशासन की जो स्थिति है, उसमे अभी तो यह वसूली योजना ही अधिक लगती है जब तक दूसरे पक्ष की भी ओवरहालिंग न की जाये। नया नियमन लागू करने से पहले, इ्स स्थिति को स्पष्ट करना ग्राहकों और सरकार दोनो के हित मे होगा।

हिट एन्ड रन से सम्बन्धित संशोधन (धारा 161) स्वागत योग्य है, जिसमें मृत्यु की स्थिति में अनुदान 25000रू से बढ़ाकर 2 लाख तथा गम्भीर घायल अवस्था में 12500 रू से बढ़ाकर 500000 रू कर दिया गया है। इससे निश्चित तौर पर प्रभावितों को मदद मिलेगी।

मोटर कानून मे नेक आदमियों से सम्बन्धित नवीन धारा 134A जोड़ना भी सराहनीय कदम है। अब किसी को भी सड़क पर दुर्घटना मे घायल व्यक्ति की मदद कर उसे अस्पताल पंहुचाने से गुरेज नहीं होगा, क्योंकि ऐसे व्यक्ति पर किसी भी प्रकार की दीवानी या फौजदारी कार्यवाही नहीं की जा सकेगी।

गोल्डन आवर (महत्वपूर्ण समय) से सम्बन्धित नई धारा 12A भी स्वगत योग्य कदम है, जिसके लिये सरकार नियमन बाद मे करेगी। यह धारा दुर्घटना के बाद तुरन्त ईलाज के सम्बन्ध मे है, ताकि प्रभावित की जान बचाई जा सके। यह सच है कि दुर्घटना मे घायल की जान बचाने के लिये, पहला घंटा बहुत अधिक महत्वपूर्ण होता है। परन्तु फिर भी इसमें एक बड़ी कमी है, जो इस धारा के उद्देश्य को ही निरस्त कर देती है। गोल्डन आवर घायल होने के बाद से एक घंटे का समय माना गया है। दुर्घटना शहर मे भी किसी अस्पताल के पास हो सकती है, शहर से बाहर सुनसान स्थान पर भी, जहां से घायल को वाहन से निकालने, अन्य वाहन की व्यवस्था करने तथा अस्पताल पंहुचने मे अधिक समय लगना सम्भव है। अतः गोल्डन आवर का प्रारम्भ घायल का प्राथमिक उपचार शुरू करने से प्रारम्भ होना चाहिये। इस धारा मे संशोधन किया जाना चाहिये। प्राथमिक उपचार के लिये घायल को पर्याप्त समय मिलना चाहिये।

वाहन बीमा से सम्बन्धित धारा 164(1) मे संशोधन ग्राहकों पर बहुत बड़ा अन्याय है। इस संशोधन को निरस्त कर पहले की तरह ही रखा जाना चाहिये। इस तरह के संशोधन जब भी लाये जाते हैं शक का वातावरण पैदा करते हैं। बीमा कम्पनियां व्यापार ही नहीं कर रही हैं, बल्कि अच्छा खासा लाभ कमा रही हैं व अपना प्रीमियम रिस्क के आधार पर ही ग्राहकों से वसूल रही हैं, फिर ग्राहकों की कीमत पर उन्हे संरक्षण देने की क्या जरूरत आ पड़ी। ग्राहक और बीमा कम्पनियों के बीच सरकार क्यों आ रही है, वह भी बीमा कम्पनियों के पक्ष में। नये संशोधन के अनुसार दुर्घटना की स्थिति में बीमा कम्पनियां मृत्यु की स्थिति में अधिकतम 10 लाख तथा गम्भीर घायल अवस्था में 5 लाख रुपये ही क्षतिपूर्ति देंगी। यदि क्षतिपूर्ति की रकम अधिक निर्धारित होती है तो वाहन के मालिक को शेष रकम का भुगतान करना होगा। इस धारा के बाद वाहन बीमा का क्या अर्थ रह जायेगा। बीमा कम्पनियां मलाई काटेंगी। मृत्यु या गम्भीर चोट की स्थिति मे इस सीमित रकम का क्या अर्थ है। कानून मे इस संशोधन का विरोध होना चाहिये। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत परिवहन मन्त्री व सरकार से मांग करती है कि इस संशोधन को निरस्त कर पूर्ववत किया जाये, जिसके अनुसार दुर्घटना की स्थिति मे बीमा कम्पनियों पर ही पूरे भुगतान की जिम्मेदारी है।

Monday, 25 July 2016

सिद्धू प्रकरण की जड़ों मे अकाली राजनीति

नवजोत सिंह सिद्धू का राज्यसभा की सदस्यता से जिस दिन स्तीफा आया था, उसी दिन से इसके बारे मे तरह तरह के कयास लगाये जा रहे थे। उनके भाजपा से अलग होने के सम्बन्ध मे कुछ इशारा उनकी विधायक पत्नी ने दिया तो था, परन्तु वह लोगों को स्पष्ट कयास लगाने के लिये पर्याप्त नहीं था। आज सिद्धू ने इस सम्बन्ध मे पत्रकार वार्ता मे कुछ बताया, कुछ नहीं बताया। भाजपा मे अपने को दरकिनार करने और पंजाब से अलग रहने की शर्त पर राज्य सभा की सदस्यता दिये जाने के मामले का उल्लेेख  सतही तौर पर शायद सही घटनाक्रम को उघेडने मे सफल न रहा हो, परन्तु यह उन लोगों को इशारा दे गया जो पंजाब की राजनीतिक गतिविधियों पर लम्बे समय से पैनी नजर रख रहे हैं। पंजाब मे भाजपा के प्रभावी चेहरों पर नजर डालें तो किसी को भी अटपटा लगेगा कि अपने जबरदस्त प्रभावी चेहरे को कोई राजनीतिक दल कैसे किनारे लगा सकता है। परन्तु राजनीति मे हाजमा बहुत दुरूस्त रखना पड़ता है। कभी दो कदम आगे तो कभी चार कदम पीछे हटना पड़ता है। सिद्धू प्रकरण भी भाजपा की चार कदम पीछे हटने की मजबूरी है, जिसके लि्ये शायद सिद्धू को मानसिक रूप से तैयार नहीं किया जा सका या फिर सिद्धू ने उस स्थिति को अपनाने से इन्कार कर दिया जो संगठन के हितचिन्तक कार्यकर्ता अपनाकर खुद को गुमनामी के अन्धेरे मे धकेलने के लिये तैयार हो जाते हैं।

वस्तुस्थिति जानने के लिये पंजाब, वहां की राजनीति, विभिन्न राजनीतिक दलों की स्थितियों का विश्लेषण जरूरी है। पंजाब मे मुख्य राजनीतिक पैठ दो दलों की है, कांग्रेस और अकाली। दोनो की पकड़ इतनी मजबूत है कि बसपा के जनक कांशीराम पंजाब के होने के बावजूद वहां पैर तक न जमा सके। राष्ट्रीय दल के रूप मे आगे बढ़ती भाजपा के लिये जरूरी था कि वह उन तमाम प्रदेशों मे क्षेत्रीय दलों के सहयोग से अपने पैर जमाये। देश के अनेको प्रान्तों मे भाजपा की यह यात्रायें और उसके परिणाम सामने हैं। पंजाब मे भाजपा ने अपने पैर जमाने के लिये अकाली दल का हाथ थामा। अकाली भी कांग्रेस को टक्कर देने के लिये सहारे की तलाश मे थे, अत: उन्होने भाजपा का हाथ पकड़ लिया। परन्तु अकाली भाजपा के साथ चलते हुये इस बारे मे अत्यधिक सचेत हैं कि भाजपा की पंजाब मे तााकत निर्धारित सीमा से आगे न बढ़े। वह बराबर आशंकित था कि भाजपा पंजाब मे कहीं इतनी ताकतवर न हो जाये कि उसे ढकेलकर आगे बढ़ जाये। अतः अकाली भाजपा की आन्तरिक गतिविधियों पर भी पूरी नजर रखते हैं और उन्हे अपने अनुरूप ढालने के लिये भाजपा की आन्तरिक गतिविधियों मे भी हस्तक्षेप करते रहते हैं। अकाली इस विषय मे कितने सेंसिटिव हैं, इस बात का अन्दाज इसी से लग जाता है कि आर एस एस का सिखों के बीच कार्य करने वाला एक संगठन सिख संगत है। सिख संगत ने पंजाब मे भी और बाहर भी सिखों के बीच बहुत काम किया है। पंजाब मे सिख संगत का काम जैसे ही बढ़ा, सिख संगत के कार्यकर्ता गांव तक पंहुचने लगे, अकालियों ने विवाद खड़े करने शुरू कर दिये। अकालियों के लिये तब तक तो ठीक है, जब तक भाजपा को पंजाब मे दमदार नेता न मिले। भाजपा को दमदार नेता मिलते ही उसका हाजमा हिलने लगता है। सिद्धू के रूप मे भाजपा को पंजाब  मे दमदार लीडर मिला, जिसके सहारे पंजाब मे भाजपा अपने दम पर गाड़ी खींचने की हिम्मत दिखा सकती थी। यही स्थिति अकालियों को मंजूर नहीं थी।

भाजपा मे सिद्धू प्रकरण की मुख्य शुरूवात 2014 लोकसभा चुनाव से हुई। पूरे देश मे मोदी लहर चल रही थी, एनडीए के बहुमत मे आने के पूरे आसार थे। भाजपा अपने सहयोगियों के साथ फूंक फूंक कर कदम रख रही थी। किसी भी तरह का जोखिम लेने को तैयार नहीं थी। यहां तक कि उसने उ.प्र. और बिहार मे कई ऐसे दलों के साथ भी उन शर्तों पर समझौते किये, जिन पर सामान्य परिस्थितियों मे शायद वह कभी तैयार न होती। यही अवसर अकालियों को आपरेशन सिद्धू के लिये सबसे उपयुक्त लगा। समझौते के दबाव मे आपरेशन हो गया, सिद्धू जो पंजाब मे भाजपा के प्रचार की मुख्य धुरी होता, प्रचार से ही बाहर था। पार्टी और सिद्धू के बीच खटास पड़ चुकी थी, यही अकाली चाहते थे। केन्द्र मे सरकार बनने के बाद भाजपा डेमेज कन्ट्रोल मे लगी, सिद्धू को मनाने के प्रयास हुये और समझौता हो भी गया, सिद्धू को राज्यसभा मे भेजकर सांसद की कमी पूरी की गई। परन्तु अकालियों को सिद्धू मंजूर नहीं था जो आगे चलकर उनके लिये चुनौती बन सके। राज्यसभा मे सिद्धू को पंजाब से भेजने के लिये अकालियों के समर्थन की भी जरूरत रही और फिर बने खेल को बिगाड़ने का काम शुरू हो गया, नतीजा सामने है।

सिद्धू प्रकरण की जड़ों मे अकाली राजनीति

नवजोत सिंह सिद्धू का राज्यसभा की सदस्यता से जिस दिन स्तीफा आया था, उसी दिन से इसके बारे मे तरह तरह के कयास लगाये जा रहे थे। उनके भाजपा से अलग होने के सम्बन्ध मे कुछ इशारा उनकी विधायक पत्नी ने दिया तो था, परन्तु वह लोगों को स्पष्ट कयास लगाने के लिये पर्याप्त नहीं था। आज सिद्धू ने इस सम्बन्ध मे पत्रकार वार्ता मे कुछ बताया, कुछ नहीं बताया। भाजपा मे अपने को दरकिनार करने और पंजाब से अलग रहने की शर्त पर राज्य सभा की सदस्यता दिये जाने के मामले का उल्लेेख  सतही तौर पर शायद सही घटनाक्रम को उघेडने मे सफल न रहा हो, परन्तु यह उन लोगों को इशारा दे गया जो पंजाब की राजनीतिक गतिविधियों पर लम्बे समय से पैनी नजर रख रहे हैं। पंजाब मे भाजपा के प्रभावी चेहरों पर नजर डालें तो किसी को भी अटपटा लगेगा कि अपने जबरदस्त प्रभावी चेहरे को कोई राजनीतिक दल कैसे किनारे लगा सकता है। परन्तु राजनीति मे हाजमा बहुत दुरूस्त रखना पड़ता है। कभी दो कदम आगे तो कभी चार कदम पीछे हटना पड़ता है। सिद्धू प्रकरण भी भाजपा की चार कदम पीछे हटने की मजबूरी है, जिसके लि्ये शायद सिद्धू को मानसिक रूप से तैयार नहीं किया जा सका या फिर सिद्धू ने उस स्थिति को अपनाने से इन्कार कर दिया जो संगठन के हितचिन्तक कार्यकर्ता अपनाकर खुद को गुमनामी के अन्धेरे मे धकेलने के लिये तैयार हो जाते हैं।

वस्तुस्थिति जानने के लिये पंजाब, वहां की राजनीति, विभिन्न राजनीतिक दलों की स्थितियों का विश्लेषण जरूरी है। पंजाब मे मुख्य राजनीतिक पैठ दो दलों की है, कांग्रेस और अकाली। दोनो की पकड़ इतनी मजबूत है कि बसपा के जनक कांशीराम पंजाब के होने के बावजूद वहां पैर तक न जमा सके। राष्ट्रीय दल के रूप मे आगे बढ़ती भाजपा के लिये जरूरी था कि वह उन तमाम प्रदेशों मे क्षेत्रीय दलों के सहयोग से अपने पैर जमाये। देश के अनेको प्रान्तों मे भाजपा की यह यात्रायें और उसके परिणाम सामने हैं। पंजाब मे भाजपा ने अपने पैर जमाने के लिये अकाली दल का हाथ थामा। अकाली भी कांग्रेस को टक्कर देने के लिये सहारे की तलाश मे थे, अत: उन्होने भाजपा का हाथ पकड़ लिया। परन्तु अकाली भाजपा के साथ चलते हुये इस बारे मे अत्यधिक सचेत हैं कि भाजपा की पंजाब मे तााकत निर्धारित सीमा से आगे न बढ़े। वह बराबर आशंकित था कि भाजपा पंजाब मे कहीं इतनी ताकतवर न हो जाये कि उसे ढकेलकर आगे बढ़ जाये। अतः अकाली भाजपा की आन्तरिक गतिविधियों पर भी पूरी नजर रखते हैं और उन्हे अपने अनुरूप ढालने के लिये भाजपा की आन्तरिक गतिविधियों मे भी हस्तक्षेप करते रहते हैं। अकाली इस विषय मे कितने सेंसिटिव हैं, इस बात का अन्दाज इसी से लग जाता है कि आर एस एस का सिखों के बीच कार्य करने वाला एक संगठन सिख संगत है। सिख संगत ने पंजाब मे भी और बाहर भी सिखों के बीच बहुत काम किया है। पंजाब मे सिख संगत का काम जैसे ही बढ़ा, सिख संगत के कार्यकर्ता गांव तक पंहुचने लगे, अकालियों ने विवाद खड़े करने शुरू कर दिये। अकालियों के लिये तब तक तो ठीक है, जब तक भाजपा को पंजाब मे दमदार नेता न मिले। भाजपा को दमदार नेता मिलते ही उसका हाजमा हिलने लगता है। सिद्धू के रूप मे भाजपा को पंजाब  मे दमदार लीडर मिला, जिसके सहारे पंजाब मे भाजपा अपने दम पर गाड़ी खींचने की हिम्मत दिखा सकती थी। यही स्थिति अकालियों को मंजूर नहीं थी।

भाजपा मे सिद्धू प्रकरण की मुख्य शुरूवात 2014 लोकसभा चुनाव से हुई। पूरे देश मे मोदी लहर चल रही थी, एनडीए के बहुमत मे आने के पूरे आसार थे। भाजपा अपने सहयोगियों के साथ फूंक फूंक कर कदम रख रही थी। किसी भी तरह का जोखिम लेने को तैयार नहीं थी। यहां तक कि उसने उ.प्र. और बिहार मे कई ऐसे दलों के साथ भी उन शर्तों पर समझौते किये, जिन पर सामान्य परिस्थितियों मे शायद वह कभी तैयार न होती। यही अवसर अकालियों को आपरेशन सिद्धू के लिये सबसे उपयुक्त लगा। समझौते के दबाव मे आपरेशन हो गया, सिद्धू जो पंजाब मे भाजपा के प्रचार की मुख्य धुरी होता, प्रचार से ही बाहर था। पार्टी और सिद्धू के बीच खटास पड़ चुकी थी, यही अकाली चाहते थे। केन्द्र मे सरकार बनने के बाद भाजपा डेमेज कन्ट्रोल मे लगी, सिद्धू को मनाने के प्रयास हुये और समझौता हो भी गया, सिद्धू को राज्यसभा मे भेजकर सांसद की कमी पूरी की गई। परन्तु अकालियों को सिद्धू मंजूर नहीं था जो आगे चलकर उनके लिये चुनौती बन सके। राज्यसभा मे सिद्धू को पंजाब से भेजने के लिये अकालियों के समर्थन की भी जरूरत रही और फिर बने खेल को बिगाड़ने का काम शुरू हो गया, नतीजा सामने है।

सिद्धू प्रकरण की जड़ों मे अकाली राजनीति

नवजोत सिंह सिद्धू का राज्यसभा की सदस्यता से जिस दिन स्तीफा आया था, उसी दिन से इसके बारे मे तरह तरह के कयास लगाये जा रहे थे। उनके भाजपा से अलग होने के सम्बन्ध मे कुछ इशारा उनकी विधायक पत्नी ने दिया तो था, परन्तु वह लोगों को स्पष्ट कयास लगाने के लिये पर्याप्त नहीं था। आज सिद्धू ने इस सम्बन्ध मे पत्रकार वार्ता मे कुछ बताया, कुछ नहीं बताया। भाजपा मे अपने को दरकिनार करने और पंजाब से अलग रहने की शर्त पर राज्य सभा की सदस्यता दिये जाने के मामले का उल्लेेख  सतही तौर पर शायद सही घटनाक्रम को उघेडने मे सफल न रहा हो, परन्तु यह उन लोगों को इशारा दे गया जो पंजाब की राजनीतिक गतिविधियों पर लम्बे समय से पैनी नजर रख रहे हैं। पंजाब मे भाजपा के प्रभावी चेहरों पर नजर डालें तो किसी को भी अटपटा लगेगा कि अपने जबरदस्त प्रभावी चेहरे को कोई राजनीतिक दल कैसे किनारे लगा सकता है। परन्तु राजनीति मे हाजमा बहुत दुरूस्त रखना पड़ता है। कभी दो कदम आगे तो कभी चार कदम पीछे हटना पड़ता है। सिद्धू प्रकरण भी भाजपा की चार कदम पीछे हटने की मजबूरी है, जिसके लि्ये शायद सिद्धू को मानसिक रूप से तैयार नहीं किया जा सका या फिर सिद्धू ने उस स्थिति को अपनाने से इन्कार कर दिया जो संगठन के हितचिन्तक कार्यकर्ता अपनाकर खुद को गुमनामी के अन्धेरे मे धकेलने के लिये तैयार हो जाते हैं।

वस्तुस्थिति जानने के लिये पंजाब, वहां की राजनीति, विभिन्न राजनीतिक दलों की स्थितियों का विश्लेषण जरूरी है। पंजाब मे मुख्य राजनीतिक पैठ दो दलों की है, कांग्रेस और अकाली। दोनो की पकड़ इतनी मजबूत है कि बसपा के जनक कांशीराम पंजाब के होने के बावजूद वहां पैर तक न जमा सके। राष्ट्रीय दल के रूप मे आगे बढ़ती भाजपा के लिये जरूरी था कि वह उन तमाम प्रदेशों मे क्षेत्रीय दलों के सहयोग से अपने पैर जमाये। देश के अनेको प्रान्तों मे भाजपा की यह यात्रायें और उसके परिणाम सामने हैं। पंजाब मे भाजपा ने अपने पैर जमाने के लिये अकाली दल का हाथ थामा। अकाली भी कांग्रेस को टक्कर देने के लिये सहारे की तलाश मे थे, अत: उन्होने भाजपा का हाथ पकड़ लिया। परन्तु अकाली भाजपा के साथ चलते हुये इस बारे मे अत्यधिक सचेत हैं कि भाजपा की पंजाब मे तााकत निर्धारित सीमा से आगे न बढ़े। वह बराबर आशंकित था कि भाजपा पंजाब मे कहीं इतनी ताकतवर न हो जाये कि उसे ढकेलकर आगे बढ़ जाये। अतः अकाली भाजपा की आन्तरिक गतिविधियों पर भी पूरी नजर रखते हैं और उन्हे अपने अनुरूप ढालने के लिये भाजपा की आन्तरिक गतिविधियों मे भी हस्तक्षेप करते रहते हैं। अकाली इस विषय मे कितने सेंसिटिव हैं, इस बात का अन्दाज इसी से लग जाता है कि आर एस एस का सिखों के बीच कार्य करने वाला एक संगठन सिख संगत है। सिख संगत ने पंजाब मे भी और बाहर भी सिखों के बीच बहुत काम किया है। पंजाब मे सिख संगत का काम जैसे ही बढ़ा, सिख संगत के कार्यकर्ता गांव तक पंहुचने लगे, अकालियों ने विवाद खड़े करने शुरू कर दिये। अकालियों के लिये तब तक तो ठीक है, जब तक भाजपा को पंजाब मे दमदार नेता न मिले। भाजपा को दमदार नेता मिलते ही उसका हाजमा हिलने लगता है। सिद्धू के रूप मे भाजपा को पंजाब  मे दमदार लीडर मिला, जिसके सहारे पंजाब मे भाजपा अपने दम पर गाड़ी खींचने की हिम्मत दिखा सकती थी। यही स्थिति अकालियों को मंजूर नहीं थी।

भाजपा मे सिद्धू प्रकरण की मुख्य शुरूवात 2014 लोकसभा चुनाव से हुई। पूरे देश मे मोदी लहर चल रही थी, एनडीए के बहुमत मे आने के पूरे आसार थे। भाजपा अपने सहयोगियों के साथ फूंक फूंक कर कदम रख रही थी। किसी भी तरह का जोखिम लेने को तैयार नहीं थी। यहां तक कि उसने उ.प्र. और बिहार मे कई ऐसे दलों के साथ भी उन शर्तों पर समझौते किये, जिन पर सामान्य परिस्थितियों मे शायद वह कभी तैयार न होती। यही अवसर अकालियों को आपरेशन सिद्धू के लिये सबसे उपयुक्त लगा। समझौते के दबाव मे आपरेशन हो गया, सिद्धू जो पंजाब मे भाजपा के प्रचार की मुख्य धुरी होता, प्रचार से ही बाहर था। पार्टी और सिद्धू के बीच खटास पड़ चुकी थी, यही अकाली चाहते थे। केन्द्र मे सरकार बनने के बाद भाजपा डेमेज कन्ट्रोल मे लगी, सिद्धू को मनाने के प्रयास हुये और समझौता हो भी गया, सिद्धू को राज्यसभा मे भेजकर सांसद की कमी पूरी की गई। परन्तु अकालियों को सिद्धू मंजूर नहीं था जो आगे चलकर उनके लिये चुनौती बन सके। राज्यसभा मे सिद्धू को पंजाब से भेजने के लिये अकालियों के समर्थन की भी जरूरत रही और फिर बने खेल को बिगाड़ने का काम शुरू हो गया, नतीजा सामने है।

Wednesday, 20 July 2016

राज्य सभा मे कश्मीर पर गुलाम नबी आजाद

सुन रहे हैं कश्मीर पर राज्य सभा मे गुलाम नबी के वक्तव्य का वीडियो वायरल हो रहा है। उन्होने यह कहा, वह कहा, पता नहीं क्या कहा। मैने भी कई बार गुलाम नबी का वीडियो सुना, मेरा बेबाक विश्लेषण ।

वाह खूब कहा गुलाम नबी ने, क्या खूब समझा आपने। बड़ी चालाकी से आग को सुलगता छोड़ने का काम किया है। कितने बेहतरीन हालात थे कश्मीर मे गुलाम नबी के जमाने मे, पूरी दुनिया जानती है। जब कश्ममीरी पंडित अपना घरबार छोड़ कर भागे तब हालात बेहतर थे। आपने इतने बेहतरीन हालात बनाये कि पंडित घर वापसी सोच भी नहीं सके। आपने बिल्कुल सही कहा जो आपने कश्मीर मे किया बी जे पी 50 सालों मे भी नहीं कर सकती। कैसे कर सकती है, आपने ही समस्या खडी की, आपने ही उसे खाद पानी दिया। आप सोते रहे कश्मीर मे विदेशों से आतंकवाद की जड़ें जमाने के लिये पैसा आता रहा। आपने कश्मीर मे वह करिश्मा किया कि पहले आतंकवादी बाहररी मुल्कों से आते थे। अब वहीं पैदा होने लगे हैं। गुलाम नबी ने फिर यह सिद्ध कर दिया कि कश्मीर की समस्या उनकी तुष्टीकरण की नीति और समुदाय विशेष के वोट बैंक को साधने की कोशिशों का परिणाम है। आज भी वह इसी काम मे लगे हैं। कश्मीर के ताजा महौल मे सेना ने कारगिल युद्ध के. समय से अधिक जवान खोेये हैं। गुलाम नबी के मुंह से उनके लिये एक शब्द भी नहीं फूटा।

 आपका दर्द समझ भी आता है और आपके शब्दों मे भी छलका है। कश्मीर मे इतना बेहतरीन माहौल बनाने, वहां के मुख्यमन्त्री रहने के बावजूद भी आप दशकों से लोकसभा चुनाव लड़ने के लिये, देश के दूसरे सूबों की तरफ ही भागते हैं। यहां तक कि 2014 का लोकसभा चुनाव भी आप कश्मीर से लड़ने की हिम्मत नहीं दिखा पाये। दूसरी तरफ बीजेपी कश्मीर मे सरकार बनाने की स्थिति मे आ गई। कहीं यह न हो कि आने वाले समय मे आपकी पार्टी वहां नेस्तनाबूद हो जाये और बीजेपी जम जाये।इसी झल्लाहट मे आपने यह तक कह डाला कि आने वाले 200 वर्षों तक वहां बीजेपी स्वीकार्य नहीं होगी। यह कहने के पीछे आपके जेहन मे यही चल रहा था न कि वहां एक सम्प्रदाय विशेष ने छल, बल और पाकिस्तानी मदद से आतंकवाद के सहारे जब आपको भगा दिया तो किसी दूसरे को वह भी बीजेपी जैसी पार्टी को कैसे आने देगा।

गुलाम नबी जी आप वरिष्ठ राजनीतिज्ञ हैं। आपकी जद कश्मीर ही नहीं पूरा हिन्दुस्तान है। जिसने आपको उन दिनों सर माथे पर बैठाया, जब चुनाव लड़ना तो दूर, आप मे कश्मीर मे घुसने की हिम्मत भी नहीं थी। आपके ऊपर पूरे हिन्दुस्तान का कर्ज है और वैसे भी अब आपका राजनीतिक सफर मंजिल पर पंहुच रहा है। कम से कम अब तो सच बोलने की हिम्मत दिखाइये। अब तो देश, सेना और कश्मीर घाटी छोड़ जम्मू कश्मीर के शेष भाग के लोगों की भावनाओं के अनुरूप आचरण करने की हिम्मत दिखाइये। यह न करके आप बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं। आप सक्रिय राजनीति के हाशिये की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं। आपका वर्तमान आचरण आपको गुमनामी के अन्धेरे की तरफ धकेल रहा है। याद कीजिये शेरे कश्मीर, फारूक अब्दुल्ला और अभी मरहूम हुये मुफ्ती साहब को, कुछ पर खाक चढ़ चुकी है, कुछ पर चढ़ती जा रही है। वैसे भी इनमे से किसी को वह राष्ट्रीय पहचान नहीं मिली, जो आपको हासिल है। अत: अब तो सच बोलने की हिम्मत दिखाइये, यह हमारी सलाह है, आगे आपकी मर्जी।

Thursday, 30 June 2016

सरकारी कर्मचारियों की वेतनवृद्धि सर्वहारा के लिये घातक

अर्थव्यवस्था मे अतिरिक्त पैसा उसके विकास को गति देने मे सहायक होता है। आंकडे यही बताते हैं कि यदि यह अतिरिक्त पैसा ग्राहकों  के हाथों मे दिया जाये। ग्राहक इस पैसे को बाजार मे खर्च करता है जिससे बाजार मे मांग बढती है, यह मांग अतिरिक्त उत्पादन के संसाधन विकसित करने और उद्योग लगाने, उद्योग नवीन रोजगार पैदा करने मे सहायक होते हैं। यह आधुनिक अर्थशास्त्र का नियम है। जीडीपी वृद्धि के लिये छटपटाती मोदी सरकार के लिये ऐसे किसी अवसर को न चूकना  उसकी मजबूरी है। हम केन्द्र सरकार के कर्मचारियों को सातवें वेतन आयोग लागू करना इसी द्रष्टि से देखते हैं। टैक्स वृद्धि और मंहगाई से हलाकान ग्राहकों पर इस 1 करोड 2 लाख करोड़ के अतिरिक्त बोझ का घातक असर निश्चित है। केन्द्र सरकार के लगभग 1 करोड़ कर्मचारी हैं, इनमे यदि राज्य सरकारों के कर्मचारियों की संख्या भी मिला ली जाये, क्योंकि उन्हे भी इसीप्रकार की वेतन वृद्धि देनी पडेगी तो संख्या लगभग 5 करोड हो जाती है। सरकारों द्वारा की गई वेतन वृद्धि के कारण बाजार मे मुद्रा का प्रचलन बढेगा, जिसके कारण जन्म लेने वाली मुद्रास्फीर्ति पूरी आबादी पर अपना प्रभाव छोडेगी। पहले से मंहगाई से जूझने वाले ग्राहक को निश्चित रूप से इससे धक्का लगेगा।

सरकारी कर्मचारी के हाथ मे आने वाला पैसा बाजार मे आये, इसी उम्मीद मे लगे हाथ शॉप एण्ड इस्टेब्लिस्मेन्ट कानून बदलकर बाजारों को 24 x 7 घन्टे खोलने की अनुमति दे दी गई है। ग्राहकों के प्रतिनिधि के नाते हम इस कदम का स्वागत करते हैं। परन्तु इससे सम्बन्धित दुनिया के आंकडे देखने पर नहीं लगता कि इससे वह कुछ हासिल हो पायेगा जो प्रचारित कर यह कदम उठाया जा रहा है। बमुश्किल दुनिया के उंगली पर गिने जा सकने वाले शहरों मे ही यह व्यवस्था लागू हो पाई है। रोजगार मे मामूली वृद्धि ही होगी, जबकि व्यापार को इसका लाभ मिलेगा। पहले ही निजी कारखानों मे काम के 8 घन्टे कबके 12 घन्टे बन चुके हैं।

सरकार के इस कदम के साथ ही ग्राहकों को अतिरिक्त टैक्स का भार झेलने के लिये तैयार रहना चाहिये। वर्ष 2016 के 18 लाख करोड़ रूपयों के बजट को देखने से ही यह स्पष्ट हो जाता है। इस बजट मे सरकार की सभी श्रोतों से आय 12 लाख 21. हजार 818 करोड़ रुपये थी, जबकि गैर योजना खर्च 13 लाख 12 हजार 200 करोड़ रुपये यानी आमदनी से 90,372 करोड़ रुपये अधिक, अब इस अतिरिक्त 1 लाख 2 हजार करोड़ रुपये की व्यवस्था का रास्ता ग्राहकों की जेब से ही होकर गुजरने वाला है। वैसे जेटली जी को GST पास होने की उम्मीद से सर्विस टैक्स 15.5 से 18%. हो जाने की भी उम्मीद भी होगी।

मोदी को पंक्ति के अन्तिम छोर पर बैठे जिस व्यक्ति की सर्वाधिक चिन्ता है, उसी के लिये यह कदम सर्वाधिक कष्टदायी हैं। सरकार अार्थिक मामलों में कमोबेश वही कदम उठा रही है, जिनके फलों के स्वाद विश्व के कई देश चख चुके हैं। जो असफल सिद्ध हो चुके हैं। सर्वहारा को आर्थिक सक्षम बनाने तथा आर्थिक असमानता को दूर करने के मार्ग अलग और लीक से हटकर हैं। शायद उनमे भी जोखिम हो, जिसे उठाने को सरकार अभी तैयार न हो, हम उस समय का इन्तजार करेंगे।

Thursday, 16 June 2016

कैराना : Ground Zero

आज उत्तर प्रदेश के शामली जिले की कैराना तहसील पूरे देश मे चर्चा मे है। कहा यह गया कि कैराना मे मुस्लिम बहुल आबादी मे गुण्डागर्दी से परेशान क्षेत्र के हिन्दू अ्ल्पसंख्यक अपना घर, व्यापार, खेती बेचकर पलायन करने लगे। देश मे जब तब सेकुलर, असहिष्णुता की बयार जब तब बहती है। अत: यह लॉबी भी ताल ठोक कर मैदान मे उतर पड़ी। यह लोग भी मानते हैं कि कुछ लोगों ने कैराना छोड़ा, पर अपने बेहतर भविष्य के लिये। वर्तमान मे दोनो आमने सामने हैं। अपने अपने तर्कों को लेकर। हम सभी बातों का सिलसिलेवार बेबाकी से विश्लेषण करेंगे। परन्तु पहले कैराना और उसके आसपास के क्षेत्र की भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक परिस्थितियों को समझ लेते हैं।

कैराना उत्तर प्रदेश की उत्तर पश्चिमी सीमा पर यमुना नदी के किनारे हरियाणा के पानीपत की सीमा से लगा है। पहले कैराना मुजफ्फरनगर जिले की तहसील हुआ करता था। वर्ष 2011 मे मायावती द्वारा शामली को जिला बनाने के बाद कैराना शामली की तहसील बन गया। सिर्फ 1998 और 2013 मे ही यहां से बीजेपी सांसद ने जीत हासिल की। 2011 जनगणना के मुताबिक़ कैराना तहसील की की जनसंख्या एक लाख 77 हजार 121 है. कैराना नगर पालिका की आबादी करीब 89 हजार है. कैराना नगर पालिका परिषद के इलाक़े में 81% मुस्लिम, 18% हिंदू और अन्य धर्मों को मानने वाले लोग 1% हैं. यूपी में साक्षरता दर 68% है लेकिन कैराना में 47% लोग ही साक्षर हैं। कैराना पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से 80 किमि, मेरठ से 72 किमि, मुजफ्फरनगर से 53 किमि, बिजनौर से किमि की दूरी पर है। यह सभी जिले अत्यधिक संवेदनशील जिले हैं। इन सभी जिलों मे वह खाद पानी पर्याप्त मात्रा मे उपलब्ध है, जो दो समुदायों के बीच सौहार्द बिगाड़ने की भूमिका निभाता है। इसपर यदि प्रशासन और कानून व्यवस्था ढीली ढाली हो तो सोने मे सोहागा। अखिलेश राज मे शासन प्रशासन की चुस्ती का अंदाज कुछ दिन पहले मथुरा मे घटित जवाहरबाग कांड से मालुम पड़ जाता है। पिछले दो-तीन वर्षों मे इन सभी स्थानों पर दंगे हो चुके हैं। यह सब हम राज्य सरकार तथा उन सेकुलर लोगों की याददाश्त ताजा करने के लिये बता रहे हैं, जिन्हे हिन्दुओं पर हुये किसी भी अत्याचार को नकारने तथा उसे जल्दी से भूलने की बीमारी है। यह भी विचित्र संयोग है कि हम जिन जिन घटनाक्रमों का जिक्र कर रहे हैं। सभी के तमगे उत्तर प्रदेश की समाजवादी अखिलेश सरकार के नाम हैं। 

सेकुलर दोस्तों और राजनीतिक दलों को सहारनपुर के कांग्रेस नेता इमरान मसूद का 2014 चुनावों मे दिया भाषण भी सुनने और गौर करने योग्य है। जिसमे वह हिन्दुओं और मोदी की स्तुति कर रहा है। सितम्बर 2013 मे मुजफ्फरनगर के कावल से हिन्दू -मुस्लिम दंगे की शुरूवात हुई, जिसने मुजफ्फरनगर और शामली जिले को अपनी चपेट मे ले लिया था, मई 2014 मे मेरठ दंगे की आग मे झुलसा, मुरादाबाद की कांठ तहसील मे जुलाई 2014 मे दंगे की चिंगारी फूटी, जुलाई 2014 मे ही सहारनपुर ने भी दंगे की आंच झेली। यह सब घटनाक्रम यह समझने के लिये पर्याप्त हैं कि कैराना से 50 से 80 कि मी की दूरी पर उस क्षेत्र का साम्प्रदायिक माहौल क्या और कैसा है। वहां पिछले 2-3 वर्षों से चल क्या रहा था। इस माहौल मे कभी भी पलायन शुरू होने की सम्भावना से इन्कार स्वार्थी तत्व ही करेंगे, आज भी कर रहे हैं। 

अब कैराना की वर्तमान घटनाओं पर आते हैं। इस क्षेत्र के स्थानीय अखबारों मे कैराना मे हिन्दुओं के डर और पलायन की छुटपुट खबरें कुछ समय से छप रही थी। एक समाचार चैनल का ध्यान इन खबरों पर गया और उसने स्टोरी करने का विचार किया। जब चैनल का संवाददाता स्टोरी कवर करने के लिये ग्राउन्ड जीरो पर पँहुचा, वहां का जो माहौल उसने देखा, उसके हाथों के तोते उड़ गये। इस तरह कैराना का जिन्न बन्द बोतल के बाहर आया। इस जिन्न ने देश की सेकुलर जमात और राज्य सरकार को बेचैन कर दिया। पलायन का सच नंगी आँखों से चुपचाप देखा महसूस किया जाता है। वह जो इसे टीवी इन्टरव्यू या गवाह की शक्ल मे देखना चाहते हैं, सिर्फ एक वर्ग को वोट के लालच मे सन्तुष्ट करने के लिये नौटंकी कर रहे हैं। आज वहां जो हालात हैं, उनको कैमरे या किसी प्रशासनिक अधिकारी को बताने मे अच्छे अच्छों की पैन्ट गीली हो जाती है। वह भी उन अधिकारियों को जिनके पक्षपाती रवैये के कारण यह स्थितियां बनी हैं। कैराना के सांसद द्वारा कैराना से पलायन करने वाले 346 तथा कांधला से पलायन करने वाले 63 लोगों की सूची पर उंगली उठाना बुनियादी रूप से गलत है। इस लिस्ट के 100-150 नाम गलत होने का सवाल उठाने वाले शेष 196 सही नामों पर खामोश रहकर, जवाबदेही से बचने का षडयन्त्र रचने मे लगे हैं। 

देश और समाज के सामने झूठी छाती पीट पीट कर शोर मचाने वाले इस वर्ग विशेष के रूदाली रूदन को देश ने हैदराबाद मे रोहित वैमूला की आत्महत्या के समय सुना, देखा और समझा। जहां रोहित का करीबी दोस्त इनसे छिटककर हकीकत बयान करता दिखा। दादरी मे अखलाक की मौत के समय देखा, जहां बाद मे मथुरा लैब की रिपोर्ट आने पर इन्हे अपने शब्दों को वापस निगलना पड़ा। जेएनयू मे देशद्रोही नारे लगाने वालों का पक्ष लेकर बंगाल चुनाव मे उतर अपनी ऐसी तैसी कराने तथा वीडियो क्लिपें सही साबित होने पर बेशर्मों की खिलखिलाते देखा और अब एक बार यह वर्ग फिर कैराना की घटनाओं को झुठलाने की कोशिश मे है। इस वर्ग के साथ किस प्रकार का व्यवहार करना है, यह निर्णय देश और समाज को करना है।