Monday, 24 October 2016

GST पर चर्चा में वही नदारद जिसे टैक्स देना है


देश में वस्तु एवं सेवा कर ( GST ) पर जबरदस्त चर्चा छिड़ी हुई है। कहा जा रहा है कि सभी प्रभावित पक्ष इस गहन मन्थन में लगे हुये हैं, सिर्फ उसको छोड़कर जिसे अपनी जेब से इस कर को चुकाना है। वह पक्ष जिससे यह टैक्स वसूला जायेगा। उसे चर्चा में सम्मिलित करना कोई महत्वपूर्ण भी नहीं समझता, यह भी जरूरत नहीं समझी जाती कि उससे पूछ तो लिया जाये कि भाई तुम कितना भार वहन कर पाने में सक्षम हो। जो भी पक्ष इ्स चर्चा में सम्मिलित हैं या इसे अन्तिम रूप देने की कोशिश कर रहे है परजीवी (Parasites) हैं। उनमे से कोई भी 1 नये पैसे के बराबर भी कर का भार वहन करने वाला नहीं है, न सरकारें, न उद्योगपति और न ही व्यापारी। हमारी सरकारों के न जाने कब अक्ल आयेगी या वह कब समझेंगे कि जिनके सहारे उनकी वित्तीय व्यवस्थायें चल रही हैं, जो इस मामले में सबसे महत्वपूर्ण पक्ष हैं। उनकी भी राय ले ली जाये, उनसे भी पूछ लिया जाये। हम यहां ग्राहकों के प्रतिनिधि बनने की दुकान चला रहे, उन इक्के दुक्के स्वनामधन्य लोगों की बात नहीं कर रहे, जन संगठनों की बात कर रहे हैं। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत सरकार के इस रूख की घोर निन्दा करती है।

विद्वानों द्वारा कर निर्धारण करने की नीतियों से सम्बन्धित विचार आज ठीक उसी तरह अर्थशास्त्र की पुस्तकों मे दफन हो चुके हैं, जिस प्रकार अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों को पढ़ाये जाने वाले, वस्तु का विक्रय मूल्य निर्धारित करने में उसके उत्पादन मूूल्य की भूमिका से सम्बन्धित विचार। समाज की आर्थिक विषमता दूर या कम करने की भूमिका से अब कर निर्धारणकर्ता बहुत दूर जा चुके हैं। कर सरलीकरण या कर सुधार के नाम पर आसान तरीकों से अधिक से अधिक धन उगाही ही उनका एकमेव उद्देश्य बन चुकी है। इस सम्बन्ध में विभिन्न स्तरों पर किये जाने वाले दुष्प्रचार का आलम यह है कि जो व्यक्ति सरकार को एक पैसा टैक्स नहीं देता, उसे कर द्वारा पैसा देकर सरकार चलाने वाला माना जा रहा है। जिसके पैसे से सरकार चल रही है, उसे अधिक निचोड़ा जा रहा है। मजे की बात यह कि अपने पैसे से सरकार चलाने वाले भी नहीं जानते कि सरकार उनके पैसे से चल रही हैं, वह भी यही समझते हैं कि सरकार उनके नहीं किसी दूसरे (धनाड्यों) के पैसे से चल रही है। यह हकीकत है कि सरकार देश की 85% गरीबी रेखा के नीचे, ऊपर रहने वालों, निम्न मध्यम वर्ग तथा मध्यम वर्गीय लोगों के पैसे से चल रही है। यह मै नहीं कह रहा आंकडे कह रहे हैं। आप किसी भी वर्ष के कर एकत्र करने से सम्बन्धित आंकडे देख लीजिये। स्मरण रहे कि व्यक्तिगत आय कर के अतिरिक्त वसूल किये जाने वाले सभी कर अन्तत: ग्राहक को ही अपनी जेब से चुकाने पड़ते हैं।

सरकारों का प्रयास हमेशा कर की आय बढ़ाने का रहता है। कभी किसी तो कभी किसी बहाने से, परन्तु चिन्ता की बात यह है कि कर का सबसे अधिक बोझ ग्राहकों के उसी वर्ग पर डाला जाता है, जिसे इस बोझ से सबसे अधिक संरक्षण देने की जरूरत होती है। ग्राहक, कर के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण बात जान लें कि जिन वस्तुओं का ऊला ढाल अधिक होता है। उन पर लगने वाले कम कर के कम प्रतिशत से भी राजस्व का बहुत बड़ा हिस्सा आता हैं। परन्तु यह गरीब वर्ग पर ही सर्वाधिक बोझ डालता है। सरकार कर ढ़ांचे में जब भी कोई बदलाव लाती है, उसका मूल लक्ष्य कर से आने वाले राजस्व को बढ़ाना होता है। यद्यपि यह बदलाव गरीब ग्राहकों को राहत देने के नाम पर लाये जाते हैं, परन्तु हर बार उन पर ही अतिरिक्त बोझ लाद दिया जाता है। इसी अनुभव के कारण जब पूरा देश GST पर कशीदे पढ़ने में व्यस्त था। ग्राहक पंचायत स्थिति का अवलोकन कर रही थी, उसे मालूम था जो कुछ भी कहा जा रहा है, वास्तविक स्थिति उससे बहुत अधिक भिन्न होगी। अब इसी बात को ले लीजिये, समान 18% कर की बात चल रही थी, पहली बैठक जो पूरी सफल भीा नहीं रही, उसमे कर के चार स्तरों 6%, 12%, 18% तथा 26% की बात की जाने लगी। सरकार के मुख्य दावे कि पूरे देश में किसी भी वस्तु के कर की एक दर होने के कारण, एक जैसी कीमत होगी, भी खटाई मे जाती नजर आ रही है। क्योंकि GST लागू होने पर बाकी सभी कर समाप्त  करने की बात कहने वालों के सुर अभी से बदलने लगे हैं। अभी भी सही वक्त नहीं आया है GST पर टिप्पणी करने का, स्थिति थोड़ी स्पष्ट होने दीजिये। फिर भी हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि GST लागू होने पर उसके वह प्रभाव आपको दूर दूर तक ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगे, जिनके ढोल इसे प्रचारित करने के लिये पीटे गये जैसे GST लागू होने पर ग्राहकों को वस्तुयें सस्ती मिलने लगेंगी। समर्थन लेने के लिये जिन्हे लालच दिया गया, उन्हे तो चर्चा में दूर दूर तक भी जगह नहीं दी जा रही है। सरकार बिना विलम्ब ग्राहक क्षेत्र में कार्य करने वाले जन संगठनों को भी चर्चा के लिये आमन्त्रित करे।

वर्तमान सरकार दीनदयाल उपाध्याय के आदर्शों को लेकर चल रही है। दीनदयाल जी का यह शताब्दी वर्ष चल रहा है। अत: सरकार को पंक्ति के अन्तिम सिरे पर बैठे व्यक्ति का विचार करना चाहिये। यह विचार अनुदान के माध्यम से करना बेमानी है। यह सही स्वरूप में कर सुधार के माध्यम से ही लागू हो सकता है। अत: सरकारों को टैक्स सुधार के उन अध्यायों को फिर से खोलने की आवश्यकता है। जिनमें अमीरों पर अधिक कर तथा गरीबों पर कम कर लगाने की बात कही गई है। आज विश्व के अनेको अर्थशशास्त्री इस बात पर पुनः जोर देने लगे हैं। विश्व की बढ़ती आर्थिक असमानता की स्थिति. में सरकारों द्वारा यह मार्ग अपनाने की आवश्यकता है। यह मार्ग अप्रत्यक्ष कर (Indirect Tax) की गली से होकर निश्चित रूप से नहीं गुजरता।

Thursday, 15 September 2016

कब तक दाना मांझी बहरीन के शाह या कैमरे के लैन्सों की बाट जोहेंगे

सामाजिकता कितनी उथली होती जा रही है। हमारा सामाजिक सरोकार कितना सीमित होता जा रहा है। यह असंवेदनशीलता की पराकाष्ठ नहीं तो क्या है। आज भी देश में कितने दाना मांझी व्यवस्था, गरीबी, तिरस्कार तथा असंवेदनशीलता की लाश अपने कन्धों पर उठाये घूम रहे होंगे, इस इन्तजार में कि कोई कैमरा उनके जीवन के इन मर्मस्पर्शी क्षणों को पकड़े और एक रोमांचक कहानी के रूप मे देश के सामने ले आये। बाजारवाद ने हमारे रहन सहन के साथ साथ हमारा नजरिया भी बदल दिया है। जीवन की संवेदनाओं, मार्मिकताओं, आर्थिक विषमताओं से भरी समसयाओं का निदान हमनें चयनित स्वरूप में कुछ रूपये फेंकने मे तलाश लिया है। किसी भी कोण द्रष्टिकोण से देखें, क्या यह इस समस्या का अंशमात्र भी निदान है।

Oxfem का सर्वेक्षण कहता है, दुनिया के आधे लोगों के बराबर सम्पत्ति विश्व के मात्र 66 लोगों के पास है। देश के 10% सबसे धनी लोग देश की 74% सम्पत्ति पर कब्जा जमाये बैठे हैं। सरकारें कभी यह टैक्स तो कभी वह टैक्स का खेल खेल कर, ग्राहकों के बहुमत को उम्मीदों का झुनझुना थमा रही हैं। बेचारा ग्राहक न्यूनतम जीवनावश्यक वस्तुओं तक अपने हाथों की पँहुच बनाने के लिये, अपने इतने से स्वप्न के साकार होने की उम्मीद मे, अन्तहीन प्रतीक्षा मे अटका हुआ है। विश्व मे समाज के बीच आर्थिक अन्तर की खाई, निरन्तर अपनी गहराई बढाने मे द्रुतगति से व्यस्त है। सन्तोष हो सकता था, यदि ग्राहकों के बहुमत की जद मे न्यूनतम जीवनावश्यक आवश्यकताओं की आपूर्ति होती, परन्तु वह तो कल भी उनकी पंहुच से बहुत दूर थी और आज भी उनके लिये मृग मारीचिका ही है।

हमारे पुरखे आर्थिक विषमता के इस विष से तबाह हो चुके हैं। हमारी स्थिति तो उनसे कहीं बदतर है और हमारी आने वाली नस्लें अपने माथे पर कुछ इसी तरह की इबारत लिखवाकर ही पैदा हो रही हैं। क्या हमारी पीढ़ियां यह आर्थिक अभावों से लबरेज जीवन जीने के लिये अभिशप्त हैं या फिर स्थितियों मे बदलाव सम्भव है। यह बदलाव क्या गाहे बगाहे दोचार प्रचारित लोगों को चन्द सिक्के फेंक कर प्राप्त करना संभव है। दाना मांझी की वास्तविक जख्म "आज मेरे पास पैसा आ रहा है, कल इसके अभाव में मेरी पत्नी मरते समय अपनी तीन बेटियों में से सिर्फ दो को ही देख पाई, क्योंकि मै उन्हे घर पर छोड़ बड़ी बेटी के साथ पत्नी का इलाज कराने शहर आया था, तेरह किलोमीटर तक उसके शव को उठाकर पैदल चला" पैसों की यह चादर ढ़क पायेगी।

क्या देश मे अब कोई दाना मांझी नहीं होगा या यह सब कुछ समय का मात्र भावनात्मक खेल है। इससे नहीं चलने वाला है। गरीब, इन्सान और लुप्त होती मानवता के लिये हमें इस जैसी समस्याओं की बुनियाद को टटोलना होगा, उसे बदलना होगा।

वह कौन सी व्यवस्थायें हैं, जिन्होने इस क्रम को इतना मंहगा बना दिया कि दाना मांझी अपनी पत्नी को ईलाज के लिये शहर के सरकारी अस्पताल अपनी तीनो बेटियों के साथ ले जा सके। उसकी मृत्यु होने पर उसका शव अपने गांव घर लाकर उसका संस्कार कर सके। यह सब दिनचर्यायें इतनी मंहगी बनाकर इन्हे दाना मांझियों की पंहुच से दूर करने का जिम्मेदार कौन है, यह समाज, सरकार या अर्थव्यवस्था। आखिरकार यह विलासिता की क्रियायें तो नहीं, जीवन की अनिवार्य क्रियायें हैं, जिन तक दाना मांझियों की पंहुच बननी चाहिये।

किसी की भी सहज प्रतिक्रिया होगी। दाना मांझियों को इन क्रियाओं को सहज रूप से पूरा करने के लिये, अपेक्षित धन कमाना चाहिये, कौन उसको यह धन कमाने के अवसर देगा और यदि उसे धन कमाने के अवसर न दिये गये तो फिर उसकी व्यवस्था क्या होगी, वर्तमान जैसी ? या वह और उसके जैसे लोग जीना ही छोड़ दें। असंख्य प्रश्न हैं जिनके उत्तर समाज, सरकार तथा अर्थव्यवस्था को देने हैं। पं दीनदयाल उपाध्याय भी इन्ही प्रश्नों के उत्तर ढूंढने की बात अपने एकात्म अर्थचिन्तन मे किया करते थे।

सामाजिक संवेदना आज कितनी भी क्षीण हो चुकी हो, पर मरी नहीं है। यह चेतना पूरे विश्व में कभी न कभी किसी न किसी रूप में प्रस्फुटित होती रही है, होती रहेगी। नहीं तो कई हजार मील दूर बैठे बहरीन के शाह को यह न करना पड़ता। परन्तु आज आवश्यकता इन आर्थिक प्रश्नों के स्थायी हल प्राप्त करने की है। कब तक दाना मांझी बहरीन के शाह या कैमरे के लैन्सों की बाट जोहेंगे, वह भी सब कुछ लुटने के बाद।

Friday, 9 September 2016

रेल किराये में दाम बढ़ाने वाली नीति का क्या औचित्य

शुक्रवार का दिन देश में फिल्म उद्योग के नाम है। लगभग सभी नई फिल्में इसी दिन सिनेमाघरों में दर्शकों के लिये लगाई जाती हैं। आप इतिहास जांच लीजिये, यह दिन इसी काम के नाम है। हमारे कर्मठ रेल मन्त्री सुरेश प्रभु जी शुक्रवार के दिन पर इस एकाधिकार से खुश नहीं हैं। अतः उन्होने 9 सितम्बर शुक्रवार को रेल किराये में एक नई तेजी से किराया बढ़ने वाली नीति का आगाज किया है। अब रेल यात्री भी शेयर बाजार में लगे सटोरियों की तरह पल क्षण किराये की तख्ती निहारता, यह चढ़ा - वह बढ़ा चिल्लाया करेगा। दोनों ही भाग्यवादी होंगे, परन्तु रेल यात्री और सटोरिये के भाग्य में इतना अन्तर अवश्य होगा कि सटोरिये को कभी कभी दाम लुढ़कने की उम्मीद तो रहेगी और दाम लुढ़केंगे भी, पर रेल यात्री बुखार नापने वाले थर्मामीटर की तरह सिर्फ पारे को चढ़ते हुये ही देखेगा। तापमान कितना भी कम हो जाये उसका उससे कोई सरोकार नहीं रहेगा। रेल मन्त्रालय द्वारा फिलहाल तीन ट्रेनों राजधानी, दूरन्तो व शताब्दी के यात्री किरायों को तय करने के लिये कुछ इसी तरह की दाम तेजी से बढ़ने वाली (Surge Pricing Policy) अपनाई जा रही है।

दाम तेजी से बढ़ने वाली इस Surge Pricing को Dynamic Pricing सक्रिय मूल्यनीति भी कहा जाता है। इसमें वस्तु की मांग बढ़ने के साथ उसके दाम भी बढ़ते जाते हैं। सरल उदाहरण से इस बात को समझते हैं। श्रीनगर में कर्फ्यू लगा है, इन स्थितियों में दूध की मांग तो है, परन्तु आपूर्ति नहीं है। अतः 40 रूपये लीटर बिकने वाला दूध, दूधवाला पहले 60 फिर 80 उसके बाद 100 और फिर अधिक और अधिक दामों पर बेच रहा है, जैसे जैसे कर्फ्यू की मियाद बढ़ती जायेगी, दूध के दाम भी बढ़ते जायेंगे। मै यह उदाहरण देना नहीं चाहता था, परन्तु ग्राहकों को समझाने के लिये इससे सरल कोई दूसरा उदाहरण मेरे पास नहीं था। रेल सरकार ने टिकट के दामों के बढ़ने के मामलेे में उच्चतम सीमा निर्धारित कर, मिर्च का धुआं उड़ाकर, आंसू पोछने के लिये रूमाल जरूर थमाया है कि किराया अधिकतम डेढ़ गुना ही होगा।


साधारणतया इस प्रकार की मूल्य नीति उपभोग को हतोत्साहित करने के लिये की जाती है। लन्दन शहर में सड़कों पर  बहुत अधिक यातायात की समस्या थी। जिसके कारण वहां के जनजीवन की गुणवत्ता प्रभावित हो रही थी। अतः लन्दन की सड़कों पर यातायात को हतोत्साहित करने के लिये London Congestion charges नाम का शुल्क वर्ष 2003 से लगाया जाने लगा। अब जो भी लन्दन में अपना वाहन लेकर जायेगा, उसे निर्धारित शुल्क देना पड़ेगा। इस कदम से लन्दन की सड़कों पर यातायात 10% कम हो गया। परन्तु वहां भी इस बात का ध्यान रखा गया कि साधारण लोग इस शुल्क से प्रभावित न हों, अतः शनिवार, रविवार तथा त्योहारों को इस शुल्क से मुक्त रखा गया। हम नहीं जानते रेल मन्त्री के मन में भी यदि इसी तरह का कोई विचार हो।

इस मूल्य पद्धति का व्यवसायिक स्वरूप में कोई विशेष लाभ नहीं होता, सिवाय इस बात के कि इसमें व्यर्थ जाने वाली क्षमता का भी उपयोग हो जाता है या व्यक्ति विशेष को कुछ अतिरिक्त इनसेन्टिव मिल जाती है। अब रेल मन्त्री को इन ट्रेनों का उपयोग करने से लोगों को हतोत्साहित करना है या किसी को इन्सेन्टिव देना है यह तो वह जानें। अपने देश में यह मूल्य प्रणाली कुछ एअर लाईनों तथा रेडिओ टैक्सी सेवा में लागू है, लेकिन ओपन एन्डेड है, जिसका अर्थ है कि ग्राहक को सामान्य किराये से कम पर भी यात्रा करने का अवसर उपलब्ध हो जाता है। आप सुनते होंगे कि किसी को हवाई यात्रा का टिकट 1.5 या 2 हजार में ही मिल गया। टैक्सी सेवा में भी व्यस्त समय में सर्ज प्राइसिंग के कारण मांग अधिक होने के कारण किराया बढ़ता है, परन्तु जैसे जैसे दूसरे ड्राइवर भी आन लाईन होते जाते हैं, किराये में कमी आने लगती है। यानी किराया अधिक होने पर यदि ग्राहक ने थोड़ी देर इन्तजार कर लिया तो किराया कम होने की पूरी सम्भावना रहती है। मतलब यह कि गाड़ी दोनो दिशाओं में दौड़ती है। पर हमारे रेलमन्त्री तो गाड़ी एक ही दिशा में दौड़ा रहे हैं।

रेल विभाग के कार्यकलाप सेवाक्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं। सेवा उद्योग की मूल भावना ही इसके विपरीत है। पैसे वालों को मदद करना, उस गरीब व्यक्ति को इससे वंचित करना, जिसे इसकी जरूरत है। विशेष रूप से तब जब उसे चलाने वाली संस्था सरकारी हो, सरकार व्यक्ति विशेष या समूह विशेष में अन्तर नहीं कर सकती। आर्थिक आधार पर तो बिल्कुल नहीं। सभी नागरिकों को समान स्वरूप की सेवायें उपलब्ध करवाना उसका कर्तव्य है। उसके लिये आदर्श स्थित पहले आओ, पहले पाओ वाली ही है। हम मोदी सरकार से आदर्श स्थिति की अवहेलना की अपेक्षा नहीं कर सकते। अतएव तीन ट्रेनों में ही सही वर्तमान रेल यात्री किराया बढ़ने वाली प्रणाली को रद्द कर पूर्ववत व्यवस्था ही लागू की जाये।

Thursday, 8 September 2016

उत्पादन और खपत से परे भी बहुत कुछ है अर्थव्यवस्था में

प्रधानमंत्री मोदी का आई बी एन पत्रकार राहुल जोशी द्वारा देश की अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में साक्षात्कार तथा समाचार चैनलों पर जानकारों द्वारा उसकी चीरफाड़ मुख्य रूप से जो विषय खड़े करती है। उनमें देश की वर्तमान स्थिति पर विवाद हो सकता है, परन्तु अर्थशास्त्रियों का मानना है कि पहले की तुलना में यह पटरी पर आ रही है। सरकार समर्थक उदाहरण के लिये 7% जीडीपी का सहारा लेते हैं तो आलोचक 2014 आधार वर्ष किये जाने की बात कर, पुराने आधार पर इसे 5% के आसपास ही बताते हैं। देश में औद्योगिक उत्पादन के आँकड़े भी विशेष उत्साहवर्धक नहीं हैं। औद्योगिक उत्पादन की 70% क्षमता का ही उपयोग हो रहा है। महँगाई के अतिरिक्त देश की दूसरी बड़ी समस्या बेरोजगारी की है। जिसकी दर पिछले वर्ष 9 की तुलना में 10 पार कर गई है। यह स्थिति चिन्ताजनक है। यद्यपि चर्चा में मोदी सरकार द्वारा मुद्रा बैंक, स्किल इंडिया तथा स्टार्टअप योजनायें भी चर्चा में हैं, जिनके परिणाम अभी सामने आने हैं।


अर्थशशास्त्री जो अर्थव्यवस्था के विकास के लिये हर मर्ज की दवा जीडीपी मानते थे। अब कम से कम कहने लगे हैं कि जीडीपी बढ़ने से रोजगार नहीं बढ़ता, रोजगार में वृद्धि चाहिये तो खपत को बढ़ाना पड़ेगा, तभी औद्योगिक उत्पादन शतप्रतिशत होगा, एफडीआई निवेश के अवसर पैदा होंगे, नये उद्योग लगेंगे, जिससे रोजगार बढेगा। परन्तु यह सत्य. नहीं, यथार्थ से परे है। एड्म के अधिक से अधिक उत्पादन के सिद्धान्त को आर्थिक सम्पन्नता का आधार मानने वाले, अक्सर यह बात भूल जाते हैं कि इस सिद्धान्त में अन्य बहुत से अवयव तथा उनकी निर्धारित भूमिका अनिवार्य है, जिसके बिना यह समीकरण सही उत्तर खोजने में नाकाम ही सिद्ध होगी। लगभग पूरे विश्व में यही चल रहा है। अर्थशशास्त्री दबावों के चलते या फिर विशिष्ट प्रयोजन से पूरी बात नहीं बोलते, सही बात नहीं बोलते। अतएव विश्व में आर्थिक समीकरणें तो बहुत स्थापित की जाती हैं, परन्तु वह स्थितियों को सन्तुलित करने में नाकाम रहती है।

रोजगार वृद्धि के लिये अर्थशास्त्रियों के खपत बढ़ाने वाले सुझाव को ही ले लीजिये। खपत बढ़ने का सीधा सम्बन्ध ग्राहक की क्रय क्षमता पर निर्भर है। अतः पहले बात ग्राहक की क्रय क्षमता बढ़ाने की  जानी चाहिये, जिसके सम्बन्ध में कोई अर्थशशास्त्री बात नहीं करना चाहता। विश्व के अर्थशास्त्रियों में कभी ग्राहकों की स्थाई स्वरूप की क्रय क्षमता बढ़ाने के तरीकों पर विचार करते सुना है। जबकि अर्थव्यवस्था के स्वस्थ, विकसित होने का मजबूत, स्थाई आधार ही यह है। अस्थाई आधारों के बारे में जरूर सुना होगा, कि वस्तुयें किश्तों में उपलब्ध करा दो, बैंक से आसान शर्तों पर कर्ज दिलवा दो या फिर सातवां वेतन आयोग लागू कर कुछ लोगों के हाथों तक अतिरिक्त पैसा पंहुचा दो, ताकि यह अतिरिक्त पैसा बाजार में उत्पादनों की खपत बढ़ा सके, इस मांग के सहारे नये उद्योग लगा कर रोजगार पैदा किये जा सकें। सब तरफ इन्ही अस्थाई सममाधानों के सहारे गाड़ी खींचने का प्रयास हो रहा है, नतीजतन परिणाम वही ढाक के तीन पात? कल भी यही समस्या थी, आज भी है और कल भी रहने वाली है। यहां अधिक लिख पाना सम्भव नहीं, विषय पर विस्तारित चर्चा मैने अपनी पुस्तक "अर्थव्यवस्थाओं से बोझिल ग्राहक, ग्राहक अर्थनीति" नाम की अपनी पुस्तक में की है, जो प्रकाशन में है।

ग्राहक की क्रय क्षमता मुख्यरूप से तीन बातों से सर्वाधिक प्रभावित होती है -
1. रोजगार के सीमित व कम अवसर -
पहला व महत्वपूर्ण प्रश्न है, ग्राहक की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये, उसकी जेब में पैसा कहां से आयेगा। 
अ. उत्पादन कर उसकी बिक्री से
ब. धन, सम्पत्ति से प्राप्त किराये से
स. श्रम को बेचने से
यदि सरकारें इन तीनों व्यवस्थाओं से ग्राहक की जेब में उसकी आवश्यकतायें पूरी करने के लिये. जरूरी धन की व्यवस्था कर सकती हैं, तो ठीक अन्यथा किसी पर्यायी व्यवस्था का विचार करना होगा।

2. मुद्रास्फीति
सरल शब्दों में मुद्रास्फीति मंहगाई है। आप को आज कोई वस्तु जिन दामों मे बाजार में मिल रही है, कल उसके दाम बढ़ जाते हैं। रिजर्व बैंक अपनी मौद्रिक नीति की समीक्षा प्रत्येक तिमाही कर इसे नियन्त्रित करने का प्रयास करता है। अनुभव यह आया है कि रिजर्व बैंक जो भी सहूलियतें देता है, उसे बैंक तथा उद्योगपति हजम कर जाते हैं। ग्राहक को मरने के लिये छोड़ दिया जाता है। रिजर्व बैंक के नये गवर्नर उर्जित पटेल यह सुनिश्चित करें कि लाभ नीचे ग्राहक तक पंहुचे।

3. अवास्तविक मूल्य (Unrealistic Pricing)
यहां बहुत बड़ा गोलमाल है। इस पर ध्यान दिये बिना सर्वकल्याणकारी अर्थव्यवस्था की कल्पना ही बेमानी है।

इन तीनों ही क्षेत्रों में समुचित अवसर तलाश करने, उन्हें विकसित करने तथा गम्भीरता से लागू करने की आवश्यकता है। न तो यह आसान है, न ही दो चार वर्षों के अन्तराल मे पूरा होने वाला, परन्तु इस मार्ग का पर्याय नहीं।


उत्पादन और खपत से परे भी बहुत कुछ है अर्थव्यवस्था में

प्रधानमंत्री मोदी का आई बी एन पत्रकार राहुल जोशी द्वारा देश की अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में साक्षात्कार तथा समाचार चैनलों पर जानकारों द्वारा उसकी चीरफाड़ मुख्य रूप से जो विषय खड़े करती है। उनमें देश की वर्तमान स्थिति पर विवाद हो सकता है, परन्तु अर्थशास्त्रियों का मानना है कि पहले की तुलना में यह पटरी पर आ रही है। सरकार समर्थक उदाहरण के लिये 7% जीडीपी का सहारा लेते हैं तो आलोचक 2014 आधार वर्ष किये जाने की बात कर, पुराने आधार पर इसे 5% के आसपास ही बताते हैं। देश में औद्योगिक उत्पादन के आँकड़े भी विशेष उत्साहवर्धक नहीं हैं। औद्योगिक उत्पादन की 70% क्षमता का ही उपयोग हो रहा है। महँगाई के अतिरिक्त देश की दूसरी बड़ी समस्या बेरोजगारी की है। जिसकी दर पिछले वर्ष 9 की तुलना में 10 पार कर गई है। यह स्थिति चिन्ताजनक है। यद्यपि चर्चा में मोदी सरकार द्वारा मुद्रा बैंक, स्किल इंडिया तथा स्टार्टअप योजनायें भी चर्चा में हैं, जिनके परिणाम अभी सामने आने हैं।


अर्थशशास्त्री जो अर्थव्यवस्था के विकास के लिये हर मर्ज की दवा जीडीपी मानते थे। अब कम से कम कहने लगे हैं कि जीडीपी बढ़ने से रोजगार नहीं बढ़ता, रोजगार में वृद्धि चाहिये तो खपत को बढ़ाना पड़ेगा, तभी औद्योगिक उत्पादन शतप्रतिशत होगा, एफडीआई निवेश के अवसर पैदा होंगे, नये उद्योग लगेंगे, जिससे रोजगार बढेगा। परन्तु यह सत्य. नहीं, यथार्थ से परे है। एड्म के अधिक से अधिक उत्पादन के सिद्धान्त को आर्थिक सम्पन्नता का आधार मानने वाले, अक्सर यह बात भूल जाते हैं कि इस सिद्धान्त में अन्य बहुत से अवयव तथा उनकी निर्धारित भूमिका अनिवार्य है, जिसके बिना यह समीकरण सही उत्तर खोजने में नाकाम ही सिद्ध होगी। लगभग पूरे विश्व में यही चल रहा है। अर्थशशास्त्री दबावों के चलते या फिर विशिष्ट प्रयोजन से पूरी बात नहीं बोलते, सही बात नहीं बोलते। अतएव विश्व में आर्थिक समीकरणें तो बहुत स्थापित की जाती हैं, परन्तु वह स्थितियों को सन्तुलित करने में नाकाम रहती है।

रोजगार वृद्धि के लिये अर्थशास्त्रियों के खपत बढ़ाने वाले सुझाव को ही ले लीजिये। खपत बढ़ने का सीधा सम्बन्ध ग्राहक की क्रय क्षमता पर निर्भर है। अतः पहले बात ग्राहक की क्रय क्षमता बढ़ाने की  जानी चाहिये, जिसके सम्बन्ध में कोई अर्थशशास्त्री बात नहीं करना चाहता। विश्व के अर्थशास्त्रियों में कभी ग्राहकों की स्थाई स्वरूप की क्रय क्षमता बढ़ाने के तरीकों पर विचार करते सुना है। जबकि अर्थव्यवस्था के स्वस्थ, विकसित होने का मजबूत, स्थाई आधार ही यह है। अस्थाई आधारों के बारे में जरूर सुना होगा, कि वस्तुयें किश्तों में उपलब्ध करा दो, बैंक से आसान शर्तों पर कर्ज दिलवा दो या फिर सातवां वेतन आयोग लागू कर कुछ लोगों के हाथों तक अतिरिक्त पैसा पंहुचा दो, ताकि यह अतिरिक्त पैसा बाजार में उत्पादनों की खपत बढ़ा सके, इस मांग के सहारे नये उद्योग लगा कर रोजगार पैदा किये जा सकें। सब तरफ इन्ही अस्थाई सममाधानों के सहारे गाड़ी खींचने का प्रयास हो रहा है, नतीजतन परिणाम वही ढाक के तीन पात? कल भी यही समस्या थी, आज भी है और कल भी रहने वाली है। यहां अधिक लिख पाना सम्भव नहीं, विषय पर विस्तारित चर्चा मैने अपनी पुस्तक "अर्थव्यवस्थाओं से बोझिल ग्राहक, ग्राहक अर्थनीति" नाम की अपनी पुस्तक में की है, जो प्रकाशन में है।

ग्राहक की क्रय क्षमता मुख्यरूप से तीन बातों से सर्वाधिक प्रभावित होती है -
1. रोजगार के सीमित व कम अवसर -
पहला व महत्वपूर्ण प्रश्न है, ग्राहक की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये, उसकी जेब में पैसा कहां से आयेगा। 
अ. उत्पादन कर उसकी बिक्री से
ब. धन, सम्पत्ति से प्राप्त किराये से
स. श्रम को बेचने से
यदि सरकारें इन तीनों व्यवस्थाओं से ग्राहक की जेब में उसकी आवश्यकतायें पूरी करने के लिये. जरूरी धन की व्यवस्था कर सकती हैं, तो ठीक अन्यथा किसी पर्यायी व्यवस्था का विचार करना होगा।

2. मुद्रास्फीति
सरल शब्दों में मुद्रास्फीति मंहगाई है। आप को आज कोई वस्तु जिन दामों मे बाजार में मिल रही है, कल उसके दाम बढ़ जाते हैं। रिजर्व बैंक अपनी मौद्रिक नीति की समीक्षा प्रत्येक तिमाही कर इसे नियन्त्रित करने का प्रयास करता है। अनुभव यह आया है कि रिजर्व बैंक जो भी सहूलियतें देता है, उसे बैंक तथा उद्योगपति हजम कर जाते हैं। ग्राहक को मरने के लिये छोड़ दिया जाता है। रिजर्व बैंक के नये गवर्नर उर्जित पटेल यह सुनिश्चित करें कि लाभ नीचे ग्राहक तक पंहुचे।

3. अवास्तविक मूल्य (Unrealistic Pricing)
यहां बहुत बड़ा गोलमाल है। इस पर ध्यान दिये बिना सर्वकल्याणकारी अर्थव्यवस्था की कल्पना ही बेमानी है।

इन तीनों ही क्षेत्रों में समुचित अवसर तलाश करने, उन्हें विकसित करने तथा गम्भीरता से लागू करने की आवश्यकता है। न तो यह आसान है, न ही दो चार वर्षों के अन्तराल मे पूरा होने वाला, परन्तु इस मार्ग का पर्याय नहीं।


Thursday, 25 August 2016

गडकरी जी !! यह कैसा संशोधन

9 अगस्त 2016 को परिवहन मन्त्री नितिन गडकरी ने लोकसभा में मोटर वाहन बिल 2016 प्रस्तुत किया। सम्भवतः मोटर कानून बनने के बाद यह सबसे बड़ा संशोधन विधेयक है। जिसमें अनेकों नवीन धाराओं को जोड़ा गया है। कहा यह गया है कि देश में सडक पर बढती मौतों और बेलगाम मोटर वाहनों को नियन्त्रित करने के लिये यह संशोधन विधेयक लाया गया है। बात ठीक भी है, बढती वाहन संख्या, नई तकनीक, बेहतर सड़कें, बढ़ती स्पीड और बेलगाम मोटर चालकों पर लगाम कसने की जरूरत भी थी। परन्तु यह क्या, सिर्फ अधिक अर्थदंड देने से स्थितियां सुधर जायेंगी। मोटर वाहन व्यवस्था में क्या आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत नहीं थी। लोगों को बचपन से सड़क सम्बन्धित व्यवहार सिखाने से लेकर, लाईसेन्स, रजिस्ट्रेशन और पुलिस प्रक्रिया तक। मै नितिन गडकरी अध्यनशील व्यक्तित्व है, मै उनको व्यक्तिगत स्तर पर जानता हूं। अतः कुछ बातें पच नहीं रही।

सड़क पर वाहन सम्बन्धित अपराधों के दंड मे जबरदस्त बढोत्तरी की गई है। अब दंड 500रू से शुरू होकर 10,000रू तक होगा। अपराध के लिये दंड तो ठीक है, परन्तु देश के पुलिस प्रशासन की जो स्थिति है, उसमे अभी तो यह वसूली योजना ही अधिक लगती है जब तक दूसरे पक्ष की भी ओवरहालिंग न की जाये। नया नियमन लागू करने से पहले, इ्स स्थिति को स्पष्ट करना ग्राहकों और सरकार दोनो के हित मे होगा।

हिट एन्ड रन से सम्बन्धित संशोधन (धारा 161) स्वागत योग्य है, जिसमें मृत्यु की स्थिति में अनुदान 25000रू से बढ़ाकर 2 लाख तथा गम्भीर घायल अवस्था में 12500 रू से बढ़ाकर 500000 रू कर दिया गया है। इससे निश्चित तौर पर प्रभावितों को मदद मिलेगी।

मोटर कानून मे नेक आदमियों से सम्बन्धित नवीन धारा 134A जोड़ना भी सराहनीय कदम है। अब किसी को भी सड़क पर दुर्घटना मे घायल व्यक्ति की मदद कर उसे अस्पताल पंहुचाने से गुरेज नहीं होगा, क्योंकि ऐसे व्यक्ति पर किसी भी प्रकार की दीवानी या फौजदारी कार्यवाही नहीं की जा सकेगी।

गोल्डन आवर (महत्वपूर्ण समय) से सम्बन्धित नई धारा 12A भी स्वगत योग्य कदम है, जिसके लिये सरकार नियमन बाद मे करेगी। यह धारा दुर्घटना के बाद तुरन्त ईलाज के सम्बन्ध मे है, ताकि प्रभावित की जान बचाई जा सके। यह सच है कि दुर्घटना मे घायल की जान बचाने के लिये, पहला घंटा बहुत अधिक महत्वपूर्ण होता है। परन्तु फिर भी इसमें एक बड़ी कमी है, जो इस धारा के उद्देश्य को ही निरस्त कर देती है। गोल्डन आवर घायल होने के बाद से एक घंटे का समय माना गया है। दुर्घटना शहर मे भी किसी अस्पताल के पास हो सकती है, शहर से बाहर सुनसान स्थान पर भी, जहां से घायल को वाहन से निकालने, अन्य वाहन की व्यवस्था करने तथा अस्पताल पंहुचने मे अधिक समय लगना सम्भव है। अतः गोल्डन आवर का प्रारम्भ घायल का प्राथमिक उपचार शुरू करने से प्रारम्भ होना चाहिये। इस धारा मे संशोधन किया जाना चाहिये। प्राथमिक उपचार के लिये घायल को पर्याप्त समय मिलना चाहिये।

वाहन बीमा से सम्बन्धित धारा 164(1) मे संशोधन ग्राहकों पर बहुत बड़ा अन्याय है। इस संशोधन को निरस्त कर पहले की तरह ही रखा जाना चाहिये। इस तरह के संशोधन जब भी लाये जाते हैं शक का वातावरण पैदा करते हैं। बीमा कम्पनियां व्यापार ही नहीं कर रही हैं, बल्कि अच्छा खासा लाभ कमा रही हैं व अपना प्रीमियम रिस्क के आधार पर ही ग्राहकों से वसूल रही हैं, फिर ग्राहकों की कीमत पर उन्हे संरक्षण देने की क्या जरूरत आ पड़ी। ग्राहक और बीमा कम्पनियों के बीच सरकार क्यों आ रही है, वह भी बीमा कम्पनियों के पक्ष में। नये संशोधन के अनुसार दुर्घटना की स्थिति में बीमा कम्पनियां मृत्यु की स्थिति में अधिकतम 10 लाख तथा गम्भीर घायल अवस्था में 5 लाख रुपये ही क्षतिपूर्ति देंगी। यदि क्षतिपूर्ति की रकम अधिक निर्धारित होती है तो वाहन के मालिक को शेष रकम का भुगतान करना होगा। इस धारा के बाद वाहन बीमा का क्या अर्थ रह जायेगा। बीमा कम्पनियां मलाई काटेंगी। मृत्यु या गम्भीर चोट की स्थिति मे इस सीमित रकम का क्या अर्थ है। कानून मे इस संशोधन का विरोध होना चाहिये। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत परिवहन मन्त्री व सरकार से मांग करती है कि इस संशोधन को निरस्त कर पूर्ववत किया जाये, जिसके अनुसार दुर्घटना की स्थिति मे बीमा कम्पनियों पर ही पूरे भुगतान की जिम्मेदारी है।

Monday, 25 July 2016

सिद्धू प्रकरण की जड़ों मे अकाली राजनीति

नवजोत सिंह सिद्धू का राज्यसभा की सदस्यता से जिस दिन स्तीफा आया था, उसी दिन से इसके बारे मे तरह तरह के कयास लगाये जा रहे थे। उनके भाजपा से अलग होने के सम्बन्ध मे कुछ इशारा उनकी विधायक पत्नी ने दिया तो था, परन्तु वह लोगों को स्पष्ट कयास लगाने के लिये पर्याप्त नहीं था। आज सिद्धू ने इस सम्बन्ध मे पत्रकार वार्ता मे कुछ बताया, कुछ नहीं बताया। भाजपा मे अपने को दरकिनार करने और पंजाब से अलग रहने की शर्त पर राज्य सभा की सदस्यता दिये जाने के मामले का उल्लेेख  सतही तौर पर शायद सही घटनाक्रम को उघेडने मे सफल न रहा हो, परन्तु यह उन लोगों को इशारा दे गया जो पंजाब की राजनीतिक गतिविधियों पर लम्बे समय से पैनी नजर रख रहे हैं। पंजाब मे भाजपा के प्रभावी चेहरों पर नजर डालें तो किसी को भी अटपटा लगेगा कि अपने जबरदस्त प्रभावी चेहरे को कोई राजनीतिक दल कैसे किनारे लगा सकता है। परन्तु राजनीति मे हाजमा बहुत दुरूस्त रखना पड़ता है। कभी दो कदम आगे तो कभी चार कदम पीछे हटना पड़ता है। सिद्धू प्रकरण भी भाजपा की चार कदम पीछे हटने की मजबूरी है, जिसके लि्ये शायद सिद्धू को मानसिक रूप से तैयार नहीं किया जा सका या फिर सिद्धू ने उस स्थिति को अपनाने से इन्कार कर दिया जो संगठन के हितचिन्तक कार्यकर्ता अपनाकर खुद को गुमनामी के अन्धेरे मे धकेलने के लिये तैयार हो जाते हैं।

वस्तुस्थिति जानने के लिये पंजाब, वहां की राजनीति, विभिन्न राजनीतिक दलों की स्थितियों का विश्लेषण जरूरी है। पंजाब मे मुख्य राजनीतिक पैठ दो दलों की है, कांग्रेस और अकाली। दोनो की पकड़ इतनी मजबूत है कि बसपा के जनक कांशीराम पंजाब के होने के बावजूद वहां पैर तक न जमा सके। राष्ट्रीय दल के रूप मे आगे बढ़ती भाजपा के लिये जरूरी था कि वह उन तमाम प्रदेशों मे क्षेत्रीय दलों के सहयोग से अपने पैर जमाये। देश के अनेको प्रान्तों मे भाजपा की यह यात्रायें और उसके परिणाम सामने हैं। पंजाब मे भाजपा ने अपने पैर जमाने के लिये अकाली दल का हाथ थामा। अकाली भी कांग्रेस को टक्कर देने के लिये सहारे की तलाश मे थे, अत: उन्होने भाजपा का हाथ पकड़ लिया। परन्तु अकाली भाजपा के साथ चलते हुये इस बारे मे अत्यधिक सचेत हैं कि भाजपा की पंजाब मे तााकत निर्धारित सीमा से आगे न बढ़े। वह बराबर आशंकित था कि भाजपा पंजाब मे कहीं इतनी ताकतवर न हो जाये कि उसे ढकेलकर आगे बढ़ जाये। अतः अकाली भाजपा की आन्तरिक गतिविधियों पर भी पूरी नजर रखते हैं और उन्हे अपने अनुरूप ढालने के लिये भाजपा की आन्तरिक गतिविधियों मे भी हस्तक्षेप करते रहते हैं। अकाली इस विषय मे कितने सेंसिटिव हैं, इस बात का अन्दाज इसी से लग जाता है कि आर एस एस का सिखों के बीच कार्य करने वाला एक संगठन सिख संगत है। सिख संगत ने पंजाब मे भी और बाहर भी सिखों के बीच बहुत काम किया है। पंजाब मे सिख संगत का काम जैसे ही बढ़ा, सिख संगत के कार्यकर्ता गांव तक पंहुचने लगे, अकालियों ने विवाद खड़े करने शुरू कर दिये। अकालियों के लिये तब तक तो ठीक है, जब तक भाजपा को पंजाब मे दमदार नेता न मिले। भाजपा को दमदार नेता मिलते ही उसका हाजमा हिलने लगता है। सिद्धू के रूप मे भाजपा को पंजाब  मे दमदार लीडर मिला, जिसके सहारे पंजाब मे भाजपा अपने दम पर गाड़ी खींचने की हिम्मत दिखा सकती थी। यही स्थिति अकालियों को मंजूर नहीं थी।

भाजपा मे सिद्धू प्रकरण की मुख्य शुरूवात 2014 लोकसभा चुनाव से हुई। पूरे देश मे मोदी लहर चल रही थी, एनडीए के बहुमत मे आने के पूरे आसार थे। भाजपा अपने सहयोगियों के साथ फूंक फूंक कर कदम रख रही थी। किसी भी तरह का जोखिम लेने को तैयार नहीं थी। यहां तक कि उसने उ.प्र. और बिहार मे कई ऐसे दलों के साथ भी उन शर्तों पर समझौते किये, जिन पर सामान्य परिस्थितियों मे शायद वह कभी तैयार न होती। यही अवसर अकालियों को आपरेशन सिद्धू के लिये सबसे उपयुक्त लगा। समझौते के दबाव मे आपरेशन हो गया, सिद्धू जो पंजाब मे भाजपा के प्रचार की मुख्य धुरी होता, प्रचार से ही बाहर था। पार्टी और सिद्धू के बीच खटास पड़ चुकी थी, यही अकाली चाहते थे। केन्द्र मे सरकार बनने के बाद भाजपा डेमेज कन्ट्रोल मे लगी, सिद्धू को मनाने के प्रयास हुये और समझौता हो भी गया, सिद्धू को राज्यसभा मे भेजकर सांसद की कमी पूरी की गई। परन्तु अकालियों को सिद्धू मंजूर नहीं था जो आगे चलकर उनके लिये चुनौती बन सके। राज्यसभा मे सिद्धू को पंजाब से भेजने के लिये अकालियों के समर्थन की भी जरूरत रही और फिर बने खेल को बिगाड़ने का काम शुरू हो गया, नतीजा सामने है।